मेरी ओर क़दम तो बढ़ा
राधास्वामी सत्संग ब्यास द्वारा सूफ़ी संत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती पर एक नई पुस्तक प्रकाशित की गई है। यह सत्संग ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की एक ग़ज़ल पर आधारित है, जिसका शीर्षक है: “मेरी ओर क़दम तो बढ़ा।”1
इस ग़ज़ल में ‘मेरी’ कौन कह रहा है? इस ग़ज़ल में मुर्शिद का शब्द-स्वरूप—वह ताक़त जो हममें से हर एक के अंदर मौजूद है—हमें पुकार रहा है। ग़ज़ल को इस तरह से लिखा गया है जैसे कि मुर्शिद का शब्द-स्वरूप अपने हर एक मुरीद से बात कर रहा हो।
आप ग़ज़ल शुरू करते हुए फ़रमाते हैं:
मेरी ओर क़दम तो बढ़ा तेरा यार वफ़ादार हूँ मैं,
जो भी तेरे पास है ला, सबका ख़रीदार हूँ मैं।
यहाँ मुर्शिद का शब्द-स्वरूप हममें से हर एक को अपनी ओर बुला रहा है ताकि हम अपने ख़याल को अंदर तीसरे तिल की ओर मोड़ें। वह कहता है कि तुम इस तरफ़ सिर्फ़ एक क़दम तो बढ़ाओ, जहाँ मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।
‘एक क़दम बढ़ाओ’—यानी कि करनी करो। इसका मतलब है कि हम कुछ ऐसा कर सकते हैं जो उस तरफ़ बढ़ने में हमारी मदद करे, जहाँ वह मौजूद है। यह एक ऐसा ‘क़दम’ है जो हम हर समय, हर पल उठा सकते हैं।
हर बार जब हम सिमरन करते हैं, यही उसकी तरफ़ एक क़दम बढ़ाना है।
हर बार, जब मन इधर-उधर भटक रहा होता है, उस दौरान जब भी हम कुछ पल रुककर उसे याद करते हैं तब हम उसकी ओर एक क़दम बढ़ा रहे होते हैं।
हर रोज़, जब हम भजन-बंदगी में बैठते हैं, चाहे हमारा मन लगे या न लगे तब हम उसकी ओर क़दम बढ़ा रहे होते हैं।
वह हमें सिर्फ़ एक क़दम ही बढ़ाने के लिए क्यों कहते हैं? शायद इसलिए क्योंकि वह जानते हैं कि वह एक क़दम ही हमारे बस में है। अगर उन्होंने हमें यह हिदायत दी होती कि अंदर त्रिकुटी तक पहुँचो, मैं तुम्हें वहाँ मिलूँगा तो हम क्या करते? इसलिए वह हमें सिर्फ़ एक क़दम बढ़ाने के लिए कहते हैं—सिमरन करना और रोज़ वक़्त निकालकर शब्द-धुन को सुनने की कोशिश करना, जोकि हम कर सकते हैं।
जैसा कि हुज़ूर महाराज जी स्पिरिचुअल पर्स्पेक्टिवज़ में फ़रमाते हैं:
हम रचना के मोह से इतना बँधे हुए हैं कि हमारे लिए एक क़दम उठाना भी मुश्किल हो जाता है। हम इस रचना में बहुत ज़्यादा मस्त हो गए हैं, हमारा इस रचना से बहुत अधिक लगाव हो गया है। हमारी जड़ें इस दुनिया में इतनी गहरी हो चुकी हैं कि उन्हें उखाड़ना इतना आसान नहीं है। इसलिए हमारा सिर्फ़ एक क़दम ही बहुत अहम क़दम है…हमें खींचने के लिए हमारा यह एक क़दम ही उस मालिक के लिए काफ़ी है।
“हमें खींचने के लिए हमारा यह एक क़दम ही उस मालिक के लिए काफ़ी है।” सिर्फ़ पल-भर के लिए इस बारे में सोचें–अगर हम किसी करिश्मे के इंतज़ार में हैं तो समझ लें कि यही वह करिश्मा है।
ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ग़ज़ल की पहली सफ़ (पंक्ति) में फ़रमाते हैं, “मेरी ओर क़दम तो बढ़ा, तेरा यार वफ़ादार हूँ मैं।” एक वफ़ादार दोस्त वह होता है जो कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ता। जीवन में ऐसा दोस्त मिलना बहुत दुर्लभ है। एक वफ़ादार दोस्त सदा हमारी भलाई चाहेगा; ऐसा दोस्त जो कुछ भी कहेगा, करेगा या चाहेगा, वह हमारे भले के लिए ही होगा।
अगर हम ख़ुद को अपने उस वफ़ादार दोस्त, मुर्शिद के शब्द-स्वरूप के सुपुर्द करना सीख जाएँ तो फिर हमारे जीवन में जो कुछ भी होगा, जीवन के मार्ग में आनेवाली हर छोटी-बड़ी बाधा को हम यह सोचकर स्वीकार कर लेंगे कि यही हमारे लिए सबसे अच्छा और सही है। ज़रा सोचिए! तब हम कितने बेफ़िक्र और ख़ुश रहेंगे! मगर ऐसा भरोसा आसानी से नहीं आता।
इसलिए ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती हमें अपने मुर्शिद के शब्द-स्वरूप पर भरोसा रखते हुए उसकी ओर क़दम बढ़ाने के लिए कहते हैं और आप आगे फ़रमाते हैं: “जो भी तेरे पास है ला।” पूरे तन-मन से भजन-बंदगी में लग जा। अपने ख़याल की सभी फैली हुई धाराओं को इकट्ठा करके एकाग्रता से सिमरन कर। और अगर तू अपनी कमियों और कमज़ोरियों के बारे में अच्छी तरह जानता है तो भी तू इस वफ़ादार दोस्त पर भरोसा कर सकता है।
इसलिए आप कहते हैं: “जो भी तेरे पास है ला, सबका ख़रीदार हूँ मैं।”
वह हर चीज़ का ख़रीदार है—इसका क्या अर्थ है? जैसे कि हुज़ूर महाराज जी समझाया करते थे: परमात्मा ने जिसे भी हमारी सँभाल की ज़िम्मेदारी सौंपी है, उसने हममें से हर एक की—चाहे हम अच्छे हों या बुरे—पूरी ज़िम्मेदारी ली है। हम चाहे कितने भी नालायक़ क्यों न हों, वह हममें से किसी एक का भी साथ नहीं छोड़ते।
ऐसी ही एक घटना मौलाना रूम के जीवन में घटी थी।
एक बार किसी ने मौलाना रूम के मुरीदों की नुक्ताचीनी करते हुए कहा: “मौलाना रूम तो कामिल रूहानी मुर्शिद हैं लेकिन उनके मुरीद उतने अच्छे नहीं हैं, रूहानी तौर पर उतने क़ाबिल नहीं हैं।” क़ुदरती तौर पर, मुरीदों को यह सुनकर बहुत बुरा लगा। तब मौलाना रूम ने जवाब दिया:
मैं अंधा नहीं हूँ, लेकिन मेरे पास पारस है। इसलिए मैं इन खोटे सिक्कों को ख़रीद लेता हूँ।2
माना जाता है कि पारस वह पत्थर है जो अपने सम्पर्क में आनेवाली ख़राब से ख़राब, सबसे अशुद्ध, बदसूरत धातु को भी शुद्ध सोने में बदल देता है। बेशक यह शब्द की ताक़त के लिए रूपक है।
हम चाहे जो भी हों, जैसे भी हों, अवगुणों से भरे हों और बिलकुल ही नाक़ाबिल क्यों न हों, ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है कि हम अंदर शब्द की ताक़त से जुड़ जाएँ, फिर ही हम सच्चे मुरीद बन पाएँगे।
हो सकता है कि हममें से कुछ अपने आप को सच में खोटा सिक्का मानते हों जिन्हें सतगुरु ने नामदान देते समय ख़रीद लिया था। पर भरोसा रखें, शब्द हमारा कायापलट कर सकता है। हमें सिर्फ़ एक-एक क़दम शब्द की ओर, तीसरे तिल की ओर, सतगुरु के शब्द-स्वरूप की तरफ़ बढ़ाते रहना है।
अगले बंद में हज़रत चिश्ती फ़रमाते हैं:
दिल तेरा गर ठान ले देखने को तमाशा मेरा,
तो आ मेरी तरफ़ कि बरसरे-बाज़ार हूँ मैं।
आप फिर से हमें न्योता दे रहे हैं: मेरी तरफ़ आओ। आप फिर से हमें बुला रहे हैं कि तीसरे तिल पर आओ। आप कहते हैं कि अगर तुम मेरा जलवा देखना चाहते हो तो अपने ख़याल को तीसरे तिल पर एकाग्र कर लो, जहाँ मैं ज़ाहिर (बरसरे-बाज़ार) हूँ।
सच तो यह है कि हम इस बात से वाक़िफ़ ही नहीं हैं कि असल में सतगुरु किस हस्ती के मालिक हैं। सतगुरु एक पहेली हैं जिसे बूझ पाना हमारे लिए असल में मुमकिन नहीं है। लेकिन मोइनुद्दीन चिश्ती यहाँ समझाते हैं कि अगर तुम सतगुरु को समझना चाहते हो तो ऐसा करने का सिर्फ़ एक ही तरीक़ा है—अपने ख़याल को तीसरे तिल पर इकट्ठा करना।
आप ‘बरसरे-बाज़ार हूँ मैं’ द्वारा यह समझाना चाहते हैं कि सतगुरु हर जगह मौजूद हैं। आप फ़रमाते हैं कि जिस रहस्य को तुम जानना चाहते हो वह यहीं, अभी, इस खुले बाज़ार में मौजूद है। तुम्हें इस जागरूकता के लिए, यह जानने और मुर्शिद की मौजूदगी को हर जगह, हर समय महसूस करने के लिए सिर्फ़ अज्ञानता की नींद से जागना पड़ेगा।
लेकिन हम इस अद्भुत अनुभव के लिए कैसे जागें?
हम सिर्फ़ इतना कर सकते हैं कि सतगुरु द्वारा दी गई हिदायतों का पालन करें, रोज़ भजन-बंदगी में बैठें और अपनी ओर से भजन-सिमरन के लिए पूरी कोशिश करें, अपने ख़याल को सतगुरु की तरफ़, तीसरे तिल पर इकट्ठा करने की कोशिश करते रहें। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती आगे फ़रमाते हैं:
गुनाहों के ग़म से गर तू रहता है उदास,
आ इधर कि तबीब हूँ दिले-बीमार का मैं।
कभी-कभी कर्मों के बोझ के कारण हम मायूस हो जाते हैं...और हम उदास तथा विचलित हो जाते हैं, हमारा मन पूरी तरह से बाग़ी हो जाता है। ऐसे में हम ख़ुद पर ही तरस खाने लग जाते हैं जिसे बाबा जी सबसे बुरी प्रवृत्ति कहते हैं, ऐसा करना हमारे हित में नहीं है। ऐसे हालात में हमें क्या करना चाहिए?
ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती इसका हल बताते हुए फ़रमाते हैं, “आ इधर कि तबीब हूँ दिले-बीमार का मैं।”
हक़ीम का मक़सद सिर्फ़ इलाज करना होता है। सतगुरु हमें परखने या हमारे दोष ढूँढने के लिए नहीं आते। वह सिर्फ़ उस पारस—शब्द—से जुड़ने में हमारी मदद करने के लिए आते हैं।
ख़्वाजा चिश्ती आगे फ़रमाते हैं:
सज्जादों की तरह तनहाई में नहीं मेरा मुक़ाम,
साक़ी हूँ मयख़ाने का, मुतरबा भी मैं हूँ ख़ुमार भी मैं।
आप फ़रमाते हैं: मैं बहुत ज़्यादा सज्दा करनेवालों की तरह तन्हाई में नहीं रहता; मैं गुप्त नहीं हूँ; मैं ठीक यहीं हूँ, अभी, तुम्हारे साथ, तुम्हारे अंदर, तुम्हारे चारों ओर। आप ‘मयख़ाने’ की बात करते हैं जहाँ साक़ी हमारे लिए रूहानी मस्ती के प्याले भर-भर कर उड़ेल रहा है।
वह मयख़ाना कहाँ है जहाँ हम शब्द रूपी मय को पीकर मदहोश हो जाएँगे? वह मयख़ाना हमारे अंदर है। आप फ़रमाते हैं कि वह हमारे लिए प्याला लेकर खड़ा है, जिसमें से वह शब्द रूपी अमृत उड़ेल रहा है ताकि हम उसे पीकर उसका आनंद ले सकें।
और आप कहते हैं कि गानेवाला भी वह है जो शब्द का मधुर नग़मा गा रहा है।
अगर शब्द के उस नग़मे को सुनकर हमें आनंद महसूस हो, तो आप फ़रमाते हैं: ख़ुदा के नग़मे को सुनकर महसूस होनेवाला सुरूर भी वह ख़ुद ही है।
भजन-बंदगी करते समय हम शायद अँधेरे में बैठकर उस दिव्य धुन की हल्की-सी गूँज सुन रहे हों। क्या जो भी हमें सुनाई देता है, हम सिर्फ़ उसका आनंद ले सकते हैं, फिर चाहे वह ख़ामोशी ही क्यों न हो? सिर्फ़ सुनने का ही आनंद लें? जैसा कि बाबा जी फ़रमाते हैं कि जितना हम इसका आनंद लेंगे, उतना ही हम उसमें और गहरे समाते चले जाएँगे।
ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती यहाँ संकेत कर रहे हैं कि चाहे हमें कुछ सुनाई दे या न दे, क्या हमें थोड़ी-सी भी शांति, संतुष्टि या ख़ुशी महसूस होती है?
हमें यह समझ लेना चाहिए कि इस एहसास का होना स्वयं सतगुरु का होना है। जैसा कि ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं, “मुतरबा भी मैं हूँ ख़ुमार भी मैं।” यह बात याद रखनी चाहिए कि भजन-सिमरन में थोड़ी-सी शांति का महसूस होना भी असल में रूहानी अनुभव है।
अगले बंद में ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं:
इबादतगाहों में तू करता है मेरी तलाश,
इन परदों से निकल, आ सरे-बाज़ार हूँ मैं।
मोईनुद्दीन चिश्ती एक मुसलमान सूफ़ी संत थे, उनके शागिर्द भी मुसलमान थे, इसलिए आप कहते हैं: तुम इबादतगाह में मेरी तलाश करते हो।
आप बड़ी आसानी से चर्च, मंदिर, गुरुद्वारा, सिनेगॉग या सत्संग हॉल भी कह सकते थे। आप हमें ‘इन परदों से निकलने’ के लिए कहते हैं जो असलियत को छुपा देते हैं।
बाबा जी अकसर फ़रमाते हैं कि भक्ति के लिए बनाई गईं इन सभी जगहों की सबसे अद्भुत बात यह है कि इन सब जगहों का ताल्लुक मालिक की याद से जुड़ा हुआ है। और इसी ताल्लुक की वजह से, जैसे ही हम वहाँ दाख़िल होते हैं हमें उस मालिक की याद आती है और हमें उसकी मौजूदगी का एहसास होता है। संबंध एक ऐसा शक्तिशाली ज़रिया है जिसके द्वारा मन कार्य करता है।
हालाँकि, जैसा हज़रत चिश्ती यहाँ फ़रमाते हैं, “इन परदों से निकल, आ सरे-बाज़ार हूँ मैं।” वह इलाही मौजूदगी जिसकी हमें तलाश है, किसी जगह, किसी इमारत, किसी देश तक सीमित नहीं है।
जब भी हमें मौक़ा मिले, डेरे आना हमें कितना अच्छा लगता है पर हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि बाबा जी कितनी बार यह कह चुके हैं कि दुनिया के किसी दूसरे कोने में हज़ारों मील दूर बैठे किसी व्यक्ति को सच्चे दर्शन प्राप्त हो सकते हैं जबकि हो सकता है कि सत्संग हॉल की सबसे आगे की पंक्ति में बैठा कोई व्यक्ति इनसे वंचित रह जाए।
ख़्वाजा चिश्ती हमें समझाते हैं: ‘इन परदों से निकल।’
लेकिन वे कौन से परदे हैं जो असलियत को हमसे छुपा रहे हैं?
ऐसा क्या है जो हमें यहाँ, अभी, हमारे साथ, हर जगह मौजूद उस प्रियतम को, जिसकी हम तलाश करते हैं, जानने और अनुभव करने से रोकता है?
कभी-कभी रुकावट बननेवाला वह परदा हमारी अपनी पहले से बनी धारणाएँ भी हो सकती हैं।
हमारी समस्या यह है कि हमने इतनी किताबें पढ़ ली हैं, इतने सत्संग सुन लिए हैं कि हमारे मन में पहले से ही धारणाएँ बन चुकी हैं कि रूहानी अनुभव कैसा होना चाहिए। और शायद इसी वजह से हमें जो अनुभव प्राप्त हो रहा है उसे महसूस करने में हम चूक जाते हैं। मोईनुद्दीन चिश्ती अगली कड़ी में फ़रमाते हैं:
बेदिली भूल जा, अपनी ग़रीबी पे न रो,
ऐ दिलबर हर जगह तेरे लिए दिलदार हूँ मैं।
आप कहते हैं: मायूस न हो; अपनी गरीबी पर आँसू मत बहा। हाँ, यह सच है कि रूहानी तौर पर हम वास्तव में दीन हों, गरीबों से भी गरीब हों।
लेकिन उसे हम पर पूरा भरोसा है; अगर उसने हमें नामदान बख़्शा है तो इसका मतलब है कि हम कर सकते हैं। जैसा कि बाबा जी अकसर फ़रमाते हैं कि अगर सतगुरु को लगता कि हम भजन-सिमरन नहीं कर पाएँगे तो वह हमें नामदान की बख़्शिश ही न करते।
लेकिन ‘वह’ क्या है जो हम कर सकते हैं?
हम वह कर सकते हैं जो सतगुरु ने हमें करने के लिए कहा है। यानी कि हम उनके द्वारा दी गई हिदायतों को मानें, करनी में लगें और वह सब करें जो वह हमें करने के लिए कहते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि हम ख़ुद सफलता प्राप्त कर सकते हैं। किसी ने भी कभी यह नहीं कहा कि नतीजा प्राप्त करना हमारे हाथ में है। नतीजा तो उसके हाथ में है; वह जब जो चाहे दे सकता है।
मगर हमारे हाथ में क्या है, जो हम कर सकते हैं—वह है कि हम हर रोज़ भजन-सिमरन के लिए बैठें और अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करें। जैसा कि ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने फ़रमाया कि हम उसकी तरफ़ क़दम तो बढ़ा ही सकते हैं। हमें उसकी तरफ़ एक-एक करके क़दम बढ़ाते जाना है। हर पल, एक अगला क़दम।
हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती अगले बंद में फ़रमाते हैं:
राज़े-दिल न कहना किसी से तू हरगिज़,
रूह की तनहाई में तेरे राज़ का राज़दार हूँ मैं।
इस जीवन में, हम सभी ने मुखौटे पहने हुए हैं; हम सभी कोई न कोई भूमिका निभा रहे हैं। इन सभी मुखौटों और भूमिकाओं के पीछे असल में कौन है? जैसा कि बाबा जी अकसर फ़रमाते हैं, हमें ख़ुद के साथ सहज-स्वाभाविक होना होगा।
ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं कि मुर्शिद एक वफ़ादार दोस्त और भरोसेमंद साथी है जो हमारे वुजूद के मरकज़ में मौजूद है। हो सकता है कि जो मुखौटे हमने पहने हुए हैं और जो भूमिकाएँ हम निभा रहे हैं उनकी वजह से हम अभी तक यह न देख पा रहे हों कि हमारा असल वुजूद क्या है। लेकिन जो हमारे भीतर ही बैठा है, वह हमें देखता और जानता है और हमारी रूह को तहे-दिल से प्यार करता है।
अब मोईनुद्दीन चिश्ती हमसे एक अहम सवाल पूछते हैं। आप फ़रमाते हैं:
दायरे में नुक़्ते की तरह तू कब तक काटेगा चक्कर,
बैठ मरकज़ पर तेरे गिर्द परकार हूँ मैं।
यहाँ आप ने एक ऐसी तस्वीर पेश की है जहाँ हम चक्र के बाहरी किनारे (परिधि) पर गोल-गोल घूम रहे हैं। आप हमसे सवाल करते हैं कि हम कब तक रूहानी राह के सबसे बाहरी किनारों पर चक्कर लगाते रहेंगे? हम कब इधर-उधर भागना बंद करके उस केंद्र पर आएँगे?
हम कब ध्यान केंद्रित करेंगे? हम कब उस केंद्र पर स्थिर होकर अपनी ख़ुदी को भुलाएँगे?
आप कहते हैं: “बैठ मरकज़ पर तेरे गिर्द परकार हूँ मैं।” इस पँक्ति द्वारा आप हमें एक बड़ा दिलचस्प दृष्टांत दे रहे हैं। कंपास (परकार) के ज़रिए हम चक्र की आकृति बनाते हैं। शायद हम सभी ने प्राइमरी स्कूल में कंपास का उपयोग करना सीखा था। यह तभी काम करता है जब आप इसके एक नोक को केंद्र में स्थिरता से, दृढ़ता से, बिना हिलाए-डुलाए जमा देते हैं और फिर इसके दूसरे नुक़ीले भाग से चक्र बनाया जा सकता है।
हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती हमें कंपास के इस दृष्टांत द्वारा क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं?
आप समझाते हैं कि अपने ख़याल को कंपास की नोक की तरह तीसरे तिल पर स्थिरता से, दृढ़ता से और बिना भटकाए टिकाओ। फिर क्या होगा? तब तुम यह जान पाओगे, महसूस और अनुभव कर पाओगे कि तुम चारों तरफ़ से मुर्शिद के शब्द-स्वरूप की सुरक्षा में हो और वह तुम्हारी सँभाल कर रहा है।
कंपास का यह रूपक बहुत प्रभावशाली है क्योंकि इसका मतलब है कि मुर्शिद और मुरीद सिर्फ़ एक-दूसरे से जुड़े हुए ही नहीं हैं बल्कि वे एक ही चीज़ के दो पहलू हैं।
हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती हमें ताकीद करते हैं कि अगर हम सिर्फ़ अपने ख़याल को पूरी तरह से एकाग्र करके तीसरे तिल पर स्थिर कर सकें तो हम मुर्शिद के शब्द स्वरूप को अनुभव करने लग जाएँगे, जो हमारे अंग-संग है और हमारी सँभाल कर रहा है। और हो सकता है कि धीरे-धीरे हमें आभास होने लग जाए कि मुर्शिद और मुरीद दो नहीं, बल्कि एक हैं।
- Shangari, Khawaja Moinuddin Chishti: Ajmer's Benefactor of the Poor. p. 192.
- Spiritual Guide, volume II, p. 241.