नामदान – क्या हम तैयार हैं?
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रूहानियत का एहसास
जब हमें अंदर खालीपन का एहसास होने लगता है जिसे हम बता नहीं सकते;
जो चीज़ें हमें कभी ख़ुशी देती थीं वे हमें साधारण, ऊबाऊ और बेकार लगने लगती हैं;
जब हम बेचैन रहने लगते हैं और ऐसे सवाल करने लगते हैं, जिनके बारे में हम कुछ जानते नहीं थे;
जब हमें इस जिस्मानी ज़िंदगी से परे अपने अंदर कुछ खोजने की ज़रूरत महसूस होती है और यह ज़रूरत जनून बन जाती है;
जब हमारे अंदर कोई गाँठ खुलने के लिए तड़पती है;
जब हम समझ न आने वाले इस खालीपन को दूर करने के लिए कुछ खोजना शुरू कर देते हैं; यह वह पल है जब रूहानियत का एहसास होता है! ––
यही वह समय है जब हमें एक अजीब-सा एहसास होने लगता है जिसे शब्दों में बताना मुश्किल हो जाता है। हमें अपनी हस्ती का एक और पहलू नज़र आने लगता है जो हमारे लिए नया है। हमारे अंदर एक चिंगारी जलने लगती है। हम रूहानियत की खोज कर रहे हों या नहीं, लेकिन जाने-अनजाने हम उसी दिशा की ओर बढ़ने लगते हैं। अंतर की खोज हमारे अंदर एक भूख जाग्रत करती है और हमें रूहानियत के रास्ते की ओर खींचती है। अचानक रूहानियत की चाहत उठना, फिर ज़ोरदार कशिश – यही हमारी सत्य की खोज की शुरुआत है। हम किताबें पढ़कर या सत्संग सुनकर भी सीख सकते हैं, लेकिन ये चीज़ें हमें केवल बौद्धिक ज्ञान ही दे सकती हैं। हमें इससे कहीं अधिक चाहिए। हमें एक रहबर की, एक गुरु की ज़रूरत है क्योंकि कोई तो ऐसा होना चाहिए जो हमें राह दिखाए। इसलिए क़ुदरती तौर पर मन में सवाल उठता है: अब यहाँ से कहाँ जाएँ?
जिस तरह एक बीमार इनसान इलाज के लिए किसी डॉक्टर के पास जाता है और बीमारी दूर करने के लिए उसे दवा दी जाती है, उसी तरह हम गुरु के पास जाते हैं, जो भजन-सिमरन की दवा देकर मालिक से बिछोड़े की हमारी बीमारी का इलाज करते हैं।
ज़िंदगी में किसी भी चीज़ की खोज के लिए हम एक-एक करके क़दम उठाते हैं, जब तक हमें उसका कुछ अनुभव नहीं हो जाता। किसी भी चीज़ को जानने से ही उसकी समझ आती है; इससे हमारा विश्वास बनता है, ख़ुद को तसल्ली होती है। यही बात परमार्थ और गुरु पर लागू होती है। शुरू में डर लगता है क्योंकि इस बारे में हमें कोई समझ नहीं होती और यह सब हमें नया और अजीब-सा लगता है। हम और अधिक जानकारी हासिल तो करना चाहते हैं, फिर भी पहला क़दम उठाने के लिए तैयार नहीं होते। हमारे सवाल मालिक से मिलाप की हमारी चाहत तो ज़ाहिर करते हैं, फिर भी इस दिशा में आगे बढ़ना हमें मुश्किल लगता है। लेकिन एक बार जब हमें समझ आ जाती है कि दिल में उठी यह तड़प कैसे पूरी करनी है, हमारा डर धीरे-धीरे उतावलेपन में बदलने लगता है। यह एहसास हमें किसी ऐसे गुरु की खोज की प्रेरणा देता है जो हमें रास्ता दिखाए!
वह जो हमें मार्ग दिखाए
मैं मार्ग हूँ, सत्य हूँ और जीवन हूँ।
बिना मार्ग के आगे बढ़ना संभव नहीं है,
बिना सत्य के कोई ज्ञान नहीं है।
बिना जीवन के जीना संभव नहीं है।
मैं ही मार्ग हूँ जिस पर तुम्हें चलना होगा,
वह सत्य हूँ जिस पर तुम्हें विश्वास करना होगा,
वह जीवन हूँ जिसकी तुम्हें आशा करनी होगी।
थॉमस-ए केम्पिस, इमिटेशन ऑफ़ क्राइस्ट
ईसा मसीह ने फ़रमाया है: “मैं ही मार्ग हूँ।” सिर्फ़ एक देहधारी गुरु के पास ही सत्य को ज़ाहिर करने की चाबी है, ख़ुद की पहचान का तरीक़ा है। बिना सोझी के, बिना अंतर के अनुभव के भरोसा, विश्वास या कोई प्राप्ति नहीं हो सकती। बिना “जीवन” के – यानी अमर जीवन या परम आनंद के – हमारी मुक्ति संभव नहीं है जिसे उन्होंने “वह जीवन जिसकी तुम्हें ज़रूर आशा करनी है” कहा है। जब तक कोई मार्गदर्शक नहीं मिलता तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती।
देहरूप में सतगुरु हमारी तरह इनसान हैं। लेकिन यहाँ एक बहुत बड़ा अंतर है – रूहानियत के स्तर पर वह सत्य का रास्ता तय करके आंतरिक आनंद हासिल कर चुके हैं; अपने अंतर की गहराई में शब्द से जुड़कर परमात्मा से मिलाप कर चुके हैं। परमात्मा से मिलाप कर चुका इनसान ही हमें अंतर में रास्ता दिखा सकता है। शब्द को ‘वर्ड’ या ‘लॉगास’ भी कहते हैं।
सतगुरु हमें परमात्मा से मिलाप का तरीक़ा बताते हैं। वह समझाते हैं कि कैसे भजन-सिमरन द्वारा हम सुरत को शब्द से जोड़कर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकते हैं। परमात्मा की पहचान का यह रास्ता हमें दुनियावी बंधनों से मुक्त करवा देता है। सतगुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं, परमसत्ता में विलीन करके हमारी आत्मा को मुक्ति दिलाते हैं। सतगुरु के बिना मालिक से मिलाप नहीं हो सकता।
सतगुरु का मक़सद है जिज्ञासुओं को, जो इस समय दुनिया में लिप्त हैं, यहाँ से निकालकर रूहानी बुलंदी तक ले जाना। सतगुरु सर्वोच्च हैं, सर्वव्यापी हैं, सबमें समाहित हैं। वे इस रचना का आधार हैं, वे संपूर्णता का साकार रूप हैं।
एक गुरु के बारे में यह कहानी आम सुनाई जाती है - वह अकसर अपने सत्संग के आख़िर में ये लफ़्ज़ दोहराते थे: “ख़ुद को हटाओ और सत्य को पहचानो।”
एक दिन उनका एक शिष्य अपने आप को रोक नहीं सका और उसने पूछा: “गुरुदेव अगर ऐसा है तो आप ख़ुद को हटाकर हमें निर्मल सत्य क्यों नहीं समझा देते?”
गुरु मुस्कराए और शिष्य से पीने के लिए पानी लाने को कहा।
शिष्य पीने के लिए पानी लाया और उसे गुरु के सामने रख दिया। “यह क्या है?” गुरु ने पूछा।
“पानी जो आपने माँगा था,” शिष्य ने धीरे से कहा। “परंतु मैंने गिलास माँगा था या पानी?” गुरु ने पूछा। शिष्य दुविधा में पड़ गया।
“कोई बात नहीं,” गुरु ने उसे बड़े प्यार से समझाया, “जिस तरह तुम बिना बरतन के पानी नहीं ला सकते, उसी तरह गुरु भी उपदेश दिए बिना सत्य को समझा नहीं सकता।”
उपदेश बरतन है जिसके ज़रिए हम परम सत्य से जुड़ते हैं। अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए उपदेश बहुत ज़रूरी है। लेकिन सतगुरु के बिना हम उपदेश कैसे समझ पाएँगे? गुरु का बाहरी स्वरूप बदल सकता है लेकिन उनकी शिक्षा और उनके द्वारा बताया सत्य सदा क़ायम रहता है। सिर्फ़ सतगुरु ही सच्चा उपदेश दे सकते हैं, असल में सतगुरु और उपदेश दोनों एक ही हैं।
नामदान क्या है?
रूहानियत की राह पर आने वाले जिज्ञासु को सतगुरु या उनका कोई प्रतिनिधि भजन-सिमरन के बारे में निर्देश देते हैं, इसे ‘नामदान’ कहते हैं। भजन-सिमरन के ज़रिए शिष्य अपने चंचल मन को स्थिर करता है और अपनी सुरत को शब्द के साथ जोड़ता है जो आत्मा का सारतत्त्व है।
इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि इस दुनिया के अनगिनत लोगों में से कुछ रूहें ही किसी ख़ास समय पर नामदान के लिए तैयार होती हैं, और इस तरह वे जन्म-मरण के चक्र से छूट जाती हैं। इसमें कोई शक़ नहीं कि नामदान एक नई ज़िंदगी की शुरुआत है; नामदान उन्हें ही हासिल होता है जिन पर परमात्मा की बख़्शिश होती है।
ईसा मसीह ने फ़रमाया है, “मेरी भेड़ें मेरी आवाज़ सुनती हैं और मैं उन्हें जानता हूँ और वे मेरे पीछे-पीछे आती हैं।” (जॉन 10:27)
जिन्हें चुना गया है या “मोहर छाप” लगाई गई है, वे ही चरवाहे की “आवाज़” सुनती हैं। वे भाग्यशाली हैं जो नामदान के ज़रिए परम सत्य से जुड़कर आवागमन से मुक्त हो जाते हैं।
पंजाबी में एक कहावत है, “दाना सिर दान नामदान।” इसका मतलब है कि सबसे उत्तम वरदान सतगुरु द्वारा बख़्शा गया नामदान है। नामदान का तोहफ़ा हासिल करके ही हम अंतर का रूहानी सफ़र शुरू कर सकते हैं और शब्द से जुड़कर रूहानी उच्च मंडलों में पहुँच सकते हैं।
नामदान द्वारा सतगुरु हमें सचेत करते हैं कि यह दुनिया मात्र भ्रम है। वह हमें मालिक तक पहुँचने का रास्ता बताकर हमें गहरी नींद से जगाते हैं। नामदान के समय सतगुरु जिज्ञासु को अंतर्मुख साधना का तरीक़ा बताते हैं जिससे वह शब्द के साथ जुड़ता है। सतगुरु परम सत्य का अपना निजी अनुभव शिष्य तक पहुँचाते हैं।
सतगुरु अपने उपदेश और अनुभव के ज़रिए हमें समझाते हैं कि कैसे हम आत्मा को वापस इसके स्रोत से मिला सकते हैं। वह हमें भरोसा दिलाते हैं कि सिर्फ़ भजन-सिमरन द्वारा ही रूहानी मंडलों के रहस्य ज़ाहिर हो सकते हैं।
इस तरह नामदान से गुरु और शिष्य के बीच एक निजी रिश्ता जुड़ता है। यह रिश्ता रूहानी स्तर पर होता है। असल में, सतगुरु अपने शब्दरूप में नामदान की बख़्शिश करते हैं। शब्दरूप में सतगुरु की कोई सीमा नहीं है, शिष्य चाहे कहीं पर भी हो, सतगुरु शब्दरूप में हमेशा उसके साथ रहते हैं। यही वजह है कि नामदान चाहे सतगुरु दें या उनका कोई प्रतिनिधि, एक ही बात है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। असली नामदान तो अंतर में दिया जाता है। बाहरी नामदान का मक़सद शिष्य को भजन-सिमरन का तरीक़ा समझाना और उसके अंदर गहरी ज़िम्मेदारी की भावना पैदा करना है।
सतगुरु के ज़रिए रूहानी ज्ञान हासिल होता है। नामदान के समय सतगुरु इस ज्ञान की चिंगारी जलाते हैं और हमें भरोसा दिलाते हैं कि अगर हम भजन-बंदगी में लगेंगे तो वह ज़रूर हमें हमारी मंज़िल – परमधाम, ले जाएँगे।
मनुष्य-जामे का मक़सद ही परमात्मा से मिलाप करना है। सबसे पहले हमारे लिए यह समझना ज़रूरी है कि हम परमात्मा का अंश हैं। परमात्मा की पहचान से पहले हमें अपनी पहचान करनी है। हम परमात्मा से आए हैं और हमारा मक़सद ही वापस उसके पास लौटना है। हमारा मक़सद और मक़सद को हासिल करने का ज़रिया दोनों भजन-सिमरन है – यह वह अटल नियम है जो हमारा परमात्मा से हमेशा के लिए मिलाप करवाता है।
नया जन्म
असल में नामदान का मतलब है दोबारा जन्म लेना – हमारा इस दुनिया से लगाव कम होने लगता है, भजन-बंदगी के ज़रिए हम रूहानियत में दोबारा जन्म लेते हैं। जैसा कि बाइबल में कहा गया है: “जब तक कोई मनुष्य दोबारा जन्म नहीं लेता, वह परमात्मा के साम्राज्य को नहीं देख सकता।” (जॉन 3:3)
आत्मा हर एक इनसान के अंतर का अहम हिस्सा है और शरीर बाहरी हिस्सा। आत्मा न तो बदलती है, न ही नष्ट होती है जबकि बाहरी स्वरूप यानी शरीर बदलता है और आख़िर में नष्ट हो जाता है। इस तरह जिसे हम देख सकते हैं या जो हमें जीवित दिखाई देता है वह एक दिन नष्ट हो जाता है, उसकी मौत हो जाती है। आत्मा अमर है लेकिन हम उसकी असलियत से अनजान हैं, क्योंकि यह जड़ पदार्थ की परतों से ढकी और छिपी है। शब्द आत्मा का सार है। परमात्मा का शब्द सृष्टि की रचनात्मक शक्ति है जो हर किसी को प्राण और काया प्रदान करती है। नामदान के समय जब सतगुरु अंतर में हमारी सुरत को शब्द के साथ जोड़ते हैं, तो हमारा दोबारा जन्म होता है। हमें समझ आती है कि हमारी असली पहचान आत्मा यानी शब्द है, फिर हम अपनी पहचान शरीर के साथ नहीं जोड़ते।
बाइबल में कहा गया है: “फिर से जन्म लेना – नाशवान बीज से नहीं बल्कि अविनाशी बीज से, परमात्मा के शब्द द्वारा जो सदा रहनेवाला है।” (1 पीटर 1:23) परमात्मा का साम्राज्य देखने के लिए हमें “अविनाशी” बीज से जन्म लेना होगा जो परिवर्तन, विनाश या मृत्यु से परे है। भजन-सिमरन के ज़रिए हम ख़ुद को शब्द यानी दिव्य धुन से जोड़ते हैं जो हमेशा क़ायम-दायम है।” नामदान लेकर हम आत्मिक रूप से दोबारा जन्म लेते हैं। परमात्मा का शब्द अमर है, अविनाशी है।
शुरू में शब्द था
बाइबल में कहा गया है, “शुरू में शब्द था, शब्द परमात्मा के साथ था और शब्द ही परमात्मा था।” (जॉन 1:1) अलग-अलग धर्मों में परमात्मा की शक्ति शब्द को कई नामों से पुकारा गया है जैसे ‘कलमा’, ‘शब्द’, ‘लॉगास’, ‘धुन’, ‘ताओ’, ‘आकाशवाणी’ आदि। अलग-अलग समय में अलग-अलग संस्कृतियों में लोगों ने अंतर की आवाज़ को अलग-अलग नाम दिए। यह आवाज़ इस रचना का आधार है और आत्मा का सार है। चूँकि सतगुरु अपने अंतर में आवाज़ या इस धुन को प्रकट कर चुके होते हैं, उससे जुड़ चुके होते हैं और यही उनकी रूहानियत का स्रोत होता है, इसी लिए वह अपने निजी अनुभव द्वारा रूहानियत का उपदेश देते हैं।
हज़रत इनायत ख़ान ने कहा है: “कलमे का भेद जाननेवाला पूरी कायनात का भेद जानता है।” सतगुरु ख़ुद रूहानियत का भेद जानते हैं, उन्हें तजुर्बा होता है इसलिए वह शब्द-धुन के भेदी होते हैं। शब्द की यह धुन लगातार हमारे अंदर गूँज रही है लेकिन हम उसे सुन नहीं पाते क्योंकि हमारा ख़याल एकाग्र नहीं है, हमारा ध्यान केंद्रित नहीं है। हम दुनियावी धंधों में इतना खोए हुए हैं, हमें दुनिया की बाहरी चमक-दमक से इतना लगाव है कि धुन का एहसास ही नहीं होता।
रूहानियत हमारा मूल है, हमारे वुजूद का हिस्सा है लेकिन हमारी आत्मा दुनियावी विषय-भोग, निराशावादी विचारों की परतों के नीचे दबी है, उनसे ढकी है। रूहानियत हासिल करने का मतलब है: नेक-पाक चाहत, निर्मल ख़याल और अपने असल की पहचान। इस राह का मतलब है आत्मा पर पड़ी मैल की परतों को हटाना।
भजन-सिमरन करते हुए जब मन शांत और एकाग्र होने लगता है, तब धीरे-धीरे शब्द साफ़ सुनाई देने लगता है। हमारे अंदर इतनी ताक़त आ जाती है कि हम मन की लगातार चलने वाली बड़बड़ रोक पाते हैं, मोह के बंधनों से ऊपर उठकर भजन-सिमरन की गहरी ख़ामोशी में इस दुनिया से परे से आ रहे शब्द से जुड़ते हैं। अंतर में गूँज रही शब्द-धुन हमें रूहानी मंडलों की ओर ले जाती है और तर्क तथा सोच-विचार में उलझा मन पीछे रह जाता है। इसे लफ़्ज़ों में समझाया नहीं जा सकता, इसका सिर्फ़ अनुभव ही किया जा सकता है।
देहधारी शब्द
अरस्तू ने लिखा है कि यह असल में अनुभव था, न कि बाहरी ज्ञान जिसकी वजह से शिष्य रूहानी रहस्यों के गूढ़ अर्थ को समझ पाया। ज़ेन उपदेश इस बात पर बल देता है: “जीवंत शब्द का अभ्यास करो, मृत शब्द का नहीं।”
“मृत शब्द” का मतलब है वह ज्ञान जो हमें किताबों और धर्मग्रंथों से मिलता है, जो ऊपरी है और अनुभव पर आधारित नहीं होता। किताबें व्याख्या कर सकती हैं, जानकारी दे सकती हैं, हमें प्रेरणा दे सकती हैं, हमारा उत्साह बढ़ा सकती हैं लेकिन हमें अनुभव नहीं करवा सकतीं। सत्य को जानने के लिए लफ़्ज़ों की ज़रूरत नहीं है, बल्कि भजन-सिमरन के द्वारा मन शांत होना ज़रूरी है। फिर किताबी ज्ञान का क्या फ़ायदा?
एक देहधारी सतगुरु ही हमें नामदान के द्वारा शब्द का भेद समझा सकते हैं। इसी लिए हमें ऐसे देहधारी सतगुरु से जुड़ने के लिए कहा जाता है जो निजी अनुभव के आधार पर हमें परमात्मा यानी शब्द से जुड़ने का तरीक़ा सिखा सकते हैं। नामदान के ज़रिए सतगुरु अपने शिष्यों के अंतर में एक रहस्यमय चिंगारी जला देते हैं जो अंतर में सोई हुई रूहानी ताक़त को जगाती है।
एकाग्रता
हमारा रूहानी सफ़र तीसरे तिल पर ध्यान एकाग्र करने से शुरू होता है। भजन-सिमरन के समय हमें अपनी दुनियावी इच्छाओं और ज़िम्मेदारियों – घर, दफ़्तर, जीवन साथी, बच्चे, पालतू जानवर आदि – सब कुछ भुला देना है। यह ख़ास वक़्त हमें अपने सतगुरु के साथ बिताना है और उस समय मन को दुनियावी ख़यालों में नहीं भटकना चाहिए। हमारे कमरे के बाहर चाहे कितना भी शोर क्यों न हो रहा हो, चाहे कपड़े धोने की मशीन चल रही हो या दूध उबल रहा हो या फिर कुत्ते को खाना नहीं मिला – हमें किसी बात की ओर ध्यान नहीं देना है। भजन-सिमरन के लिए कभी भी, कोई भी हालात पूरी तरह से सही नहीं होंगे; ऐसा मुमकिन ही नहीं। वही वक़्त सबसे अच्छा है जो हम भजन-सिमरन में बिताते हैं, क्योंकि यही वह समय है जिसे हम सतगुरु के साथ अकेले बिताते हैं।
भजन-सिमरन एक विधि है जिससे हम पूरी तरह एकचित्त, एकाग्र होकर तीसरे तिल पर ध्यान टिकाते हैं और अपनी आत्मा को अंतर में शब्द से जोड़ते हुए दुनिया के इस पागलपन से बेलगाव होते हैं। हमें भजन-सिमरन बिना किसी चाहत, ख़याल या आशा से करना चाहिए। बाहर की हर गतिविधि को मन से निकालना ज़रूरी है। मन में अनगिनत उल्टे-सीधे ख़यालों का उठना क़ुदरती है क्योंकि यह मन की प्रवृत्ति है। एकचित्त होकर किया गया भजन-सिमरन ही इस स्वभाव को पलट सकता है। भजन-सिमरन का मक़सद ही यही है कि सभी ख़यालों, इच्छाओं और विषय-भोगों से ऊपर उठकर ख़ुद को शब्द में लीन कर देना।
शरीर को स्थिर करना
एकाग्रता के लिए यह ज़रूरी है कि पूरी तरह स्थिर होकर, सहज रूप से एक आरामदेह आसन में बैठा जाए जैसा नामदान के समय बताया जाता है। शरीर हिलने-डुलने की पूरी कोशिश करेगा, हमारा ध्यान बाहरी दुनिया की ओर खींचेगा लेकिन अपनी पीठ सीधी रखकर, आँखें बंद करके, सिमरन करते हुए हमें अपने ध्यान को तीसरे तिल पर लाना है।
इसमें कोई शक़ नहीं है कि शुरू-शुरू में शरीर को स्थिर करना मुश्किल होता है, लेकिन अभ्यास से धीरे-धीरे इसमें क़ामयाबी मिलने लगती है। सोचो, अगर हमें बंदूक की नोक पर रोका जाए और कहा जाए कि हिलना मत, तब क्या हम हिलने की हिम्मत करेंगे? डर के मारे हम बिलकुल भी नहीं हिलेंगे और बुत की तरह खड़े रहेंगे। भजन-सिमरन के वक़्त भी ऐसे ही दृढ़ निश्चय से बैठना है। शरीर धीरे-धीरे अभ्यास और सब्र के साथ स्थिर होने लगता है न कि डर से। जब हम पक्के इरादे से अपना मक़सद हासिल करने की कोशिश करते हैं, आधी क़ामयाबी तो हमें तभी मिल जाती है। रूहानियत में क़ामयाबी हासिल करने के लिए आधी-अधूरी कोशिश से काम नहीं बनता, या तो सब कुछ करो या कुछ न करो, यह “करने या मरने” की अवस्था है। इसी लिए कबीर साहिब कहते हैं: “भक्ति करे कोई सूरमा, कायर का नहीं काम।”
क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है कि हम अनुशासन में रहकर दिन के कुछ घंटे स्थिर होकर नहीं बैठ सकते? क्या यह हमारी बेवकूफ़ी नहीं दर्शाता? क्या बिना मेहनत किए किसी को इनाम मिला है? डॉक्टर, वकील, विद्वान, चित्रकार और संगीतकार अपने मक़सद को हासिल करने के लिए पूरी लगन और सब्र से लगातार कई घंटों, कई दिनों, कई महीनों और कई सालों तक लगे रहते हैं। अपने-अपने कार्य में माहिर होने के लिए वे बैठे-बिठाए बड़ी-बड़ी योजनाएँ नहीं बनाते। क़ामयाबी हासिल करने के लिए वे करनी में लगते हैं।
सिमरन
अंतर का सफ़र तब शुरू होता है जब हम नामदान के समय दिए गए पाँच नाम का सिमरन करते हुए ध्यान को आँखों के बीच तीसरे तिल पर टिकाते हैं। गुरु द्वारा दिए सिमरन से चंचल मन धीरे-धीरे शांत और स्थिर होने लगता है। मन खलबली मचाने वाले विचारों से खाली होने लगता है और ख़ामोशी तथा गहराई से आँखों के बीच तीसरे तिल पर एकाग्र होने लगता है। सिमरन से हमें एकचित्त होकर ध्यान को टिकाने में मदद मिलती है।
जब हम भजन-सिमरन में नहीं भी बैठे हैं तब भी सिमरन चौबीस घंटे हमारे अंदर चलता रहना चाहिए। सिमरन मन में उठने वाले निराशावादी विचारों के खिलाफ़ एक ढाल है। यह हमारी सोच को आशावादी बनाता है। गुरु द्वारा दिए गए नाम के सिमरन की ताक़त ही रूहानियत पर चलने और रूहानी नूर हासिल करने की कुंजी है।
जब सारे ख़याल उठने बंद हो जाते हैं, जब अंदर शून्य और अंधेरा दिखाई देता है, जब मन में कोई इच्छा नहीं रहती, अपनी सुधबुध भूल जाती है तब “मैं-मेरी” का भाव, अहंभाव ख़त्म हो जाता है। “मैं-मेरी” के बिना मन की हौंमैं ख़त्म हो जाती है। गहरी समाधि की इस शांत अवस्था में सारे बाहरी ख़याल ख़त्म हो जाते हैं और मन तथा बुद्धि सिमरन की ताक़त के आगे झुक जाते हैं।
आवाज़ और प्रकाश
शब्द आवाज़ और प्रकाश के रूप में अंतर में प्रकट होता है, इसी लिए शब्द को अकसर ‘दिव्य धुन’ या ‘नाद’ कहा जाता है। प्रकाश से ध्यान टिकाने में मदद मिलती है। ईसा मसीह ने फ़रमाया है: “अगर तुम एक आँख वाले बन जाओगे तो तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश से भर जाएगा।” (मैथ्यू 6:22) जब सिमरन के ज़रिए ध्यान तीसरे तिल पर पूरी तरह टिक जाता है, तब शब्द-धुन सुनाई देने लगती है और ऐसा महसूस होता है जैसे दूर से धीमी-धीमी आवाज़ आ रही है। कभी-कभी इससे पहले या इसके साथ प्रकाश की झलकें दिखाई देती हैं। जैसे-जैसे मन की शांति और एकाग्रता बढ़ती है, प्रकाश और धुन अधिक तेज़ व साफ़ होते जाते हैं, और शब्द की कशिश बढ़ने लगती है। मन प्रकाश और धुन की ओर अपने आप ही खिंचा चला जाता है।
इस तरह आत्मा का रूहानी सफ़र शुरू होता है। प्रकाश और आवाज़ आत्मा में कशिश पैदा करते हैं, जिससे इसे एकाग्रता और दिशा मिलती है और आख़िर आत्मा ऊपर रूहानी मंडलों की ओर चढ़ने लगती है। फिर एक वक़्त आता है जब आत्मा सतगुरु के नूरानी स्वरूप में जज़्ब हो जाती है। शब्द – प्रकाश और धुन – आत्मा को जाग्रत करते हैं। ऐसा लगता है कि हमारा दोबारा जन्म हुआ है। इस अवस्था को “जीते-जी मरना” कहा गया है। जब शरीर पूरी तरह स्थिर और मन पूरी तरह एकाग्र हो जाता है, तब आत्मा जाग्रत होती है और परम आनंद का अनुभव करती है। इस एहसास की गहराई, इसकी महिमा इनसान की समझ से परे है।
गुरु और शिष्य में प्रेम
किसी और प्रेम में उतनी गहराई नहीं हो सकती जितनी गुरु और शिष्य के प्रेम में होती है। यह प्रेम हमारे रोम-रोम में, रग-रग में, हमारी धड़कन और लहू में रच बस जाता है। प्रेम का कोई भी रिश्ता इसकी बराबरी नहीं कर सकता, चाहे वह माँ-बच्चे का प्रेम है, पति-पत्नी का, भाई-बहन का या फिर एक दोस्त का दूसरे दोस्त से प्रेम क्यों न हो। इनसान के संबंध बनते हैं, गहरे होने लगते हैं फिर बदल जाते हैं और आख़िर धीरे-धीरे ख़त्म हो जाते हैं। यहाँ तक कि हमारे किसी प्रियजन की मौत का दु:ख भी वक़्त के साथ कम होने लगता है। कोई भी रिश्ता सदा रहनेवाला नहीं है। इनसान के रिश्ते बदलते रहते हैं – इनसान होने के नाते ऐसा होना स्वाभाविक है।
लेकिन सतगुरु के लिए हमारा प्रेम हमारे वुजूद में रम जाता है और हमेशा बरकरार रहता है। जब हमारा प्रेम इन दुनियावी चीज़ों के प्रेम से ऊपर उठकर सतगुरु के प्रेम में बदल जाता है तब हम इस दुनिया में हर तरह के बदलाव, उम्मीदों और आशा-तृष्णाओं से ऊपर उठ जाते हैं। सच्चे प्रेम का मतलब है बिना किसी संकोच के देना, सौंपना और समर्पण करना। ऐसा प्रेम सतगुरु के साथ ही मुमकिन है क्योंकि उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता, आशा या उम्मीद नहीं होती – वह बस देते हैं, देते ही रहते हैं।
प्रेम के ज़रिए सतगुरु हमें प्रेरणा देते हैं कि हम उनका हुक्म मानते हुए भजन-सिमरन में लगें और अंतर में शब्द-गुरु से जुड़ें। इसलिए सतगुरु से प्रेम का मक़सद है कि हम पूरे श्रद्धा भाव से ध्यान एकाग्र करके अपनी आत्मा को अंतर में शब्द यानी शब्द-गुरु से जोड़ें और सच की पहचान करें। सतगुरु से प्रेम हमें उनके हुक्म में रहने की प्रेरणा देता है – रोज़ भजन-सिमरन करना, भजन-बंदगी को अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बनाने की कोशिश करना।
मोह – हमारे दु:ख का मूल
बच्चे, माता-पिता, पति-पत्नी, धन, संपत्ति – इनमें से कुछ भी अपना नहीं है, कुछ भी सदा रहने वाला नहीं है। सभी तरह का मोह सिर्फ़ भ्रम है। जब आख़िरी घड़ी आती है, जब मौत दरवाज़ा खटखटाती है तब न तो हमारे रिश्ते-नाते और न ही हमारी धन-संपत्ति साथ जाती है। हम अकेले खाली हाथ जाते हैं। अपनी सारी ज़िंदगी कड़ी मेहनत के साथ, बड़े शानो-शौक़त से जो इकट्ठा करते हैं या जो हासिल करते हैं, जैसे हमारे नाम के साथ जुड़ी उपाधियाँ, घरों के बाहर लगी नेमप्लेट, हमारे नाम पर चलने वाली कंपनियाँ, हमारा वंश आगे बढ़ाने के लिए बेटे-बेटियाँ – सब कुछ ख़त्म हो जाता है, बह जाता है। इस नश्वर संसार में कुछ भी अपना नहीं है। हर चीज़, हर कोई नष्ट हो जाता है।
ये सारे मोह शुरू में हमें ख़ुशी और सुख देते हैं लेकिन ये सदा रहने वाले नहीं, इसलिए अंत में हमें धोखा देते हैं। हमें इसलिए दु:ख होता है क्योंकि हम वहाँ सुख की तलाश करते हैं जहाँ सुख है ही नहीं। इस दुनिया में दायमी सुख खोजना उसी तरह है जैसे किसी नदी को रोकने की कोशिश करना, क्योंकि उसका स्वभाव ही बहना है। हम इस दुनिया में प्रेम की तलाश करते हैं लेकिन दुनिया नश्वर है, इसलिए प्रेम भी सदीवी नहीं है। हम चाहते हैं कि यह दुनियावी प्रेम सदा बना रहे, लेकिन इस नाश्वान और आरज़ी दुनिया से सच्चा प्रेम कैसे हासिल कर सकते हैं?
सिर्फ़ एक ही प्रेम है जो अमर-अविनाशी है और वह है सत्य यानी शब्द के साथ प्रेम। यही सदीवी प्रेम है। यह तभी मिलता है जब हम भजन-बंदगी के ज़रिए धीरे-धीरे अपने मन को दुनिया की झूठी चाहतों, झूठी तृष्णाओं से निकालते हैं। जैसे-जैसे हमारा ध्यान एकाग्र होने लगता है, हमारा मन शब्द से जुड़ने लगता है और फिर यह मन दुनिया और उसके पदार्थों और इच्छाओं से विरक्त होने लगता है। अगर पानी के घड़े में छेद हो तो सारा पानी निकल जाएगा। इसी तरह अगर हमारे अंदर ज़रा-सा भी मोह है तो हमारा ध्यान भटक जाएगा, हमारी एकाग्रता ख़त्म हो जाएगी। आख़िर हमारी प्राथमिकताएँ बदल जाएँगी। सीधे आगे बढ़ने के बजाय हम पीछे की ओर वापस जाने लगेंगे। ये इच्छा-तृष्णाएँ रूहानी रास्ते पर हमें पीछे धकेल देंगी। अगर हम अपना काम करते हैं यानी भजन-सिमरन करते हैं तो शब्द भी अपना काम करता है – वह हमारा ध्यान इस दुनिया के विषय-भोगों से निकालकर अंतर में सत्य के साथ, रूहानियत के उच्च मंडलों से जोड़ देता है।
हौंमैं – हमारे बिछोड़े का मूल कारण
हम इस दुनिया में अहंभाव द्वारा ही आगे बढ़ते हैं – चाहे अपनी ख़ास पहचान बनानी है, ओहदा हासिल करना है या दुनियावी धन-दौलत। श्री रामकृष्ण परमहंस ने हमारे बढ़े हुए अहंकार से होने वाले भयंकर विनाश को इस तरह समझाया है:
एक आम आदमी का अहंकार आसानी से मिट जाता है, लेकिन एक साधु के अहंकार को मिटाना असल में बहुत मुश्किल है।
अहंकार एक खाली गिलास की तरह है जो ख़ुद को समुद्र में डुबोकर जब भरा हुआ बाहर आता है तो चिल्ला उठता है: “मैं ही समुद्र हूँ!”
हम असल में क्या हैं? बाइबल में कहा गया है: “तुम धूल हो और धूल में ही वापस मिल जाओगे।” (जेनिसस् 3:19) अगर हम इन लफ़्ज़ों की गहराई समझें तो हम जान जाएँगे कि हमेशा ख़ुद को अहमियत देना, अपने अंह पर गुरूर करना हमारी ज़िंदगी का सबसे बड़ा ख़तरा है।
मन अहंकार को पोषण देता है। यह हमारी अज्ञानता की वजह से है। श्री रामकृष्ण परमहंस ने यह भी कहा है कि अहंकार एक जुगनू की तरह है जो शाम के बाद यह सोचने लगता है कि वही दुनिया को रोशनी दे रहा है, लेकिन जब तारे जगमगाने लगते हैं तब जुगनू की रोशनी फीकी पड़ जाती है।
मन जब अहंकार से ख़ाली होगा तभी कुछ पाने के लिए तैयार होगा। ख़ाली मन को भरने के लिए कई संभावनाएँ होती हैं लेकिन अहंकारी मन के लिए कुछ नहीं। जब हम अपने अहंकार को पूरी तरह मिटा देते हैं तब हमें परम आनंद प्राप्त होता है। जैसा स्वामी परमानंद कहते हैं:
अहंकार ही रूहानियत में सबसे बड़ी बाधा है। अगर तुम्हें अहंकार पसंद है तो तुम मालिक को हासिल नहीं कर सकते। अगर परमात्मा को पाना चाहते हो तो तुम्हें पूरी तरह विनम्र होना पड़ेगा।
हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी फ़रमाया करते थे:
परमार्थ में आने का कोई अहंकार नहीं होना चाहिए। हम अपनी असलियत जानते हैं कि हम कहाँ खड़े हैं। मुझे समझ नहीं आती है कि हमें अहंकार किस बात का है। इसलिए परमार्थ पर चलने का भी कोई अहंकार नहीं होना चाहिए। यह असल में एक तरह का अहंकार ही है। जब तक हम हर तरह के अहंकार को ख़त्म नहीं देते तब तक सही मायने में तरक़्क़ी करना बहुत मुश्किल है।
कर्मों का क़ानून अटल है
अगर सोच-विचार करके देखें तो यह हमारे कर्म ही हैं जिन्होंने हमें इस दुनिया में क़ैदी बनाकर रखा है। हमारे सारे कर्मों का लेखा-जोखा हमारे खाते में लिखा जाता है। अच्छे कर्मों का हमें अच्छा फल मिल जाता है और बुरे कर्मों का दंड दिया जाता है, जो हमें भोगना ही पड़ेगा। मन में यह सवाल उठ सकता है कि नामदान के समय हमारे कर्मों का क्या होता है? क्या हमारे कर्म ख़त्म हो जाते हैं? क्या हमें नई शुरुआत का मौक़ा मिलता है? क्या सतगुरु हमें भविष्य में होने वाली बुरी घटनाओं से बचाएँगें? क्या सतगुरु हमारे कर्मों को अपने ऊपर ले लेते हैं और हम उनसे आज़ाद हो जाते हैं? नहीं!
हालाँकि सतगुरु हमारे कर्मों का इंतिज़ाम और उनका भुगतान अपने हाथ में ले लेते हैं, लेकिन हमें अपने कर्मों का अच्छा या बुरा नतीजा भोगना ही पड़ता है। सतगुरु दयालु हैं, हमारे हितैषी हैं, उनका एकमात्र मक़सद शिष्य की रूहानी तरक़्क़ी है। अपनी दया-मेहर से वह सूली का सूल बना देते हैं। वह हमारी सोच का नज़रिया बदल देते हैं, हमारी समझ को तराशते हैं और संतुलन रखते हुए मुश्किल हालात से गुज़रने की हिम्मत देते हैं। सार में, वह हमें इस क़ाबिल बना देते हैं कि हम संतुलन खोए बिना और एकाग्रता को भंग किए बिना अपने कर्मों का भुगतान कर सकें। हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी फ़रमाया करते थे कि सतगुरु दुनिया के काँटों को नहीं हटाते बल्कि हमें मोटे जूते दे देते हैं ताकि काँटों का हम पर असर न हो। जब हम किसी मुश्किल घड़ी का सामना करते हैं तो सतगुरु की दया-मेहर तैयार है। हमें सिर्फ़ मदद और सुकून के लिए उनकी ओर मुड़ना है।
नामदान के लिए आवश्यक शर्तें
हम ज़िंदगी में जो भी करते हैं, यहाँ तक कि छोटी से छोटी चीज़ भी, एक मर्यादा में रहकर करते हैं; नियम और क़ायदे-क़ानून का पालन करते हैं, आचार-व्यवहार अपनाते हैं, ज़िम्मेदारियाँ पूरी करते हैं। हमारे पास एक कार है जिसे हम चलाना जानते हैं, फिर भी हमें यातायात के नियमों का पालन करना पड़ता है। बेशक हम यह मानें कि हम पूरी तरह से आज़ाद हैं और खुले ख़याल वाले हैं, फिर भी हमें सामाजिक नियमों का पालन करना पड़ता है। इसी तरह संतमत में भी अपने मक़सद को हासिल करने के लिए हमें संतमत के उपदेश के अनुसार कुछ हिदायतों का पालन करना होता है। नामदान से पहले हमें चार शर्तों का पालन करने के लिए कहा जाता है; इन शर्तों का पालन करने से हमें कम-से-कम कर्म करते हुए ज़िंदगी जीने में मदद मिलती है। वे शर्तें इस तरह हैं:
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शाकाहारी भोजन अपनाना जिसमें मांस, मछली, अंडे या इनसे बने पदार्थ शामिल न हों। अगर हम किसी को ज़िंदगी दे नहीं सकते तो हमें ज़िंदगी लेने का भी कोई हक़ नहीं है। हम लोगों से उनके पालतू जानवरों से प्रेम की बातें सुनते हैं, अपने पालतू जानवरों को प्यार करनेवाले लोग दूसरे जानवरों के प्रति क्रूरता की निंदा भी करते हैं, लेकिन यही लोग अपने भोजन के लिए दूसरे जानवरों की हत्या कर देते हैं। अपनी ख़ुशी के लिए की गई जीवहत्या को हम किसी भी तरह सही नहीं ठहरा सकते। किसी भी जीव की हत्या करके कर्मों का भारी बोझ उठाना पड़ता है। बाइबल में कहा गया है, “जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे।”
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तंबाकू वाली चीज़ें, शराब और मन पर प्रभाव डालनेवाले अन्य नशीले पदार्थों से दूर रहना। यह भजन-सिमरन में रुकावट बनते हैं। सभी बुरी आदतों से बचना चाहिए। आदतें मन पर छाप छोड़ जाती हैं, इसलिए बेहतर यही है कि अच्छी आदतें अपनाएँ और बुरी आदतों में लिप्त होने से बचें। इनसे हमारे पाप का बोझ बढ़ता है। शराब और मौजमस्ती के लिए किए जानेवाले नशे हमारे चंचल मन को और भी चंचल बना देते हैं, हमारे ध्यान को भटकाते हैं। फिर ऐसे पदार्थों का सेवन मन को वश में करने, भजन-सिमरन में शांति से बैठने और ध्यान को टिकाने में कैसे मदद कर सकता है?
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सदाचारपूर्ण और नैतिक जीवन जीना जिसमें विवाह के अलावा कोई शारीरिक संबंध न रखना शामिल है। हम दुनिया में अपनी करनी को अपनी रूहानी ज़िम्मेदारी से अलग नहीं कर सकते हैं। ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। अनैतिक व्यवहार हमें दु:ख देगा, यह हमें हमारे लक्ष्य से दूर ले जाएगा और कर्मों का बोझ बढ़ा देगा। निर्मल अंत:करण से ही हम भजन-बंदगी में अपने मन को एकाग्र कर सकते हैं। जब हम ऐसी करनी करते हैं जो सामाजिक मूल्यों और क़ानूनों के विरुद्ध होती है, तब हमारा मन उलझन में पड़ जाता है। भटके हुए मन को हम भजन-सिमरन के दौरान कैसे वश में कर सकते हैं? अगर हमने किसी का दिल दुखाया है या किसी को धोखा दिया है तो फिर हमारा मन भजन-सिमरन में कैसे लग सकता है?
हालाँकि क़ानूनी तौर पर शादीशुदा होने पर शारीरिक संबंध स्वीकार्य है, फिर भी यह समझना ज़रूरी है कि शारीरिक संबंध का मक़सद संतान की उत्पत्ति है। भोग-विलास और काम-वासना के लिए ऐसा करना हमें हमारे मक़सद से दूर ले जाता है। जितना ज़्यादा हम ऐसी प्रवृत्तियों में लिप्त होंगे, हमारी रूहानी तरक़्क़ी उतनी ही धीमी होती जाएगी। आपसी सहमति और कोशिश से हमें इस प्रवृत्ति पर क़ाबू पाना है
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हर रोज़ 2 ½ घंटे भजन-सिमरन करना। भजन-सिमरन के अभ्यास द्वारा हमें शरीर तथा मन को साधने की ज़रूरत है। सिमरन मन को शांत करता है और शब्द से जुड़ने में मदद करता है; शब्द लगातार हमारे अंदर धुनकारें दे रहा है। हर रोज़ एक निश्चित समय पर बैठने से हमारे मन और शरीर को भजन-सिमरन की आदत पड़ती है। इसके अलावा पूरे दिन में जब भी समय मिले सिमरन करना चाहिए जिससे भजन-सिमरन के दौरान मन आसानी से एकाग्र हो जाता है। जब हम तीसरे तिल पर ध्यान इकट्ठा करते हैं तब मन दुनियावी विचारों से जल्दी हट जाता है।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि मन को वश में करना सारी ज़िंदगी चलनेवाला संघर्ष है। मन को अपनी मर्ज़ी से काम करने की आदत पड़ी हुई है, यह किसी के अधीन नहीं होना चाहता है। हमें रातोंरात क़ामयाबी हासिल करने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, हम ज़बरदस्ती अंदर नहीं जा सकते हैं। ‘सहज पके सो मीठा होय।’ हमारी हर कोशिश से हमारी तरक़्क़ी हो रही है, भले ही हमें कुछ दिखाई न दे। विश्वास रखो, हमारे भजन-सिमरन का नतीजा इकट्ठा होता जाता है और यही हमारी अमानत है। जब सतगुरु हमें इसके लिए तैयार समझेंगे, जब उन्हें लगेगा कि हम रूहानियत में परिपक्व हो चुके हैं तब वह हमें हमारी रूहानी दौलत दे देंगे।
क़दम उठाने से पहले सोचें
रूहानियत की खोज शुरू करने से पहले हमें ख़ुद से यह पूछ्ना चाहिए, “क्या हम ज़िंदगी भर इसे निभाने के लिए तैयार हैं?” नामदान और इसके लिए कुछ शर्तों का ज़िंदगी भर निभाने का हम जो वचन देते हैं, वह कोई यूँ ही दिया गया वचन नहीं है। क्या हम अपनी ज़िंदगी में इतना बड़ा बदलाव लाने के लिए तैयार हैं? इन शर्तों का पालन करते हुए हमें जो समस्याएँ महसूस होगीं क्या उनका सामना करने के लिए तैयार हैं? रूहानियत के इस रास्ते पर चलते हुए ‘कुछ करने’ और ‘कुछ न करने’ की जो शर्तें हैं, उनकी वजह से आपके परिवार, दोस्त-मित्रों का अटपटा व्यवहार झेलना पड़ सकता है क्योंकि उनको इन शर्तों की समझ नहीं है। हो सकता है कि कुछ लोग जिन्हें हम अपना दोस्त समझते हैं, वे हमसे दूर होने लगें और हम अपने जैसी सोच रखनेवाले लोगों के करीब आने लगें। हमें साफ़ ज़ाहिर होने लगता है कि कौन हमें हमारी मंज़िल की ओर ले जा रहे हैं और कौन हमें इसकी उल्ट दिशा में। कहने का मतलब है कि नामदान एक तरह से ज़िंदगी में पूरी तरह बदलाव की शुरुआत है।
आम तौर पर लोगों के लिए सुबह-सवेरे 2 ½ घंटे भजन-सिमरन करने का मतलब है ज़िंदगी भर सोने के लिए कम समय मिलना। सुबह देर तक सोने का मज़ा हमारे लिए लगभग नामुमकिन हो जाता है। हालाँकि हमें हिदायत दी जाती है कि ज़िंदगी में अच्छी तरह से रहना है; परिवार, नौकरी और समाज की ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए एक सामान्य ज़िंदगी जीनी है लेकिन साथ ही साथ हमें हमेशा अपने मक़सद, अपनी भजन-बंदगी की ओर पूरा ध्यान देना है। हमें अपने मन को परमार्थ की तरफ़ मोड़ना है ताकि हमारा मन एक कम्पस की तरह हमेशा एक तरफ़ा होकर परमार्थ की खोज में लगा रहे। ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव में हमें कभी संतुलन नहीं खोना चाहिए। भजन-सिमरन के लिए कड़ी मेहनत और सब्र की ज़रूरत है। शिष्यों का जीने का ढंग कैसा होना चाहिए, नीचे दी गई कहानी इसका एक सुंदर उदाहरण है:
राजा जनक एक पूर्ण संत थे। वह जानते थे कि उनके पास दीक्षा के लिए आए शुकदेव के मन में अभी भी संदेह है कि राजसी वैभव को भोगते हुए एक राजा संत कैसे हो सकता है। इसलिए राजा जनक ने अपने राज्य के अधिकारियों को पूरे नगर में उत्सव का प्रबंध करने का हुक्म दिया। शुकदेव का मन बहलाने के लिए इस उत्सव में नृत्य, नाटक, विशेष भोजन और हर तरह के रंग-तमाशों का आयोजन किया गया था।
जब सारी तैयारियाँ हो गईं तब राजा जनक ने शुकदेव को उनके सम्मान में आयोजित किए गए उत्सव का आनंद लेने के लिए बुलावा भेजा। लेकिन उनके प्रस्थान करने से पहले राजा ने शुकदेव से कहा: “शुकदेव, मैं चाहता हूँ कि आज आप जहाँ भी जाओ, दूध से लबालब भरा हुआ प्याला अपने हाथ में रखो।”
फिर राजा जनक ने शुकदेव की सुरक्षा के लिए भेजे गए अहलकारों को यह हिदायत दी: “शुकदेव को नगर के हर हिस्से में लेकर जाना। उन्हें सब कुछ देखने देना और ध्यान रखना कि कुछ भी छूटने न पाए। हमें अपने अतिथि का हर तरह से सम्मान करना चाहिए, लेकिन अगर शुकदेव दूध की एक भी बूँद गिरा दें तो मेरा हुक्म है कि तुम उसी समय उनका सिर काट देना।”
राजा के सैनिकों के सलामी दल के साथ शुकदेव पूरे नगर में घूमें और देर रात को राजा जनक के महल में वापस लौटे। राजा ने उनसे पूछा: “आपको उत्सव कैसा लगा? कहीं कोई कमी तो नहीं दिखाई दी?”
शुकदेव ने जवाब दिया, “हे राजन! हालात ही कुछ ऐसे बने कि मैं उस रंग-तमाशे में कुछ देख ही नहीं पाया। मेरा ध्यान हर पल उस प्याले पर ही टिका रहा, इस डर से कि कहीं एक बूँद भी बाहर न गिर जाए और मुझे अपनी ज़िंदगी से हाथ न धोना पड़े।
राजा जनक मुस्कराए और कहा, “शुकदेव! मैं भी इसी तरह इस सारे भोग-विलास और वैभव के बीच रहता हूँ। मैं और कुछ नहीं देखता क्योंकि मेरा ख़याल हर वक़्त परमात्मा में होता है ताकि कहीं मैं अपना ज़िंदगी न गँवा दूँ।”
राजा ने आगे कहा, “सोचो कि मौत प्याला है, तुम्हारा मन दूध है और उत्सव के रंग-तमाशे इस दुनिया के विषय-भोग और वैभव क्षणभंगुर हैं। मैं इस दुनिया में बड़ी सावधानी से रहता हूँ ताकि मेरे मन का दूध बाहर न गिरे, मेरा मन विचलित न हो और मेरा सारा ध्यान परमात्मा में ही टिका रहे। उसकी याद के बिना बिताया एक पल भी मौत की तरह है।”
बेशक यह बहुत ऊँचा आदर्श है जिसे रातों-रात हासिल नहीं किया जा सकता है। जैसा हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी फ़रमाया करते थे, “यह रास्ता कोई खाला का घर नहीं है।” यह वह रास्ता है जिस पर चलने के लिए पूरी ताक़त लगानी पड़ती है, इरादा पक्का होना चाहिए। हालाँकि हमें यह जानकर तसल्ली होती है कि सतगुरु जिसे भी नामदान देते हैं, उस इनसान में इस राह पर चलने और अपना मक़सद हासिल करने की ताक़त है। अगर हममें यह क्षमता नहीं होती तो वह हमें नामदान ही नहीं देते। जैसा कि बाबा जी अकसर कहते हैं: आप ऐसा कर सकते हो! बस करते जाओ! शिष्य का हौंसला बढ़ाने और उसे सहारा देने के लिए सतगुरु चौबीसों घंटे उसके साथ होते हैं। हमें सिर्फ़ उन्हें याद करना है, उन पर भरोसा रखना है। सतगुरु और हमारा भजन-सिमरन हमारी ज़िंदगी का सहारा है। वह हमें ज़िंदगी के सैलाब में बहने से बचाते हैं, हमें हर तरह के तूफ़ान का सामना करने की ताक़त देते हैं। प्रेम और दया का सागर हमेशा हमारी सँभाल के लिए मौजूद है। हमें सिर्फ़ इतना याद रखना है कि उन तक पहुँचने के लिए हमें अंतर में मुड़ना है।
एक बार दोबारा सोच-विचार करें
आइए हम ख़ुद से पूछें:
हम नामदान क्यों लेना चाहते हैं?
क्या हमने समझ लिया है कि नामदान लेने का क्या मतलब है?
क्या हम परिवार के दबाव में आकर नामदान ले रहे हैं?
क्या हमें यह ग़लतफ़हमी है कि नामदान हमारी दुनियावी समस्याओं को सुलझा देगा?
क्या हमने संतमत के उपदेश को अच्छी तरह समझने के लिए पर्याप्त किताबें पढ़ी हैं?
क्या हमने सत्संग सुने हैं?
क्या हमने इस राह के बारे में अपनी सारी शंकाएँ दूर कर ली हैं?
क्या हम यह ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार हैं?
क्या हमारे अंदर इतना सब्र है कि हम अपने इरादे पर पक्के रह सकें?
नामदान की तैयारी के लिए हम इस तरह शुरुआत कर सकते हैं:
नज़रिया – आशावादी सोच अपनाना;
व्यवहार – अपनी सोच को अपनी करनी में दिखाना:
स्पष्ट सोच – स्पष्ट सोच की आदत डालना;
श्रद्धा और भक्ति भाव – मक़सद हासिल करने के लिए गहरी लगन और निष्ठा।