कब्बाला का ज्ञान - राधास्वामी सत्संग ब्यास सत्संग और निबंध डाउन्लोड | प्रिंट

कब्बाला का ज्ञान

यह निबंध असल में एक ऑनलाइन वीडियो “विज़्डम ऑफ़ कब्बाला” का लिखित रूप है। (इस वीडियो का लिंक इस निबंध के अंत में दिया गया है।) इस वीडियो में कब्बाला के माध्यम से परमात्मा के और संसार की रचना के गूढ़ विषय को बहुत स्पष्ट और सरल ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जो यहूदियों के कब्बाला के बारे में नहीं जानते, उनके लिए यह उन गूढ़ शिक्षाओं का संग्रह है जिसका उद्देश्य अपरिवर्तनशील, अमर-अविनाशी परमात्मा और उसके द्वारा रची गई नश्वर और सीमाओं में बंधी सृष्टि के बीच के संबंध को समझाना है। ये शिक्षाएँ यहूदी धर्म की गूढ़ धार्मिक व्याख्याओं का आधार हैं।

भूमिका
क्या आपने कभी सितारों की ओर देखते हुए हैरान होकर यह सोचा है कि इनसे परे भी कुछ है? या फिर क्या आपने उन सभी सुख-सुविधाओं के बावजूद जिनसे सामाजिक दृष्टि से हमें ख़ुशियाँ मिलनी चाहिएँ, ख़ालीपन की भावना को महसूस किया है? कुछ ऐसा जैसे अपने जीवन के उद्देश्य की खोज, अपने जीवन की वास्तविकता को जानने की तड़प, मनुष्य के सबसे गहरे अनुभव हैं, जिनके जवाब ढूँढ़ने के लिए मनुष्य हज़ारों सालों से प्रयास कर रहा है।

आप पाएँगे कि यह केवल एक नज़रिया न होकर उससे कहीं अधिक है, यह एक सफ़र है जो उस सत्य तक पहुँचाने का वायदा करता है जिसे जानने के लिए आपकी आत्मा सदियों से तड़प रही है। इस वीडियो के अंत में आप जीवन को एक नए नज़रिए से देख पाएँगे, जिस नज़रिए से आपने पहले कभी नहीं देखा होगा। अगर आप असल में इन सवालों के उत्तर जानने के लिए तैयार हैं जो आपको परेशान कर रहे हैं तो इस लेख को अंत तक पढ़िए, हो सकता है कि यह आपके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण खोज साबित हो!

कब्बाला का ज्ञान
सदियों से बहुत-सी सभ्यताओं में दार्शनिकों, वैज्ञानिकों और संत-महात्माओं द्वारा अनगिनत सिद्धांत पेश किए जा चुके हैं जो हमें मार्ग दिखाते हैं, हमें यह समझाते हैं कि हम कौन हैं, हम इस संसार में क्यों हैं और अगर हमारे यहाँ होने का कोई मक़सद है, तो वह क्या है? लेकिन विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में इतनी तरक़्क़ी होने के बावजूद इन बुनियादी सवालों का कोई जवाब नहीं मिल पाया है। हम में से कइयों के लिए यह सवाल उस खुजली की तरह हैं जिसे खुजाया नहीं जा सकता, यह ऐसी तड़प है जो पूरी तरह शांत नहीं होती। लेकिन प्राचीन ग्रंथों में एक गुप्त मार्ग बताया गया है, एक ऐसी युक्ति, एक ऐसा विशेष ज्ञान जो इन सवालों के जवाब देने का दावा करता है। यह जीवन की वास्तविकता और इस संसार में हमारी भूमिका को समझने का एक गूढ़ आध्यात्मिक, मगर बहुत ही व्यावहारिक नज़रिया है।

सृष्टिकर्ता की कहानी
कब्बाला के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति अचानक घटी कोई घटना नहीं है बल्कि इसे बहुत सोच-समझकर किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए उस हस्ती द्वारा बनाया गया है जिसे कब्बाला के ज्ञाता सृष्टिकर्ता कहते हैं। उस समय की कल्पना करें, उस सृष्टिकर्ता की कहानी के बारे में जानें, जब समय और इस सृष्टि का जिससे हम परिचित हैं, अस्तित्व नहीं था। जब न पदार्थ थे न अंतरिक्ष, न आदि था न अंत, केवल एक अनंत शक्ति थी, एक स्रोत था।

मनुष्य की समझ से परे की इस शक्ति को कब्बाला के ज्ञाता सृष्टिकर्ता या अनंत कहते हैं। वे समझाते हैं कि जो कुछ भी हम देखते या अनुभव करते हैं, उसका स्रोत यही अपार शक्ति है। कब्बाला के अनुसार यह सृष्टिकर्ता क्या है?

सृष्टिकर्ता का स्वरूप सिंहासन पर बैठे किसी मानव जैसा नहीं है। वह कोई ऐसी हस्ती भी नहीं है जिन्हें हम देखने के आदी हैं बल्कि सृष्टिकर्ता एक ऐसी शक्ति है जो पवित्र, अनंत और जीवनदायिनी है और जो केवल देना तथा बाँटना जानती है। उसे अकसर दाता कहा जाता है क्योंकि उसकी हस्ती का सार और उद्देश्य एक ही है—देना और देते जाना। वह समय और स्थान के दायरे में नहीं आती, न ही उसका कोई आकार है।

सृष्टिकर्ता की बस एक ही इच्छा है—अच्छाई बाँटना और झोलियाँ भर-भर कर देना। लेकिन अगर वह देनेवाली शक्ति है तो सवाल यह उठता है कि उससे लेनेवाला आख़िर कौन है और कहाँ है?"

कब्बाला की शिक्षाओं में एक गूढ़ कथन है: सृष्टिकर्ता इतनी शिद्दत से देना चाहता था और इतना ज़्यादा देना चाहता था कि उसने एक ऐसा प्रतिरूप तैयार किया, एक ऐसा पात्र (बर्तन) जो उसके अनंत गुणों को ग्रहण कर सके।

लेने की चाह
सृष्टि की कहानी यहीं से शुरू होती है। यह कहानी सितारों, ग्रहों या अणुओं की नहीं है बल्कि यह कहानी उस एकमात्र कार्य की है, उस एकमात्र सृष्टि की है जो सृष्टिकर्ता की देने की इच्छा को पूरा करने के लिए “लेने की चाह” के रूप में सर्वप्रथम अस्तित्व में आई। कब्बाला के ज्ञाता “लेने की चाह” को पात्र कहते हैं। यह “लेने की चाह” शायद सुनने में अजीब लगे, लेकिन यही हमारे हर अनुभव, हमारे अस्तित्व का मुख्य कारण है। सृष्टिकर्ता ने लेने की चाह केवल इसलिए नहीं दी है कि हम उसकी अनंत दया और ख़ुशी को प्राप्त कर सकें बल्कि उसने इस पात्र के अंदर स्वयं को पाने की चाहत भी पैदा कर दी। इसे एक ऐसे पात्र के रूप में बनाया गया जो मालिक के सभी गुणों को ग्रहण कर सके।

अब सृष्टि रूपी इस पात्र की कल्पना करें, जो अपने आप में पूर्ण है। यह परमात्मा के नूर से भरपूर है जिसमें सच्चा सुख, परम आनंद और एकता का भाव है। यहाँ कोई कमी, कोई ख़ालीपन, कोई जुदाई नहीं—केवल परमात्मा के साथ पूर्ण एकता की अवस्था। इस पात्र को केवल पूर्णता का ज्ञान था, यह पूर्ण हो गया, माता-पिता की बाँहों में पकड़े उस बच्चे की तरह जो एकदम शांत है। इसे बिना किसी सवाल के, बिना किसी प्रयास के, उस पूर्ण एकता से बाहर अन्य किसी के बारे में सचेत न होने पर भी सब कुछ प्राप्त हो रहा था, लेकिन फिर इस कहानी में एक दिलचस्प मोड़ आया।

इस पात्र का टूटना
कब्बालावादियों के अनुसार, ‘पात्र का टूटना’ यह संकेत करता है कि इस लेने की इच्छा के दौरान ही उसमें एक अद्भुत तरंग उठी। यह पात्र केवल पाने के आनंद के बारे में ही नहीं बल्कि देनेवाले सृष्टिकर्ता के स्वभाव के बारे में भी सचेत होने लगा।

इस जागरूकता ने एक गहरा सवाल खड़ा किया, एक ऐसा सवाल जो इस सारी सृष्टि, जिसे हम जानते हैं, को लेकर भी था:

  • मेरे अस्तित्व का उद्देश्य क्या है?
  • मुझे प्रयास किए बिना ही यह सब भरपूर क्यों प्राप्त हो जाता है?
  • क्या मैं भी किसी तरह सृष्टिकर्ता जैसा बन सकता हूँ, जो लेने के बजाय केवल देना जानता है?

इस तरह इस पात्र के अंदर एक तड़प पैदा हुई। अब यह पात्र चुपचाप केवल ‘लेने वाला’ बनकर ही नहीं रहना चाहता था। इसके अंदर इच्छा उठी कि यह सृष्टिकर्ता जैसा बने, उसकी तरह देनेवाला बने, न कि केवल लेनेवाला ही बना रहे।

बंधनों से मुक्त होने की इच्छा, किसी उद्देश्य के साथ जीने, केवल हासिल करते रहने के बजाय परमात्मा की तरह बनने की यह चाहत ही उठाए जानेवाले हर क़दम का आधार बनी।

सफ़र की शुरुआत
सृष्टिकर्ता ने अपने अनंत ज्ञान द्वारा जाना कि अगर पात्र सच में पूर्णता का अनुभव करना चाहता है तो उसे एक सफ़र तय करना होगा। एक ऐसा सफ़र जिसे तय करने पर उसके अंदर ऐसा बदलाव आएगा कि वह केवल लेनेवाला न रहकर अगम्य-अगाध बन जाएगा।

और इस तरह यह पात्र टूट गया। यह अनगिनत टुकड़ों में बँट गया। हर टुकड़े में पाने की मूल इच्छा बनी रही, लेकिन अब हर टुकड़े का अपना अलग सफ़र था जिसके पीछे परमात्मा से मिलाप की छिपी हुई चाहत थी, उस एक के साथ अपनी पूर्ण एकता को फिर से पहचानने की जिसका वह अंश था।

इस विभाजन को अथवा टूटने को ही कब्बाला के ज्ञाता सृष्टि की उत्पत्ति और संपूर्ण जीवन का मूलभूत कारण मानते हैं।

चेतना और इच्छा को किसी उद्देश्य से अलग-अलग किया गया ताकि पात्र का हर टुकड़ा यानी प्रत्येक मनुष्य की आत्मा अपने इस सफ़र द्वारा ख़ुद मालिक की पहचान कर सके और उसके जैसी परोपकारी और सबको देनेवाली बन सके।

इस प्रकार कब्बाला के अनुसार यह सृष्टि केवल स्थूल ब्रह्मांड नहीं है जो शून्य से बिना किसी कारण के पैदा हो गई है, बल्कि यह बहुत लंबे रूहानी सफ़र को दर्शाती है। यह उस असली पात्र यानी आत्मा का सफ़र है जो कभी मालिक में समाई हुई थी पर अब उससे बिछुड़कर सृष्टि में आ गई है। इस सृष्टि में रहते हुए उद्देश्य की खोज में, सुखों और दु:खों में से गुज़रते हुए, चुनौतियों का सामना करते हुए और इसके रहस्यों को जानने का प्रयास करते हुए उस पात्र का हर एक टुकड़ा यानी प्रत्येक आत्मा ख़ुद को तन्हा, संघर्ष में जूझते और व्याकुल पाती है। सोच-समझकर रची गई इस रंगभूमि में आत्मा रूपी अंश हर क़दम पर पाने की आंतरिक इच्छा से ऊपर उठना सीखती है और इसके अंदर एक नई चाहत पैदा होती है, दूसरों को देने की इच्छा।

पात्र का टूटना क्यों ज़रूरी था?
टूटने की इस प्रक्रिया में से गुज़रकर ही आत्मा पाने की इच्छा से ऊपर उठकर सृष्टिकर्ता के गुणों को पहचान सकती है और उसकी शुक्रगुज़ार हो सकती है। हममें से हर किसी का सफ़र निराला है, हमें अपनी इच्छाओं से ऊपर उठकर, चुनौतियाँ का सामना करते हुए तथा अवसरों का लाभ उठाकर पाने की इच्छा को देने की इच्छा में बदलना है। ऐसा करते हुए हम अपने मूल के साथ जुड़ना शुरू कर देते हैं, पूर्ण एकता की उस अवस्था के साथ जिसके लिए हर किसी का हृदय तड़पता है, चाहे हमें सचेत रूप से इस बात का एहसास न भी हो।

अस्तित्व के चार पड़ाव
इस सफ़र को समझने के लिए हमें कब्बालावादियों द्वारा बताए “अस्तित्व के चार पड़ावों” पर ध्यान देने की ज़रूरत है। यह धारणा इस बात पर प्रकाश डालती है कि किस तरह जीवन अपने निम्न स्तर से विकसित होते हुए मनुष्य के रूप में अस्तित्व में आता है और कैसे एक स्तर पर बीज रूप में अगले स्तर के लिए सामर्थ्य पहले से ही होता है। ये सभी रचयिता के साथ जुड़ने के एकमात्र लक्ष्य को पाने की प्रेरणा देते हैं।

अस्तित्व के ये चार पड़ाव कब्बाला की रचनाओं में डोमिम, सोमिक, हैय्यम और मेदाबा के नाम से जाने जाते हैं। इनकी क्रमबद्ध व्यवस्था जड़ चीज़ों से शुरू होकर वनस्पति, वनस्पति से जानवरों और अंत में मनुष्यों तक पहुँचती है।

[कब्बाला में रचना के चार पड़ाव, चार जगत हैं जिन्हें आमतौर पर अत्ज़िल्थ, ब्रियाह, येत्ज़िराह और अस्सियाह कहा जाता है:

  • अत्ज़िल्थ – वह जगत जिसका संबंध दिव्य ज्ञान द्वारा उत्पत्ति या नज़दीकी से है।
  • ब्रियाह – सृजन का जगत जिसका संबंध दिव्य सूझ से है।
  • येत्ज़िराह – साकार जगत जिसका संबंध दिव्य भावनाओं से है।
  • अस्सियाह – कर्म जगत जिसका संबंध दिव्य क्रियाशीलता के साथ है।

ये चारों जगत अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी आदि तत्त्वों को दर्शाते हैं जो हर जगत के भीतर आगे के चार स्तरों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। उदाहरण के लिए अग्नि का संबंध चेतना के साथ है, वायु का आत्मा के साथ, जल का मन के साथ और पृथ्वी का शरीर के साथ। ये चारों जगत मिलकर “याकूब की सीढ़ी” बन जाते हैं। कब्बालावादियों के अनुसार, अस्तित्व का यह सिद्धांत पूरे ब्रह्मांड और मनुष्य के अंदर के सूक्ष्म ब्रह्मांड, दोनों पर लागू होता है। मनुष्य देह अद्भुत है क्योंकि इसकी पहुँच इन चारों तक है, जबकि दूसरे जीव केवल अपने ही स्तर तक सीमित रहते हैं।]

हर पड़ाव अपने पिछले पड़ाव का विस्तार है जो पहले से अधिक जटिल है, जिसकी विशिष्ट पहचान है और जिसका अपना विशेष उद्देश्य है। ये केवल भौतिक आकारों के पड़ाव नहीं हैं, ये रूहानी विकास और इच्छाओं के जाग्रत होने के पड़ावों का वर्णन करते हैं।

पहला पड़ाव
आइए पहले पड़ाव की शुरुआत विशाल, बेजान, वीरान रेगिस्तान या स्थिर पर्वत श्रृंखला के दृश्य से करते हैं। इस पहले पड़ाव डोमिम (अत्ज़िल्थ) में वे सभी चीज़ें आ जाती हैं जिनमें कोई हलचल या निजी इच्छा नहीं होती। पत्थर, खनिज, ग्रह और सितारे स्थिर रहते हैं। इनके स्वरूप में कोई बदलाव नहीं होता। कब्बाला के अनुसार इनमें न तो बढ़ने की और न ही विकसित होने की कोई इच्छा होती है। ये बेजान चीज़ें अस्तित्व में बने रहने, सँभाले जाने और जैसी हैं वैसे ही बनी रहने की मूल इच्छा को प्रकट करती हैं।

इसका ईश्वर के प्रकाश से संपर्क होता है जो छिपा हुआ और अतिसूक्ष्म होता है। जड़ चीज़ें स्थिर, अपरिवर्तनशील और शांत होती हैं, इनमें जीवन की सीमित अभिव्यक्ति होती है।

दूसरा पड़ाव
अब हम दूसरे पड़ाव, सोमिक (ब्रियाह) यानी वनस्पति जगत के स्तर पर आते हैं। यहाँ हमें बढ़ने की, बदलाव और विकास की शुरुआत दिखाई देती है। पौधे सूर्य का प्रकाश प्राप्त करने के लिए धरती से पोषक-तत्त्व ग्रहण करके ऊपर की ओर बढ़ते हैं। पत्थरों के विपरीत इनमें बढ़ने और फलने-फूलने की आंतरिक इच्छा होती है। इनका अस्तित्व मात्र जड़-पदार्थ होने से ज़्यादा अर्थपूर्ण होता है। इनमें जीवन, गति और कोई उद्देश्य होता है। इस स्तर पर इनकी चाहत मात्र अस्तित्व क़ायम रखने की नहीं होती बल्कि इनमें प्रकाश को पाने की, बदलाव और फूलने-फलने की चाह होती है। लेकिन यह विकास प्रकृति के नियमों के अनुसार होता है और यह स्वाभाविक रूप से अपने आप होता है। पौधा यह नहीं चुन सकता कि उसे कैसे बढ़ना है, वह पहले से तय नियमों के अनुसार बढ़ता है। फिर भी, कब्बाला में यह पड़ाव परमात्मा के प्रकाश को प्रकट करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम माना जाता है।

तीसरा पड़ाव
फिर हम तीसरे पड़ाव हैय्यम (येत्ज़िराह) अर्थात् जीव-जंतुओं के स्तर पर आते हैं। यहाँ जीवन एक बिल्कुल नया रूप लेता है—जानवर आज़ादी से घूमते हैं, शिकार करते हैं, अपना बचाव करते हैं और अपने बच्चों को पालते हैं। इस स्तर पर सुख-दु:ख और सुरक्षा व ख़तरे की समझ आ जाती है।

जानवर सिर्फ बड़े ही नहीं होते हैं; वे आपसी मेल-जोल भी रखते हैं, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश करते हैं, स्वाभाविक रूप से भावनाओं का अनुभव करते हैं और अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए प्रयास करते हैं। इस पड़ाव पर ‘पाने की इच्छा’ कहीं अधिक शक्तिशाली होती है और यह ख़ुद की रक्षा या बचाव की भावना से जुड़ी होती है। यह चाहत सिर्फ़ जीवित रहने की नहीं होती बल्कि सचेत होकर जीने की होती है।

जानवर पौधों की तरह नहीं होते। जानवरों की अपनी पहचान होती है, उनकी अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं, अनूठा व्यवहार होता है और वे कब्बाला के साथ भी संबंध जोड़ते हैं।

यह स्तर उच्च प्रकार की चेतना को दर्शाता है जो हलचल कर सकती है, महसूस कर सकती है और प्रतिक्रिया दे सकती है। लेकिन फिर भी यह चेतना स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण है न कि गहरी सोच या रूहानी तड़प के कारण।

चौथा पड़ाव
आख़िरकार हम मेदाबा (अस्सियाह) के पड़ाव यानी मनुष्यों के स्तर पर पहुँचते हैं जो अभिव्यक्त कर सकते हैं। यह पड़ाव केवल जैविक विकास का अगला क़दम नहीं है बल्कि इस विकास में इच्छाएँ भी बदल जाती हैं।

मनुष्यों में पहले के सभी पड़ावों की विशेषताएँ होती हैं जैसे जड़-पदार्थों जैसी स्थिरता, पौधों जैसा विकास और जानवरों जैसी प्रवृत्तियाँ। लेकिन इन सबसे बढ़कर मनुष्य में कुछ और भी होता है, वह है अपने अस्तित्व के बारे में जागरूकता, जीवन का उद्देश्य जानने की चाह और इस रचना में अपना महत्त्व समझने की इच्छा।

इस स्तर पर जीवन के उद्देश्य के बारे में प्रश्न उठते हैं जबकि जानवरों में ऐसा नहीं होता। मनुष्य केवल स्वाभाविक प्रवृत्तियों से संतुष्ट नहीं होते, मनुष्य उत्तर खोजते हैं, सृजन करना चाहते हैं, कायाकल्प करना चाहते हैं और कब्बाला के ज्ञान के अनुसार आगे बढ़ना चाहते हैं।

यह मानवीय पड़ाव अत्यंत अर्थपूर्ण है क्योंकि इसमें इच्छाओं की पिरामिड जैसी संरचना परमात्मा की इच्छा को दर्शाती है। इस पड़ाव पर जीवात्मा को प्रश्न करने, महत्त्वाकांक्षाएँ रखने, जीवन की विविधता का अनुभव करने और इस सब से ऊपर उठने का सामर्थ्य प्रदान किया गया है। हम उस अनंत के बारे में सोच-विचार कर सकते हैं। हमारे दिल में दूसरों के लिये दया की भावना होती है और हमारी आत्मा परमात्मा से जुड़ना चाहती है।

इस पड़ाव पर इच्छाएँ बहुत ज़्यादा हो जाती हैं, एक के बाद एक और कभी एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत।

इस स्तर पर मनुष्य सुख और दु:ख, आनंद और पीड़ा दोनों को बहुत अधिक महसूस करता है क्योंकि इस स्तर पर हम कुछ चीज़ों को लेकर अपने अस्तित्व के बारे में अधिक सजग होते हैं जिनके बारे में दूसरे स्तर के जीव नहीं होते।

इसी पड़ाव पर हम स्वतंत्र इच्छा से कर्म कर सकते हैं। हम चुन सकते हैं कि कैसे कर्म करने हैं, कैसा बर्ताव करना है और आख़िरकार अपने जीवन को कैसे जीना है और रूहानी सफ़र को पूरा करने के लिए कौन-सा मार्ग चुनना है।

व्यवस्था के ये पड़ाव महत्त्वपूर्ण क्यों हैं?
व्यवस्था के ये पड़ाव महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? क्योंकि चेतना का हर स्तर—पत्थर से पौधे तक, जानवर से इंसान तक—बदलती हुई इच्छाओं को दर्शाता है। इस विकास से और इच्छाओं के निर्मल होने पर ही हम परमात्मा के प्रकाश के नज़दीक होते जाते हैं। जड़-पदार्थों के पड़ाव पर जीव अपने अस्तित्व में होने से ही संतुष्ट है। पौधे बढ़ना चाहते हैं। जानवर घूमना-फिरना चाहते हैं, सुख और सुरक्षा चाहते हैं।

लेकिन मनुष्य होने के नाते हम कुछ ऐसा चाहते हैं जो हमसे भी श्रेष्ठ हो। हम सवाल पूछते हैं, हम सितारों की ओर देखते हैं और सोचते हैं कि हम यहाँ क्यों हैं? हम कुछ अद्भुत या अलौकिक चाहते हैं, हमारे मन में दुनियावी ज़रूरतों से ऊपर उठने और किसी उच्च सत्ता के साथ जुड़ने की इच्छा होती है। इस पड़ाव पर कब्बाला की शिक्षाएँ हमारे समक्ष यह विचार प्रस्तुत करती हैं कि मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य फिर से परमात्मा में समा जाना है। अस्तित्व के इन पड़ावों में से गुज़रने का यह सफ़र आकस्मिक नहीं है, यह परमात्मा के हुक्म से बनाया गया मार्ग है ताकि वह हमारे साथ असीम आनंद को बाँट सके और हमें इस सबके पीछे का उद्देश्य समझा सके।

अस्तित्व का हर पड़ाव सीढ़ी के एक डंडे की तरह है जो हमें जीवन के रहस्य की गहराई में और दिव्य स्रोत के बहुत क़रीब ऊँचे से ऊँचे मुक़ाम पर ले जाता है।

‘मेदाबा’ (अस्सियाह) के इस पड़ाव पर जो अभिव्यक्ति का पड़ाव है, हमारे पास सृष्टिकर्ता का रूप बनने, अपने रूहानी सफ़र में सक्रिय भूमिका निभाने का सामर्थ्य होता है। हम अपनी इच्छाओं और देने की भावना के बीच संतुलन बनाना सीखते हैं। इस नज़रिए से यह मनुष्य-जन्म एक अमूल्य अवसर है।

हम इस दुनिया में सिर्फ़ जीने या आगे बढ़ने के लिए नहीं आए हैं। हम यहाँ अपना कायापलट करने या ऐसे गुणों को धारण करने के लिए आए हैं जो परमात्मा के ‘देनेवाले स्वभाव’ के अनुरूप है।

इस प्रकार जब हम अस्तित्व के चारों पड़ावों को देखते हैं, तब हम जीवन को रूहानी विकास की एक विशाल और पेचीदा प्रक्रिया के रूप में देखने लगते हैं। वे इच्छाएँ जो पत्थर, पेड़, जानवर और मनुष्य को जीवंत बनाती हैं, उन सभी का स्रोत एक ही है मगर हर पड़ाव पर देने की वह असल इच्छा निराले रूप में प्रकट होती है। ऐसा लगता है मानो परमात्मा ने हर पड़ाव पर हमारे भीतर दिव्य उद्देश्य के रूप में एक चिंगारी रखी हुई है। अस्तित्व के हर स्तर पर यह चिंगारी धीरे-धीरे हमारे अंदर सुलगती है—मनुष्यों के रूप में कब्बाला की शिक्षाओं द्वारा जीवन के रहस्य को समझकर हम इस सफ़र को तय करते हुए पूर्ण चेतनता के स्तर पर पहुँच सकते हैं। फिर से जुड़ने की कोशिश से और रूहानी कार्य द्वारा हमें अपने अस्तित्व के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू का अनुभव हो जाता है।

फिर से जुड़ना और रूहानी कार्य
कब्बाला के अनुसार हर आत्मा का मूल उद्देश्य एक ही है– फिर से परमात्मा के साथ जुड़ना। यह कोई साधारण मिलाप नहीं है बल्कि सचेत होकर वापस अपने असल सार-तत्त्व तक पहुँचने की इच्छा से तय किया गया सफ़र है जिसके लिए रूहानी कार्य करना पड़ता है और अपने अंदर ज़बरदस्त बदलाव लाना पड़ता है।

लेकिन सवाल यह है कि परमात्मा से पुन: मिलाप का व्यावहारिक ढंग क्या है?

यह रूहानी कार्य वास्तव में है क्या?

और यह पूर्णता प्राप्त करने के हमारे उद्देश्य के लिए इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?

इस खंड में हम तीन मुख्य बिंदुओं पर ध्यान देंगे: पहला, हृदय में तड़प पैदा होना, दूसरा, इच्छाओं में ज़बरदस्त बदलाव और तीसरा, मिलजुल कर रूहानी कार्य करने का महत्त्व। आइए पहले बिंदु से शुरू करते हैं।

हृदय में तड़प पैदा होना
कब्बाला के उपदेश में हृदय में तड़प पैदा होना कुछ श्रेष्ठ पाने की इच्छा की पहली चिंगारी है। यह एक ऐसी तड़प है जो इस भौतिक जगत से परे है।

आप शायद ऐसा महसूस करते हों कि धीमे स्वर में एक सवाल लगातार बुदबुदाता रहता है: क्या कुछ और है जो जीवन में इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है?

बहुत-से लोग पहली बार इसे असंतुष्टि की अस्पष्ट-सी भावना के रूप में महसूस करते हैं जबकि उनके पास जीवन की सभी सुख-सुविधाएँ होती हैं। हो सकता है कि उनके पास धन-दौलत, रिश्ते-नाते, सेहत सब कुछ हो मगर फिर भी वे कोई कमी महसूस करते हैं।

हृदय की यह तड़प एक दिव्य चिंगारी की तरह हर मनुष्य के भीतर मौजूद है। यह रूहानी उन्नति के सच्चे उद्देश्य को पूरा करने और परमात्मा के साथ फिर से जुड़ने की इच्छा है। कब्बाला की शिक्षाओं के अनुसार हर किसी में यह चिंगारी होती है लेकिन यह जीवन के एक खास पड़ाव तक सुप्त रहती है। अकसर जीवन के कुछ ऐसे अनुभव जो हमें अनिश्चितता का या ऐशो-आराम के अस्थाई होने का एहसास करवाते हैं, इस चिंगारी को भड़का देते हैं।

हृदय की यही तड़प ही हमारी आत्मा का जाग उठना है और इसे फिर से याद दिलाना है कि इससे भी बड़े सत्य की खोज अभी बाक़ी है। एक बार जब हृदय में यह तड़प पैदा हो जाती है, तब यह हमारे रूहानी सफ़र में आगे बढ़ने की प्रेरणा बन जाती है।

कब्बाला के ज्ञाता समझाते हैं कि यही चिंगारी हमें रूहानी कार्य करने, सवाल करने, असलियत की खोज करने और साधारण इच्छाओं से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है। यह तड़प रूहानी मार्ग पर चलने की शुरुआत है, यह हमें सीखने, उन्नति करने और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। रूहानी कार्य का उद्देश्य दुनिया का त्याग करना नहीं है बल्कि अपने सोचने-समझने के दायरे को खोलना है, उस ऊँचे नज़रिए से संसार को देखना है और यह सीखना है कि कैसे अपने रोज़मर्रा के अनुभवों को परमात्मा से मिलाप की मंज़िल तक ले जानेवाले क़दम बना लिया जाए। रूहानी कार्य का अगला पड़ाव और अधिक गूढ़ और चुनौतियों से भरा है।

अपनी इच्छाओं में पूरी तरह बदलाव लाना

अपनी इच्छाओं में पूर्ण बदलाव लाने की प्रक्रिया कब्बाला की शिक्षाओं का केंद्र बिंदु है। संपूर्ण अस्तित्व के पीछे यही वह शक्ति है जो बेजान पदार्थों से लेकर मनुष्यों तक हर चीज़ को चलाती है।

हम जो भी करते हैं, इच्छाओं के कारण ही करते हैं और इन्हीं इच्छाओं के कारण हम सब कुछ महसूस करते हैं। लेकिन शुरुआती चरण में इंसान की इच्छा स्वयं पर केंद्रित होती है। हम आराम, सुख, सम्मान और सुरक्षा की कामना करते हैं—ये सब हमारी स्वाभाविक ज़रूरतें हैं।

लेकिन कब्बाला समझाता है कि रूहानी तरक़्क़ी के मार्ग पर हमें अपनी इच्छाओं को निर्मल और श्रेष्ठ बनाना है। इच्छाओं में पूरी तरह बदलाव लाने की इस प्रक्रिया में स्वयं पर केंद्रित इच्छाओं को छोड़कर ऐसी इच्छाएँ रखना है जो दूसरों को देने, उनसे जुड़ने और भाईचारे की भावना पर आधारित हों। यह आसान नहीं है। हमारा अहं चाहता है कि हम केवल स्वयं को महत्त्व दें, केवल अपने फ़ायदों और ज़रूरतों पर ध्यान दें। मगर कब्बाला सिखाता है कि अहंकार द्वारा संचालित इन इच्छाओं को कैसे पहचानें और धीरे-धीरे इन्हें दूसरों को कुछ देने की इच्छा और दया-भाव में कैसे बदलें।

कब्बाला के ज्ञाता अकसर समझाते हैं कि ऐसा करने से हम सभी को एक ही नज़र से देखना सीख जाते हैं अर्थात् हम दूसरों को अपने से अलग न समझकर उन्हें परमात्मा का रूप मानने लगते हैं। जब हम दूसरों की मदद करते हैं, वास्तव में हम ख़ुद की मदद करते हैं। जब हम किसी को ख़ुशी देते हैं, तब बदले में हमें भी वही ख़ुशी महसूस होती है। इस पूर्ण बदलाव के लिए हमें प्रतिदिन प्रयास करने, अपनी आंतरिक प्रेरणाओं के बारे में निरंतर सचेत रहने और ऐसा व्यवहार करने के लिए प्रतिबद्ध रहने की ज़रूरत है जिसके द्वारा हम देने की भावना और प्रेम जैसे ईश्वरीय गुणों को धारण करते जाएँ। इस पूर्ण बदलाव द्वारा हम दुनिया को नए दृष्टिकोण से देखने लगते हैं, हमें रिश्तों के गूढ़ अर्थ और कर्मों का ऊँचा उद्देश्य समझ आ जाता है और हमें ऐसी संतुष्टि प्राप्त होती है जो बाहरी हालात पर निर्भर नहीं होती।

अपनी इच्छाओं में पूरी तरह बदलाव लाकर हम हर क़दम पर परमात्मा जैसे गुणों को धारण करते जाते हैं। इस तरह हमारे भौतिक अस्तित्व और अपार रूहानी सामर्थ्य के बीच का फ़ासला कम होता जाता है। तीसरा और अंतिम बिंदु है मिलजुल कर रूहानी कार्य करने का महत्त्व।

मिलजुल कर रूहानी कार्य करने का महत्त्व
कब्बाला की शिक्षाओं के अनुसार एक साथ मिलजुल कर रूहानी कार्य करना कब्बाला का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है। इसमें यह माना जाता है कि रूहानी तरक़्क़ी अकेले तय किया जानेवाला सफ़र नहीं है बल्कि इसे मिलजुल कर तय किया जाता है। हम सब उसी तरह आंतरिक रूप से जुड़ी हुई एक व्यवस्था का हिस्सा हैं जिस तरह शरीर के भीतर अलग-अलग कोशिकाएँ एक-दूसरी से जुड़ी होती हैं। हर कोई इस संपूर्ण व्यवस्था में अपना योगदान देता है और हममें से हर एक पर इस संपूर्ण व्यवस्था का प्रभाव भी पड़ता है। कब्बाला में आंतरिक रूप से परस्पर जुड़े होना मात्र रूपक नहीं है बल्कि एक रूहानी सत्य है। हमारा प्रारब्ध परस्पर जुड़ा हुआ है और हमारी आत्माएँ एक-दूसरे से बँधी हुई हैं। जब हम रूहानी कार्य को मिलजुल कर करते हैं, तब हमें समझ आता है कि हमारी उन्नति दूसरों के साथ हमारे संबंधों पर निर्भर है।

हमारा व्यवहार एक आईने की तरह हमारे स्वभाव के उन पहलुओं को दर्शाता है जिन्हें सुधारने, बदलने और समझने की ज़रूरत है। हर मुलाकात और हर संबंध रूहानी तरक़्क़ी का अवसर बन जाता है। इन संबंधों के द्वारा हमारे अंदर सब्र-संतोष, हमदर्दी, माफ़ करने की और एकता की भावना पैदा होती है। कब्बाला द्वारा हम दूसरों में ख़ुद को देखना सीखते हैं, दूसरों की परख करना छोड़ते हैं और उनके प्रति दया भाव रखना सीखते हैं।

अकसर कहा जाता है कि दूसरों के प्यार द्वारा ही परमात्मा को सही मायनों में जाना जा सकता है। इसका मतलब यह है कि रूहानी कार्य को करने के लिये दुनिया का त्याग नहीं करना है बल्कि इसे नए नज़रिए से देखना है। जब हम साथ मिलकर अध्ययन, मनन और एक-दूसरे की तरक़्क़ी में मदद करते हैं तो हम एक ऐसा माहौल बनाते हैं जिससे हमारा रूहानी सफ़र जल्दी तय हो जाता है। मिल-जुल कर प्रयास करने से प्रत्येक व्यक्ति इस मार्ग पर आगे बढ़ता है। यह सभी को परमात्मा के प्रकाश के और अधिक क़रीब ले जाता है।

“मिन्यान” की धारणा अर्थात् सबका इकट्ठे होकर कब्बाला का अध्ययन करना, इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है। यह केवल अध्ययन करनेवाला कोई समूह न होकर एक रूहानी ‘पात्र’ है। इस सामूहिक एकता में, हर एक की कोशिश दूसरों को और अधिक कोशिश करने की प्रेरणा देती है जिससे ऐसी सामूहिक शक्ति पैदा होती है जो उन्हें ऊँचे रूहानी मुक़ाम तक पहुँचा देती है जहाँ पहुँच पाना उनमें से किसी के लिए भी मुमकिन नहीं। वे सब मिलकर एक ही आत्मा बन जाते हैं जो दिव्य प्रकाश के साथ जुड़कर अपने अहंकार से ऊपर उठ जाती है। लेकिन यह केवल इकट्ठे होकर अध्ययन करने तक सीमित नहीं है।

इस जीवन में हम जिनसे भी संबंध जोड़ते हैं वे हमारे रूहानी कार्य का हिस्सा बन सकते हैं। चाहे परिवार हो, दोस्त हों या अजनबी, इनके साथ होनेवाली हर मुलाक़ात प्यार, सब्र, दया और करुणा से भरा व्यवहार करने का अवसर है। जैसे-जैसे हम संबंधों के इस दायरे को बड़ा करते हैं, हम मुश्किलों से उबरने के लिए संपूर्ण मानवता की मदद कर पाते हैं।

संपूर्ण सृष्टि को परमात्मा के प्रकाश के साथ एकसुर करना ही कब्बाला का अंतिम लक्ष्य है जिसमें सभी आत्माएँ इन तीनों बिंदुओं के अनुसार हृदय में तड़प को पैदा करें, इच्छाओं में पूरी तरह बदलाव लाएँ, रूहानी कार्य को एकजुट होकर करें ताकि उनके अंदर एक ही के लिए प्यार हो और उनका एक ही उद्देश्य हो। कब्बाला का उपदेश वह मार्गदर्शक है जो हमें फिर से परमात्मा से मिला सकता है।

असलियत के बारे में हमारा नज़रिया
रूहानी कार्य केवल एक बार मिलनेवाली सफलता नहीं है, बल्कि यह जीवनभर चलने वाला सफ़र है। यह अपनी इच्छाओं को निर्मल करने, अपने नज़रिए को उत्तम बनाने और दूसरों के साथ गहराई से जुड़ने की प्रक्रिया है। हमारे द्वारा उठाया जानेवाला हर क़दम चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, हमें हमारे वास्तविक स्वरूप के और रचयिता के और अधिक क़रीब ले जाता है।

हम असलियत को किस नज़रिए से देखते हैं, यह शायद कब्बाला की शिक्षाओं में सबसे अधिक गूढ़ विषय है। कब्बाला के अनुसार जिस संसार को हम सत्य समझते हैं, वह वास्तव में सत्य नहीं है बल्कि यह परछाईं मात्र है, हमारी आंतरिक अवस्था का आईना है। यह विचार हमारी इस धारणा को बदल देता है कि हम जीवन, सृष्टि और यहाँ तक कि ख़ुद के बारे में जानते हैं। कब्बाला हमें अपनी पुरानी सोच के दायरे से बाहर निकलकर उस सबसे परे जाने की प्रेरणा देता है जिससे हम परिचित हैं ताकि हम वास्तविक सत्य को जान सकें। कब्बाला के अनुसार यह सत्य उन सभी सच्चाइयों से बहुत अधिक अलग है जिन्हें हम अपनी इंद्रियों द्वारा अनुभव करते हैं।

जिस दुनिया को हम जानते हैं, वह सीमाओं, पसंद-नापसंद और मान्यताओं से भरी हुई है, जो हमारी सोच को बनाती हैं और कभी-कभी बिगाड़ भी देती हैं। लेकिन अगर हम सत्य का उसके वास्तविक रूप में अनुभव करना चाहते हैं तो हमें इन दायरों से बाहर निकलकर अपनी सोच को उदार बनाने की ज़रूरत है ताकि हम उस अलौकिक सत्य को जान सकें, जिसके बारे में हमें कोई ज्ञान नहीं है।

कब्बाला सिखाता है कि जिसे हम असलियत समझते हैं वह दरअसल हमारी हौंमैं और मैं-मेरी की भावना है जो परमात्मा से हमारी जुदाई का कारण है। हमें इस बात का विश्वास दिलाया जाता है कि हम सब की अलग हस्ती है, हर एक का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, हर किसी की अपनी इच्छाएँ हैं, डर हैं और अलग लक्ष्य हैं। लेकिन यह सोच, चाहे कितनी भी सही क्यों न लगे, वास्तविकता का एक तुच्छ-सा हिस्सा है।

असल में हम सब बड़ी गहराई में आपस में जुड़े हुए हैं, हम उस दिव्य संपूर्णता का अंश हैं जो सबका वास्तविक आधार है। अपनी पुरानी सोच के तंग दायरे से बाहर निकलने का मतलब है इस बात की पहचान हो जाना कि हमारी अलग हस्ती एक भ्रम है, यह उस एकता और गूढ़ सत्य पर पड़ा हुआ पर्दा है।

कब्बाला के ज्ञाता हमें समझाते हैं कि हमें अपने ध्यान को दृश्यमान जगत से हटाकर आतंरिक सार-तत्त्व की ओर मोड़ना चाहिए। महासागर की सतह पर तैर रहे हिमखंड की कल्पना करें, हम आमतौर पर पानी के ऊपर उस हिमखंड का ऊपरी हिस्सा ही देख पाते हैं और जीवन में भी हम बाहरी संसार, दृश्यमान चीज़ों, घटनाओं और रूपों व आकारों का अनुभव कर पाते हैं। लेकिन पानी की उस सतह के नीचे हिमखंड के विशाल भाग की तरह अदृश्य जगत ही वास्तव में सत्य है।

इस अदृश्य जगत में वे सभी शक्तियाँ, उद्देश्य और ऊर्जाएँ मौजूद हैं जो दिखाई देनेवाली हर चीज़ का आधार हैं। अपने ध्यान को ऊपरी हिस्से यानी बाहरी जगत से उसके आधार अर्थात् अंतर की ओर मोड़ने पर हमें उस मूलभूत सत्य का अनुभव होता है जो हर चीज़ को आपस में जोड़कर रखता है।

एन सोफ़—असीम सत्य
कब्बाला के अनुसार एन सोफ़ या असीम सत्य की धारणा असल सत्य को जानने के सबसे प्रभावशाली साधनों में से एक है। एन सोफ़ रचयिता के असीम, सर्वव्यापी प्रकाश, दिव्य सार-तत्त्व का वर्णन करता है जो सहज रूप से पूरे ब्रह्मांड को रोशन करता है।

हम अकसर जीवन की छोटी-छोटी बातों में इतने उलझ जाते हैं कि हमें इस “अनंत सत्य” का एहसास तक नहीं होता। हम दुनियावी आकर्षणों, तमाशों और उन चीज़ों में फँस जाते हैं जो हमें वर्तमान जीवन में बहुत ज़रूरी महसूस होती हैं, लेकिन ऐसी सोच के दायरे से बाहर निकलने का मतलब है उस अनंत प्रकाश का अनुभव करना, सब वस्तुओं में समाए उस सार-तत्त्व के साथ एकसुर होना और यह पहचान कर लेना कि जीवन के रोज़मर्रा के कार्यों में भी उस अनंत का प्रकाश समाया हुआ है। जब हमें परम सत्य का अनुभव हो जाता है, तब हम ख़ुद को एकाएक घटनेवाली घटनाओं से पीड़ित मनुष्य के रूप में देखने के बजाय जीवन की चुनौतियों, ख़ुशियों और यहाँ तक कि दु:ख भरे पलों को भी एक नए नज़रिए से देखने लगते हैं। हमें हमारे हर अनुभव के पीछे कोई न कोई उद्देश्य दिखाई देता है, हमें महसूस होता है कि अचानक हुई मुलाक़ात पहले से तय होती है और हमें हर पल हमारे विकास का और परम सत्ता के साथ जुड़ने का अवसर प्रतीत होता है।

कब्बाला सिखाता है कि परम सत्य बहुत परोपकारी और सद्भावनापूर्ण है। यह आत्माओं को निर्मल करने और परम सत्ता में समाकर उसका रूप हो जाने का मार्ग दिखाता है और एहसास दिलाता है कि जुदाई तथा डर केवल हमारा भ्रम है।

यह एहसास होना शुरू हो जाना कि वह दिव्य-सत्ता हमारे इस सफ़र में हर क़दम पर हमारे साथ है, परम सत्य के बारे में यह अनुभूति एकाएक नहीं हो जाती। यह एक प्रक्रिया है जैसे-जैसे हमारे अंदर बदलाव आता है, धीरे-धीरे परम सत्य प्रकट होने लगता है। जितना अधिक हमारे हृदय में प्रेम व दया का भाव बढ़ता है और जितना अधिक हम परमात्मा के हुक्म में रहने लगते हैं, माया के भ्रम का यह पर्दा उतना ही हटता जाता है और हमारे सामने ऐसा सुंदर, गूढ़ सत्य प्रकट होता है जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की होती।

इस तरह अपनी सोच के दायरे से बाहर निकलने का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हमें अपनी ज़िम्मेदारियों से भागना है बल्कि हमें तो इन्हें अच्छी तरह से स्पष्ट सोच के साथ, अपने उद्देश्य को सामने रखते हुए प्रेम-भाव से निभाना है। असल सत्य को समझने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हमने अपनी सोच-समझ को जिन दायरों में बंद कर रहा रखा है हिम्मत जुटाकर उन दायरों से बाहर आना है। एक ऐसा नज़रिए अपनाना है जो सीमित में असीम को और एक अंश में संपूर्ण को देख पाए। असल में, यह रचयिता के नज़रिए से देखने और जीवन को दिव्य प्रेम और एकता के निरंतर व अनंत प्रवाह के रूप में अनुभव करने की यात्रा है।

आत्मा का विज्ञान
कब्बाला को अकसर आत्मा का विज्ञान कहा जाता है और यह ठीक ही है। बहुत-से रूहानी मार्गों के विपरीत जो केवल मान्यताओं और विश्वास पर आधारित होते हैं, कब्बाला रूहानियत को कड़े वैज्ञानिक अनुशासन से अपनाता है। यह ब्रह्मांड, आत्मा और परमात्मा की खोज क्रमबद्ध अध्ययन और व्यावहारिक अभ्यास द्वारा करता है जिससे हम जीवन के रहस्यों की गहराई को समझ पाते हैं। कब्बाला के ज्ञाता इस मार्ग को केवल दर्शनशास्त्र की तरह नहीं देखते बल्कि वे इसे अनुभवसिद्ध विज्ञान मानते हैं, एक ऐसी विधि जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति खोज करके रूहानी सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है।

कब्बाला को विज्ञान क्यों माना जाता है? यह समझने के लिए सबसे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि कब्बाला की शिक्षाओं के अनुसार, ब्रह्मांड कुछ ख़ास नियमों और सिद्धांतों द्वारा बिलकुल उसी तरह संचालित है जैसे हमारा भौतिक संसार गुरुत्वाकर्षण या इलैक्ट्रोमैग्नैटिज़्म जैसे नियमों के अनुसार चलता है। रूहानी मंडलों में भी ऊर्जा, चेतना और परमात्मा के हुक्म के आध्यात्मिक नियम होते हैं। ये नियम मनमाने ढंग से नहीं बने हैं, ये हमेशा एक रूप रहते हैं, इन्हें समझा और जाना जा सकता है, इनके परिणाम पहले से तय हैं। ये नियम दुनिया में हमारे निजी जीवन की छोटी-से-छोटी बात से लेकर ब्रह्मांड के महान रहस्यों को प्रकट करने तक सभी को संचालित करते हैं ।

कब्बाला का मुख्य उपदेश यह है कि ईश्वर के असल स्वरूप को प्रकट करने के लिए ही ब्रह्मांड की रचना की गई है। इस नज़रिए से, कब्बाला का अध्ययन वैज्ञानिक खोज से मिलता-जुलता है। इसका प्रत्येक विचार और अनुभव हमें परम सत्य के और ज़्यादा क़रीब ले जाता है। कब्बाला के ज्ञाता इसे विशेष अभ्यास जैसे कि ध्यान-साधना, अध्ययन और नैतिक बदलाव द्वारा “ऊँचे मंडलों तक पहुँचने का सफ़र” कहते हैं।

कब्बाला का उपदेश प्राप्त करनेवालों में एक नई रूहानी चेतना विकसित होती है जिसके द्वारा उन्हें ऊँचे रूहानी मंडलों का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होता है। इसी आंतरिक बदलाव के कारण कब्बाला एक सच्चा वैज्ञानिक मार्ग है। इसमें मान्यताओं को आँखें मूँदकर स्वीकार करने के बजाय निजी तौर पर उन रूहानी सत्यों की जाँच-परख करके उन्हें प्रमाणित किया जाता है।

‘ज़ोहर’ और ‘जीवन रूपी वृक्ष’
कब्बाला का एक अनूठा पहलू ‘ज़ोहर’ और ‘जीवन रूपी वृक्ष’ है जो सिद्धांतों के बजाय अनुभव पर बल देता है। ‘ज़ोहर’ और ‘जीवन रूपी वृक्ष’ जैसी कब्बाला संबंधी रचनाओं में रूहानी मंडलों, आत्मा की संरचना और दिव्य शक्ति के बारे में स्पष्ट वर्णन मिलता है। ये सिर्फ़ काल्पनिक धारणाएँ नहीं हैं, इनका उद्देश्य इन रचनाओं का अध्ययन करनेवालों को इन्हें व्यावहारिक तौर पर अपनाने के लिए विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाना है। कब्बाला के ज्ञाता केवल अध्ययन नहीं करते बल्कि जो कुछ पढ़ा है, उसे अमल में लाते हैं। हर प्रकार की ध्यान-साधना इस तरह से तैयार की गई है जो उन्हें दिव्य सत्ता से मिलाप करने, उसका अनुभव करने और रचयिता के होने तथा उसके उद्देश्य को प्रत्यक्ष रूप से जानने के और अधिक योग्य बनाती है। इस प्रकार कब्बाला सामान्य दर्शनशास्त्र या धर्मशास्त्र न होकर प्रत्यक्ष अनुभव का विज्ञान है। कब्बाला के इस विज्ञान का अंतिम लक्ष्य है अपना कायापलट करना।

सीखने के हर पड़ाव, हर रूहानी युक्ति और हर एक तकनीक का उद्देश्य मनुष्य को आत्म-केंद्रित न बनाकर, दूसरों को देना और सबको एक समान समझना सिखाकर पूर्ण रूप से परमात्मा की रज़ा के साथ एकसुर करना है। कब्बाला सिखाता है कि जैसे-जैसे हम बदलाव की इस सीढ़ी पर चढ़ते हैं, हमें केवल ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता बल्कि हमारी आत्मा स्वाभाविक रूप से निर्मल होती जाती है। यह प्रक्रिया किसी वैज्ञानिक प्रयोग जितनी ही सटीक है जहाँ हर पड़ाव पर क्रमबद्ध और अनुमान के अनुसार रूहानी प्राप्ति होती है।

कब्बाला के ज्ञाता के अनुभव और अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त ज्ञान को दूसरे के साथ बाँटा, जाँचा और सिद्ध किया जा सकता है। इस तरह कब्बाला का ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे जाने की परंपरा के रूप में स्थापित होता गया जो इस रूहानी विज्ञान की प्रमाणित नींव है। कब्बाला के मार्ग पर चलते हुए आत्मा शिष्य और वैज्ञानिक दोनों बनती है। इसके लिए अनुशासन, जिज्ञासा और प्रश्न पूछने व खोजने की इच्छा का होना ज़रूरी है।

सदियों तक यह पवित्र विज्ञान एक गुप्त परंपरा के रूप में मौजूद रहा है लेकिन आज कब्बाला की शिक्षाएँ हर उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध हैं जो जीवन के गूढ़ सत्य को जानना चाहता है। ये शिक्षाएँ हम सभी को रूहानियत का खोजी बनने, केवल बाहरी दुनिया की खोजबीन का नहीं बल्कि अपने अंदर छिपे रहस्यों को खोजने का न्योता देती हैं और हर रहस्य के खुलने पर हमें अद्भुत एकता, उद्देश्य और ज्ञान का अनुभव होता है।

सारांश
निष्कर्ष यह निकलता है कि हम कब्बाला द्वारा सिखाए गए इस गूढ़ ज्ञान पर अमल करें कि हर मनुष्य के अंदर दिव्य चिंगारी है जो रोशन होने के इंतज़ार में है। हम परमात्मा से अलग नहीं हैं, हम उसी का ही रूप हैं। जब हमारा संपर्क इस दिव्य चिंगारी से स्थापित हो जाता हैं, तब हम जीवन को एक बेहतर नज़रिए से देखना शुरू कर देते हैं। यही कब्बाला का सफ़र है—उस चिंगारी को जगाना, अपनी अंतरात्मा को उस संपूर्ण के साथ जोड़ना और स्पष्ट नज़रिए से उद्देश्यपूर्ण जीवन जीते हुए दया भाव बनाए रखना। अगर इस सफ़र ने आपके अंदर थोड़ी-सी भी जिज्ञासा पैदा की है तो इसे आगे की खोज का संकेत समझें। कब्बाला का ज्ञान असीमित है और हर क़दम के साथ मार्ग पहले से अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगता है। याद रखें कि बाहरी जगत हमारे अंदर की दुनिया का आईना है। जैसे-जैसे हम ख़ुद में बदलाव लाते हैं, हम दुनिया को भी बदलते जाते हैं।

आप लगातार सवाल पूछते रहें, खोज करते रहें, सीखते रहें और तरक़्क़ी करते रहें क्योंकि कब्बाला का उपदेश अपने वास्तविक स्वरूप को खोजने का मार्ग है और इस खोज में गहरी शांति, असीम प्यार और सर्वोच्च उद्देश्य छिपा है।

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एक बार जब आप यह सबक़ सीख जाएँगे तो आपकी वास्तविकता पूरी तरह से बदल जाएगी।

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