सिमरन की महिमा - राधास्वामी सत्संग ब्यास सत्संग और निबंध डाउन्लोड | प्रिंट

सिमरन की महिमा

हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी लिखते हैं:

रूहानी तरक़्क़ी की कमी के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार ठहराने की आपकी इस भावना की मैं सराहना करता हूँ। इससे आपको सफलता मिलेगी। ज़्यादातर लोग इस बात के लिए अभ्यास की विधि, उपदेश या सतगुरु को क़सूरवार ठहराते हैं। आप चिंता न करें। जब आप भजन-सिमरन को और ज़्यादा वक़्त देंगे, आप अपने मक़सद में उतना ही क़ामयाब होंगे।...रूहानी तरक़्क़ी इस बात पर निर्भर नहीं करती कि नामदान लिए कितना समय हो चुका है बल्कि यह एकाग्रता पर निर्भर करती है।
स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 190

ऐसा कोई विरला ही शिष्य होगा जिसे उम्मीद के मुताबिक़ रूहानी तरक़्क़ी न होने पर थोड़ी-सी भी निराशा महसूस नहीं होती होगी, भले ही सतगुरु हमें समझाते हैं कि हमें इस परख में नहीं पड़ना चाहिए बल्कि हमें तो इस बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। लेकिन हम सभी जानते हैं कि ऐसे ख़याल ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाते हैं, ख़ासकर तब जब हम सालों से कोशिश कर रहे हों।

बाबा जी अकसर समझाते हैं कि मालिक ने हमें विवेक की शक्ति दी है और इस क़ाबिल बनाया है कि हम निष्पक्ष होकर परिस्थिति को समझ सकें। इसलिए यदि हम परिस्थिति के बारे में ध्यानपूर्वक सोचें तो हमें तुरंत पता चल सकता है कि इस सब की वजह क्या है। ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है कि हम बस अपने आप से कुछ सरल से सवाल पूछें: क्या हमारी दिलचस्पी दुनियावी कार्य-व्यवहार में कम हो गई है और क्या हम अपनी ज़िम्मेदारियों को केवल फ़र्ज़ समझकर निष्काम भाव से प्रेमपूर्वक निभा रहे हैं? क्या हम इस मायामय जगत की सभी चिंताओं, योजनाओं, इच्छाओं और झमेलों को पीछे छोड़कर अपना ज़्यादातर समय सिमरन करने में, सतगुरु को याद करने में और इस मार्ग पर चलने में बिताते हैं?

इसके अलावा, क्या हम पूरी तरह स्थिर बैठकर 2½ घंटे भजन-सिमरन करने और इससे भी बढ़कर अपने मन को तीसरे तिल पर स्थिर और एकाग्र रखने में सफल हो पाए हैं ताकि हम अपनी सुरत को समेटकर और अंदर के पर्दे को भेदकर आंतरिक मंडलों में दाख़िल हो सकें? क्या कभी हमें शरीर के सुन्न हो जाने या शरीर से अलग होने का एहसास हुआ है जिसके बारे में सतगुरु हमें बताते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो क्या हमने वह कार्य किया है जो हमें करना चाहिए, जिससे हमारी आंतरिक आँखें और कान खुल जाएँ ताकि हमारा मिलाप अंदर हमारे सतगुरु से हो सके और हम ‘शब्द’ में समाकर वापस अपने निजघर पहुँच सकें?

अगर ईमानदारी के साथ इनमें से किसी भी एक या सभी सवालों को लेकर हमारा जवाब ‘नहीं’ है तो हमें अभी और कोशिश करनी चाहिए, हमारे पास शिकायत करने की कोई वजह नहीं है।

जब हमें पहली बार संतमत के बारे में पता चला तब हमने गहराई में जाकर इसके उपदेश को समझने की कोशिश की—किताबें पढ़ीं, सत्संग सुने, सवाल पूछे। हमें अंदर से एहसास हो गया कि यह मार्ग सच्चा है और हमारी बुद्धि की भी तसल्ली हो गई। हमें अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ाव, दुविधाओं, हृदय की पीड़ा और क्षणभंगुर सुखों के जो भी अनुभव हुए, उनका स्पष्टीकरण मिल गया। उस साधन के बारे में पता चलना जिसे सीखकर और जिसके अभ्यास द्वारा हम यक़ीनन “आँसुओं की इस घाटी” को सदा के लिए छोड़कर परम आनंद प्राप्त कर सकते हैं, बेहद उत्साहवर्द्धक था।

लेकिन बाद में पता चलता है कि यह मार्ग मुश्किल और लंबा है। असल में सतगुरु अकसर समझाते हैं कि यह ‘जीवनभर चलनेवाला सफ़र’ है और आख़िरकार हमें उन पर यक़ीन हो जाता है।

हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी फ़रमाते हैं कि अगर हम रूहानी तरक़्क़ी न होने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं तो इससे हमें “सफलता मिलेगी।” कैसे? क्योंकि जब हम अपनी नाक़ामयाबियों के लिए किसी दूसरे को क़सूरवार ठहराने का आसान रास्ता नहीं चुनते हैं, तब हम अपनी कोशिशों को दोगुना कर देते हैं और मुश्किलों के बावजूद दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ते हैं। हम निरंतर प्रयास करते हैं और यही इस मार्ग पर सफल होने का राज़ है। बाबा जी कई बार कहते हैं कि यह काम हमें ही करना है। वह इसे हमारे लिए न तो कर सकते हैं, न ही करेंगे। इस रूहानी कार्य को पूरा करने के लिए हमें अपना फ़र्ज़ निभाना है अर्थात् हमें अपने ध्यान को तीसरे तिल पर इकट्ठा करने के लिए कड़ा प्रयास करना है जहाँ से हम शरीर में से निकलकर सच्चे रूहानी मंडलों में पहुँच सकते हैं। सरदार बहादुर जगत सिंह जी के वचन हैं:

ऐ दोस्त! इस मार्ग पर कड़ी मेहनत करना सबसे ज़रूरी है। जब तक हम यथाशक्ति मेहनत और कोशिश नहीं करते, तब तक वह द्वार नहीं खुलेगा।
साईंस ऑफ़ द सोल, पृ. 211

यह एक बहुत ही सकारात्मक नज़रिया है और यक़ीनन हमें भी सकारात्मक रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हमारे सतगुरु हमें सफल होते हुए देखने के लिए हमसे भी ज़्यादा उत्सुक हैं। वह अपने अनुभव से जानते हैं कि कौन-सा ख़जाना हमारे इंतज़ार में है। संतमत के साहित्य में हम अकसर पढ़ते हैं, “जब हम उनकी ओर एक क़दम बढ़ाते हैं, वह हमारी ओर दस क़दम बढ़ाते हैं।” यह कथन इस बात को दर्शाता है कि सतगुरु किस हद तक जाकर हमारा मार्गदर्शन और सहायता करते हैं। हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी अपने एक पत्र में सतगुरु के बारे में लिखते हैं, “वह हमारी भलाई और मार्गदर्शन के लिए इस दुनिया में आते हैं क्योंकि सतगुरु के बिना और कौन है जो हमें समझा सकता है? इनसान को केवल इनसान ही सिखा सकता है। सतगुरु का अपना कोई स्वार्थ नहीं होता, न ही वह भेदभाव करते हैं, वह हमेशा हमारी भलाई और बेहतरी चाहते हैं। वह इस सृष्टि में, रूहानी मंडलों में और यहाँ तक कि परमपिता परमात्मा के दरबार में भी हमारे साथ होते है परंतु इस बात का एहसास तभी होता है, जब मन से अज्ञानता का पर्दा हट जाता है।” (स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 145) यह सब अनुभव का विषय है।

हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी ने आगे फ़रमाया, “आप चिंता न करें।” वह रूहानी तरक़्क़ी न होने की चिंता की बात कर रहे हैं। सतगुरु हमें यह भी समझाते हैं कि हमें सांसारिक समस्याओं के बारे में चिंता करने में अपना समय और ऊर्जा बरबाद नहीं करनी चाहिए। जैसा कि हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी लिखते हैं:

जीवन में जो कुछ भी हो उसे सहज भाव से स्वीकार करें। चिंता से कभी किसी को लाभ नहीं हुआ। हमारे भाग्य की बागडोर एक ऊँची सत्ता के हाथ में है। उसके हुक्म में रहने की कोशिश करें। केवल वही जानता है कि हमारे लिए उत्तम क्या है। वह दयालु और कृपालु हैं। अपने आप को उसके सुपुर्द कर दें। परमात्मा आप पर दया-मेहर करे।
दिव्य प्रकाश, पृ. 197

अपने पत्र में एक अन्य स्थान पर महाराज सावन सिंह जी ने बड़ा खोलकर समझाया है:

अगर आपका अपने सतगुरु पर विश्वास और भरोसा पूरा और दृढ़ है तो आपको अपनी आत्मा के भविष्य के लिए इस बात की चिंता करने की ज़रूरत नहीं कि यह जन्म और मरण के चक्र में पड़ेगी या नहीं। आत्मा वहीं खिंची जाती है जहाँ इसका मोह होता है। आपको सिर्फ़ रोज़ाना नियम से भजन-सिमरन करने की चिंता होनी चाहिए।
स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 190

इसलिए एक ही बात की चिंता करना उचित और सहायक सिद्ध होगा और वह है नामदान के समय दी गई हिदायतों का पालन करने के लिए अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करने की चिंता करना। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए और केवल इसी बात की चिंता करनी चाहिए।

लेकिन सतगुरु में इस तरह का “पूरा और दृढ़” विश्वास और भरोसा कैसे पैदा करें ताकि हम चिंता करने से बच सकें? यह विश्वास जादुई ढंग से सिर्फ़ इसलिए पैदा नहीं हो जाता क्योंकि हम ऐसा चाहते हैं। यह बिलकुल उसी तरह जिस तरह सिर्फ़ चाह लेने से विनम्र बनना, क्रोध पर क़ाबू पाना या लालसाओं को छोड़ पाना संभव नहीं है या फिर यह फ़ैसला कर लेने से कि “आज से मैं विनम्र बनूँगा”, हम विनम्र नहीं बन जाते। इसके लिए हमें लंबे समय तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। हमें पूर्ण विश्वास पैदा करने के लिए अपनी ज़िम्मेदारी को निभाना पड़ेगा और वह ज़िम्मेदारी हमेशा से एक ही है: भजन-सिमरन करना। अपना रूहानी सफ़र शुरू करने और अपनी देह के अंदर जाकर यह रूहानी प्रयोग करने के लिए हमें इस मार्ग पर पर्याप्त विश्वास तो होता है लेकिन यह विश्वास अभ्यास करने से ही बढ़ता है। अभ्यास से अनुभव प्राप्त होता है, जिससे हमें अपने रूहानी रहनुमा “अपने सतगुरु पर पूरा और दृढ़ विश्वास हो जाता” है।

अपने अंदर यह भरोसा पैदा करने में वक़्त लगता है कि परमात्मा हमारी सभी ज़रूरतें पूरी करेगा और हमारी सँभाल करेगा। हम अकसर अपने बोझ और चिंताओं को पकड़ कर रखते हैं, बिना यह सोचे कि ऐसा करने से न तो समस्याएँ सुलझती हैं और न ही हमें ख़ुशी मिलती है। इसका कारण यह है कि एक तो हमें अनगिनत जन्मों से चिंता करने की आदत पड़ी हुई है और दूसरा हम अपनी स्थिति को समझ ही नहीं पाए हैं। सतगुरु रेलगाड़ी में बैठे उस व्यक्ति का दृष्टांत देते हैं जो अपने सामान को अपने सिर पर उठाए हुए है। सामान को नीचे भी रखा जा सकता है। रेलगाड़ी हमें हमारी मंज़िल पर ले ही जाएगी और हमें किसी भी तरह के बोझ को सिर पर उठाए रखने में अपनी ऊर्जा व्यर्थ ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं है। चाहे वह बोझ चिंताओं का हो, मोह का हो या यह समझने का कि हमारी हस्ती परमात्मा से अलग है। अब हमें इस तरह का कोई भी बोझ उठाने की ज़रूरत नहीं है। अच्छी बात तो यह है कि धीरे-धीरे यह सब हमारी समझ में आने लगता है। हम चिंताओं को छोड़ देते हैं। उसकी दया-मेहर से हमें ऐसा करने में देर नहीं लगती। और एक न एक दिन यह ज़रूर होगा। हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी ने “सफलता का साधन” बताते हुए ऊपर फ़रमाया है:

जब आप भजन-सिमरन को और ज़्यादा वक़्त देंगे, आप अपने मक़सद में उतना ही क़ामयाब होंगे।...

पर फिर आप स्पष्ट करते हैं:

रूहानी तरक़्क़ी इस बात पर निर्भर नहीं करती कि नामदान लिए कितना समय हो चुका है बल्कि यह एकाग्रता पर निर्भर करती है।
स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 190

हालाँकि ज़्यादातर मामलों में एकाग्रता को बढ़ाने में समय लगता है और जैसे कि बड़े महाराज जी फ़रमाते हैं सफलता एकाग्रता पर निर्भर करती है। एकाग्रता से हमें वह सब कुछ प्राप्त हो जाएगा जो हम चाहते हैं। इस सब में परमात्मा की रज़ा और हमारी इच्छा बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हमें एकाग्रता कैसे प्राप्त होती है? सिमरन द्वारा। सिमरन की महिमा यह है कि यह हमारे रूहानी अभ्यास का वह हिस्सा है जिसे हम कर सकते हैं। ध्यान और भजन कर पाना हमारे बस की बात नहीं है। सिमरन द्वारा प्राप्त हुई एकाग्रता का स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि हमें अपने अंतर में सतगुरु के नूरी स्वरूप का दर्शन होने लगता है और वह शब्द-धुन सुनाई देने लगती है जो हमें अपनी तरफ़ खींचती है। हमें बताया गया है कि यह सब ख़ुद-ब-ख़ुद होगा। सिमरन को कितना समय देना है, यह हमारे हाथ में है और यह हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य होना चाहिए।

महाराज सावन सिंह जी इसी पत्र में एक अन्य स्थान पर समझाते हैं:

आपको शब्द-धुन सुनाई न देने का कारण यह है कि आपका मन सांसारिक झमेलों में इतना उलझा हुआ है कि यह आत्मा को अंदर जाने ही नहीं देता। जब मन तीसरे तिल से नीचे उतर आता है, तब यह शब्द-धुन को पकड़ नहीं पाता। इसका इलाज यह है कि सावधानीपूर्वक सिमरन के ज़रिए मन को एकाग्र किया जाए जिससे मन और आत्मा स्थिर और एकाग्र हो जाएँ और इस तरह ये शब्द-धुन को सुनने के योग्य हो जाएँगे।
स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 188

महाराज सावन सिंह जी के विदेशी शिष्य डॉ. जूलियन जॉनसन जिनके बारे में बहुत-से लोग जानते हैं, उन्होंने इस शब्द-धुन का वर्णन बड़े प्रभावशाली ढंग से किया है। वह इसे “धुनात्मक जीवनधारा” कहते हैं। वह कहते हैं:

संपूर्ण सृष्टि के सभी लोकों में जो जीवात्माएँ शब्द की धारा के संपर्क में आ जाती हैं, वे इसे सुन भी सकती हैं और इसके प्रकाश को देख भी सकती हैं। जिन्होंने सतगुरु की देखरेख में अभ्यास करके अपनी चेतना को जाग्रत कर लिया है, वे सभी इसे सुन और देख सकते हैं।...जब वह इसे महसूस करता है तो वह परमात्मा की शक्ति को महसूस करता है। इसलिए शब्द वह परमशक्ति है जो अपने आपको उस रूप में प्रकट कर रही है जिसे देखा भी जा सकता है और सुना भी जा सकता है।
अध्यात्म मार्ग, पृ. 431

जैसा कि हम जानते हैं, इस मार्ग को कभी-कभी “ध्वनि और प्रकाश का मार्ग” भी कहा जाता है। महाराज सावन सिंह जी इस पत्र में लिखते हैं:

जैसे-जैसे एकाग्रता बढ़ेगी, शब्द और भी ज़्यादा रसीला और मधुर होता जाएगा। इसलिए सबसे पहले सिमरन ज़रूरी है क्योंकि इसके बिना एकाग्रता प्राप्त नहीं हो सकती और जब तक एकाग्रता इतनी गहरी न हो जाए कि वह आत्मा और मन को तारा-मंडल, सूर्य और चंद्र को पार करने के योग्य बना दे, तब तक शब्द-धुन आत्मा को ऊपर नहीं खींच सकती।
स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 188

भजन-सिमरन के अभ्यास के परिणामस्वरूप हम धीरे-धीरे हर बात की चिंता करना छोड़ देते हैं, यहाँ तक कि अपनी रूहानी तरक़्क़ी के बारे में भी चिंता नहीं करते और ख़ुशी-ख़ुशी मालिक की रज़ा में ख़ुश रहना सीख जाते हैं। ऐसा करने से हमें भजन-सिमरन में और ज़्यादा मदद मिलती है। इससे हमें अद्भुत संतोष और शांति प्राप्त होती है। हमें भरोसा हो जाता है कि सतगुरु हमारी भलाई के लिए इसी जीवन में हमारे कर्मों का हिसाब चुकता करवा रहे हैं। इससे हम निश्चिंत होकर अपना समय, ध्यान और ऊर्जा उन चीज़ों में लगाते हैं जिनमें हमारी सबसे अधिक भलाई होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम सतगुरु द्वारा दिए हुक्म का पालन करने और अपनी तरफ़ से भजन-सिमरन को ध्यानपूवर्क करने की अधिक से अधिक कोशिश करते हैं।

यह ज़रूरी है कि हम शिष्य के रूप में अपने नामदान के शुरुआती दिनों में महसूस किए गए उस उत्साह को बनाए रखें या अगर इस मार्ग पर चलते हुए वह उत्साह कहीं खो गया है तो उसे फिर से जगाएँ और ताज़ा करें। इसके लिए बाबा जी हमें एक तरीक़ा बताते हैं: हमें यह सोच-विचार करना चाहिए कि हमने इसी मार्ग पर चलने का फ़ैसला क्यों किया था। शायद यह हममें से बहुत-से लोगों के लिए बहुत पुरानी बात हो। कुछ समय निकालकर यह याद करना सहायक सिद्ध हो सकता है कि उस समय हमने कैसा महसूस किया था जब हमें इस मार्ग के बारे में पता चला था और हमने नामदान लेने का सबसे अहम फ़ैसला लिया था। फिर हमें नामदान मिल गया और हमने भजन-सिमरन का अभ्यास करना शुरू कर दिया। उस ख़ुशी, उत्साह, रोमांच को याद करें! शुक्राने की वह भावना; वे सब कितने अद्भुत और भावुक कर देने वाले अनुभव थे! निस्संदेह हर किसी का अनुभव अलग होता है, पर ये और ऐसी कुछ अन्य भावनाओं को हम सभी ने महसूस किया है। हमने महसूस किया था कि आख़िरकार हमें एक सच्चा मित्र और मार्गदर्शक मिल गया है। वह आत्म-ज्ञानी मिल गया है जिसका प्रेम इस जीवन से परे और असल में हमेशा हमारे साथ रहेगा। महाराज सावन सिंह जी लिखते हैं:

सतगुरु आपके अंदर ही हैं और आपकी सँभाल कर रहे हैं। आप अंदर जाएँ और आपको इस बात पर यक़ीन हो जाएगा।
स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 191

एक और सुझाव यह है कि भजन-सिमरन के लिए बैठने से पहले एक-दो प्रेरणादायक पन्ने पढ़ लिए जाएँ। इससे बहुत फ़र्क़ पड़ता है और अच्छी सोच से हुक्म मानकर भजन-सिमरन के लिए बैठने में मदद मिलती है। ऐसा करने से हम सकारात्मक सोच के साथ ख़ुशी-ख़ुशी शुक्र करते हुए सचेत होकर भजन-सिमरन करते हैं और हमें आनंद आने लगता है। बाबा जी अकसर फ़रमाते हैं कि भजन-सिमरन को दिलचस्प बनाना हमारी ज़िम्मेदारी है और हम यह आसानी से कर सकते हैं। भजन-सिमरन हमारा सबसे महत्त्वपूर्ण और अहम कर्त्तव्य है। लेकिन समय बीतने के साथ चाहे हमें इस बात का एहसास तक न हो, हम भजन-सिमरन के लिए बड़े बेमन और यहाँ तक कि डर से बैठते हैं। अपना कुछ समय रूहानी साहित्य को पढ़ने में समर्पित करके ख़ुद को यह याद दिलाने से कि समय आने पर हम भी ऐसे अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, हमारा हौसला बढ़ता है और हमें मदद मिलती है। इसलिए हमें चाहिए कि गुरु द्वारा बख़्शे गए इन साधनों का लाभ उठाएँ।

हमें बताया जाता है कि संत-सतगुरु हर युग में और अलग-अलग जगहों पर आते हैं। इस संसार में एक या कभी-कभी एक से अधिक पूर्ण-पुरुष सदैव मौजूद होते हैं। वह इस सृष्टि में रहते हैं, उन्हें परमात्मा द्वारा उन गिनी-चुनी जीवात्माओं को लाने के लिए भेजा जाता है जिनका मूल स्रोत में समाने का समय आ गया है। उनका अंदाज़, उनकी भाषा, उनके द्वारा दिए दृष्टांत बदलते समय के अनुसार जीवों के परिवेश के अनुरूप होने के कारण अलग हो सकते हैं लेकिन उनका मूल संदेश एक ही रहता है: “परमात्मा प्रेम है।” हम भी उसी प्रेम का हिस्सा हैं लेकिन हम अपने दिव्य स्रोत को भूल गए हैं। हम अपनी असल पहचान और परमात्मा की पहचान का साधन भूल चुके हैं। इसके लिए हमें ऐसे सतगुरु की ज़रूरत होती है जिन्हें इस युक्ति का ज्ञान हो। उनके मार्गदर्शन में हमें उस आंतरिक मार्ग पर ख़ुद चलना होगा। पूर्ण विश्वास और प्रेम के लिए हमें शब्दों या सिद्धांतों से आगे बढ़ना होगा, हमें स्वयं अनुभव प्राप्त करना होगा।

हम अपने निजघर लौट रहे हैं! इससे बेहतर और आनंददायक क्या हो सकता है? हमारा वर्तमान भी ख़ुशनुमा हो सकता है अगर हम अपने मन को मुश्किलों के बजाय सकारात्मक चीज़ों में लगाएँ। हमेशा उन सभी नियामतों के लिए जो हमें दिखाई देती हैं और वे जिनके बारे में हम अभी नहीं जानते उस मालिक का शुक्र करने की आदत बनाएँ।

इस पत्र के अंत में महाराज सावन सिंह जी फ़रमाते हैं:

अंतर में पर्दे को हटाकर रूहानी आनंद की मिठास का अनुभव करने की कोशिश करें, जिसके सामने सारी रचना और उपलब्धियाँ तुच्छ और मूल्यहीन हैं। (पत्र की समाप्ति पर महाराज जी कहते हैं): संदेह मत करो; मालिक अपनी रूहों का ख़याल रखता है।
स्पिरिचुअल जेम्ज़, पृ. 191