सतगुरु असल में सदा मौजूद हैं - राधास्वामी सत्संग ब्यास सत्संग और निबंध डाउन्लोड | प्रिंट

सतगुरु असल में सदा मौजूद हैं

हम जहाँ भी परमपिता परमात्मा के नाम पर इकट्ठा होते हैं, परमात्मा के बारे में चर्चा करते हैं, एक-दूसरे को परमात्मा के प्रेम और भक्ति से सराबोर करते हैं, उसकी भक्ति करने के लिए एक-दूसरे के विश्वास को दृढ़ करते हैं, मेरे ख़याल में वही सत्संग है क्योंकि क़ुदरती तौर पर हमारी बातचीत में हमारे सतगुरु और परमात्मा का ही ज़िक्र होता है। उसके बिना सत्संग के कोई मायने नहीं हैं। हम हमेशा उनके उपदेश के बारे में चर्चा करते हैं, चाहे वह शारीरिक रूप में वहाँ मौजूद हों या नहीं लेकिन क़ुदरती तौर पर जब उनकी चर्चा होती है तब वह असल में वहीं मौजूद होते हैं।1

जब भी बाबा जी विदेश के किसी सत्संग सेंटर का दौरा करते हैं, चाहे वह हमारे देश में हो या किसी पड़ोसी देश में जहाँ हम भी आमंत्रित होते हैं, वहाँ बहुत बड़ी संख्या में सत्संगी पहुँच जाते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि शब्द-अभ्यासी होने के नाते देहधारी सतगुरु की संगति का सौभाग्य प्राप्त होना हमारे लिए बहुत अहम है। उनकी मौजूदगी में ऐसी कशिश होती है कि हमें अपने अंदर रूहानी आनंद का अनुभव होने लगता है जो हमें अंदर तक छू जाता है। बड़े महाराज जी सत्संगियों पर पड़नेवाले इसके प्रभाव का बहुत ख़ूबसूरती से वर्णन करते हुए फ़रमाते हैं:

तुम अच्छे हो या बुरे, इस बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। तुम किसी कमाई वाले महात्मा की संगति में जाओ और उसके सत्संग को सुनो। उसकी रूहानियत से भरपूर तरोताज़ा हवा तुम्हें भी वही रूहानियत और ताज़गी देगी तथा देखते ही देखते तुम ख़ुद ही अच्छे बन जाओगे।...ध्यानपूर्वक और मन लगाकर सत्संग सुनने से तथा उसका आनंद लेने से, तुम आसानी से अपनी इंद्रियों पर क़ाबू पा लोगे और संत-महात्माओं तथा साधुओं की संगति में तुम्हारी सुरत टिकने लग जाएगी।2

इसलिए देहधारी सतगुरु के सत्संग को सुनना एक अद्भुत अनुभव है, जो हमें रूहानी मार्ग पर नए उत्साह से चलने के लिए प्रेरित करता है लेकिन यहाँ एक अनोखा विरोधाभास है। बाबा जी हर मीटिंग में, चाहे सत्संग हो या सवाल-जवाब, हमेशा इस बात पर बल देते हैं कि उपदेश अहम है और वह केवल एक शिक्षक, एक मार्गदर्शक हैं। उनके उपदेश के अनुसार सतगुरु का देहस्वरूप, हालाँकि बहुत प्रेरणादायक है, मगर यही सबकुछ नहीं है और मार्ग का अंतिम लक्ष्य नहीं है। असली गुरु शब्द है, जिसे स्थूल शरीर से ऊपर उठकर केवल अपने भीतर ही खोजा जा सकता है।

पिछले कुछ दशकों के दौरान हमने देखा है कि दुनिया भर में बहुत सारे नए सत्संग-घरों का निर्माण हो रहा है। इन सत्संग-घरों ने सेवा के लिए मौक़े उपलब्ध करवाए हैं, जिससे संगत को अपना डेरा और बाबा जी के कार्यक्रमों के लिए जगह मिल गई है। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि ये सत्संग-घर बाबा जी द्वारा संगत को दिए गए अनमोल उपहार हैं, जहाँ सत्संग आयोजित किए जा सकते हैं। इस मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चलने के लिए हमें हर तरह से मदद और सहारे की ज़रूरत है। इस लिहाज़ से सत्संग हमारे लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। हमें शायद इस बात का अंदाज़ा ही नहीं है कि यह हमारे लिए कितना अहम है। सत्संग हमारे जीवन का आधार है, जो हमें भजन-बंदगी के लिए प्रेरित करता है क्योंकि भजन-बंदगी करना ही हमारी मुख्य सेवा है ─ यह सतगुरु के साथ कंधे से कंधा मिलाकर करनेवाला कार्य है।

सत्संग में अगर सतगुरु देहस्वरूप में मौजूद न हों तो भी रूहानी दृष्टि से सत्संग की अहमियत कम नहीं हो जाती जैसा कि शुरुआत में हुज़ूर ने फ़रमाया था, “हम हमेशा उनके उपदेश के बारे में चर्चा करते हैं, चाहे वह शारीरिक रूप में मौजूद हों या नहीं, लेकिन क़ुदरती तौर पर जब उनकी चर्चा होती है, तब वह असल में वहीं मौजूद होते हैं।” हर सत्संग में वह अदृश्य रूप से उपस्थित होते हैं, चाहे वह सत्संग में देहस्वरूप में मौजूद न भी हों। सत्संग-कर्ता उनका ही दिव्य संदेश संगत तक पहुँचाते हैं। चाहे सत्संग-कर्ता को इस बात का एहसास हो या न हो परंतु वे सतगुरु के प्रतिनिधि होते हैं जिनके ज़रिए सतगुरु अपना कार्य करते हैं। क्योंकि असल में सतगुरु ही सत्संग-कर्ता हैं, सत्संग-कर्ता केवल ज़रिया हैं।

सत्संग वह है “जहाँ हम एक-दूसरे को परमात्मा के प्रेम और भक्ति से सराबोर करते हैं, उसकी भक्ति करने के लिए एक-दूसरे के विश्वास को दृढ़ करते हैं।” सत्संग में एक रूहानी रिश्ता क़ायम होता है क्योंकि हम सभी उस एक परमपिता परमात्मा की संतान हैं, साथ ही हमें सतगुरु का परिवार कहलाने का सौभाग्य मिला है। हुज़ूर महाराज जी ‘लाइट ऑन सेंट मैथ्यू’ में बड़े सुंदर ढंग से इस बारे में फ़रमाते हैं:

जब हज़रत ईसा अपने शिष्यों से बातचीत कर रहे थे, तब किसी ने उनसे बात करने के लिए बाहर खड़ी उनकी माँ और भाई की ओर इशारा किया। हज़रत ईसा ने कहा: “कौन है मेरी माँ और कौन है मेरा भाई?” केवल वही मेरी माँ और भाई हैं जो परमपिता की रज़ा में रहकर मार्ग पर चलते हैं और शब्द-नाम से जुड़े हुए हैं। वे मेरे परिवार के हैं और मैं उनके परिवार का हूँ ─ क्योंकि यह एक अनंत रिश्ता है जिसमें हम कभी एक-दूसरे से अलग नहीं होते।3

बाबा जी अकसर फ़रमाते हैं कि हमें मालिक की दी हुई दातों की क़द्र करनी चाहिए क्योंकि जिस लायक़ हम थे क्या हमें उससे कहीं अधिक नहीं मिला है? उसने हमें एक रूहानी परिवार दिया है जिससे हमारा नाता है और जिससे हम जुड़े हुए हैं। यह एक रूहानी रिश्ता है और हमारा संबंध भी रूहानी ही है। सत्संग में हम सतगुरु के वजूद में से निकलनेवाली रूहानी तरंगों के संपर्क में आते हैं और हम सब एक गहरे रिश्ते में बँध जाते हैं। एक-दूसरे की संगति द्वारा हमारे अंदर प्रेम और भक्ति-भाव पैदा होता है। रूहानियत से भरपूर इस वातावरण में हम वहाँ मौजूद रूहानी तरंगों को ग्रहण करने के लायक़ बन जाते हैं।

सत्संग द्वारा होनेवाले फ़ायदों का वर्णन करते हुए बड़े महाराज जी सत्संग के ज़रिए होनेवाले कायापलट की प्रक्रिया पर रोशनी डालते हुए फ़रमाते हैं:

सत्संग में सतगुरु अपनी रूहानी तरंगों के ज़रिए सत्संगियों को नए जीवन का उपहार देते हैं जिसके फलस्वरूप सत्संगी भी पतंगे की तरह अपने प्रकाश के स्रोत पर अपने आप को क़ुर्बान कर देते हैं और उसी में समाकर उसका रूप बन जाते हैं। उसके बाद उनका जीवन उनका अपना नहीं रहता। उनका जीवन सतगुरु का हो जाता है। इस प्रकार वे पूरी तरह से सतगुरु में समाकर उसका ही रूप बन जाते हैं।4

बड़े महाराज जी के अनुसार यही वह अवस्था है जिसे पाने के लिए हम सभी जीव संघर्ष कर रहे हैं। जीवन-भर निरंतर भजन-बंदगी करने का उद्देश्य इसी अवस्था को प्राप्त करना है। आश्चर्य की बात तो यह है कि हमें उस जीवन की झलक दिखाई जाती है जब हमारा अपना वजूद नहीं रह जाता। यह सत्संग में ही हो सकता है, चाहे सतगुरु वहाँ मौजूद हों या न हों ─ हमें महसूस होने लगता है कि सतगुरु ही सब कुछ कर रहे हैं। इसके साथ ही हमें अपनी बेबसी का भी एहसास होता है। जब यह बेबसी हमारे पूरे वजूद पर हावी हो जाती है, तब हम अपने प्रियतम की विरह में तड़पते हैं।

सत्संग का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू भी है। वहाँ अनमोल रूहानी उपदेश दिया जाता है। उस उपदेश की गहराई को समझने में समय लगता है। जिस उपदेश को हमने जीवन-भर पढ़ा या सुना होता है, उसके अर्थ एकदम से स्पष्ट हो जाते हैं। लेकिन सोच की यह स्पष्टता साधारण नहीं होती, इससे हमें आंतरिक आनंद का अनुभव होता है। मौलाना रूम कहते हैं कि लफ़्ज़ मानो पर्दे हैं। सत्संग में ऐसा लगता है जैसे एक-एक करके ये पर्दे उठ रहे हों।

सत्संग में सतगुरु देहस्वरूप में मौजूद हैं या नहीं इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, फ़र्क़ इस बात से पड़ता है कि हम सत्संग में किस भावना से बैठे हुए हैं। हुज़ूर महाराज जी इस बारे में स्पष्ट रूप से फ़रमाते हैं:

अगर सतगुरु वहाँ (सत्संग में) विराजमान हैं और हमारा मन कहीं और है ─ फिर हम वहाँ बैठे होकर भी वहाँ नहीं हैं ─ वह हमारे लिए सत्संग नहीं है। और अगर सतगुरु देहस्वरूप में वहाँ मौजूद नहीं हैं मगर हमारा मन उन्हीं के ध्यान में मग्न है तो फिर वह वहाँ हैं; वह हमारे लिए सत्संग है।5

  1. Spiritual Perspectives, Vol. III, p.114
  2. Philosophy of the Masters, Vol. 1, pp.165
  3. Light on Saint Matthew, p. 157
  4. Philosophy of the Masters, Vol. 1, p. 169
  5. Spiritual Perspectives, Vol. III, pp. 115