रूहानी मार्ग पर चलने का मतलब है ज़िंदगी भर का समर्पण, तभी हमें क़ामयाबी हासिल हो सकती है। जिज्ञासुओं को किसी तरह की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए जब तक उन्हें मन में उठ रहे सभी सवालों के जवाब न मिल जाएँ, जब तक वे अपने अंदर उठ रही रूहानियत की चाहत को रोक न पाएँ। आम पूछे जाने वाले सवाल इस मक़सद से नीचे दिए गए हैं ताकि उन्हें पढ़कर जिज्ञासुओं को प्रेरणा मिले और उन्हें पूरी तरह से पता हो कि संतमत पर चलने से किस तरह की रहनी अपनानी होगी।
राधास्वामी सत्संग ब्यास संस्था
राधास्वामी सत्संग ब्यास के प्रमुख आजकल कौन हैं?
श्री गुरिंदर सिंह ढिल्लों राधास्वामी सत्संग ब्यास के मौजूदा संत-सतगुरु हैं। संगत इन्हें प्यार से बाबा जी बुलाती है।
क्या परमात्मा की प्राप्ति केवल राधास्वामी सत्संग ब्यास के उपदेश पर चलकर ही हो सकती है?
परमात्मा की प्राप्ति के कई मार्ग हैं। आम धारणा है कि आध्यात्मिक खोज की शुरुआत अपने अंतर में आध्यात्मिक साधना द्वारा ही होती है।
क्या संतमत कोई धर्म, संप्रदाय या गुट है?
संतमत न तो कोई धर्म है, न ही संप्रदाय या गुट। असल में संतमत ज़िंदगी जीने का एक ढंग है। यह संस्था न तो अपने सदस्य बढ़ाना चाहती है, न कोई फ़ीस लेती है और न ही किसी से कोई फ़ायदा उठाना चाहती है। यह किसी की निजी ज़िंदगी में दख़ल नहीं देती और न ही जिज्ञासुओं या संगत को अपना धर्म छोड़ने के लिए कहती है। संतमत कर्मकांड का समर्थन नहीं करता और न ही संगत को कोई विशेष पहनावा पहनने के लिए कहा जाता है। संतमत के अनुसार ज़िंदगी उच्च नैतिक सिद्धांतों और निजी रूहानी अभ्यास पर आधारित होनी चाहिए। संतमत में आकर हमें जीवन के असली उद्देश्य का पता चलता है और साथ ही वक़्त के गुरु यानी देहधारी सतगुरु की देखरेख में जीवन को सही ढंग से जीने में मदद मिलती है।
क्या राधास्वामी संस्था अपनी सेवाओं के लिए कोई फ़ीस लेती है?
नहीं, यह संस्था किसी भी सेवा के लिए कोई फ़ीस नहीं लेती।
राधास्वामी सत्संग ब्यास को जो पैसा सेवा में (दान) मिलता है उसका इस्तेमाल यह संस्था किस प्रकार करती है?
इसका इस्तेमाल संगत की भलाई और विकास के लिए किया जाता है। इन पैसों से कुछ चैरिटेबल अस्पताल खोले गए हैं। भूचाल या बाढ़ से पीड़ित इलाक़ों में शरणार्थी शैडों और स्कूलों का निर्माण किया गया है। इस संस्था के हैडक्वार्टर ब्यास में हर साल क़रीब पचास लाख लोगों की मुफ़्त रिहाइश और उनके खाने-पीने का इंतज़ाम किया जाता है।
विश्व के विभिन्न देशों में राधास्वामी सत्संग ब्यास के विकास की वजह से क्या इसके बुनियादी रूहानी मूल्यों में कोई बदलाव या कमी आ गई है?
विश्व में संतमत का प्रसार बदलते वक़्त का संकेत है। भारत और विश्व के देशों में संतमत के ज़बरदस्त विकास के कारण यह ज़रूरी हो गया था कि जो संगत संतमत की शिक्षा और रहनी अपना रही है उनकी ज़रूरतों का ख़याल रखा जाए। इसी लिए सत्संग-सेंटर खोले गए हैं। सत्संग-सेंटर जाने से संगत में आपसी प्रेम-भावना जागती है, उन्हें वहाँ सेवा का मौक़ा मिलता है जिससे संगत में एकता बढ़ती है। सेवा और आंतरिक साधना के इस मार्ग में सत्संग-सेंटर इन्हीं मूल्यों और सिद्धांतों पर बल देते हैं।
संतमत की जानकारी के लिए आप कौन-सी किताबें पढ़ने का सुझाव देते हैं?
संतमत के परिचय के लिए आम तौर पर इन किताबों को पढ़ने का सुझाव दिया जाता है — संत मार्ग, हक़-हलाल की कमाई, परमार्थ परिचय और संत संवाद । इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए आप अपने पास के सेंटर के सेक्रेटरी से मिल सकते हैं।
क्या मेरे लिए अन्य गुरुओं के प्रवचन सुनना उचित है, जैसे ईश्वर पुरी जी के?
हम हमेशा लोगों को सत्संग सुनने के लिए प्रेरित करते हैं ताकि हम अपना दायरा खुला रखें और हमें सही आध्यात्मिक उपदेश प्राप्त हो सके। यहाँ यह भी स्पष्ट किया जाता है कि राधास्वामी सत्संग ब्यास (RSSB) का श्री ईश्वर पुरी या किसी अन्य संस्था के साथ कोई संबंध नहीं है।
इस संस्था की जानकारी प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक विश्वसनीय Website कौन-सी है?
राधास्वामी सत्संग ब्यास के बारे में आप सही और विश्वसनीय जानकारी उनकी अपनी Website www.rssb.org से प्राप्त कर सकते हैं।
संतमत की शिक्षा के प्रचार के लिए सतगुरु Social Networking Sites और Group Chat Sites को बढ़ावा क्यों नहीं देते?
Social Networking Sites आजकल के समाज का हिस्सा है, लेकिन सतगुरु के अनुसार Internet पर इस तरह की चर्चाएँ संगत की ज़रूरतों को सही ढंग से पूरा नहीं कर पातीं। इस संस्था के अंतर्गत ऐसी व्यवस्था की गई है ताकि संगत की इन ज़रूरतों को पूरा किया जा सके। नब्बे से ज़्यादा देशों में सत्संग की व्यवस्था की गई है। राधास्वामी सत्संग ब्यास द्वारा प्रकाशित हिंदी और अन्य भाषाओं में उनके अनुवाद सहित लगभग 135 पुस्तकें उपलब्ध हैं। इन साधनों के ज़रिए सतगुरु अपनी देखरेख में संतमत के उपदेश के प्रचार की मंज़ूरी देते हैं।
सतगुरु
सतगुरु की क्या भूमिका है?
सतगुरु का मुख्य कार्य शिष्य को आंतरिक साधना के लिए नामदान (दीक्षा) देना है। नामदान के समय वह शिष्य को शब्द या दिव्य धुन से जोड़ते हैं। यह शब्द आत्मा का मार्गदर्शन करता हुआ उसे अपने असली घर, अविनाशी लोक में ले जाता है। जीवन के हर पहलू में सही राह पर चलने के लिए हमें सहायता और मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है। परमार्थ की यात्रा के लिए तो यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि केवल देहधारी सतगुरु ही हमें अंतर में परम सत्य से जोड़ सकता है।
क्या यह सच है कि नामदान के बाद सतगुरु हमारे कर्मों का भार उठा लेते हैं?
सतगुरु यह ज़िम्मेदारी लेते हैं कि वह हमें अपने असली घर पहुँचाने में मदद करेंगे। उनके प्यार, सहारे और दया-मेहर से हम बड़े साहस और सहज भाव से अपने कर्मों का भुगतान करते हैं। वह परमार्थ के सफ़र में हमारा मार्गदर्शन करते हैं ताकि हमारे कर्म निर्मल हो जाएँ लेकिन वह हमारे कर्मों का भार नहीं उठाते। हर एक को ख़ुद ही अपने कर्मों का भुगतान करना पड़ता है, यह सृष्टि का नियम है।
सतगुरु और शिष्य के रिश्ते का क्या महत्त्व है?
सतगुरु की ज़िम्मेदारी है कि वह शिष्य के आंतरिक सफ़र में मार्गदर्शन करें और उसे ऊँचे रूहानी मंडलों में ले जाएँ ताकि उसे मुक्ति प्राप्त हो जाए। जब शिष्य सतगुरु के उपदेश का पालन करता है, तो वह परमात्मा के हुक्म में रहना सीख जाता है। सतगुरु को हम अपना दोस्त, बड़ा भाई या गुरु, कुछ भी मान सकते हैं।
‘पूर्ण देहधारी गुरु’ का वास्तव में क्या मतलब है?
‘पूर्ण देहधारी गुरु’ शब्द उन संत-सतगुरुओं के लिए इस्तेमाल होता है जो साधना द्वारा उच्च आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त कर चुके हैं और अपने अंतर में हमेशा शब्द से जुड़े होते हैं, इसलिए वे पूर्ण कहलाते हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में इस अवस्था के लिए पूर्ण शब्द का प्रयोग किया गया है।
वास्तव में सच्चा गुरु क्या है?
सच्चा गुरु शब्द है, वह शरीर नहीं है। सच्चा शिष्य भी सुरत है, शरीर नहीं है। जब हम अंतर्मुख साधना से अपनी सुरत या चेतना को जाग्रत करते हैं तब हमारी सुरत दिव्य धुन की मदद से अनुभव करती है कि सतगुरु वास्तव में शब्द है।
क्या एक ही समय में एक से ज़्यादा पूर्ण संत-सतगुरु इस संसार में हो सकते हैं?
संसार में किसी भी वक़्त में एक से ज़्यादा पूर्ण संत-सतगुरु मौजूद होते हैं।
जब कोई सतगुरु अपनी देह त्याग देते हैं तो क्या होता है?
सतगुरुओं का संबंध रूहानी मंडलों से होता है, इसलिए उनका रूहानी स्वरूप अटल-अमर है, जो कभी नष्ट नहीं होता। परंतु अगर संतों की किसी परंपरा ने अभी और आगे चलना है तो मौजूदा सतगुरु अपनी देह त्यागने से पहले अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर देते हैं।
क्या कभी कोई महिला संत भी हुई हैं?
जी हाँ। महिला संतों में स्पेन की टेरिसा ऑफ़ अविला, इराक़ की राबिया बसरी और भारत की सहजोबाई, बहिणाबाई और मीराबाई शामिल हैं।
राधास्वामी सत्संग ब्यास को जो पैसा सेवा यानी दान के रूप में मिलता है, क्या उसमें सतगुरु को कोई निजी लाभ होता है?
सतगुरु इस बात पर बहुत बल देते हैं कि हमें अपनी हक़-हलाल की कमाई पर ही गुज़ारा करना चाहिए, चाहे वह ख़ुद की कमाई हो या परिवार से मिली हो। सतगुरु स्वयं अपने इस उपदेश के जीते-जागते उदाहरण हैं।
संत-सतगुरु सफ़ेद कपड़े ही क्यों पहनते हैं?
जिस तरह मौक़े के अनुसार हम अपने कपड़ों का चुनाव करते हैं, जैसे जिम जाने के लिए ट्रैक सूट, फ़िल्म देखने के लिए रोज़ पहनने वाले कपड़े, ऑफ़िस के लिए बिज़नस सूट और शादी के लिए फ़ॉर्मल कपड़े, इसी तरह सतगुरु भी समय के मुताबिक़ आरामदेह और सादा लिबास ही पहनते हैं। वह यात्रा के समय जीन्स, सैर करने के लिए ट्रैक सूट, आराम के वक़्त शॉर्ट्स पहनते हैं। अगर उन्हें लगे कि सफ़ेद लिबास उनके लिए सबसे सुविधाजनक और आरामदेह है तो वे उसे रोज़ भी पहन सकते हैं।
नामदान
नामदान प्राप्त करने से क्या अभिप्राय है?
नामदान के समय सतगुरु शिष्य को आंतरिक अभ्यास की वह युक्ति समझाते हैं जो सुरत (आत्मा) को शब्दधुन से जोड़ती है, ताकि वह परमात्मा से मिलाप कर सके। नामदान के समय जिज्ञासु भी संतमत की चार शर्तों को जीवनभर निभाने का वायदा करते हैं।
नामदान के समय कौन-कौन से वायदे किए जाते हैं?
अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए नामदान के समय जिज्ञासु चार शर्तों को निभाने का वायदा करते हैं:
शाकाहारी भोजन अपनाना यानी ऐसा कोई खाद्य-पदार्थ न खाना जिसमें मांस, मछली, अंडा या इनका कोई अंश मिला हो।
तंबाकू से बनी वस्तुओं, शराब, मन पर बुरा प्रभाव डालनेवाले नशीले पदार्थों और सभी कैनाबीनोइड पदार्थ जैसे सी.बी.डी. (CBD) से परहेज़ करना।
उच्च नैतिक मूल्यों के अनुसार अपना जीवन जीना तथा क़ानूनी तौर पर विवाह किए बिना किसी से भी शारीरिक संबंध क़ायम न करना।
हर रोज़ भजन-सुमिरन को ढाई घंटे देना।
नामदान के समय जो पाँच नाम बताए जाते हैं उनका महत्त्व क्या है?
नामदान के समय देहधारी सतगुरु शिष्य को सिमरन के लिए जो नाम देते हैं, उसमें सतगुरु की शक्ति निहित होती है जो अभ्यास के समय सुरत को शब्द से जोड़ती है। इन पाँच नाम के सुमिरन से हम परमात्मा को याद करते हैं। इस सुमिरन से अपने मन को स्थिर करते हैं और ध्यान को तीसरे तिल पर एकाग्र करते हैं जहाँ से हमारी आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है।
हम नामदान से पहले अपने आप को किस प्रकार तैयार कर सकते हैं?
हमें संतमत का साहित्य पढ़ना चाहिए, सत्संग सुनने चाहिएँ, मन में उठे किसी तरह के सवाल का जवाब पूछना चाहिए। हमें अपने परिवार और दोस्तों के साथ रहते हुए प्रेम-प्यार का माहौल बनाए रखना चाहिए। साथ ही हमें यह ख़ुद देखना है कि क्या हम जीवन में नामदान की पहली तीन शर्तों को निभा पाएँगे या नहीं। जिज्ञासुओं को यह सुझाव भी दिया जाता है कि वे अन्य रूहानी मार्गों की जानकारी प्राप्त करें ताकि उन्हें इस बात पर पूरा विश्वास हो जाए कि वे संतमत ही अपनाना चाहते हैं।
नामदान से पहले क्या हम भजन-सुमिरन का अभ्यास कर सकते हैं?
हमें नामदान से पहले भजन-सुमिरन का अभ्यास नहीं करना चाहिए। भजन-सुमिरन की विधि तो केवल देहधारी सतगुरु या उनके प्रतिनिधि ही नामदान के समय सिखाते हैं। सुमिरन के लिए अगर हम राधास्वामी या कोई और दूसरे शब्दों का इस्तेमाल करेंगे तो हमारे मन को आदत पड़ जाएगी और फिर जब हमें अपना असली भजन-सुमिरन शुरू करना होगा, तब हमें इस आदत को बदलना मुश्किल हो जाएगा।
नामदान प्राप्त करने के एक साल पहले से नामदान की इन शर्तों का पालन करना क्यों ज़रूरी है?
इन शर्तों को नामदान प्राप्त करने के एक साल पहले से निभाना इसलिए ज़रूरी है ताकि हम ख़ुद तय कर सकें कि हम इन शर्तों का जीवन भर पालन कर सकते हैं या नहीं।
नामदान के लिए आयु-सीमा की पाबंदी क्यों रखी गई है और इसके लिए कम से कम उम्र क्या है?
नामदान के लिए कम से कम उम्र 22 वर्ष है, परंतु भारत में शादीशुदा और कुँवारी लड़कियों के लिए आयु-सीमा कुछ अलग रखी गई है। उम्र की पाबंदी इसलिए है ताकि इनसान सोच-समझकर निर्णय ले सके।
जिनकी उम्र 22 वर्ष से कम है, उन जिज्ञासुओं को आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
कम उम्र के जिज्ञासुओं को चाहिए कि वे अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान दें, माता-पिता का कहना मानें, रहमदिल हों और सभी से प्रेम-प्यार से बरताव करें। वे अपनी रहनी को पहली तीन शर्तों के अनुसार ढालने की कोशिश करें — शाकाहारी भोजन अपनाएँ, तंबाकू, शराब और मन पर बुरा प्रभाव डालनेवाली दवाइयों से परहेज़ करें और निर्मल तथा नैतिक जीवन जीने का अभ्यास करें।
अगर हम नामदान लेना चाहते हैं परंतु हमारे परिवार वालों को इससे आपत्ति हो, तो हमें क्या करना चाहिए?
हमें अपने परिवार वालों के सामने अपनी नामदान लेने की इच्छा ज़ाहिर कर देनी चाहिए और अपना निर्णय लेने से पहले उनसे बातचीत करके उनकी राय जान लेनी चाहिए।
अगर हमारे परिवार में सबने नामदान लिया हो तो क्या यह ज़रूरी है कि हम भी नाम लें?
यह रिश्ता आत्मा और परमात्मा का रिश्ता है। हमारे नामदान लेने या न लेने के फ़ैसले पर परिवार या मित्रों का प्रभाव नहीं होना चाहिए।
क्या यह ज़रूरी है कि पति-पत्नी एक साथ नामदान लें?
आंतरिक अभ्यास एक निजी यात्रा है, निजी अनुभव है, इसलिए यह ज़रूरी नहीं है कि पति-पत्नी एक साथ नामदान लें।
यह निर्णय आख़िरकार कौन करता है कि हम नामदान लेने के लिए तैयार हैं या नहीं?
नामदान लेने के लिए हम तैयार हैं या नहीं, इसका निर्णय सिर्फ़ देहधारी सतगुरु ही लेते हैं।
क्या प्रतिनिधि से नामदान लेने में और सतगुरु से नामदान लेने में कोई फ़र्क़ है?
जब किसी को सतगुरु द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधि से नामदान मिलता है तो इससे बिलकुल कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
अगर हमें सतगुरु के प्रतिनिधि से नामदान मिला हो तो क्या यह ज़रूरी है कि हम सतगुरु द्वारा दिए गए नामदान में भी हाज़िर हों?
अगर हमें नामदान प्रतिनिधि द्वारा मिला है तो हमें सतगुरु द्वारा दिए गए नामदान में (जिसे अकसर री-सिटिंग कहा जाता है) हाज़िर होना ज़रूरी नहीं है, क्योंकि वास्तव में नाम तो सतगुरु ही देते हैं।
नामदान मिलने के बाद क्या हम अपने धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन कर सकते हैं?
संतमत का अनुसरण करते हुए धार्मिक रीति-रिवाजों के पालन में कोई पाबंदी नहीं है।
नामदान मिलने के कितने हफ़्तों, महीनों या सालों के बाद अंतर में ज्ञान होने लगता है?
नामदान के कितने समय बाद हमें अंतर में ज्ञान का अनुभव शुरू होगा, इसका कोई निश्चित समय नहीं है। हमारी आध्यात्मिक उन्नति कितनी जल्दी या देर से होगी, यह इस बात पर निर्भर है कि हम कितनी मेहनत करते हैं। इसमें समय का कोई महत्त्व नहीं है। इस रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए हमारी अपनी मेहनत और इस मार्ग पर होनेवाले निजी अनुभव ही हमें मंज़िल की तरफ़ प्रेरित करते हैं।
नामदान प्राप्त होना क्या परमात्मा से मिलाप की गारंटी है?
परमपिता परमात्मा में तो देर-सवेर सभी समा जाएँगे। इसके लिए कोई निश्चित समय नहीं है, क्योंकि आध्यात्मिक उन्नति हमारी अपनी कोशिश पर निर्भर है। हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति का हिसाब नहीं लगा सकते। हमारा लक्ष्य केवल यही होना चाहिए कि हम बिना किसी शर्त के परमात्मा से मिलाप के लिए अपने आप को समर्पित कर दें।
क्या यह सच है नामदान के बाद हमें केवल चार जन्म और वह भी मनुष्य जन्म ही मिलते हैं ताकि जन्म-मरण के चक्र से आज़ाद हो जाएँ?
देहधारी सतगुरु जिनको नामदान देते हैं, वे इस अथाह दु:ख के भवसागर से पार होकर हमेशा के लिए मुक्त हो जाएँगे। अगर हम रूहानी अभ्यास करके मनुष्य जन्म का लाभ उठाएँ तो इस मनुष्य जन्म का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य पूरा हो जाएगा। मनुष्य जन्म में ही हमें यह अवसर प्राप्त होता है कि हम संयम से एक ऐसा जीवन जियें जिसमें हमें अपने असली उद्देश्य का ज्ञान हो और हम जीवन के उस उद्देश्य के प्रति जागरूक हों, क्योंकि केवल मनुष्य को ही बुद्धि और विवेक की शक्ति प्राप्त है। लेकिन मुक्ति प्राप्त होने में हमें और कितने जन्म लगेंगे, यह फ़ैसला इस बात पर निर्भर करता है कि हम कितनी लगन से भजन-सुमिरन करके अपना ध्यान तीसरे तिल पर एकाग्र करते हैं। जैसे-जैसे रूहानी अभ्यास करते हैं, हम निर्मल होते जाते हैं।
नामदान लेने के बाद भी क्या हमारा जन्म पशु-पक्षियों की योनि में हो सकता है?
कर्म हमारा जीवन निर्धारित करते हैं। इस असलियत से हम मुँह नहीं मोड़ सकते कि हमारी करनी या कर्म ही यह तय करते हैं कि हमारा अगला जन्म मनुष्य का होगा या फिर हमें पशु-पक्षियों की योनि में भेज दिया जाएगा। अगर हम अपनी सोच को पशुओं जैसी बना लेंगे तो फिर हमारा अगला जन्म भी उसी सोच के अनुसार होगा। हमारा अगला जन्म हमारी सोच पर आधारित है और हमारी सोच हमारे कर्मों के अनुसार बनती है। स्पष्ट है कि हम जिस तरह का बीज बोयेंगे वैसा ही फल मिलेगा।
भजन-सुमिरन
भजन-सुमिरन करके हमें क्या हासिल होगा?
भजन-सुमिरन का उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। अंतर में शब्द से जुड़कर हम मन और माया से ऊपर उठ जाते हैं और अपने मूल स्रोत परमात्मा में समाकर उससे एक हो सकते हैं।
शब्द या धुन क्या है?
शब्द, धुन या वर्ड वह शक्ति है जिसने सृष्टि की रचना की और जो उसका पालन करती है, यह परमात्मा की सृजनात्मक शक्ति है। बाइबल में कहा गया है: आदि में शब्द था, शब्द परमात्मा के पास था और शब्द ही परमात्मा था (जॉन 1:1)। सृष्टि और हर जीव का आधार शब्द है, उसके बिना किसी की भी हस्ती क़ायम नहीं रह सकती।
क्या शब्द का ज़िक्र रूहानियत के अन्य मतों और धर्मों में भी हुआ है?
जी हाँ, बहुत-से रूहानी मार्गों और धर्मों में शब्द का ज़िक्र आता है। उनमें शब्द को कई अलग-अलग नामों से पुकारा गया है जैसे वर्ड, लॉगॉस, होली स्पिरिट, टाओ, दिव्य शक्ति, हुक्म, कलमा आदि।
क्या शब्द हर व्यक्ति में मौजूद है या सिर्फ़ उन लोगों में जो संतमत पर चलते हैं?
शब्द वह जीवनदायिनी शक्ति है जो हर इनसान में मौजूद है, संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। इसके बिना सृष्टि क़ायम नहीं रह सकती।
जब हम परमात्मा में समा जाएँगे तो क्या हमारी हस्ती ख़त्म हो जाएगी?
जब हम परमात्मा में समा जाते हैं तो हमारी असली हस्ती ख़त्म नहीं होती बल्कि अपने अहंकार और अस्तित्व को खोकर ही हमें अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान होता है और हम अपने स्रोत में समा जाते हैं।
क्या भजन-सुमिरन को हर रोज़ ढाई घंटे का पूरा वक़्त देना ज़रूरी है?
जीवन में अगर हम कुछ करना चाहते हैं तो उसकी नींव लगन और अभ्यास से ही बनती है। इसी तरह नामदान के समय हमने जो 2 ½ घंटे रोज़ भजन-सुमिरन करने का वायदा किया था उसको निभाना ज़रूरी है।
क्या भजन-सुमिरन सुबह अमृत वेला में ही करना ज़रूरी है या किसी भी वक़्त किया जा सकता है?
भजन-सुमिरन के लिए कोई भी वक़्त अच्छा है, परंतु अमृत वेले का सुझाव इसलिए दिया जाता है क्योंकि मन इस समय तरोताज़ा होता है, ज़्यादा बिखरा हुआ नहीं होता और ध्यान में बाधा डालनेवाला बाहर का शोरगुल भी इस समय कम होता है।
अभ्यास के समय नींद आ जाने से हम अपने को किस तरह रोक सकते हैं?
आम तौर पर लोगों को इस समस्या का सामना करना पड़ता है। हमें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि हम सजग रहें और हमारा ध्यान एकाग्र हो। निरंतर कोशिश और दृढ़ संकल्प से हम नींद पर क़ाबू पा सकते हैं।
भजन-सुमिरन के अभ्यास के समय स्थिर होने के लिए कहा जाता है। इसका क्या मतलब है?
स्थिर होने से अभ्यास में पूर्ण एकाग्रता प्राप्त होती है। मन को स्थिर करने के लिए पहले शरीर स्थिर करना चाहिए। अभ्यास से जब हमारा तन और मन दोनों स्थिर हो जाते हैं तब हमारी सुरत शब्द से जुड़ जाती है।
क्या हम भजन-सुमिरन के अभ्यास द्वारा अपना भाग्य बदल सकते हैं?
हमारा भाग्य तो हमारे कर्मों की वजह से पहले से ही तय हो जाता है; हम इसे बदल नहीं सकते। लेकिन भजन-सुमिरन के अभ्यास से हमें अंतर में इतना बल और धीरज मिलता है कि हम ज़िंदगी की मुश्किलों को बड़े सकारात्मक ढंग से सुलझा लेते हैं।
कर्म सिद्धांत
कर्मों का क़ानून या सिद्धांत क्या है?
कर्मों के सिद्धांत के अनुसार हम जैसी करनी करते हैं हमें वैसा ही फल भोगना पड़ता है। हज़रत ईसा ने फ़रमाया है, ‘मनुष्य जो बोयेगा, वही काटेगा।’
संसार में इतना अन्याय क्यों है?
इइस पूरे संसार में जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे कर्मों की क्रिया और प्रतिक्रिया यानी कर्मों का सिद्धांत काम कर रहा है। हमें भले ही ऐसा लगता हो कि अन्याय बढ़ रहा है, परंतु कर्मों के क़ानून के कारण ही इस सृष्टि में संतुलन बना हुआ है।
पुनर्जन्म क्या है? क्या हमारे कर्मों का हिसाब-किताब जन्म-जन्मांतर तक हमारे साथ ही रहता है?
मौत के बाद आत्मा को अपने कर्मों के क़र्ज़ के कारण फिर से नया जन्म लेना पड़ता है और इस नए जन्म में उसका भाग्य पिछले जन्म के कर्मों के अनुसार ही बनता है। जन्म-मरण के चक्र में फँसी आत्मा के बार-बार जन्म लेने को पुनर्जन्म कहते हैं। जन्म और मरण का यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा भजन-सुमिरन के अभ्यास द्वारा निर्मल और पवित्र होकर फिर से अपने स्रोत में समा नहीं जाती।
हमें यह कैसे पता चलेगा कि हम नए कर्म बना रहे हैं या फिर अपने पुराने कर्मों का हिसाब-किताब दे रहे हैं?
हमें यह पता नहीं चल सकता कि हम नए कर्म कर रहे हैं या यह पुराने कर्मों का फल है। इसलिए हमें सुझाव दिया जाता है कि हम अपने कर्मों, विचारों और वचनों के प्रति सजग और सचेत रहें ताकि नए कर्म बनाने से बचें।
क्या हमारी कोई स्वतंत्र इच्छा है?
कर्मों के कारण जन्म-मरण के चक्र में फँसकर हमने कई बार जन्म लिया है। इसी से हमारा भाग्य तय हुआ है। इसलिए हमारी स्वतंत्र इच्छा का दायरा बहुत सीमित है, हर स्थिति में हमारी सोच और नज़रिया सीमित है।
सृष्टि की रचना का उद्देश्य क्या है और हमें यहाँ क्यों भेजा गया था?
सही मायने में सृष्टि की रचना के रहस्य को समझना आसान नहीं है। सृष्टि के रहस्य को समझने के लिए हमें अपनी चेतना को परमात्मा के स्तर तक ले जाना होगा।
शाकाहारी भोजन अपनाना और शराब तथा नशीले पदार्थों से परहेज़
शाकाहारी भोजन अपनाना क्यों ज़रूरी है? अगर हम किसी जानवर की हत्या ख़ुद नहीं करते तो उसका मांस खाना ग़लत क्यों समझा जाता है?
संतमत की शिक्षा है कि जब हम किसी को जीवन नहीं दे सकते तो हमें किसी का जीवन लेने का भी कोई हक़ नहीं है। हमें बताया जाता है कि अगर हम अपने कर्मों के भार को और नहीं बढ़ाना चाहते, तो हमें न तो किसी की हत्या करनी चाहिए और न ही किसी की हत्या का कारण बनना चाहिए। मांस खाने से हम हिंसा तथा हत्या में फँसकर अपने कर्मों का बोझ बढ़ा लेते हैं। संतमत हमें शाकाहारी भोजन अपनाने की सलाह देता है जिसमें दूध तथा दूध से बनी वस्तुएँ शामिल हैं। शाकाहारी भोजन अपनाते वक़्त हमें ध्यान रखना होगा कि हम ऐसे खाद्य-पदार्थों से परहेज़ करें जिनमें जानवरों से प्राप्त सामग्री का प्रयोग होता है, जैसे जिलेटिन, अंडे और लार्ड (शॉर्टनिंग)। यह जानकारी कई जगह से मिल सकती है कि किस खाद्य-सामग्री में जानवरों से लिया गया कोई अंश शामिल है या नहीं। हाल ही में की गई मेडिकल रिसर्च के अनुसार शाकाहारी भोजन स्वास्थ्यप्रद और पौष्टिक है। इसका एक और लाभ यह भी है कि इससे हमारे अंदर सभी जीवों के प्रति आदर की भावना उत्पन्न होती है।
क्या हम उन खाद्य-पदार्थों का सेवन कर सकते हैं जो ऐसी फ़ैक्ट्री में तैयार किए गए हों जहाँ जानवरों से प्राप्त पदार्थ और अंडे इस्तेमाल किए जाते हों?
अगर जानवरों से प्राप्त खाद्य-पदार्थों को शाकाहारी खाद्य-सामग्री में नहीं मिलाया जाता तो हम उन्हें खा सकते हैं। इस नियम का पालन करना सही होगा, ‘जिस खाद्य-पदार्थ के शाकाहारी होने पर संदेह हो उसे नहीं खाना चाहिए’।
सजीव या निर्जीव अंडों को खाने में क्या नुक़सान हो सकता है?
अंडे का मतलब ही है कि उसमें से एक और जीव तैयार होगा। इसलिए चाहे ये सजीव हों या निर्जीव, इनसे परहेज़ रखना चाहिए।
परिवार में अगर किसी का पति या उसकी पत्नी एक दूसरे को मांसाहारी भोजन पकाने के लिए मजबूर करें तो उसे क्या करना चाहिए?
हमारी पूरी कोशिश होनी चाहिए कि हम अपने घर का माहौल ख़ुशहाल रखें और अपने विचार तथा विश्वास अपने परिवार वालों पर न थोपें। इसलिए अगर परिवार के सदस्यों के लिए मांस पकाना ‘ज़रूरी’ हो जाए तो हम ऐसा कर सकते हैं, लेकिन इस बात का ध्यान रहे कि हम इसे न खाएँ।
जब हम लोगों को या पालतू जानवरों को मांसाहारी भोजन अपने पैसों से ख़रीद कर खिलाते हैं तो क्या हमारे कर्मों का बोझ बढ़ता है?
हमें सलाह दी जाती है कि हम मांसाहारी भोजन से ख़ुद भी दूर रहें और दूसरों की वजह से भी इससे कोई नाता न रखें। जब हम लोगों को या जानवरों को मांस या उससे बनी कोई चीज़ परोसते हैं तो हम इन मांसाहारी पदार्थों की माँग को बढ़ावा दे रहे हैं, साथ ही अपने कर्मों का बोझ भी बढ़ा रहे हैं।
अगर मुझे अपने व्यवसाय में ऐसे लोगों को खिलाना पड़ता है जो मीट और शराब के चाहवान हैं तो मुझे क्या करना चाहिए?
हम ऐसे लोगों को किसी शाकाहारी रेस्तराँ में ले जा सकते हैं। हमें मांसाहारी भोजन की क़ीमत न चुकाने की सलाह दी जाती है; ऐसा इसलिए क्योंकि अगर हम क़ीमत चुकाते हैं तो हम उस जानवर की हत्या का कारण बनते हैं। हम ‘माँग’ और ‘उसे पूरा करने’ की ज़ंजीर की एक कड़ी बन जाते हैं। इस तरह हम अपने कर्मों का बोझ बढ़ा लेते हैं।
क्या ऐसे कारोबार जो मांसाहार या उससे बने पदार्थों से संबंध रखते हैं, उन्हें चलाना या उनमें काम करना संतमत के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है?
हमें किसी भी हालत में ऐसा कारोबार नहीं करना चाहिए जिसका संबंध मांस या उससे बने पदार्थों से हो। अगर किसी की ऐसी नौकरी है कि उसे मांस पकाना पड़ता है तो उसे कोई और काम ढूँढ़ लेना चाहिए। अगर किसी का कार्य मांसाहारी खाना परोसना है तो वह यह कार्य कर सकता है बशर्ते कि वह ख़ुद ऐसा खाना न खाए।
अगर हमारे बच्चे मीट खाते हों तो इसका हम पर क्या असर होगा? क्या हम शाकाहार अपनाने के लिए उन्हें मजबूर करें?
माता-पिता होने के नाते हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम एक अच्छा उदाहरण बनें। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम बच्चों को शाकाहारी भोजन ही खिलाएँ। लेकिन अगर हम उन्हें अपने विचार अपनाने के लिए मजबूर करते हैं या उन पर दबाव डालते हैं तो हो सकता है कि बड़े होकर उनका नज़रिया नकारात्मक हो जाए। माता-पिता होने के नाते हम ज़्यादा से ज़्यादा उनके सामने एक अच्छा उदाहरण पेश कर सकते हैं लेकिन हमें उनके फ़ैसले का आदर करना चाहिए।
हम अगर ग़लती से कोई ऐसी चीज़ खा लें जिसमें मीट या अंडा हो तो उससे क्या होगा?
हम मीट या अंडा चाहे ग़लती से खाएँ या जान-बूझकर खाएँ, इससे हमारे कर्मों का बोझ तो बढ़ेगा ही। उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति ज़हर खा लेता है, तो चाहे उसने ज़हर ग़लती से खाया हो या जान-बूझकर, उसके शरीर पर असर तो होगा ही।
क्या हम ऐसी दवाइयाँ ले सकते हैं जिनमें जानवरों से प्राप्त अंश हों या जो जिलेटिन के कैप्सूल में हों?
हमें इन दवाइयों का और जिलेटिन कैप्सूल का शाकाहारी विकल्प ढूँढ़ने की कोशिश करनी चाहिए, मांसाहारी चीज़ों को खाने से हमारे कर्म ज़रूर बढ़ेंगे।
चमड़े की बनी चीज़ों से परहेज़ करना कितना ज़रूरी है?
जानवरों से बनी चीज़ों से परहेज़ करना और उनको न ख़रीदना हमारे हित में है क्योंकि ऐसा करने से हम कर्मों के परिणाम से बच सकते हैं। हम सभी को विवेक की शक्ति दी गई है और उसके इस्तेमाल से हमें अन्य विकल्प ढूँढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।
क्या डॉक्टर द्वारा बताई गईं दर्द से राहत पानेवाली दवाइयाँ जिनमें मारुह्वाना भी शामिल है, ली जा सकती हैं?
डॉक्टर के निर्देश के अनुसार दर्द से राहत पाने के लिए और मानसिक समस्याओं के समाधान के लिए दवाइयाँ ली जा सकती हैं। लेकिन मेडिकल मारुह्वाना का सेवन कभी नहीं करना चाहिए चाहे वह डॉक्टर के नुसख़े के अनुसार ही क्यों न हो।
संतमत में धूम्रपान करना, शराब पीना और माइंड ऑल्टरिंग ड्रग्स (Mind Altering Drugs) का सेवन मना क्यों है?
शराब या नशीले पेय और मौजमस्ती के लिए ली गई ड्रग्स (माइंड ऑल्टरिंग ड्रग्स) के प्रयोग से मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ये दवाइयाँ मन में चंचलता और बेचैनी पैदा करके मन को इन दवाइयों के अधीन कर देती हैं। शराब, ड्रग्स और तंबाकू की आदत स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, ये इच्छाशक्ति को निर्बल कर देते हैं जिससे भजन-सुमिरन के अभ्यास में रुकावटें पैदा होती हैं।
संतमत की रहनी
सत्संग क्या है और इसे सुनने का क्या लाभ है?
सत् के संग को सत्संग कहते हैं; इसका मतलब संत-महात्माओं की संगति करना है, ताकि हम उनके ज्ञान, अनुभव और प्रवचनों से सीखें। सत्संग में नियमित रूप से जाने से हमारे मन में उनके उपदेश की याद बनी रहती है और हमें ऐसे वातावरण में रहने का अवसर मिलता है जो हमें भजन-सुमिरन के लिए प्रेरित करता है।
सेवा का क्या महत्त्व है?
निष्काम भाव से यानी किसी फल की उम्मीद किए बिना किसी भी कार्य को करना सेवा कहलाता है। जब हम बिना किसी स्वार्थ के सेवा करते हैं तब हम प्रेम-प्यार और नम्रता से ज़िंदगी जीना सीखते हैं।
क्या जीवन में महत्त्वाकांक्षी होने के बावजूद भी हम संतमत पर चल सकते हैं?
संतमत पर चलने का मतलब यह नहीं है कि हम दुनिया को छोड़ दें। संतमत की रहनी के अनुसार जीने का मतलब है कि हम चार शर्तों के दायरे में रहते हुए जीवन के हर पहलू का आनंद लें यानी नौकरी करते हुए, खेलते हुए, परिवार या दोस्तों के साथ रहते हुए ख़ुशी से ज़िंदगी बिताएँ।
क्या संतमत के नैतिक मूल्य आज भी मायने रखते हैं?
जी हाँ, ये मूल्य किसी भी समाज के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। ये आध्यात्मिक जीवन का आधार हैं। ये हमें बुरा कर्म करने से बचाते हैं और इनसे भजन-सुमिरन करने में भी मदद मिलती है।
क़ानूनी तौर पर शादी करना इतना ज़रूरी क्यों माना जाता है, शादी किए बिना भी साथ रहकर ज़िंदगी गुज़ारी जा सकती है?
क़ानूनी शादी इसलिए ज़रूरी मानी जाती है ताकि हम अपनी ज़िम्मेदारी को गहराई से समझें और निभाएँ। एक मुहावरा है ‘अगर हम चाहते हैं कि जूता खुल न जाए तो तस्मों को कसकर बाँधना ज़रूरी है।’
क्या हम अपने पति या पत्नी की आमदनी पर गुज़ारा कर सकते हैं?
जी हाँ, परिवार की आमदनी और संपत्ति का साँझे रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है।
क्या हमें दूसरे लोगों को संतमत में लाने की कोशिश करनी चाहिए?
हमें दूसरों पर अपने विचार थोपने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। हमें उनके विचारों का उसी तरह आदर करना चाहिए जैसा कि हम चाहते हैं कि वे हमारे विचारों का आदर करें।
बच्चों का पालन-पोषण करते वक़्त क्या हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि वे संतमत की शर्तों का पालन करें और सत्संग जाएँ?
अगर हम अपने जीवन में नैतिक गुणों को अपनाकर ख़ुद एक उदाहरण बनेंगे और अपने घर में प्रेम-प्यार और मेलजोल का वातावरण रखेंगे तो हमारे बच्चे अपने आप ही इन गुणों को अपना लेंगे। लेकिन हमारी यही कोशिश होनी चाहिए कि हम अपने बच्चों को बिना किसी पारिवारिक मनमुटाव या विरोध के ख़ुद ही किसी भी आध्यात्मिक मार्ग या धर्म का चुनाव करने का फ़ैसला करने दें।
अगर हमारा बच्चा अपनी जाति या समाज के बाहर शादी करना चाहता हो और इसके बारे में घर में मनमुटाव चल रहा हो तो हम इस स्थिति का कैसे सामना करें?
जाति, धर्म या सामाजिक ऊँच-नीच का संतमत से कोई लेना-देना नहीं है। संतमत सहनशीलता, धीरज और आपसी सद्भावना सिखाता है। संतमत के नज़रिए से देखा जाए तो शादी में जाति और समाज का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है इनसान के गुणों का, लड़का-लड़की के आपसी तालमेल का। बहस करने के बजाय बेहतर होगा कि हम खुले दिल से एक दूसरे का सम्मान करते हुए इस मुद्दे को समझने की कोशिश करें।
ज्योतिषियों और हस्तरेखा पढ़नेवालों के प्रति आपका नज़रिया क्या है?
आज की दुनिया में बहुत कम लोगों को ज्योतिष विद्या या हस्तरेखा का पूर्ण ज्ञान है। भविष्य को जानने की कोशिश के बजाय बेहतर होगा कि हम अपने भजन-सुमिरन पर ध्यान दें और अपने अंतर में ताक़त हासिल करें ताकि हम किसी भी परिस्थिति का सामना कर सकें। क्योंकि किसी भी हालत में हम अपने प्रारब्ध को तो बदल नहीं सकते।
क्या काले जादू या शाप का हम पर कोई प्रभाव हो सकता है?
नियमित रूप से किए गए भजन-सुमिरन से और निरंतर सुमिरन से हमारा मनोबल इतना बढ़ जाता है कि हमें सही और ग़लत का स्पष्ट ज्ञान होने लगता है और अपने दृढ़ संकल्प से हम ग़लत धारणाओं और अंधविश्वास के चक्र में नहीं फँसते। हम अगर अंदर से दृढ़ होंगे तो हम पर कोई भी चीज़ असर नहीं कर सकती।
क्या भूत-प्रेत सचमुच होते हैं और क्या वे हमें प्रभावित कर सकते हैं?
नियमित रूप से भजन-सुमिरन करने से हमारा मनोबल इतना बढ़ जाता है कि इन भ्रमों और वहमों का असर नहीं होता। अगर हम अंदर से मज़बूत रहेंगे तो कोई भी चीज़ हमें प्रभावित नहीं कर पाएगी।
Living Wills या Do Not Resuscitate Orders यानी ज़िंदगी को बचाने की कोशिश न करने के बारे में सतगुरु की क्या राय है?
मनुष्य जन्म एक परम सौभाग्य है इसलिए हमें हमेशा मौत के बजाय ज़िंदगी का चुनाव करना चाहिए। इस बात को अगर हम एक बार समझ लेते हैं तो बाक़ी यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम अलग-अलग हालात में क्या निर्णय लेते हैं। अगर कोई हमें अपनी ज़िंदगी के आख़िरी फ़ैसले लेने की ज़िम्मेदारी सौंपे तो हमें उससे साफ़ कह देना चाहिए कि हम कोई भी ऐसा निर्णय नहीं लेंगे जो इस नियम के विरुद्ध होगा।
अगर लाइलाज बीमारी (Terminally ill) के रोगी अपनी इच्छा से ज़िंदगी ख़त्म (Euthanasia) करना चाहते हैं ताकि उनका दु:खों से छुटकारा हो जाए तो क्या हमें उनसे सहमत होना चाहिए?
हमारी ज़िंदगी और मौत हमारे भाग्य यानी कर्मों के क़ानून के अनुसार तय होती है। मौत का वक़्त पहले से ही निश्चित होता है। जब हम ख़ुद अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने की सोचते हैं तो हम कर्मों के क़ानून के विरुद्ध जा रहे हैं और ऐसा करना ठीक नहीं है।
अगर हमारे पालतू जानवर बहुत बीमार और बूढ़े हो गए हों तो क्या हम उन्हें ख़त्म कर सकते हैं?
हमें ज़िंदगी लेने का कोई हक़ नहीं है, फिर चाहे वह किसी की भी ज़िंदगी क्यों न हो। पालतू जानवरों के भी अपने कर्म होते हैं जो उन्हें भोगने पड़ते हैं। जब हमें उनके साथ की ज़रूरत थी तब हमने उनकी कितनी देखभाल की, इसलिए अब भी हमें उनके आख़िरी वक़्त तक पूरी देखभाल करनी चाहिए जब तक उनकी स्वाभाविक रूप से मौत नहीं हो जाती।
अगर हम नामदान के समय किए गए वायदों को निभाना छोड़ दें तो क्या होगा?
जो भी फ़ैसला हम करते हैं हम उसी से बँध जाते हैं। हमें उसका नतीजा तो भुगतना ही पड़ेगा। अगर हम उन शर्तों का पालन नहीं करेंगे तो हमारे अमर धाम तक का रूहानी सफ़र और भी लंबा हो जाएगा।
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