सुख और दु:ख
बाबा जैमल सिंह जी ने एक पत्र में बड़े महाराज जी को लिखा:
शरीर सुख-दु:ख का घर है। दोनों का होना ज़रूरी है, इसलिए इन्हें ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार करो।1
जब तक हम इस शरीर में हैं तब तक हमें शारीरिक और मानसिक कष्ट सहने पड़ते हैं, चाहे हम किसी भी विचारधारा– वैज्ञानिक या आध्यात्मिक – को मानते हैं। ज़िंदगी में सुख-दु:ख के उतार-चढ़ाव चलते रहते हैं, जैसा कि हुज़ूर महाराज जी अकसर कहा करते थे, “मन लज़्ज़तों का आशिक़ है।” आँखों के नीचे हमें तरह-तरह के विषय-भोगों की आदत पड़ चुकी है। पाँच विकार भोगों का रूप हैं जिन्हें इंद्रियाँ और शरीर भोगते हैं। हम इनके आदी हो चुके हैं। इसीलिए हमें अपनी करनी का नतीजा भी भोगना पड़ता है।
बड़े महाराज जी फ़रमाया करते थे:
वे ज़हर खाते हैं, चिल्लाते हैं और फिर भी ज़हर खाते रहते हैं।2
तुलसी साहिब अपनी बाणी में चेतावनी देते हैं कि ऐसा कोई तरीक़ा नहीं जिससे हम ज़बरदस्ती अपनी इच्छा शक्ति द्वारा मन पर क़ाबू पा लें और अपने कर्मों के भुगतान से निजात हासिल कर लें।
तप संजम उपवास बताई। जो त्यागै सो पावै भाई॥
तप कर राज मिलै पुनि जाई। राज भोग पुनि नर्क समाई॥
कष्टै फल पावै पुनि भोगा।…
इंद्री दवन उपास कराई। बार बार भौसागर आई॥3
रबर बैंड को बहुत ज़्यादा खींचें और अचानक छोड़ दें तो वह उल्टी दिशा में जाकर गिरता है। इसीलिए महाराज जी हमें दबाव यानी ज़ोर-ज़बरदस्ती न करने की चेतावनी देते हैं। बाबा जी अकसर समझाते हैं कि हम ज़िंदगी में संतुलन बनाकर रखें और अपनी उम्मीदों को कम करें। मालिक ने हमें पर्याप्त शक्ति और सामर्थ्य दिया है – सवाल यह उठता है कि इसका सदुपयोग कैसे करें?
हम अकसर अपना समय सोशल मीडिया पर, दोस्तों के दबाव आदि में आकर बिता देते हैं। इस ख़याल से हम पाँच विकारों में से किसी एक या इन सभी की ओर भागते हैं कि इन चीज़ों से ख़ुशी नहीं तो कम से कम कुछ राहत तो मिलेगी।
हमारे अंदर या बाहर जो कुछ हो रहा है, उसकी वजह से हम इस धरती पर दु:ख भोग रहे हैं; साथ ही इनसानी जामे में परमात्मा से बिछुड़ने का दु:ख भी सह रहे हैं। महाराज जी फ़रमाया करते थे कि मनुष्य-जामा ही परमात्मा तक पहुँचने का एकमात्र दरवाज़ा है। यह परमात्मा का जीता-जागता मंदिर है। इंसान होने के नाते हमारे अंदर ख़ास काबिलीयत है कि इंद्रियों के ज़रिए फैले ख़याल को समेटकर शरीर के अंदर तीसरे तिल पर टिका सकें और अंदर ऊँचे रूहानी मंडलों तक ले जा सकें। हम भाग्यशाली हैं कि हम अपनी सुरत को उन ऊँचाइयों तक ले जा सकते हैं, परमात्मा यानी लागॉस, नाम, शब्द, जो धुन और प्रकाश के रूप में है, उससे जुड़ सकते हैं; इस तरह शब्द-धुन का अनुभव करते हुए उसमें लीन हो सकते हैं।
संत समझाते हैं कि जब आत्मा शरीर छोड़ देती है और शब्द इसे ऊपर की ओर खींचता है तब हर जगह, हर चीज़, हर किसी में परमात्मा नज़र आता है; हमें उसका प्रेम ही नज़र आता है।
महाराज जी फ़रमाया करते थे:
अगर हम परमात्मा से प्रेम करते हैं तो हम उसकी बनाई क़ायनात से भी प्रेम करते हैं और हम उसकी क़ायनात की सेवा भी करना चाहते हैं, क्योंकि हमें मालिक की बनाई हर चीज़ में वह नज़र आता है।4
भजन सिमरन हमें नरम दिल बनाता है, कमज़ोर नहीं।
भजन-बंदगी द्वारा जीते-जी मरने के अभ्यास से हम अपनी मर्ज़ी से शरीर छोड़ सकते हैं और अपनी मर्ज़ी से शरीर में वापस आ सकते हैं।
हर जीव के पास शरीर, मन और आत्मा है लेकिन इंसान के पास विवेक की ताक़त भी है और अपने हालात के बारे में सोचने की शक्ति भी। हमारी आत्मा परमात्मा के बिछोड़े में तड़प रही हैं और अपने असली घर सचखंड पहुँचने के लिए बेचैन हैं। आत्मा भजन-बंदगी द्वारा वापस जाना चाहती है लेकिन मन के साथ गाँठ में बँधी होने की वजह से इंद्रियों के वश में हैं। हमारी आत्मा परमात्मा की रचनात्मक शक्ति यानी शब्द की अंश है – यह शक्ति सभी को जीवन और ऊर्जा देती है। चूँकि आत्मा वापस उस सुख के सागर में समाना चाहती हैं, इसलिए आत्मा हमें लगातार अपने असल की ओर खींचती है। यही वजह है कि चाहे सारी दुनिया हमारे क़दमों में हो फिर भी हमें अपने अंदर ख़ालीपन और अकेलापन महसूस होता है जैसे कुछ गुम हो गया हो। दुनिया की कोई भी चीज़ हमें कभी भी स्थायी सुख और संतोष नहीं दे सकती।
सुख और शांति की तलाश में हम चाहे त्याग का रास्ता अपनाएँ या भोग का, हमारा काम नहीं बनेगा। कईं बार मन इन बाहरी सुखों से ऊब जाता है और अधिक भोग भोगने के चक्कर में पहले से भी ज़्यादा भ्रष्ट हो जाता है। मन यहाँ ख़ुश नहीं है। अनंत समय से भागते-दौड़ते यह भी शांति और टिकाव चाहता है, आराम चाहता है। अब हमारे आगे दो चुनौतियाँ हैं: हमारे अच्छे और बुरे कर्म तथा हमारी मजबूर, बेबस, विरह में तड़पती आत्मा जो हौमैं के बोझ के कारण दबी हुई है। हम स्वाभाविक रूप से बेचैन रहते हैं क्योंकि हम नश्वर भी हैं और अमर-अविनाशी भी। इस नश्वर शरीर को अद्भुत कारीगरी से रचा गया है।
शायद हमें यह सोचकर ख़ुशी हो कि परमात्मा की बनाई हुई इस शानदार और विचित्र रचना में मनुष्य को ख़ास स्थान दिया गया है, लेकिन यही सोच हमें भ्रमित कर देती है, हमारी हौमैं को जन्म देती है। “मेरे जैसा कोई नहीं!” सही है, ऐसा कोई नहीं है लेकिन अहमियत इस बात की है कि हमारी आत्मा अमर है, ख़ूबसूरत है, प्रेम से परिपूर्ण है और परमात्मा की अंश होने के नाते यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
फिर आत्मा सुख-दु:ख के चक्र और परमपिता से बिछुड़ने के दर्द से कैसे उबर सकती है?
मालिक से बिना शर्त किया गया प्रेम दुनिया के सभी सुखों और दु:खों से ऊपर है। यही प्रेम इस दुनिया से बाहर खींच सकता है। हालाँकि हम सैन्य बल, वित्तीय बल, बौद्धिक बल को तो स्वीकार कर लेते हैं, फिर रूहानी ताक़त को स्वीकार करना इतना मुश्किल क्यों है? क्योंकि यह बात हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक हम संत-महात्मा या मुर्शिद की ज़रूरत महसूस न करें। संत-महात्मा इस धरती पर एक ख़ास वक़्त, एक ख़ास दौर में आते हैं। वे उन रूहों को लेने के लिए आते हैं जिन्हें मालिक ने उन्हें सौंपा है, ताकि वे उन्हें उनके असली घर सचखंड वापस ले जाएँ। यह मालिक की दया-मेहर का विधान है। उसकी दया-मेहर एक रहस्य है लेकिन अगर हम यह समझ सकें कि शब्द ही हमारा असली अस्तित्व है, तब परमात्मा की दया-मेहर के पीछे क्या रहस्य है वह भी हमें समझ आ जाएगा।
महाराज जी मालिक की दया-मेहर के बारे में फ़रमाया करते थे:
हर वह चीज़ जो हमें भजन-बंदगी की ओर खींचती है, मालिक की दया-मेहर है।...उसकी दया-मेहर ही हमें इस सृष्टि से वापस खींचकर मालिक की ओर ले जाती है।...जो चीज़ भी हमें दुनिया की तरफ़ से अंधा कर देती है और परमात्मा के प्रेम और भक्ति की ओर हमारी आँखें खोल देती है, वही उसकी दया-मेहर है।5
प्रेम और दया उसकी रहमत का आधार है और हमारे सतगुरु प्रेम और दया का रूप हैं। वह देह-स्वरूप में हमारे मार्गदर्शक, शिक्षक और आदर्श हैं और अपने असल रूप यानी शब्द रूप में उनका नूरानी स्वरूप हर क़दम पर हमारी सहायता करता है।
रूहानी सफ़र का आधार है गुरु और शिष्य के बीच गहरे प्रेम का रिश्ता क़ायम करना और उस प्रेम को बनाए रखना।
हज़रत इनायत ख़ान फ़रमाते हैं:
अपने पीरो-मुर्शिद से मैंने एक बात सुनी थी जो मैं कभी नहीं भूल सकता: यह दोस्ती, यह रिश्ता जो बैअत के दौरान दो लोगों (मुर्शिद और मुरीद) के बीच क़ायम होता है, वह न कभी टूट सकता है, न कभी जुदा हो सकता है। दुनिया की किसी भी चीज़ से इसकी तुलना नहीं की जा सकती; यह तो अज़ल से है।6
बाबा जी अकसर समझाते हैं कि वह यहाँ अपनी पूजा करवाने नहीं आए। वह बिल्कुल नहीं चाहते कि लोग उन्हें ऊँचा रुतबा देकर उनकी बंदगी करें; क्योंकि पूजा करना अलगाव की ओर संकेत करता है जबकि प्रेम जोड़ता है।
इस दुनिया में हम ज़ंजीरों से बंधे हैं चाहे वे ज़ंजीरें सोने की हों या लोहे की, दोनों तरह की ज़ंजीरों के बंधन किसी न किसी रूप में हमें इस दुनिया में वापस ले आते हैं। हम जो भी कर्म करते हैं उसके पीछे हमारा इरादा मायने रखता है और यही बंधन का कारण बनता है। अगर हम इस दुनिया के सुख-दु:ख से आज़ादी चाहते हैं, अपने संचित कर्मों के नतीजे से निजात पाना चाहते हैं तो यह हमारी अपनी कोशिशों से मुमकिन नहीं है।
देह स्वरूप में सतगुरु परमात्मा की रचनात्मक शक्ति का साकार रूप हैं और जो कुछ भी इस भौतिक दुनिया यानी पिंड में हो रहा है उसका हिस्सा हैं। इसमें कोई नई या अजीब बात नहीं है। आदि काल से संत-सतगुरु इस दुनिया में आते रहे हैं और अपना काम करके वापिस अपने सतगुरु में लीन हो जाते हैं। इस तरह एक लम्बी सुनहरी रूहानी रस्सी बनती चली जाती है जो लोहे और सोने के कर्मों की ज़ंजीर से कहीं ज़्यादा मज़बूत है।
जब हमें नामदान की बख़्शिश होती है, उस समय हम अपने गुरु से चार वायदे करते हैं। पहले तीन वायदे ज़िंदगी में संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं और हमें अंतर में दिव्य-धुन सुनने और प्रकाश को देखने के क़ाबिल बनाते हैं। इन वायदों को पूरा करते हुए धीरे-धीरे हम दुनिया के सुख-दु:ख से ऊपर उठने लगते हैं, तब हमें समझ आने लगती है कि जो कुछ हमारी तक़दीर में लिखा है हम उसे टाल नहीं सकते।
जब हम सतगुरु की शरण में आते हैं तो वह हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाते हैं। हमें उनके वचन सुनकर समझ आने लगती है कि अपने पिछले किए गए कर्मों के आधार पर हमने अपनी क़िस्मत ख़ुद बनाई है, लेकिन यह जानकर कि हम इस सुख-दुःख से ऊपर उठ सकते हैं, बड़ा सुकून मिलता है। यह ख़याल ज़िंदगी की कई घटनाओं की चुभन कम कर देता है।
ये वायदे ज़िंदगी में धीरे-धीरे अलगाव पैदा करने लगते हैं। पहला वायदा – शाकाहारी भोजन (जिसमें मांस, मछली, अंडे या जानवरों से बनी चीज़ें शामिल नहीं हैं) हमें खाने के एक ख़ास दायरे में सीमित कर देता है। इस तरह जीव-हत्या तथा दूसरे जीवों को दर्द देने से जो नए कर्म बनते हैं, हम उनसे बच जाते हैं। यह शरीर ख़ुद-ब-ख़ुद निर्मल होने लगता है क्योंकि उसमें मरे हुए जीवों का मांस नहीं जाता; साथ ही मन भी शांत और कोमल होने लगता है क्योंकि जीव-हत्या के वक़्त जीव के अंदर जो मरने का ख़ौफ़ होता है वह हमारे मन पर बुरा असर डालता है। हम इस सबसे बच जाते हैं।
दूसरा, हमें शराब, नशीली दवाएँ और तंबाकू के सेवन की मनाही है क्योंकि ये हमारे दिमाग को अशांत करती हैं, हम विवेक की ताक़त खो बैठते हैं और हमें इनके सेवन की आदत भी पड़ जाती है। अगर हमें किसी बाहरी चीज़ की आदत लग जाए तो वह चीज़ हमारा ध्यान बाहर की ओर खींचती है, जबकि हमारा ध्यान आँखों के केंद्र से ऊपर होना चाहिए।
तीसरा, एक निर्मल, नैतिक और ईमानदार ज़िंदगी हमें भजन-सिमरन में मदद करती है; साथ ही हमारे सामाजिक रिश्ते भी क़ायम रहते हैं। अगर हम चालाक और धोखेबाज़ हैं और लोग हम पर भरोसा नहीं करते तो अंतर में हम भरोसे लायक़ कैसे बन सकते हैं? हम बड़ी आसानी से मन की नकारात्मक प्रवृत्तियों से गुमराह हो सकते हैं। बेईमानी और झूठ हमारा ध्यान भटका देते हैं।
इसलिए पहले तीन वायदे हमें दुनिया में सादगी से ज़िंदगी जीने में मदद करते हैं ताकि मानसिक और शारीरिक रूप से हमारा कम से कम नुकसान हो।
आख़िर हम इस दुनिया से गुज़र ही तो रहे हैं। हमारा मक़सद कोई अच्छी या बुरी यादगार छोड़ जाना नहीं है। यह वायदे हमारे असली मक़सद के लिए मज़बूत नींव बनाते हैं।
हर रोज़, बिना नागा, कम से कम ढाई घंटे भजन-बंदगी यानी सिमरन, ध्यान और भजन को देना ज़रूरी है। बाबा जी समझाते हैं कि हम सिर्फ़ सिमरन कर सकते हैं, लेकिन हमें भजन को भी वक़्त देना है, चाहे सिमरन से ध्यान हटाते ही मन कितना भी इधर-उधर भागे। बाबा जी फ़रमाते हैं कि हमें भजन में बैठना है, चाहे कुछ भी सुनाई न दे, यह मन की सेवा है।
बाबा जी यह भी फ़रमाते हैं कि हम सभी ने कभी न कभी शब्द को सुना है। हो सकता है कि यह माँ के गर्भ में सुनाई दिया हो या फिर जब सुनाई दिया हो तब हम उसकी पहचान न कर पाए हो।
हमारा असली काम भजन-बंदगी है। बिना हिले-डुले बैठे रहना जैसे शरीर मृत हो। बाबा जी के वचन हैं कि हमें सिर्फ़ बैठना है। जब हम बैठते हैं, उस समय हम वह काम कर रहे होते हैं जिसका दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है। यह हमारा निजी काम है जहाँ हम उन शब्दों को दोहराते हैं जो इस दुनिया के नहीं हैं। ये लफ़्ज़ अंतर के रूहानी मंडलों के धनियों के नाम हैं। मन लगाकर किया गया सिमरन ख़याल को ऊपर ले जाता है क्योंकि इन लफ़्ज़ों के सिमरन का दुनिया से कोई संबंध नहीं है। इसलिए सतगुरु बार-बार ज़ोर देते हैं कि हर बार जब मन बाहर की ओर भटकने लगे तो उसे उसी वक़्त वापस सिमरन में ले आओ। हमारी यह कोशिश बरतन को साफ़ करने वाला माँजनी की तरह ख़ुद-ब-ख़ुद ध्यान भटकाने वाले ख़यालों को कुरेद-कुरेद कर मन से साफ़ कर देगी। फिर मालिक की मेहर की झलक नज़र आने लगती है।
यह बात अजीब लगती है लेकिन भजन-बंदगी के वक़्त हम कभी भी अकेले नहीं होते, उस समय हमारे सतगुरु हमारे साथ होते हैं, चाहे हमें इस बात का एहसास हो या नहीं। आत्मा को इस बात का एहसास होता है, इसीलिए उस समय रिश्तेदारों या दोस्तों की कमी महसूस नहीं होती। सतगुरु से प्रेम और भजन-बंदगी की लगन से हम दुनिया के सुख-दु:ख से ऊपर उठने लगते हैं। अगर हम इतने भाग्यशाली हैं कि हमें सच में अपने सतगुरु के नूरानी स्वरूप के लिए विरह और तड़प महसूस होती है तो इस दुनिया के ख़याल, फ़िक्र और चिन्ताएँ ख़ुद-ब-ख़ुद ग़ायब होने लगती हैं। विरह का मीठा दर्द दुनिया के सुख-दु:ख की जगह ले लेता है।
दुनिया के थपेड़ों, सदमों और मायूसियों से गुज़रते हुए जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमें एहसास होने लगता है कि दुनिया में हमारी हस्ती कितनी तुच्छ है, हमारे बिना दुनिया रुकने वाली नहीं। उम्र की वजह से याददाश्त कम हो जाना, शरीर के अंगों का जवाब दे देना और शरीर की पीड़ा – इन बातों से हमारी हौमैं ख़त्म होने लगती है, या फिर हम पक्के इरादे से भजन-बंदगी और लगातार सिमरन करते हुए हौमैं से ऊपर उठने लगते हैं।
बाबा जी ने एक बार फ़रमाया था कि भजन-बंदगी का ‘वेतन’ मालिक का प्रेम है। भजन-बंदगी की शुरुआत मन की सेवा यानी सतगुरु के हुक्म की पालना से होती है और फिर हम सतगुरु के प्रेम में बंधने लगते हैं। महाराज जी ने फ़रमाया है:
जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो हम उसकी संगति में रहना चाहते हैं।...इसी तरह जब भजन-बंदगी से प्रेम हो जाता है तो हम अपने अंदर शांति और आनंद अनुभव करने लगते हैं; तब हमें जितना भी वक़्त मिलता है हम भजन-सिमरन में व्यतीत करने लगते हैं क्योंकि हम सुख, आनंद और शांति अनुभव करना चाहते हैं। यह अपने आप बढ़ने लगता है। तब आपको कोशिश ही नहीं करनी पड़ती।7
- Spiritual Letters, No. 8
- Spiritual Gems, Letter 28
- Tulsi Sahib Saint of Hathras, Page 175
- Spiritual Perspectives, Vol. 3 Q. 196
- Spiritual Perspectives, Vol. 3 Q. 540
- Spiritual Guide, Vol. 2. Page 204-205
- Die to Live 7th edition, 1999, Q. 339