विश्वास का जहाज़ - राधास्वामी सत्संग ब्यास सत्संग और निबंध डाउन्लोड | प्रिंट

विश्वास का जहाज़

“चाहे मंज़िल नज़र न आ रही हो, फिर भी पहला क़दम उठाना ही विश्वास है।”

यह कथन विशेष रूप से तब और भी सच लगने लगता है जब हम ख़ुद की पहचान के सफ़र पर निकलते हैं। सदियों से पूछे जानेवाले इन सवालों जैसे कि “मैं कौन हूँ?...मौत के बाद क्या होता है?... मैं कहाँ से आया हूँ?” इत्यादि के जवाब शायद हम अभी न दे पाएँ लेकिन यह सफ़र इन्हीं सवालों से शुरू होता है।

ख़ुद की खोज का यह सफ़र भले ही रोमांचक है मगर हम इससे बिलकुल अनजान हैं। इसलिए सफ़र की शुरुआत में आशंकाओं का होना कोई हैरानी की बात नहीं है। संत-महात्मा समझाते हैं कि हमें किसी ऐसे गुरु की शरण लेनी चाहिए जो ख़ुद यह सफ़र तय कर चुका हो और हमारा मार्गदर्शन करके हमारी मदद कर सकता हो। अपनी सोच और सतगुरु में बुनियादी भरोसे का होना इस सफ़र को तय करने का पहला क़दम है। सोचा जाए तो ऐसा हम जीवन के हर पड़ाव पर करते हैं। जब हम रसायन विज्ञान या गणित पढ़ने के लिए कक्षा में दाख़िला लेते हैं तब हमें इस बात पर कुछ यक़ीन होता है कि शिक्षक अनुभवी है। हवाई यात्रा करते समय हमें पायलट पर पूरा भरोसा होता है या ऑपरेशन के लिए हम सर्जन पर पूरा भरोसा करते हैं। रूहानियत में भी अगर हम यही नियम अपनाएँ तो यह हमारे हित में होगा।

सत्रहवीं सदी के सूफ़ी संत हज़रत सुलतान बाहू इस बात पर बल देते हैं कि अगर हमारा मक़सद वापस अपने स्रोत (ख़ुदा) में समाना है तो परमार्थी जीवन बिताना बहुत ज़रूरी है। वह अपने शिष्यों को हिदायत देते हैं कि सिर्फ़ उपदेश पर ही अमल न करें, बल्कि उन सभी चीज़ों से दूर रहें जो रूहानी अनुभव की प्राप्ति में रुकावट बन सकती हैं। आप पहले क़दम से शुरू करते हैं:

तुल्ला बन्ह तवक्कुल वाला, हो मरदाना तरिये हू।
जैं दुख थीं सुख हासल होवे, उस थीं मूल न डरिये हू।...

बन्ह तवक्कुल पंछी उड़दे, पल्ले ख़र्च न ज़ीरा हू।
रोज़ी रोज़ उड खाण हमेशा, करदे ना ज़ख़ीरा हू।
मौला रिज़्क़ पुचावे बाहू, जो पत्थर विच कीड़ा हू।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 40, 88, पृ. 241, 266

संतजन अक़सर इस सृष्टि और आवागमन के चक्र की तुलना जीवन रूपी “महासागर” से करते हैं। महासागर की विशालता, इसकी सतह के नीचे छिपे ख़तरे; कभी तूफ़ानों और कभी लहरों की उथल-पुथल के कारण इसके बदलते स्वरूप तथा कभी एकदम शांत होने की वजह से इसकी तुलना जीवन के साथ की जाती है। शायद इन दोनों में सबसे बड़ी समानता यह है कि जैसे महासागर को हम बिना किसी की मदद के पार नहीं कर सकते, उसी तरह हम अपने जीवन रूपी भवसागर को भी बिना किसी की मदद के पार नहीं कर सकते। सुलतान बाहू हमें सबसे पहली हिदायत यह देते हैं कि हमें विश्वास का एक मज़बूत जहाज़ बनाना पड़ेगा। एक छोटी-सी नाव या किश्ती से काम नहीं चलेगा। आधे-अधूरे मन से खोज या कोशिश करना और रूहानियत को सिर्फ़ दूसरी बीमा पॉलिसी जैसा समझना ख़ुद को धोखा देना है। इस राह पर दृढ़ संकल्प भी बहुत ज़रूरी है। यह राह कायरों के लिए नहीं हैं। बहादुरी और साहस ही एक सच्चे शिष्य की पहचान है। हर तरह के दबाव के बावजूद साहस बनाए रखना ख़ुदा की रहमत है। हम बीत चुके कल के बारे में सोच-सोचकर या भविष्य की चिंता में अपनी बहुत-सी ऊर्जा ख़र्च कर देते हैं। सुलतान बाहू हमें पक्षियों से सीख लेने की प्रेरणा देते हैं जिनके पास न बैंक बैलेंस होता है, न रिटायरमेंट के बाद प्राप्त होनेवाली जमा पूँजी। इस रचना को एक ऐसी प्रबुद्ध शक्ति चला रही है जो सब कुछ संचालित करती है और इसके साथ तालमेल रखने से हम भी इस शक्ति के क़रीब आ जाते हैं। संत-महात्मा इसे नाम, शब्द, ताओ, वर्ड और कई अन्य नामों द्वारा बयान करते हैं या सिर्फ़ प्रेम कहते हैं। यही वह शक्ति है जो सभी नियमों को संचालित करती है और उनसे ऊपर है। संत-महात्मा इसी शक्ति की ओर संकेत करते हैं जो हमारी सच्ची पहचान, हमारा असल अस्तित्व है। जब हम इस सच का प्रत्यक्ष अनुभव कर लेते हैं तो हमारी रूहानी खोज पूर्ण हो जाती है।

इश्क़ मुहब्बत दरिया दे विच, थीं मरदाना तरिये हू।
जित्थे पौण ग़ज़ब दियां लहरां, कदम उथाईं धरिये हू।
औझड़ झंग बलाईं बेले, वेख वेख न डरिये हू।
नाम फ़क़ीर तद थींदा बाहू, विच तलब दे मरिये हू।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 128, पृ. 287

सुलतान बाहू चाहते हैं कि हमारी सोच सकारात्मक हो और हमारा ध्यान अपने मक़सद पर हो। ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव तो आते रहेंगे। क्या कभी किसी ने कहा है कि प्रेम के मार्ग में ग़ुलाब और हीरे-मोती बिछे हैं? इस राह पर चलने के लिए निरंतर कोशिश और दृढ़-लगन की ज़रूरत होती है। सच्चा प्रेमी राह में आने वाली मुश्किलों का डटकर मुक़ाबला करता है। ज़िंदगी क़ुर्बान कर देने का मतलब सांसारिक जीवन छोड़ देना या घर के सुख-आराम को त्याग देना, ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेना और संन्यासी बन जाना नहीं है। इसका असली मतलब है भ्रमों के उस जाल से बाहर निकलना जिसे हमने ख़ुद अपने इर्द-गिर्द बुना हुआ है, जिसमें हम बड़े सुकून से रह रहे हैं। अगर हम अभी पहल नहीं करेंगे तो एक दिन ये भ्रम ख़ुद-ब-ख़ुद टूट जाएँगे। इस ज़िस्म के दायरे से ऊपर उठकर ही इनसान सच्चा ‘फ़क़ीर’ बन पाता है।

संत-महात्मा कभी भी हमें दुनिया से भागने की सलाह नहीं देते और न ही यह मुमकिन है। हुज़ूर महाराज जी ने हमेशा इस बात पर बल दिया कि हम चाहे कहीं भी चले जाएँ, हमारी बुनियादी ज़रूरतें हमारे साथ ही रहती हैं। संसार में रहकर ही हम संसार से ऊपर उठना सीखते हैं, जैसे कमल के फूल की जड़ें कीचड़ के अंदर होती हैं लेकिन फूल हमेशा पानी के ऊपर रहता हुआ अपनी पवित्रता और ख़ूबसूरती बनाए रखता है।

हिक हिक पीड़ तों आलम कूके, लक्ख आशिक़ पीड़ सहेड़ी हू।
ढहण, रुढ़न जित्थ ख़तरा होवे, कौण चढ़े उस बेड़ी हू।
आशिक़ चढ़दे नाल ख़ुशी दे, तार कपर विच भेड़ी हू।
जिथ इश्क़ तुलेंदा नाल रत्ती दे, आशिक़ लज़त नखेड़ी हू।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 199, पृ. 327

उम्मीदों, इनामों और नतीजों की इस दुनिया ने हमारे मन को ऐसा बना दिया है कि हम यह हिसाब लगाए बिना कि ‘इससे मुझे क्या हासिल होगा’ कुछ भी नहीं करना चाहते। अमली तौर पर, हर कर्म किसी न किसी इच्छा का परिणाम है। इसलिए ख़ुद की पहचान करने की हमारी इच्छा क़ुदरती है। लेकिन प्यार का एक गुण क़ुर्बानी है। जैसे एक माँ अपने बच्चे के लिए बहुत-सी तकलीफ़ें ख़ुशी-ख़ुशी सह लेती है, वैसे ही प्रेमी अपने प्रियतम की एक झलक पाने के लिए मार्ग में आनेवाली मुश्किलों को “ख़ुशी-ख़ुशी सह” लेता है। प्यार कोई ईनाम नहीं चाहता। यह अपना ईनाम आप होता है।

मैं खुलेआम कहता हूँ और यह कहकर मैं ख़ुश हूँ;
मैं इश्क़ का ग़ुलाम हूँ और मैं दोनों जहानों से आज़ाद हूँ।
हाफ़िज़ (मिस्टिसिज़्म, द स्पिरिचुअल पाथ, पृ. 523)

प्यार के बारे में पूछे जाने पर हुज़ूर महाराज जी अक़सर फ़रमाया करते थे कि प्यार का मतलब है अपनी हस्ती को खोकर प्रियतम का ही रूप बन जाना। फिर तुम्हारा कोई वुजूद नहीं रहता, केवल प्रियतम ही रह जाता है। बीज को पेड़ बनने के लिए अपने वुजूद को खोना पड़ता है। जो बूँद सागर में समाकर उसका रूप बनना चाहती है उसे अपनी हस्ती मिटानी पड़ेगी। यह समर्पण का शिखर है।

अब क़ुदरती तौर पर यह सवाल उठता है कि इस सर्वश्रेष्ठ मुक़ाम को कैसे प्राप्त करें? संत-महात्मा हमें एक बहुत ही व्यावहारिक तरीक़ा बताते हैं। यह मानव शरीर वह प्रयोगशाला है जहाँ इंसान समर्पण सीखना शुरू करता है। संत-महात्मा हमें मन के स्वभाव, आत्मा के गुणों और दोनों के आपसी संबंध के बारे में समझाते हैं। वे हमें एक ऐसी युक्ति बताते हैं जिससे मन और आत्मा की धाराओं को सारे शरीर में से समेटकर अंदर एक नुक़्ते पर केंद्रित किया जाता है, जिसे तीसरी आँख या तीसरा तिल कहा जाता है। यही मुक्ति का दरवाज़ा है। संत-महात्मा इस रूहानी अभ्यास को “जीते-जी मरना” कहते हैं। हज़रत सुलतान बाहू फ़रमाते हैं:

जीवंदयां मर रहणा होवे, तां देस फ़क़ीरां बहिये हू।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 62, पृ. 252

मन, जिसका रुझान बाहर और नीचे की तरफ़ होता है, एक बार जब तीसरे तिल पर पहुँच जाता है तब इसे शब्द-धुन और दिव्य प्रकाश के रूप में परम आनंद की अनुभूति होती है। केवल तभी यह शरीर के क्षणिक सुखों से मुँह मोड़ने के लिए तैयार होता है। गुरु अमरदास जी फ़रमाते हैं:

काइआ अंदरि अंम्रित सरु साचा मनु पीवै भाइ सुभाई हे॥
गुरु अमरदास, आदि ग्रंथ पृ. 1046; मिस्टिसिज़्म, द स्पिरिचुअल पाथ, पृ. 214

हज़रत सुलतान बाहू समझाते हैं कि जब तक मन इस ऊँचे रूहानी मुक़ाम तक नहीं पहुँच जाता, साधक को मन को क़ाबू में रखना चाहिए और सतर्क रहना चाहिए वरना मन फिर से अपनी पुरानी आदतों और प्रवृत्तियों का शिकार हो जाता है। आप फ़रमाते हैं:

हिक्क जागण, हिक्क जाग न जाणन, हिक्क जागदयां ही सुत्ते हू।
हिक्क सुतयां जा वासिल होए, हिक्क जागदयां ही मुट्ठे हू।
की होया जे घुग्गू जागे, जो लैंदा साह अपुट्ठे हू।
मैं कुरबान तिन्हां तों बाहू जिन्हां खूह प्रेम दे जुत्ते हू।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 194, पृ. 324

दरअसल हम इस नाशवान दुनिया को, इसकी शक़्लों-पदार्थों को ही एकमात्र सच मान लेते हैं। हम इन्हें हासिल करने के लिए तो सचेत रहते हैं जबकि जिस असल सत्य की ओर संत-महात्मा इशारा करते हैं उससे बेख़बर रहते हैं। इस सब में हम अपने अमूल्य समय और ध्यान को व्यर्थ ज़ाया कर देते हैं। हज़रत सुलतान बाहू हमें सतर्क रहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि हम अपने अमूल्य समय और ध्यान को परमात्मा की भक्ति में लगाकर इनका सही उपयोग कर सकें और दिन-रात सांसारिक मोह-माया में ही उलझकर न रह जाएँ। आप फ़रमाते हैं कि वे लोग भाग्यशाली और धन्य हैं जिन्हें मनुष्य-जीवन का मक़सद समझ आ गया है और वे अपने अंदर उस सत्य का अनुभव करने के लिए यत्नशील हैं।

रूहानियत का सार करनी है न कि सिद्धांत। संतमत की शिक्षाओं का असल महत्त्व उन पर अमल करने में है। संत-महात्माओं की रचनाओं या उपदेश को पढ़-सुनकर उस पर सिर्फ़ विचार करने से हमारा कार्य पूरा नहीं हो जाता। असल में, इनसे सिर्फ़ शुरुआत होती है। सोचने या विचार करने से केवल बौद्धिक आनंद की प्राप्ति होती है। रूहानियत के सच्चे साधक के लिए बहुत अहम है कि वह सिद्धांत से करनी की ओर बढ़े। जब हम किसी पूर्ण महात्मा से अपने बाहर फैले हुए ध्यान को वापस समेटकर तीसरे तिल पर एकाग्र करने की युक्ति को सीख लेते हैं तब यह हमारी ज़िम्मेदारी बन जाती है कि समय निकालकर, पूरे विश्वास और श्रद्धा के साथ तन-मन से इस अभ्यास में जुट जाएँ। करनी द्वारा हम परमात्मा की दया-मेहर के क़ाबिल बनते हैं। हुज़ूर महाराज जी हमें प्रोत्साहित करते हैं:

आपको अपनी सहायता ख़ुद करनी पड़ेगी। आपको अपने सारे प्रारब्ध कर्मों का भुगतान करने के लिए अपनी इच्छाशक्ति को मज़बूत करना होगा। कुछ हद तक सतगुरु भी आपकी मदद करते हैं, लेकिन असल में आपको भजन-सिमरन द्वारा अपनी मदद ख़ुद करनी पड़ेगी। कभी-कभी जब कोई ख़ुद को कमज़ोर महसूस करता है, तो वह किसी दूसरे का सहारा ले सकता है लेकिन आख़िरकार उसे ख़ुद ही चलना पड़ेगा। वह किसी दूसरे के सहारे नहीं चल सकता—उसे अपने ही दम पर चलना होगा। भजन-सिमरन से उन सभी कर्मों का हिसाब चुकता करने में मदद मिलती है। यह हमें अपने क्रियमान कर्मों और प्रारब्ध कर्मों का हिसाब चुकता करने और कर्मों के नए बीज बोने से बचने के लिए शक्ति और मनोबल देता है। इस तरह भजन-सिमरन हर प्रकार से हमारी सहायता करता है। हमें अपना फ़र्ज़ पूरा करना है। यही सबसे अहम है।
स्पिरिचुअल पर्सपेक्टिवस, वॉल्यूम II, पृ. 339

इस रूहानी सफ़र में, परमात्मा की दया-मेहर को हर रूहानी उपलब्धि का आधार माना जाता है। निस्संदेह, एक अभ्यासी के लिए लगातार प्रयास करते रहना ज़रूरी है, पर साथ ही उसे परमात्मा की दया-मेहर पर भी पूरा भरोसा होना चाहिए। अपनी मेहनत का उचित फल पाने की आशा रखना स्वाभाविक है पर परमात्मा का भक्त फल नहीं बल्कि दया-मेहर पाना चाहता है। भक्ति का मार्ग प्रेम का मार्ग है। प्रेमी सिर्फ़ प्रेम करता है, प्रेम के एवज़ में वह कुछ भी नहीं चाहता, प्रेम में सौदेबाज़ी नहीं होती। भक्त के अंदर रूहानी मण्डलों तक पहुँचने की भी चाहत नहीं होती। वह शब्द की कमाई सिर्फ़ इसलिए करता है ताकि वह प्रियतम से मिलाप कर सके। इसलिए वह अपने प्रेम के परिणाम को परमात्मा की दया-मेहर पर छोड़ देता है। हज़रत सुलतान बाहू परमात्मा से सिर्फ़ दया-मेहर के लिए विनती करते हैं। उनके अनुसार परमात्मा से परमात्मा के सिवाय और कुछ माँगना दुनिया को माँगना है।

ग़ैर दिले थीं सुट्ट के बाहू, रखिये आस फ़ज़ल दी हू।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 155, पृ. 301

इसी तरह अन्य संत-महात्मा भी परमात्मा की दया-मेहर को ही अपना एकमात्र सहारा मानते हैं।

तेरी मेहर दा इक दरया वगदा,
जिहदा नहीं कंढा आर पार कोई ना।
दिल तकदा ओहनूँ हैरान होया,
जीभा सकदी शुकर गुज़ार कोई ना।
एह ठीक है बहुत गुनाह मेरे,
तेरे फ़ज़ल दा वी पारावार कोई ना।
तरदा मैं गुनाहां दे सागरां विच,
मेरे नाल दा वी गुनहगार कोई ना।
सरमद (सुलतान बाहू, पृ. 210)
तू ख़ुदा के फ़ज़ल से बेख़बर है।
वह हर पल तुझे एक आशिक़ की तरह निहार रहा है।
बू अली शाह क़लंदर (सुलतान बाहू, पृ. 210)

हालाँकि शुरू में हमने इसे ख़ुद की पहचान करने का सफ़र कहा था लेकिन हज़रत सुलतान बाहू एक अद्भुत रहस्य का खुलासा करते हुए कहते हैं कि असल में कोई सफ़र है ही नहीं, क्योंकि कोई मंज़िल ही नहीं है। यहाँ तक कि जुदाई भी नहीं है। यह सिर्फ़ एक एहसास है।

अलिफ़-अहद जद दित्ती विखाली, अज़ ख़ुद होया फ़ानी हू।
कुर्ब, विसाल, मक़ाम न मंज़ल, न उत्थ जिस्म न जानी हू।
न उत्थ इश्क़ मुहब्बत काई, न उत्थ कौन मकानी हू।
ऐनों-ऐन थियोसे बाहू, सिर्र वहदत सुबहानी हू।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 3, पृ. 221