गुरु की दया-मेहर - राधास्वामी सत्संग ब्यास सत्संग और निबंध डाउन्लोड | प्रिंट

गुरु की दया-मेहर

उपनिषदों में हम पढ़ते हैं:

ब्रह्म के अनंत चक्र में जिसमें सब कुछ समाया हुआ है, आत्मा मुसाफ़िर की तरह तब तक भटकती रहती है, जब तक यह अपने आप को परमात्मा से अलग या जुदा समझती है। जब इस पर परमात्मा की अपार कृपा और मेहर हो जाती है, तब यह अमर पद प्राप्त कर लेती है।1

इस प्राचीन ग्रंथ में समझाया गया है कि इंद्रियों के भोगों के पीछे भागनेवाले मन के साथ बँधी होने के कारण आत्मा को निरतंर अलग-अलग हालात में से गुज़रना पड़ता है। इसे एक शरीर से दूसरे शरीर में उस क़ैदी की तरह जाना पड़ता है, जिसे जेल में एक कोठरी से दूसरी कोठरी में जाने के लिए मजबूर किया जाता है। चूँकि हमारा ध्यान उस निश्चल परमात्मा पर केंद्रित होने के बजाय इस दुनिया में फैला हुआ है, इस वजह से हमारे हालात निरंतर बदलते रहते हैं और यह सिलसिला कभी समाप्त नहीं होता। चाहे एक शरीर से दूसरा शरीर हो, एक भावना से दूसरी भावना हो या एक विचार से दूसरा विचार हो, हमें शांति या ख़ुशी नहीं मिल पाती।

रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह हमारे विचार एक के बाद एक लगातार ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ चलते रहते हैं। यह वैसा ही है, जैसे हम किसी मनोरंजन पार्क के रोलरकोस्टर में बिना किसी विशेष उद्देश्य के सिर्फ़ अपने अहं की संतुष्टि के लिए, सुख का अनुभव करने और दु:खों से दूर रहने के लिए बैठे हों, इस अंहकार में कि हमारा इस सृष्टि में विशेष स्थान है। इसके अतिरिक्त हम ज़्यादातर अतीत या भविष्य के बारे में सोचते रहते हैं और इस चक्कर में हम वर्तमान को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जिसमें मन और आत्मा दोनों शांत होकर स्थिरता प्राप्त कर सकते हैं, शब्द-धुन को पकड़ सकते हैं और उसकी मिठास का अनुभव कर सकते हैं।

इसके फलस्वरूप हमारे विचार अहं के जाल बुनते रहते हैं जो हमें इस दुनिया से बाँधकर रखते हैं, हमारी भावनाएँ भी ठाठें मारते महासागर की उठती और गिरती लहरों की तरह कुछ ऐसा ही करती हैं। गाड़ी चलाते हुए हम एक पल के लिए ख़ुश होते हैं और अगले ही पल ट्रैफ़िक में फँसकर परेशान हो जाते हैं। जब हमारे पास करने के लिए कुछ नहीं होता, तब समय बिताने के लिए हम फोन स्क्रॉल करने लगते हैं और अपने अंदर विचलित कर देनेवाली सूचनाओं को इकट्ठा करते जाते हैं या फिर अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों के बारे में सोच-सोच कर बेचैन हो जाते हैं या अपने आप को कोसने लगते हैं। शाम के समय जब हम ख़बरें देखते हैं, तब दुनिया-भर में क्या-क्या हो रहा है, यह जानकर परेशान होने लगते हैं। फिर रात को कोई अच्छी-सी फिल्म देखकर हम तनावमुक्त हो जाते हैं। आख़िरकार जब रात गहराती है तो हम सब कुछ छोड़कर अपनी आँखें बंद करते हैं और सो जाते हैं ताकि अगले दिन इस सिलसिले को दोहराने के लिए फिर से तरोताज़ा हो जाएँ।

रूमी हमें बड़े प्यार से समझाते हैं:

सुबह की हवा के पास तुम्हें बताने के लिए कुछ राज़ हैं। फिर से न सो जाना। तुम्हें जो चाहिए, वो माँगो। फिर से न सो जाना। लोग उस दरवाज़े के आसपास आ-जा रहे हैं जहाँ दो संसार मिलते हैं। दरवाज़ा गोल है और खुला हुआ है। फिर से न सो जाना।2

इनसान होने के नाते हम अक़सर अपने बीते हुए जीवन के बारे में सोचते हुए पछतावे में कह देते हैं, “काश! मैं बीते समय में जा सकता और मैंने थोड़ा अलग निर्णय लिया होता, उस वक़्त वहाँ पर थोड़ा-सा बदलाव किया होता तो शायद आज मेरी ज़िंदगी बहुत अलग होती!” मगर हम यह नहीं सोचते कि अभी, इस पल में, “अगर हम थोड़ा बदलाव यहाँ और थोड़ा बदलाव वहाँ करें” तो हमारा वर्तमान और भविष्य कितना बदल सकता है! एक छोटे से छोटा बदलाव, तितली के पंख फड़फड़ाने जितना। हम रुककर यह नहीं सोचते कि “अभी” वह समय है, जब हम अपनी शरीर रूपी प्रयोगशाला के अंदर दाख़िल हो सकते हैं, यह खोजने के लिए कि हम वास्तव में कौन हैं और कहाँ से आए हैं। बाद में यह समय नहीं आएगा। यही वक़्त है सत्य को जानने का। इसे कल पर न डालें। “यही” वक़्त है उस बीज को पोषण देने का जो सतगुरु ने नामदान के समय हमारे अंदर बोया था। अब जब हमें यह मनुष्य-जामा मिला हुआ है, यही अवसर है इस देह के अंदर विराजमान परमात्मा से मिलाप करने का। इसे कल पर न डालें। गुरु अमरदास जी फ़रमाते हैं:

ए स्रवणहु मेरिहो साचै सुनणै नो पठाए॥
साचै सुनणै नो पठाए सरीरि लाए सुणहु सति बाणी॥3

लेकिन हम सच्चे प्रभु की शरण नहीं लेते और फिर से सो जाते हैं। ऐसा करते हुए हम यह नहीं सोचते कि अगली रात जब हम फिर से सोने के लिए जाएँगे, तब हमारी उम्र एक दिन और बढ़ चुकी होगी और उसकी अगली रात थोड़ी-सी और, यह सिलसिला चलता जाएगा। आख़िरकार एक दिन हमारी आँखें बंद हो जाएँगी और हम इस बार हमेशा के लिए सो जाएँगे, उन सब चीज़ों को भूल जाने के लिए जिनके लिए हमने सारा जीवन बिताया। एक बिलकुल अलग रंगमंच पर एक नया नाटक खेलने के लिए एक नए शरीर में, नए चेहरे और नई पहचान के साथ फिर से हमारा जन्म होगा। यह सब हमारे संचित कर्मों और इस जीवन के विचारों, भावनाओं तथा मोह के आधार पर तय होगा।

जैसे-जैसे इस संसार का चक्र घूमता है, हमारा मन भी उसी के साथ घूमता है, जिससे हम भ्रमित और व्याकुल हो जाते हैं। जैसे नशे में धुत कोई व्यक्ति सीधा चलने, ठीक से बोलने या सही सोचने के योग्य नहीं रहता, वैसे ही हमें अपनी वास्तविकता का ज्ञान नहीं है और हम अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते। यहाँ तक कि हम निजघर के और घर वापस जाने के मार्ग को भी भूल गए हैं। हमें ख़ुद से यह तर्कसंगत प्रश्न पूछना चाहिए: हम ग़फ़लत की नींद और माया के इस सपने से कैसे जागें जिसने हमारे मन को मोहकर हमारे ध्यान को भटका दिया है? समय के चक्र से जिसे सुकरात ने “अनंतता की चलायमान छवि” कहा था, हम अपने ध्यान को किस तरह से मोड़ें और कैसे इस चक्र से छुटकारा पाएँ?

हम शुरुआत धीमी गति और सहज भाव से कर सकते हैं। मन और माया की इस रचना में इधर-उधर भटकना ट्रेडमिल पर खड़े होने जैसा है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम दौड़ रहे हैं या चल रहे हैं। हम वास्तव में कहीं नहीं पहुँचते। सदियों से हम सभी एक तरह से ट्रेडमिल पर हैं और अपने सामने लगे इस मायावी स्क्रीन को देखते हुए जिन कर्मों को भोगना लिखा है, उन्हें भोग रहे हैं। हम अपने मन को स्थिर कर सकते हैं, ज़िंदगी के अच्छे-बुरे हालात में से गरिमा के साथ गुज़र सकते हैं, यह आभार प्रकट करते हुए कि हमें यह अनमोल मनुष्य-शरीर और नाम रूपी अमूल्य दात बख़्शी गई है। मास्टर एकहार्ट लिखते हैं: “अगर इनसान परमात्मा के प्रति शुक्रगुज़ार होने के सिवाए और कुछ न भी करे तो भी काफ़ी है।”4

परमात्मा का शुक्रिया कैसे अदा करें? कोई व्यक्ति हमारे लिए दरवाज़ा खोलता है तो हम एक बार ‘धन्यवाद’ कह देते हैं। हमारी गाड़ी ख़राब हो जाए और कोई राहगीर मदद के लिए रुके तो हम दो-तीन बार ‘शुक्रिया’ बोल देते हैं। हम अपने माता-पिता के जीवन भर ऋणी रहते हैं और उनका ऋण तो हम चुका ही नहीं सकते। फिर जिस प्रभु ने हमें जीवन दिया है, हमें सब कुछ दिया है, उसका शुक्रिया अदा कैसे करें? उसके प्रति अपना आभार कैसे व्यक्त करें? उसका एकमात्र तरीक़ा यही है कि हम अपना कुछ समय उसे समर्पित करें, तन को स्थिर करके प्रेम और भक्ति भाव के साथ अपने ध्यान को अपनी आँखों के पीछे केंद्रित करें। फिलोकालिया में संत थालासिओज़ द लिबयान लिखते हैं: “स्थिरता, प्रार्थना, प्रेम और आत्म-संयम चार घोड़ों वाला रथ है, जब बुद्धि इसका मार्ग-दर्शन करती है, तब स्वर्ग की प्राप्ति होती है।”5 जबकि आधुनिक पूर्वी ऑर्थोडॉक्स बिशप कैलिस्टोस वेयर अपनी रचना “द पावर ऑफ़ द नेम” में समझाते हैं:

प्रार्थना उस अवस्था में से जहाँ दया-मेहर हमारे हृदय में गुप्त और अचेत रूप में मौजूद होती है, गुज़रकर उस मुक़ाम तक पहुँचना है जहाँ हम अपने अंदर उसकी पूर्ण दया-मेहर को महसूस कर पाते हैं और उसके बारे में जागरूक हो जाते हैं, जहाँ हम उस परमात्मा की लीला को साक्षात् और प्रत्यक्ष रूप में देख पाते हैं।6

दिन-भर और भजन-सिमरन के दौरान परमात्मा के नाम का सिमरन मशीन की तरह करने के बजाय अगर कृतज्ञता, दीनता, प्रेम और भक्ति भाव के साथ किया जाए तो वह हमें ‘शब्द’ के दायरे में ले जाएगा। लेकिन जब तक हम अपने शब्दों और विचारों में ही उलझे और खोए रहते हैं, फिर चाहे वे शब्द कितने ही सुंदर क्यों न हो, चाहे वे विचार कितने ही नेक क्यों न हों—हम ‘शब्द’ के दायरे में नहीं पहुँच सकते। हम केवल सिमरन के ज़रिए ही अपने फैले हुए ध्यान को दुनिया में से निकालकर वापस ‘शब्द’ के दायरे में पहुँच सकते हैं। फिर वहाँ से हमें ‘शब्द’ की धाराओं में समाकर, उनके प्रवाह के साथ बहना होगा। दया-मेहर ही वह शक्ति है जो हमें वहाँ ले जा सकती है और उस दया-मेहर को पाने के लिए हमें सच्चे दिल से कोशिश करनी चाहिए। हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी अपने शिष्य को लिखे एक पत्र में फ़रमाते हैं: “शिष्य की करनी और सतगुरु की दया-मेहर साथ-साथ चलते हैं। करनी से दया-मेहर प्राप्त होती है और दया-मेहर करनी को और बढ़ाती है।”7

इसलिए करनी करना हमारी ज़िम्मेदारी है। जब हमारे इर्द-गिर्द लगातार हलचल हो रही हो, तब यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम स्थिर होकर अपने आप को उस निश्चल, अनंत और निराकार प्रभु की भक्ति में समर्पित कर दें। जैसे एक भिखारी का काम सड़कों पर जाकर भीख माँगना और जो भी मिल जाए, उसे स्वीकार करना है, उसी तरह हमारा भी फ़र्ज़ है कि हम एकांत में बैठकर कर और अपने ख़याल को दुनिया में से निकालकर तीसरे तिल पर स्थिर करें और मन को शांत करके दया-मेहर ग्रहण करने लायक़ बनें। भजन-सिमरन के समय हमें व्यर्थ के विचारों से बचना चाहिए। हम इस लायक़ नहीं हैं कि प्रभु से कुछ माँगें, न ही कोई सौदेबाज़ी करके हम उस तक पहुँच सकते हैं। उसके लिए हमारा प्रेम निश्छल और द्वैत से परे होना चाहिए। सूफ़ी संत राबिया इसी भाव को बयान करते हुए कहती हैं:

हे प्रभु! अगर मैंने नर्क के डर से तेरी भक्ति की है तो मुझे नर्क में जलाना। अगर मैंने स्वर्ग की कामना रखकर तेरी भक्ति की है तो मुझे स्वर्ग से दूर रखना। लेकिन अगर मैंने सिर्फ़ तेरे लिए तेरी भक्ति की है तो तू मुझे अपने अविनाशी नूरी स्वरूप से कभी जुदा न रखना।8

इसलिए हमें ख़ुद को संसार के विचारों से ख़ाली करके तीसरे तिल पर पहुँचना है जो परमात्मा से मिलाप का स्थान है। एक बार जब हम वहाँ पहुँच जाते हैं, फिर वह बेहतर जानता है कि कब देना है, क्या देना है और कैसे देना है। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे सहजता और स्थिरता आती जाती है और रोज़मर्रा के भजन-सिमरन द्वारा हमें जीवन की प्राथमिकताओं और उद्देश्य का बोध होता जाता है हम बाहर फैले हुए अपने ध्यान को अंदर एकाग्र करने में सफल हो जाते हैं। फिर हम इसकी अहमियत और सामर्थ्य को समझने के और अधिक योग्य हो जाते हैं क्योंकि जहाँ हमारा ध्यान होता है, हम वहीं होते हैं। वही ध्यान जिसके कारण हम माया के जाल में क़ैद हैं, हमें नाम से जोड़कर मायामय पदार्थों से परे ले जाता है। अपने ध्यान को पूरी तरह से नाम में लीन कर देना प्रभु की सच्ची भक्ति है क्योंकि इसके लिए हमें पूरी तरह से उसका ही बन जाना होता है। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे एक राजा ने अपने राज्य की बाहरी सीमा पर बसे एक गरीब किसान के घर जाने का फ़ैसला लिया। किसान का परिवार अपने इस ख़ास मेहमान की ख़ुशी प्राप्त करने के लिए सब कुछ करता है, यहाँ तक कि उसका आदर करते हुए अपना पूरा घर उसे सौंप देता है। लेखक मिखाइल नईमी ने अपनी पुस्तक किताब-ए-मीरदाद में लिखा है: “चीज़ों से उनके पर्दे उतार फेंकने के लिए मत कहो। अपने पर्दे उतार फेंको, चीज़ों के पर्दे अपने आप उतर जाएँगे।”9

हम देख सकते हैं कि यह पूरी सृष्टि तीन गुणों* द्वारा निरंतर चलाया जानेवाला अस्थाई खेल है। एक गुण सृजन करता है, दूसरा पालन करता है और तीसरा नाश करता है; इसी तरह तूफ़ान, पेड़ या विशाल पर्वत धीरे-धीरे या तेज़ी से बनते हैं, फिर कुछ क्षणों, कुछ वर्षों या लाखों वर्षों तक क़ायम रहते हैं और धीरे-धीरे या अचानक विलुप्त हो जाते हैं। नश्वरता के इस प्रवाह में परमात्मा का ‘शब्द’ बिना रुके निरंतर गूँजता रहता है। चूँकि यह ‘अनाहत’ है, इस सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं जहाँ यह नहीं गूँज रहा है और चूँकि यह सर्वव्यापक परमात्मा की जीवंत आवाज़ है, इसलिए ऐसा कोई भी पल नहीं है, जब यह गूँजना बंद हो जाए। संत-महात्मा समझाते हैं कि एक दिन संपूर्ण सृष्टि का नाश हो जाएगा, मगर ‘शब्द’ सत्य की तरह स्थायी है।

इसलिए हम अपनी इंद्रियों, अपने मन या विचारों पर भरोसा नहीं कर सकते क्योंकि वे बदलते रहते हैं। हम केवल ‘शब्द’ पर ही भरोसा कर सकते हैं जो निश्चल है, जिसे अपने शरीर के भीतर सुना जा सकता है और जो हमारे जीवन का आधार है। सृष्टि के सबसे छोटे जीवाणु से लेकर रचना के सबसे ऊँचे स्तर तक यह धुनात्मक जीवन धारा सभी के प्राणों का आधार है। इसे सुनकर ही मनुष्य शरीर प्राप्त होने और हमारे जन्म लेने का असल उद्देश्य पूरा होता है। इसलिए हमें उस सेवा को तन, मन और सुरत द्वारा करना चाहिए जिसे निभाने का वायदा हमने अपने सतगुरु से किया है। कबीर साहिब के वचन हैं: “मुरली बजत अखंड सदाये तहाँ प्रेम झनकारा है॥”10

इनसान होने के नाते हम यह सोचते हैं कि किसी चीज़ को नाम दे देने से हम उसके बारे में जान गए हैं। परंतु ‘शब्द’ तो प्रेम की अनंत ध्वनि है और इसे शब्दों द्वारा जान पाना असंभव है। हम ध्यानपूर्वक इसे सुनकर, ख़ुद को इसमें लीन करके ही इसे जान सकते हैं। ज़रा विचार करें कि कैसे एक अनुभवी डॉक्टर स्टेथोस्कोप को अपने कानों में लगाकर इसके दूसरे सिरे को मरीज़ के सीने पर रखकर ध्यान से उसकी धड़कन और स्वाँसों की आवाज़ को सुनता है। उस समय वह कितना अधिक सचेत और एकाग्र होता है। या किस तरह समय से बेख़बर दो प्रेमी घंटों एक-दूसरे की बातें सुनते रहते हैं। सुरत-शब्द योग—सुरत का ‘शब्द’ से मिलाप—संपूर्ण सृष्टि और उसके परे की सबसे महान प्रेम कहानी है। यह हर प्रेम कहानी के पीछे छिपी वह कहानी है जिसे सृष्टि अनगिनत लीलाओं में और अनेक ढंगों द्वारा बयान करती है। मास्टर एकहार्ट लिखते हैं: “हर प्राणी ईश्वर का ‘शब्द’ है और उसके बारे में एक किताब है।”11 एक अन्य स्थान पर वह कहते हैं: “मुझे जितना विश्वास इस बात पर है कि मैं जीवित हूँ, उतना ही विश्वास मुझे इस बात पर है कि परमात्मा से ज़्यादा और कोई मेरे क़रीब नहीं है। परमात्मा मुझसे भी ज़्यादा मेरे नज़दीक है। मेरा अस्तित्व परमात्मा की इस नज़दीकी और मौजूदगी पर निर्भर है।”12

रूहानी मार्ग का असल उद्देश्य परमात्मा के साथ रिश्ता क़ायम करना है, एक ऐसा रिश्ता जिसके द्वारा हम शुरू से ही वह अमूल्य और गूढ़ सबक़ सीखते हैं जो असल में इनसान होने के लिए बुनियादी नियम हैं। हम विनम्रता से बोलना व ध्यान से सुनना सीखते हैं और साथ ही यह भी सीखते हैं कि कब चुप रहना है। हम दीनता, धैर्य, करुणा, सौम्यता, कृतज्ञता, निष्कपटता और आनंदित रहना सीखते हैं। साथ ही संसार के भोग हमें या तो नीरस लगने लगते हैं या कड़वे। धीरे-धीरे जब परमात्मा के साथ हमारा यह दिव्य रिश्ता गहरा होता जाता है, हमारे अंदर यह एहसास बढ़ने लगता है कि परमात्मा ही वास्तव में सत्य है। जैसे नर्सरी में लगे पौधे को जब एक बड़े एवं सुंदर बगीचे की मिट्टी में लगाया जाता है, तब वह बग़ीचा ही उसकी वास्तविकता बन जाता है, उसी तरह परमात्मा रूपी सत्य ही हमारे जीवन का सत्य बन जाता है, हम जहाँ भी जाते हैं और जो भी करते हैं हमें एहसास होता है कि वह हमारे साथ है और हर प्राणी के अंदर है। कबीर साहिब आत्मा और परमात्मा के इस रिश्ते को माँ और बच्चे के रिश्ते के उदाहरण द्वारा समझाते हैं:

सुतु अपराध करत है जेते॥ जननी चीति न राखसि तेते॥
रामईआ हउ बारिकु तेरा॥ काहे न खंडसि अवगनु मेरा॥
चिंत भवनि मनु परिओ हमारा॥ नाम बिना कैसे उतरसि पारा॥
रामईआ हउ बारिकु तेरा॥ काहे न खंडसि अवगनु मेरा॥13
रूमी लिखते हैं:
तुम्हारी मौजूदगी में मैं रात भर जागता हूँ,
तुम्हारे बिना तो रातों को नींद भी नहीं आती।
शुक्र है मेरे ख़ुदा जो तूने इन दो अनिद्राओं और इनके बीच के फ़र्क़ का एहसास करवाया॥14

जब मन आत्मा के साथ एकसुर हो जाता है, तब हमारा पूरा जीवन भक्ति और प्रार्थना बन जाता है, जहाँ हमारे सिमरन का हर एक शब्द सतगुरु को समर्पित होता है। अवीला की मदर टेरिसा लिखती हैं: “प्रार्थना ही परमात्मा के साथ दोस्ती करना है।”15 हुज़ूर महाराज जी “क्वेस्ट ऑफ़ लाइट” में एक शिष्य को समझाते हैं: “इतना सिमरन करो कि पाँच शब्द हर पल तुम्हारे साथ रहें, यहाँ तक कि जब तुम्हें उनका ख़याल न हो फिर भी सिमरन चलता रहे। यह सिमरन स्वाँस लेने की तरह तुम्हारी आदत बन जाना चाहिए।”16

इसलिए हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि पूरे भक्ति भाव से पाँच पवित्र नामों का सिमरन माला के मनकों की तरह निरंतर हमारे अंदर चलता रहे। प्रभु के साथ प्रेम करना ही इस रूहानी मार्ग पर चलना है। मगर परमात्मा के साथ पूरी तरह से प्रेम करने के लिए हमें पहले अपनी आत्मा से प्रेम करना पड़ेगा जिसका भाव यह है कि हमें आत्मा की निजघर वापस लौटने की तड़प को समझना और पहचानना पड़ेगा। जब सारी दुनिया इच्छाओं की पूर्ति के लिए भाग रही है, परमात्मा के प्रेमियों को केवल अपने प्रियतम से मिलाप की ही चिंता लगी रहती है। उस परमात्मा की आवाज़ को सुनने के लिए एकाग्रचित्त होना ही उस प्रियतम से मिलाप करना है। इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि परमात्मा तीसरे तिल में विराजमान है, मन इस बारे में क्या सोचता है इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि यह रिश्ता मन की समझ से परे है। मन द्वैत में फँसाये रखने का ज़रिया है जबकि आत्मा परमात्मा रूपी चेतना के सागर की बूँद होने के कारण उससे जुड़ने और उसमें समा जाने के लिये बेताब है। आत्मा का प्रेम एकनिष्ठ, निर्मल और असीम है। यह प्रेम कभी ख़त्म नहीं होता। यही वह निर्मल प्रेम है जो केवल देना जानता है। किताब-ए-मीरदाद में मीरदाद कहते हैं: “प्रेम न उधार देता है, न उधार लेता है; प्रेम न ख़रीदता है, न बेचता है; बल्कि जब देता है, तो अपना सब कुछ दे देता है; और जब लेता है, तो सब कुछ ले लेता है। इसका लेना ही देना है और देना ही लेना है।”17

पलटू साहिब फ़रमाते हैं:

पलटू बाजी लाइहौं दोऊ बिधि से राम।
जो मैं हारौं राम की जो जीतौ तौ राम॥18

साराँश यह है कि हमें सबसे पहले उसकी पुकार को सुनना चाहिए और आज से ही परमात्मा के प्रेम का यह खेल शुरू कर देना चाहिए। इसमें चाहे हमारी जीत हो या हार, दोनों एक समान हैं। यही उस प्रभु का निराला ढंग है।


  1. Shvetashvatara Upanishad by Swami Sivananda.
  2. Jalāl al-Dīn Rūmī and Coleman Barks. The Essential Rumi. 1st HarperCollins paperback ed. San Francisco, CA, Harper, 1997, p.37
  3. Guru Amar Das, Anand Sahib. (AG:922) Gurbani Selections 2, 2022, RSS p.45.
  4. Eckhart, Meister, and Maurice O'C Walshe. The Complete Mystical Works of Meister Eckhart. Crossroad Pub. Co, 2007. Sermon 27.
  5. St. Thalassios the Libyan (VI-VII Century C.E.). The Philokalia. Vol. II. ed.1981, p.308.
  6. Ware, Kallistos. The Power of the Name: The Jesus Prayer in Orthodox Spirituality. Fairacres Publication, 1977, p.3.
  7. Spiritual Gems, 10th ed. 2004 rev. 2018, L.200, p.322.
  8. Attar, Farid al-Din. Farid Ad-Din ʻAttār's Memorial of God's Friends: Lives and Sayings of Sufis. Translation edited by Paul Edward Losensky. United States, Paulist Press, 2009. p.112.
  9. Mikhail Naimy. The Book of Mirdad. RSSB.2002, p.37.
  10. Kabir. In Songs of Kabir. Translated by Rabindranath Tagore. 1915, p.96.
  11. Fox, Matthew (ed), Meditations with Meister Eckhart (Santa Fe, 1983), p.14.
  12. Eckhart, Meister, and Maurice O'C Walshe. The Complete Mystical Works of Meister Eckhart. Sermon 69, 2009, p.352.
  13. V.K Sethi. Kabir: The Weaver of God's Name 1984, p.243.
  14. Jalāl al-Dīn Rūmī and Coleman Barks. The Essential Rumi. 1st HarperCollins paperback ed. San Francisco, CA, Harper, 1997, p.106.
  15. St Teresa of Avila. The Life of St. Teresa of Avila. Translated by David Lewis. United States, Cosimo, Incorporated, 2008, chapter 8.7, p.51.
  16. Maharaj Charan Singh, Quest for Light. 1972, letter 500, p.306.
  17. Mikhail Naimy. The Book of Mirdad. RSSB. 2002, p.64.
  18. Paltu. Spiritual Link 2015, volume 11, issue 5.