प्रेम ही हमारा अस्तित्व है
संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि प्रेम से ही हमारा अस्तित्व है। इसी ने पूरे ब्रह्मांड और इस सृष्टि की रचना की है और यही इसे क़ायम रखता है। इसके बिना जीवन एक पल में समाप्त हो जाएगा। यह न सिर्फ़ हमारी उत्पत्ति और जीवन का आधार है बल्कि हम स्वयं इसका प्रकट रूप हैं। इसे परमात्मा कहें, शब्द कहें या वर्ड, प्रेम ही सबसे ज़बरदस्त शक्ति है, एकमात्र सच्ची और शाश्वत शक्ति जो सब जगह व्याप्त है।
क्या वजह है कि हम अब तक इस रचनात्मक शक्ति को जीवन के आधार के रूप में पहचान नहीं पाए हैं जिसके हुक्म के अधीन सब कुछ है जो हमारे अस्तित्व के लिए बहुत अहम है? ऐसा क्यों है कि वह शक्ति जो हमारे अंदर प्राणों का संचार करती है हम अकसर उसे पहचान नहीं पाते हैं?
इसका उत्तर है हमारा मन – जिस ढंग से यह कार्य करता है और जिस तरह से हम इसका इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि मन का काम आत्मा की मदद करना है लेकिन हमने इसे अनगिनत जन्मों से बेलग़ाम छोड़ा हुआ है। बाबा जी फ़रमाते हैं कि जिस तरह माता-पिता बच्चे को हर वह चीज़ देकर जो वह माँगता है, बिगाड़ देते हैं, उसी तरह हमारे बहुत ज़्यादा लाड़-प्यार ने मन को बिगाड़ दिया है। इस वजह से मन ने हमारी बुद्धि को क़ाबू में कर लिया है और हमारी आत्मा को अपना ग़ुलाम बना लिया है।
हम सब इस बाग़ी मन के शिकंजे में फँसे हुए हैं। जिसने भी इसे क़ाबू करने की कोशिश की है वह जानता है कि यह कितना ताक़तवर है। यह इतना तेज़ और चालाक है कि इससे पहले हमें इस बात का एहसास हो, यह हमें निरंतर विचारों में ही उलझाए रखता है।
अनगिनत जन्मों से आवागमन के चक्र में फँसे होने के कारण हम इस मानसिक यंत्र (मन) पर पूरी तरह से नियंत्रण खो चुके हैं और इसके अधीन होकर हमारी आत्मा अपने असल को ही भूल गई है। मन अब हमारी आत्मा की चेतन शक्ति को बाधित करके मनमानी करता है।
मन अकसर अतीत की घटनाओं और भविष्य के विचारों में खोया रहता है। अतीत को बार-बार याद करने और भविष्य की कल्पना में लगे रहने के कारण मन ने, परमात्मा, जो हमारे भाग्य का विधाता और हमारे जीवन का आधार है, से जुदा अपनी एक अलग हस्ती क़ायम कर ली है। अहं रूपी भ्रम यह दावा करता है कि मैं अपनी मर्ज़ी का मालिक, अनोखा और आत्मनिर्भर हूँ। लेकिन यह अहं मिथ्या है जो पूरी तरह से हमारे मानसिक यंत्र (मन) द्वारा रचा गया है। इसकी कोई असलियत नहीं है और यह मन ही है जिसने इसे पैदा किया है।
हउ जीवा नाम धिआए पुस्तक में हम पढ़ते हैं:
लगातार सोच-विचार करते रहने से हौंमैं बनी रहती है।...निरंतर बीते हुए समय या आनेवाले समय के बारे में सोचते रहने से हमारा आपाभाव क़ायम रहता है। हम अपने अतीत के बिना अपनी हस्ती की कल्पना ही नहीं कर सकते।
हउ जीवा नाम धिआए, संस्करण 2014, पृ. 45
अंग्रेज़ी का शब्द पर्सनैलिटी (Personality) यूनानी भाषा के शब्द प्रॉसोपिउन (Prosopeion) से बना है, जिसका अर्थ मुखौटा है। पुराने ज़माने में यूनानी रंगमंच पर जब कोई व्यक्ति किसी पात्र का रोल अदा करता था तो उसे मुखौटा पहना देते थे।…यह हमारी झूठी पहचान है जो नाशवान है परंतु हम इसी नक़ली रूप को अपना असली स्वरूप मान बैठे हैं।
हउ जीवा नाम धिआए, संस्करण 2014, पृ. 46-47
हमने इस अहं यानी हौंमैं को ही अपनी पहचान बना लिया है जिसे हमारा मन लगातार क़ायम रखता है। मन को वश में करके, हम अतीत के बारे में सोचना छोड़ देते हैं और भविष्य को परमात्मा के सुपुर्द कर देते हैं। जब मन शांत हो जाता है, जब हमारी हौंमैं का नाश हो जाता है तब क्या बाक़ी रह जाता है – सिर्फ़ हमारा असल वुजूद यानी हमारी आत्मा।
एक सूफ़ी फ़क़ीर सग़ीर इस्फ़हानी लिखते हैं:
आत्मा प्रेम और प्यार है – इसलिए आत्मा को जानो।
लेकिन सत्य परमानंद है, ख़ुद को भूल जाना।
जब “मैं” और “तुम” मौजूद होते हैं तब
तुम अहंकारी होकर सोच रहे होते हो।
जब भी तुम ये दो शब्द सुनो तब सत्य को याद करो।
लवज़ एल्केमी, पोयम्स फ्रॉम द सूफ़ी ट्रेडिशन, संस्करण 2006, पृ. 38
संत-महात्मा समझाते हैं कि जब हम “मैं” या “तुम” जैसे शब्द सुनते हैं तब किसी व्यक्ति का अहंकार बोल रहा होता है। वही इस बात को याद रखने का वक़्त है कि अपने अहं को भुलाकर ही हमारी आत्मा असीम आनंद का अनुभव कर सकती है।
एक बौद्ध भिक्षु मैथ्यू रिकॉर्ड उस मन का ज़िक्र करते हैं जो विचारों के पीछे मौजूद है:
जब मन यादों से भरा होता है और भविष्य की चिंताओं में डूबा होता है तब मन मौजूदा पल की मौलिकता को खो देता है। इस तरह, हम मन की प्रकाशमय सरलता को पहचानने से चूक जाते हैं जो हमेशा विचारों के पर्दे के पीछे मौजूद होती है।
ऑफ़रिंग्स, बुद्धिस्ट विज़्डम फ़ॉर एवरी डे, संस्करण 2003, पृ. 1 जून
हउ जीवा नाम धिआए पुस्तक में लेखक लिखते हैं:
हमारे पास केवल यही क्षण है।…अगर हमारा ध्यान पूरी तरह वर्तमान में हो तो हमारी समस्याओं को पोषण नहीं मिलता और उनका महत्त्व कम हो जाता है और हमारा जीवन अपने आप सुखमय हो जाता है। भजन सुमिरन ‘यहाँ और अब’ यानी वर्तमान में रहने का अभ्यास है। जब हम वर्तमान में रहते हैं तो हम पूरी तरह सचेत होते हैं, क्योंकि तब हमारी चेतना हमारे ‘अहं’ की सीमाओं से कहीं परे पहुँच जाती है। वर्तमान से मुँह मोड़कर अपने ही ख़यालों में खोए रहने से अहं बना रहता है।...
संसार में सबसे क़ीमती है हमारा वर्तमान। न कुछ भविष्य में होता है, न ही अतीत में। जो कुछ भी होता है, आज और अभी होता है यानी वर्तमान में होता है। वास्तव में अस्तित्व केवल वर्तमान का है।
हउ जीवा नाम धिआए, संस्करण 2014, पृ. 85, 86
जब हम वर्तमान में जीते हैं तब हम हर चीज़ को बिना किसी परख के, बिना कोई चिंता किए या बिना उन्हें बदलने की इच्छा के सहज रूप में स्वीकार कर लेते हैं। हम वर्तमान पल में ही परमात्मा की मौजूदगी के बारे में जागरूक हो सकते हैं। यह जागरूकता वर्तमान पल को रोशन कर देती है, हम अपने अंदर शांति महसूस करते हैं और परमात्मा के प्यार व उसकी दी हुई बहुत-सी दातों के लिए शुक्रगुज़ार होते हैं।
जीन-पियरे डी कॉसडे, फ्रांस के एक जेसुइट (सोसाइटी ऑफ़ जीसस के) पादरी, अपनी पुस्तक अबैंडन्मेंट टू डिवाइन प्रॉविडेंस में समझाते हैं कि परमात्मा की रज़ा वर्तमान पल के रूप में प्रकट होती है और इसमें वह सब कुछ मौजूद है जो हमारी रूहानी तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी है। एक रूहानी सलाहकार के रूप में लिखे गए उनके पत्रों में हम पढ़ते हैं:
परमात्मा हर व्यक्ति से उनके साथ पल-पल घटनेवाली घटनाओं के ज़रिए बात करता है…
अबैंडन्मेंट टू डिवाइन प्रॉविडेंस, संस्करण 1975, पृ. 20
हर वह पल जिसे हम जी रहे हैं एक राजदूत की तरह है जो परमात्मा की रज़ा को प्रकट करता है...जो कुछ हमारे लिए ज़रूरी है हमें इस पल में ही मिल सकता है।
अबैंडन्मेंट टू डिवाइन प्रॉविडेंस, संस्करण 1975, पृ. 50-51
हमें हर तरह के चिंतन को छोड़कर, बच्चे जैसी उत्सुकता के साथ, मालिक द्वारा भेजी गई हर चीज़ को स्वीकार करना चाहिए। परमात्मा हमें अनुभव करवाने के लिए हर पल जो कुछ भी करता है, उससे उत्तम और पवित्र हमारे लिए और कुछ भी नहीं है।
अबैंडन्मेंट टू डिवाइन प्रॉविडेंस, संस्करण 1975, पृ. 27
भजन-बंदगी हमें वर्तमान में जीना सिखाती है। जब हम सिमरन करते हैं तब हमारी मानसिक गतिविधियाँ धीमी होने लगती हैं। जब हमारा ध्यान तीसरे तिल पर टिक जाता है तब इस स्थिरता में अतीत और भविष्य का कोई वुजूद नहीं रहता। वहाँ पर हम दिव्य-धारा में डूबकर, उस प्रेम से जुड़ जाते हैं जो हमारे अंदर बहता है और हमारा आधार है। ‘शब्द’ को सुनना परमात्मा के प्रेम के मार्ग पर चलना है।
एक अन्य सूफ़ी फ़क़ीर ख़ाक़ानी शिरवानी लिखते हैं:
यह प्रेम है जो तुमसे बोलता है,
जो तुम्हें इस सृष्टि की सीमाओं
के पार बुलाता है।
जो तुम्हें तुम्हारी
छोटी-सी ख़ुदी से मुक्त करता है,
वह प्रेम ही तो है।
लवज़ एल्केमी, पृ. xviii
अभ्यासी शिष्य होने के नाते हम उस संकीर्ण, सीमित वुजूद जिसे हम अपना आपा समझते हैं, से मुक्त होने की आशा कर सकते हैं। इच्छाओं, डर, दु:ख-दर्द, मोह और उन विचारों से मुक्ति जो बिना बुलाए हमारे मन में लगातार चलते रहते हैं। संतों द्वारा सिखाई गई युक्ति सदियों से सोई हुई निर्मल और प्रकाशवान आत्मा को जन्म-मरण के अनंत चक्र से मुक्त करवाने का वायदा करती है।
जैसा कि किसी महात्मा ने फ़रमाया है:
असल में आत्मा कभी कुछ भी बोलना नहीं चाहती –
सिवाय प्रेम-भरे लफ़्ज़ों के।
लवज़ एल्केमी, पृ. 48
भजन-सिमरन के ज़रिए ही हम मन को क़ाबू में कर सकते हैं और अपने असल की, अपनी आत्मा की पहचान कर सकते हैं जो उस परमात्मा की अंश है जो कि निर्मल प्रेम है।