सतगुरु द्वारा फ़रमाए गए सत्संग – ऑडियो – राधास्वामी सत्संग ब्यास

संत-सत्गुरुओं द्वारा फ़रमाए गए सत्संग – ऑडियो

राधास्वामी सत्संग ब्यास के ट्यूब चैनल पर भी उपलब्ध हैं।

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‘करो री कोई सत्संग आज बनाय’ महाराज जी का अपनी ज़ुबान में फ़रमाया पहला हिंदी सत्संग है। इस सत्संग के अलावा बाक़ी सभी सत्संग महाराज चरन सिंह जी के पंजाबी में फ़रमाए सत्संगों का हिंदी अनुवाद हैं।

सत्संगों के ज़रिए हम रूहानियत से वाकिफ़ संत-महात्माओं से जुड़ते हैं, और वे अपना ज्ञान हमसे साँझा करते हैं। सत्संग का मतलब है ‘सत्‌ का संग’। वे संत-सतगुरु जिनके सत्संग यहाँ दिए गए हैं, हमें प्रेरित करते हैं कि इन सत्संगों की सच्चाई का अनुभव करने के लिए हमें ख़ुद अंतर में रूहानी मार्ग पर चलना होगा।

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महाराज चरन सिंह जी 1951 में राधास्वामी सत्संग ब्यास के संत-सतगुरु के रूप में गद्दीनशीं हुए; उससे पहले वह वकालत किया करते थे। वह कहा करते थे कि उनके लहज़े में वकालत की ट्रेनिंग की झलक दिखाई देती है। महाराज जी सत्संग की शुरुआत धीमी गति से करते थे। बिना किसी काग़ज़-कॉपी के वे अपने सत्संगों में सिक्ख ग्रंथों और भारत के अन्य संत-महात्माओं की बाणियों से हवाला दिया करते थे। वे हमेशा अपनी संगत को याद दिलाते कि सभी संत-महात्मा, सतगुरु एक ही सत्य का उपदेश देते हैं। जैसे-जैसे सत्संग आगे बढ़ता, महाराज जी के सत्संगों में रवानगी आने लगती। परमात्मा से अंतर में मिलाप के अपने रूहानी उपदेश के इर्दगिर्द, महाराज जी एक ज़बरदस्त ताना-बाना बुन देते जो बड़ा तर्कपूर्ण और भावपूर्ण होता था। उनके सत्संगों की अवधि 1-2 घंटे की होती थी। महाराज जी भारतीय परंपरा के अनुसार सत्संग फ़रमाया करते थे जिसमें पहले बाणी की एक-एक तुक गाई जाती थी और आप हर तुक की व्याख्या करते थे।

महाराज जी अपने हर सत्संग की शुरुआत यह कहते हुए किया करते थे कि सभी संतों के उपदेश के मूल में एक ही रूहानी हक़ीक़त मौजूद है। उनके सत्संगों का आधार उन्नीसवीं शताब्दी में आगरा में हुए स्वामी जी महाराज की बाणियाँ और सोलहवीं शताब्दी में पंजाब में हुए गुरु अमरदास जी की बाणियाँ थीं। महाराज जी अपने संदेश को समझाने के लिए कई और संतों की बाणियों का भी हवाला दिया करते थे ताकि उनका सर्वसाँझा संदेश आसानी से समझ आ सके।


अनुवाद

सत्संगों के ज़रिए हम रूहानियत से वाकिफ़ संत-महात्माओं से जुड़ते हैं, और वे अपना ज्ञान हमसे साँझा करते हैं। सत्संग का मतलब है ‘सत्‌ का संग’। वे संत-सतगुरु जिनके सत्संग यहाँ दिए गए हैं, हमें प्रेरित करते हैं कि इन सत्संगों की सच्चाई का अनुभव करने के लिए हमें ख़ुद अंतर में रूहानी मार्ग पर चलना होगा।

महाराज जगत सिंह जी सन्‌ 1948 से 1951 के दौरान डेरा बाबा जैमल सिंह ब्यास (पंजाब) के संत-सतगुरु रहे। उन्हें सभी आदर से ‘सरदार बहादुर जी’ कहा करते थे। आपको महाराज सावन सिंह जी से नामदान मिला था। आम तौर पर सरदार बहादुर जी अपने सत्संगों में बाणी को खोलते हुए कड़ी-दर-कड़ी व्याख्या करते थे; कभी-कभी वे बाणी की अगली तुकों की ओर भी इशारा करते, जिससे पता चल जाता था कि पाठी आगे क्या पढ़ने वाला है। वे अपने सत्संगों में अंतर तक झकझोर देने वाले सवाल किया करते थे। इन सत्संगों में आपके लहज़े की गूँज दिखाई देती है, साथ ही सरदार बहादुर जी का एक पहलू दिखाई देता है: थोड़े लफ़्ज़ों में, जोशीले और प्रभावशाली ढंग से, बोलचाल की भाषा में दिलचस्प सत्संग।

अनुवाद

सत्संगों के ज़रिए हम रूहानियत से वाकिफ़ संत-महात्माओं से जुड़ते हैं, और वे अपना ज्ञान हमसे साँझा करते हैं। सत्संग का मतलब है ‘सत्‌ का संग’। वे संत-सतगुरु जिनके सत्संग यहाँ दिए गए हैं, हमें प्रेरित करते हैं कि इन सत्संगों की सच्चाई का अनुभव करने के लिए हमें ख़ुद अंतर में रूहानी मार्ग पर चलना होगा।

महाराज सावन सिंह जी को संगत प्यार से ‘बड़े महाराज जी’ कहा करती थी। आप मिलिटरी में इंजीनियर थे, और फ़ारसी के विद्वान भी। बड़े महाराज जी बाबा जैमल सिंह जी के शिष्य थे, जिन्होंने राधास्वामी सत्संग ब्यास की स्थापना की थी। बाबा जैमल सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के बाद महाराज सावन सिंह जी सन्‌ 1903 से लेकर 1948 तक डेरा बाबा जैमल सिंह के संत-सतगुरु रहे। बड़े महाराज जी अपने सत्संगों में ही नहीं बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में थोड़े लफ़्ज़ों में प्रभावशाली तरीक़े से बात करने के लिए जाने जाते थे। बड़े महाराज जी के सत्संग हाज़िरजवाबी और हँसी-मज़ाक से भरपूर होते थे। रूहानी संदेश से भरी मनोरंजक साखियों द्वारा वह सत्संग को दिलचस्प बना देते थे।

अनुवाद

बड़े महाराज जी के लंबे सत्संगों में से 20 सत्संगों को छोटा करके 30 मिनट का बनाया गया है , ताकि ये सत्संग अलग-अलग देशों में निर्धारित सत्संग अवधि के अनुसार हों।

सत्संगों के ज़रिए हम रूहानियत से वाकिफ़ संत-महात्माओं से जुड़ते हैं, और वे अपना ज्ञान हमसे साँझा करते हैं। सत्संग का मतलब है ‘सत्‌ का संग’। वे संत-सतगुरु जिनके सत्संग यहाँ दिए गए हैं, हमें प्रेरित करते हैं कि इन सत्संगों की सच्चाई का अनुभव करने के लिए हमें ख़ुद अंतर में रूहानी मार्ग पर चलना होगा।

महाराज सावन सिंह जी को संगत प्यार से ‘बड़े महाराज जी’ कहा करती थी। आप मिलिटरी में इंजीनियर थे, और फ़ारसी के विद्वान भी। बड़े महाराज जी बाबा जैमल सिंह जी के शिष्य थे, जिन्होंने राधास्वामी सत्संग ब्यास की स्थापना की थी। बाबा जैमल सिंह जी के ज्योति-जोत समाने के बाद महाराज सावन सिंह जी सन्‌ 1903 से लेकर 1948 तक डेरा बाबा जैमल सिंह के संत-सतगुरु रहे। बड़े महाराज जी अपने सत्संगों में ही नहीं बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में थोड़े लफ़्ज़ों में प्रभावशाली तरीक़े से बात करने के लिए जाने जाते थे। बड़े महाराज जी के सत्संग हाज़िरजवाबी और हँसी-मज़ाक से भरपूर होते थे। रूहानी संदेश से भरी मनोरंजक साखियों द्वारा वह सत्संग को दिलचस्प बना देते थे।

संक्षिप्त अनुवाद

ये महाराज चरन सिंह जी के अपनी ज़ुबान में पंजाबी में फ़रमाए सत्संग हैं। सत्संगों के ज़रिए हम रूहानियत से वाकिफ़ संत-महात्माओं से जुड़ते हैं, और वे अपना ज्ञान हमसे साँझा करते हैं। सत्संग का मतलब है ‘सत्‌ का संग’। वे संत-सतगुरु जिनके सत्संग यहाँ दिए गए हैं, हमें प्रेरित करते हैं कि इन सत्संगों की सच्चाई का अनुभव करने के लिए हमें ख़ुद अंतर में रूहानी मार्ग पर चलना होगा।

और देखें

महाराज चरन सिंह जी 1951 में राधास्वामी सत्संग ब्यास के संत-सतगुरु के रूप में गद्दीनशीं हुए; उससे पहले वह वकालत किया करते थे। वह कहा करते थे कि उनके लहज़े में वकालत की ट्रेनिंग की झलक दिखाई देती है। महाराज जी सत्संग की शुरुआत धीमी गति से करते थे। बिना किसी काग़ज़-कॉपी के वे अपने सत्संगों में सिक्ख ग्रंथों और भारत के अन्य संत-महात्माओं की बाणियों से हवाला दिया करते थे। वे हमेशा अपनी संगत को याद दिलाते कि सभी संत-महात्मा, सतगुरु एक ही सत्य का उपदेश देते हैं। जैसे-जैसे सत्संग आगे बढ़ता, महाराज जी के सत्संगों में रवानगी आने लगती। परमात्मा से अंतर में मिलाप के अपने रूहानी उपदेश के इर्दगिर्द, महाराज जी एक ज़बरदस्त ताना-बाना बुन देते जो बड़ा तर्कपूर्ण और भावपूर्ण होता था। उनके सत्संगों की अवधि 1-2 घंटे की होती थी। महाराज जी भारतीय परंपरा के अनुसार सत्संग फ़रमाया करते थे जिसमें पहले बाणी की एक-एक तुक गाई जाती थी और आप हर तुक की व्याख्या करते थे।

महाराज जी अपने हर सत्संग की शुरुआत यह कहते हुए किया करते थे कि सभी संतों के उपदेश के मूल में एक ही रूहानी हक़ीक़त मौजूद है। उनके सत्संगों का आधार उन्नीसवीं शताब्दी में आगरा में हुए स्वामी जी महाराज की बाणियाँ और सोलहवीं शताब्दी में पंजाब में हुए गुरु अमरदास जी की बाणियाँ थीं। महाराज जी अपने संदेश को समझाने के लिए कई और संतों की बाणियों का भी हवाला दिया करते थे ताकि उनका सर्वसाँझा संदेश आसानी से समझ आ सके।