सुन सुन धुन चल देश हमारे
आपने हुज़ूर महाराज जी के ये वचन ज़रूर सुने होंगे: “यह संसार हमारा असली घर नहीं है। जो कुछ भी हम यहाँ देख रहे हैं वह अस्थायी और नाशवान है।” ये वचन पुस्तक जीवत मरिए भवजल तरिए से लिए गए हैं। यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है। इस संसार की कोई भी चीज़ मौत के बाद किसी के साथ नहीं जाती।
चाहे हमने इन वचनों को बहुत बार सुना है, फिर भी हम अपने जीवन की दौड़-धूप में ही लगातार मसरूफ़ रहते हैं, हमारा सारा ध्यान इसी में लगा रहता है। अगर हमने अपने इस रवैये को न बदला तो एक दिन हमें निराश और मायूस होना पड़ेगा।
इसीलिए संत-महात्मा हमें चेताते हैं: जागो, यह जीवन अस्थायी है। समझदार बनो और अपने ध्यान को उस चीज़ में लगाओ जो चिरस्थायी है।
हुज़ूर महाराज जी फिर फ़रमाते हैं: सिर्फ़ भजन-सिमरन और सतगुरु ही अमर-अविनाशी हैं और सिर्फ़ वही हमारे ध्यान के क़ाबिल हैं।
संत-महात्मा हम से ऐसा क्यों कहते हैं? वे हमारी हालत को देखते हुए प्यार और करुणा से ऐसा कहते हैं। वे देखते हैं कि हम किस क़द्र इस मायामय जगत के भ्रम में खो गए हैं। ख़ासकर आजकल के दौर में जहाँ जानकारी की भरमार है, मल्टी टास्किंग, ए. आई., अनिश्चितता और चिंताएँ हैं।
लेकिन इन सब उलझनों और अनिश्चितताओं के बावजूद एक अच्छी बात है। वह अच्छी बात यह है कि वह रचयिता हम से कुछ भी नहीं चाहता, वह सिर्फ़ हमें निज-घर ले जाना चाहता है। वह ऐसा सिर्फ़ चाहता ही नहीं बल्कि वह हमें हमारे निज-घर तक ज़रूर ले जाएगा। सिर्फ़ हमें ही नहीं बल्कि हर किसी को और हर चीज़ को—हर जीव, हर प्राणी, इंसान, पशु-पक्षी, पौधे और पत्थर को भी।
एक न एक दिन, हर चीज़ अपने स्रोत में वापस समा जाएगी क्योंकि रचयिता हर एक को फिर से उसके स्रोत में, एकता में लाना चाहता है। उसी ने सभी को जीवन दिया है और वह हर एक को वापस निज-घर ले जाने के लिए दिव्य-तत्त्व यानी शब्द की कशिश द्वारा यह कार्य कर रहा है क्योंकि यह सब उसके बहुत क़रीब है और उसे बेहद प्रिय भी है।
स्वामी जी महाराज एक शब्द में यही फ़रमाते हैं—“तुम हम में थी सदा अभेद।” आप फ़रमाते हैं कि आत्मा हमेशा परमात्मा का अंश व हिस्सा रही, क़रीबी और प्रिय हिस्सा।
असल में, परमात्मा हमें, हम से भी ज़्यादा याद करता है। इसीलिए हमें निज-घर की याद दिलाने के लिए उसकी आवाज़ आ रही है। एक ऐसी आवाज़ जो पूरी सृष्टि में निरंतर गूँज रही है। एक ऐसी आवाज़ जो घंटी की आवाज़ की तरह हमें सूचना दे रही है कि अब घर वापसी का वक़्त आ गया है।
किसी महात्मा द्वारा सुनाई गई निम्नलिखित कहानी इस निरंतर आवाज़ की तरफ़ ही संकेत करती है। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो लंबी सैर पर निकला था। एक जगह आकर वह रास्ता भूल गया। वह नहीं जानता था कि वह कहाँ है या उसे किस दिशा में जाना चाहिए। लगभग आधा मील दूर उसे एक घर दिखाई दिया, इसलिए वह रास्ता पूछने के लिए उस घर में दाख़िल हो गया। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि घर के बरामदे में एक महिला बैठी हुई है। मगर वह महिला अंधी थी और उससे बातचीत करने पर उसे पता चला कि उसकी आँखों की रोशनी गए ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था। बातचीत के दौरान उसे घर के पीछे के मैदान से किसी के सीटी बजाने की मधुर आवाज़ सुनाई दी।
“वह कौन है?” उस व्यक्ति ने उस महिला से पूछा और उस महिला ने जवाब दिया: “वह मेरे पति हैं, आप उनके पास चले जाइए।” जब वह मैदान के उस हिस्से में पहुँचा जहाँ उस महिला का पति काम कर रहा था, तो उसने पूछा: “आप सारा समय सीटी क्यों बजाते रहते हैं?” सीटी बजानेवाले ने जवाब दिया: “ताकि मेरी पत्नी जो देख नहीं सकती उसे हमेशा यह एहसास रहे कि मैं उसके आस-पास हूँ और वह सुरक्षित है।”
इसी तरह एक आवाज़ हमें सदा बुला रही है। यह पुकार, यह आवाज़ सृष्टि में हमेशा क्यों गूँजती रहती है? वह इसलिए क्योंकि रचयिता अपने प्यारे, रचना में खोए हुए अँधे-अज्ञानी बच्चों को यह बताना चाहता है कि वह उनके निकट ही है और वे सुरक्षित हैं।
रचयिता की वह पुकार ही इस पूरी सृष्टि में गूँजने वाली आवाज़ है जिसके द्वारा वह रचयिता हमें सदा निज-घर की याद दिलाता है।
हालाँकि हम इसे सुन नहीं पाते। हम इसे इसलिए नहीं सुन पाते क्योंकि हम अपनी ज़िंदगी में, अपने विचारों में और अपने मन के शोर में और साथ ही अपने आस-पास की इस दुनिया के शोरगुल में ही खोए रहते हैं।
लेकिन सच तो यह है कि वह आवाज़ हर पल मौजूद है। यह वही आवाज़ है जिसके बारे में सतगुरु हमें समझाते हैं।
असल में, सभी संत-महात्मा, चाहे वे पूर्व के हों या पश्चिम के, इसका ज़िक्र करते हैं। और सिर्फ़ संत-महात्माओं ने ही नहीं बल्कि बहुत-से दार्शनिकों, कलाकारों और संगीतकारों ने भी इसका ज़िक्र किया है। जैसे कि:
पाइथागोरस ने ‘खंडों-ब्रह्मांडों के संगीत’ के बारे में बात की थी।
मोज़ार्ट, जिनका ओपेरा: “द मैजिक फ्लूट” सृष्टि के मायामय स्वरूप पर प्रकाश डालता है, उसमें वह मुख्य पात्र से कहलवाते हैं: “अंदर बजनेवाली बाँसुरी की आवाज़ सुनो।”
हैंडेल के ख़ूबसूरत “मसीहा” के इन शब्दों को याद करें—“रेगिस्तान में परमात्मा के लिए एक सीधा राज-मार्ग बनाओ।”
कुछ समय पहले, “द रोलिंग स्टोन्स” नामक एक अंग्रेज़ी रॉक बैंड ने भी “स्वीट साउंड्स ऑफ़ हेवन” और “प्रेज़ द फादर” के बारे में गाया। क्या यह एक संकेत है कि उनका गाना “सिम्पैथी फॉर द डेविल” अब प्रभु के प्रति श्रद्धा में बदल गया है?
क्या हमने अभी यही नहीं कहा कि एक न एक दिन सब कुछ अपने स्रोत में वापस समा जाएगा?
यह आवाज़ पूरी सृष्टि में व्याप्त है, यहाँ तक कि पौधे और मधुमक्खी के बीच की ऊर्जा की तरंग में भी, जिसे डेविड एटनबरो ने अपनी डॉक्यूमेंट्री में दिखाया था और जिसका ज़िक्र बाबा जी भी करते हैं। यह आवाज़ कायनात के ज़र्रे-ज़र्रे में गूँज रही है।
लेकिन, अफ़सोस, जैसा कि अभी कहा गया है, हम इसे सुन नहीं पाते क्योंकि हम अपने विचारों के शोर को सुनने में बहुत व्यस्त हैं।
फिर भी, जब हम निरंतर उठनेवाले उन विचारों को एक पल के लिए शांत कर देते हैं, जब हम अपने ध्यान को अंदर की ओर मोड़ते हैं तब वह ध्वनि हमें सुनाई देने लग जाती है।
हम अपना ध्यान अंदर की ओर कैसे मोड़ें?
हम ख़ुशनसीब हैं कि हमारा मिलाप एक ऐसे गुरु से हुआ है जिन्होंने हमें चेताया कि हम किस तरह दुनिया के जाल में फँसे हुए हैं और उन्होंने दया-मेहर करके हमें एक ऐसी युक्ति समझाई है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को शांत करके ध्यान को अंदर की ओर मोड़ सकते हैं, हमें पता है कैसे—सिमरन करके।
सिमरन जोकि नामदान के समय हमें दिया गया सबसे अनमोल उपहार है।
सिमरन करने से हमारे मन में विचार उठने बंद हो जाते हैं, यह हमारे ख़याल को दुनिया और इसकी सभी चिंताओं से परे ले जाता है और इसे उस धुन की ओर, खंडों-ब्रह्मांडों के संगीत की ओर ले जाता है।
सिमरन, जिसे हम जीवन में हर पल कर सकते हैं।
वह कौन-सी चीज़ है जो हमें उस धुन को सुनने और आंतरिक मार्ग पर चलने यानी निज-घर के रास्ते पर चलने से रोक रही है?
जैसा कि इस सत्संग के पहले भाग में फ़रमाया गया था कि जिस तरह से हम इस दुनिया के जाल में, इसके सभी रिश्ते-नातों और गतिविधियों में मसरूफ़ हैं यही हमें निज-घर पहुँचने के मार्ग पर चलने से रोकता है।
ये वही रिश्ते-नाते और गतिविधियाँ हैं जो हमें इतना मसरूफ़ रखते हैं कि हम उस दिव्य-धुन को सुन नहीं पाते, उस आवाज़ को जो हमें निज-घर वापस ले जाने के लिए बुलावा दे रही है।
साराँश यह है कि चाहे हमें सबसे कीमती हीरा दिया गया है फिर भी हम कौड़ियों से ही खेलते रहते हैं।
हुज़ूर महाराज जी के ख़ूबसूरत शब्द यह बयान करते हैं कि यह सृष्टि कितनी कुशलता से चल रही है: “पूर्ण रूप से अपूर्ण।”
इसके अंदर परमात्मा से मिलाप की चाह सदा बनी रहती है। हालाँकि परमात्मा ने हमें इस सृष्टि में, इस जीवन में, जैसे भी हालात में रखा है, साथ ही उसने हमारे लिए एक ज़बरदस्त कशिश भी रखी है जो हमें उसी की ओर खींच रही है। शब्द की यह चुंबकीय कशिश दिन-रात कार्यशील है जो हमें हर समय अपनी ओर आकर्षित करती रहती है और यह कभी क्षीण नहीं पड़ती, इसकी ऊर्जा कभी समाप्त नहीं होती।
यह चुंबकीय ताक़त हमारे अंदर किस रूप में प्रकट होती है?
वह क्या है जिसकी वजह से हमारे अंदर अपने निज-घर, अपने रचयिता के पास वापस जाने की चाहत पैदा होती है?
वह है विरह! विरह जो सदा से हमारे अंदर है।
यह हमें कभी नहीं छोड़ती क्योंकि यह उस परमात्मा की पुकार है जो हमें निज-घर वापस ले जाना चाहता है।
अगर यह हम पर निर्भर होता तो हम बहुत पहले ही हार मानकर दुनिया में खुशी ढूँढ़ने लग जाते या इस दुनिया से बाहर निकलने का कोई दूसरा रास्ता खोजना शुरू कर देते।
लेकिन सच्चाई तो यह है कि वह सृष्टिकर्ता हमें अपने साथ फिर से मिलाना चाहता है इसीलिए वह हमें अपनी ओर खींच रहा है।
हमें वापस घर ले जाने के लिए, वह हमारे अंदर उसके लिए भूख पैदा करता है और साथ ही हमारे सामने दिव्य अमृत का प्याला भी रख देता है—ऐसा अमृत जिसमें इतनी मिठास है कि हम उसका आनंद लिए बिना रह ही नहीं सकते।
यह भूख की भावना अकेलेपन की भावना जैसी है। वह अकेलापन जो ख़ुद-ब-ख़ुद हमें किसी के साथ के लिए और सुरक्षित आवास की खोज के लिए प्रेरित करता है।
जुदाई और अकेलेपन की इस भावना को मौलाना रूम की “मसनवी” की शुरुआती पंक्तियों में बहुत ही खूबसूरत ढंग से चित्रित किया गया है: “उस बाँसुरी की तान को सुनो वह किस तरह अपनी दास्ताँ सुना रही है, जुदाई का शिकवा करती हुई वह कहती है, ‘जब से मुझे बाँस के झुरमुट से काटकर अलग किया गया तब से मेरी दर्दनाक आहें मर्द-औरत सभी को रुला रही हैं।... जो कोई भी अपने असल से दूर है, वह विसाल की उस ख़ुशनुमा घड़ी के लिए तरसता है, जब वह अपने असल में अभेद था’।”
अपने असल, अपने निज-घर से जुदा होने की वजह से, बाँस अपनी जड़ों से कट जाने के दर्द को महसूस कर रहा है और उसका अकेलापन उसे अपने स्रोत में वापस समाने की चाहत को व्यक्त करने के लिए मजबूर करता है।
वह कौन-सी चीज़ है जिसकी वजह से बाँस में से आवाज़ निकलती है? वह है हवा जो बाँस में से होकर गुज़रती है और वह बाँसुरी की तरह बजने लगता है।
अगर हवा न हो तो न कोई आवाज़ हो, न ही उसमें कोई जीवन हो। लेकिन हवा के साथ, बाँसुरी में जीवन का संचार हो जाता है और इस तरह वह अपना दर्द बयान कर पाती है।
वह हवा क्या है? वह हवा दिव्य सार-तत्त्व—शब्द—की उस शक्ति को प्रकट करती है जो इस सृष्टि में प्राणों का संचार करती है।
सूरज की तरह, यह शक्ति सृष्टि में जान डाल देती है और रचना भी ख़ुशी और आनंद से गुनगुनाने लगती है पर साथ ही यह बाँसुरी को अपने अकेलेपन के दर्द और अपने स्रोत में वापस समाने की चाह को प्रकट करने के लायक़ भी बनाती है।
क्या यह ठीक वैसा नहीं है जैसे रचयिता हमारे ज़रिए ख़ुद से प्यार करता हो; जो प्रेम पहले उसके अंदर पैदा होता है, फिर, कैसे वह प्यार हमें उससे प्यार करने पर मजबूर कर देता है और इस तरह हम उसी के प्रेम को ज़ाहिर करने लगते हैं?
यही वह तरीक़ा है जिससे वह परम सत्ता अपने आप को प्रकट करती है, जिसे हम अकसर “धुन और प्रकाश” के रूप में अनुभव करते हैं। हालाँकि, धुन और प्रकाश का संबंध हमारी सोच-समझ के दायरे से है, हम सिर्फ़ इन्हें ही जानते हैं और इसलिए हमें इन्हीं का सहारा लेना पड़ता है। पर असल में, वह परम सत्ता हमारी सोच-समझ से बहुत परे है। इसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
इसलिए हमें अपने आप को इन धारणाओं तक सीमित नहीं रखना है। ख़ुद को विशेष प्रकार की ध्वनियों या प्रकाश की उम्मीद करके सीमित न करें। जो कुछ भी हमें सीमित करता है, हमें उससे परे जाना है। हमें अपनी धारणाओं, अपने मन के दायरे से आगे बढ़कर अंतर की गहराई में जाकर उस परम सत्ता तक पहुँचना है।
अजीब-सी बात है कि जैसे ही किसी को कोई रूहानी अनुभव होता है, कोई यह महसूस करता है कि वह “अंदर जा” रहा है, तो कुछ लोगों को घबराहट या बेचैनी महसूस होने लगती है। इसकी वजह यह हो सकती है कि जिन चीज़ों से हम परिचित हैं, जो चीज़ें हमारा मज़बूत आधार हैं मानो हमारे हाथों से छूटती जा रही हैं और जब ऐसा होता है तब हम किसी ठोस चीज़ को पकड़ने की कोशिश करते हैं, इस संदर्भ में ध्वनि या प्रकाश की अनुभूति; ऐसी अनुभूतियाँ है जिनसे हम परिचित हैं जो हमारी समझ, हमारी धारणाओं के दायरे में है। मगर परम सत्ता वर्णन से परे है, इसलिए यह उन दायरों से परे है।
यही परम सत्ता वह ताक़त है जो इस रचना में जीवन का संचार करती है; यही वह ताक़त है जो हमें जीवन देती है और हमें इस सृष्टि रूपी बाग़ में खेलने के लिए भेजती है। यह वही ताक़त है जिसकी वजह से हम अकेलापन महसूस करते हैं और फिर से अपने स्रोत में समाने की तड़प को ज़ाहिर कर पाते हैं।
यह ताक़त परमात्मा द्वारा भ्रम में जी रहे जीवों पर की जानेवाली अपार दया है; इस भ्रम में कि यह रचना, यह खेल का मैदान जिसमें हम अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, वास्तविक है। मगर इस ताक़त द्वारा हमें अंत में यह अहसास होता है कि यह रचना एक बहुत बड़ा भ्रम थी।
स्वामी जी महाराज की बानी के बचन ‘सुरत संवाद’ की एक पंक्ति—“तुम हम में थी सदा अभेद।”—का हवाला पहले ही इस सत्संग में दिया जा चुका है, इसी बचन में स्वामी जी महाराज आगे फ़रमाते हैं:
दुख में देखा तुम को जबही। दया उठी हम आये तबही॥...
बुन्द देश को छोड़ो अबही। सिंध देश चल खेलो तबही॥...
तू तो सुरत अब सुन मम बचन।...
सुन सुन धुन चल देश हमारे।
शब्द-धुन को लगातार सुनो यानी कि भजन-सिमरन करो।
प्रेम और भक्ति से, ध्यान लगाकर और बाक़ी सब कुछ भुलाकर भजन-सिमरन करो।
असल में संत-महात्मा हमें सिर्फ़ यही पैग़ाम देते हैं—एक ऐसा पैग़ाम जिसमें हमारा ही भला है।
वह आवाज़ जो हमारे अंदर गूँज रही है और हमें अपने साथ ले जाना चाहती है। वही हमें अंदर का रास्ता दिखाती है। वह आवाज़ शब्द-धुन है, वह ताक़त जिसने इस सृष्टि को बनाया है; जिसने हम सब को जीवन दिया है। यही वह ताक़त है जो हमें वापस हमारे स्रोत, हमारे निज-घर की ओर आकर्षित कर रही है।
वह आवाज़, वह ताक़त हम सब के अंदर ही मौजूद है। इसे सुनने के लिए बस हमें सही दिशा में जाना है, अपने ध्यान को पूरी लगन के साथ उस पर केंद्रित करना है और फिर इंतज़ार करना है।
हमें तब तक इंतज़ार करना है जब तक कि यह प्रकट नहीं हो जाती, उस सूरज की तरह जो हर रोज़ निकलता है और चमकता है। यह ताक़त हमें रोशनी देने के लिए चमकती है, इसलिए नहीं कि हम बाहर की दुनिया को देख सकें बल्कि इसलिए कि वह अंदर के रास्ते को रोशन कर दे, हमें निज-घर का रास्ता दिखा दे।
इसलिए तब तक इंतज़ार करें जब तक कि अंदर वह सूरज चमकता हुआ दिखाई न दे। तब तक इंतज़ार करें जब तक कि अंदर वह धुन सुनाई न दे।
बस अपने ख़याल को अंदर की ओर मोड़ें और ख़ुद को उस शब्द-धुन के संगीत के साथ जाने दें।
जैसा कि हुज़ूर महाराज जी फ़रमाया करते थे: ‘बस अंदर की ओर रुख़ करो’ और जैसा कि बाबा जी अकसर फ़रमाते हैं: ‘शांत होकर बैठो।’
तो बस अंदर की ओर रुख़ करो, शांत रहो और ख़ुद को शब्द की धारा के साथ जाने दो, जो तुम्हें अंदर की ओर, तुम्हारे निज-घर की ओर ले जाती है।
स्वामी जी महाराज के शब्दों में:
सुन सुन धुन चल देश हमारे।