सन्त दादू दयाल
सोलहवीं शताब्दी के संत दादू दयाल, अकबर के शासनकाल में राजस्थान में रहते थे। वे जन्म से मुसलमान और पेशे से धुनिया थे । ‘दयाल’ शब्द उनके नाम के साथ इसलिए जुड़ गया क्योंकि वे सभी से दयालुता और प्रेम से पेश आते थे, भले ही कोई उन्हें गाली भी देता हो। उनकी रचनाएँ हमें उपदेश देती हैं कि मनुष्य-शरीर मुक्ति का द्वार है, परंतु हमारा अहम् या हौंमैं प्रभुप्राप्ति के मार्ग में बाधक है। वे हमें संदेश देती हैं कि हमारे मन को भजन-सुमिरन के द्वारा क़ाबू में किया जा सकता है; और भजन-सुमिरन के आंतरिक अभ्यास की गुप्त युक्ति केवल किसी पूर्ण गुरु से ही सीखी जा सकती है। दादू साहिब की लंबी कविताओं को पढ़ने से हमें पता चलता है कि किस प्रकार उन्होंने सुंदर उपमाओं के माध्यम से हमारा ध्यान इस विडंबना की ओर आकृष्ट किया है कि हम संसार में आवश्यकता से अधिक उलझे हुए हैं, जबकि मौत तेज़ी से हमारी ओर बढ़ रही है और ऐसे समय में केवल प्रभुप्रेम ही हमारी सँभाल कर सकता है।
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- भूमिका
- लेखक की ओर से
- सन्त दादू दयाल का जीवन
- सन्त दादू दयाल का उपदेश
- मानव जीवन का उद्देश्य
- परमात्मा हमारे अंदर है
- जीवित गुरु की आवश्यकता
- सत्संग का महत्त्व
- नाम-भक्ति
- सच्चा प्रेम
- मन
- कर्म
- मांस-मदिरा आदि का निषेध
- कर्मकाण्ड का खण्डन
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सोलहवीं शताब्दी के संत दादू दयाल, अकबर के शासनकाल में राजस्थान में रहते थे। वे जन्म से मुसलमान और पेशे से धुनिया थे । ‘दयाल’ शब्द उनके नाम के साथ इसलिए जुड़ गया क्योंकि वे सभी से दयालुता और प्रेम से पेश आते थे, भले ही कोई उन्हें गाली भी देता हो। उनकी रचनाएँ हमें उपदेश देती हैं कि मनुष्य-शरीर मुक्ति का द्वार है, परंतु हमारा अहम् या हौंमैं प्रभुप्राप्ति के मार्ग में बाधक है। वे हमें संदेश देती हैं कि हमारे मन को भजन-सुमिरन के द्वारा क़ाबू में किया जा सकता है; और भजन-सुमिरन के आंतरिक अभ्यास की गुप्त युक्ति केवल किसी पूर्ण गुरु से ही सीखी जा सकती है। दादू साहिब की लंबी कविताओं को पढ़ने से हमें पता चलता है कि किस प्रकार उन्होंने सुंदर उपमाओं के माध्यम से हमारा ध्यान इस विडंबना की ओर आकृष्ट किया है कि हम संसार में आवश्यकता से अधिक उलझे हुए हैं, जबकि मौत तेज़ी से हमारी ओर बढ़ रही है और ऐसे समय में केवल प्रभुप्रेम ही हमारी सँभाल कर सकता है।
लेखक: काशीनाथ उपाध्याय