भूमिका - नारी को अधिकार दो

भूमिका

कोई तो इस पतन को रोकेगा,
फिर तुम क्यों नहीं?
लॉरेंस स्कूल सनावर, विद्यालय गीत

नारी को अधिकार दो एक साधारण पुस्तक नहीं, बल्कि हमारे समाज में हो रही एक घोर समस्या का नपा तुला जवाब है। यह घोर समस्या क्या है? आज हमारे देश में, जब माँ-बाप को पता चलता है कि माँ के पेट में बेटी पल रही है, कई माँ-बाप उस मासूम बच्ची की भ्रूण रूप में ही हत्या कर देते हैं। कन्या भ्रूणहत्या का यह चलन बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा इसलिये कि औरतों के प्रति हमारी सोच बिलकुल ग़लत है। इसलिये कि हम अपनी आध्यात्मिक बुनियाद को भूल चुके हैं। इसलिये भी कि हम ‘कर्म सिद्धांत’ के प्रति आँखें मूँद लेते हैं। हम भूल चुके हैं कि मालिक के दरबार में हमारे हर कर्म का हिसाब रखा जाता है—जैसा करेंगे, वैसा भरेंगे।

यह पुस्तक हमें प्रेरणा देती है कि हम ज़रा रुककर सोचें—समाज का हिस्सा होने के नाते हमारी भी कुछ आध्यात्मिक और नैतिक ज़िम्मेदारियाँ हैं। क्या हमारी करनी और हमारी ज़िम्मेदारियों का आपस में तालमेल है? इन ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिये हमें सबसे पहले अपनी सोच में ज़बरदस्त बदलाव लाना होगा। इस पुस्तक के लेखकों ने तथ्य और आँकड़े पेश करते हुए औरतों के जीवन की वास्तविक घटनाओं का वर्णन इस उम्मीद से किया है कि इन्हें पढ़कर हम जागें और अपने रवैये में बदलाव लायें।

यह पुस्तक हमारे ध्यान को इस सवाल का जवाब खोजने पर मजबूर करती है कि आज हमारे देश में ज़्यादातर औरतें इतनी दु:खी क्यों हैं? जवाब मिलेगा—इसलिये कि सदियों से हमारे समाज में औरतों को मर्दों के मुक़ाबले बहुत नीचा दर्जा दिया गया है। इसलिये भी कि हम अपनी करनी की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहते। आज हम सब जानते हैं कि लिंग चुनाव और कन्या भ्रूणहत्या ग़लत है, पाप है, ग़ैरकानूनी है। हम यह भी जानते हैं कि अगर यह परंपरा बढ़ती गई तो इसका नतीजा ख़ौफ़नाक हो सकता है। फिर भी हममें से कोई इस समस्या की ज़िम्मेदारी लेने के लिये तैयार नहीं है। सब एक दूसरे की तरफ़ उँगली उठा रहे हैं और अंत में कोई अपने आप को ज़िम्मेदार नहीं समझता, लेकिन कर्मों के कानून को कोई नहीं रोक सकता। यह संसार कर्मों की खेती है—जो बीज बोएँगे वही फसल काटनी पड़ेगी। अगर हम हिंसा का बीज बोएँगे तो हमें हिंसा की फसल मिलेगी। अगर हम दूसरों को दु:ख देंगे तो हमें भी दु:ख भोगना पड़ेगा। कर्म विधान के अनुसार जो जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल भोगना पड़ेगा। लिंग चुनाव के संबंध में औरतों को जो कष्ट भोगना पड़ता है उसके लिये हम सब ज़िम्मेदार हैं।

हमारा समाज सदियों से पुरुष प्रधान समाज रहा है। यहाँ आदमियों की विचारधारा समाज की बुनियाद मानी जाती है। अगर आदमी एक औरत को माँ या बहन के रूप में देखता है तो उस औरत का सम्मान बढ़ जाता है और वह पूजनीय हो जाती है। यदि आदमी उसी औरत को वासना की नज़र से देखता है और अगर उस वासना का बुरा नतीजा होता है, तो समाज बेचारी औरत पर आरोप लगाता है कि उसी ने आदमी को मोहित किया होगा, लेकिन उस आदमी को रत्ती भर भी दोष नहीं दिया जाता। यह कैसा इंसाफ़ है? अफ़सोस से कहना पड़ता है कि हमारे समाज की हालत ही ऐसी है। इस पुरुष प्रधान नज़रिये को बदलना बहुत ज़रूरी है। वक़्त की पुकार है कि हम जागें और सच्चाई को परखें। यह बदलाव, यह जागृति कहाँ से शुरू होगी? पुरुषों से। क्योंकि हमारे समाज में सत्ता अब भी पुरुषों के हाथ में है और सदियों से पुरुषों के हाथ में ही रही है, इसलिये बदलाव लाने की ज़िम्मेदारी पुरुषों की है। इस काम में पुरुषों को ही अगुआई करनी होगी।

लिंग चुनाव की स्थिति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों और आनेवाली पीढ़ी को एक सुनहरा और स्वस्थ समाज मिले, तो हमें आज ही लिंग चुनाव को रोकने के लिये सख़्त क़दम उठाने होंगे। क़दम उठाने से पहले हमें यह समझना चाहिये कि सिर्फ़ लिंग चुनाव को रोकने की कोशिश करने से ही काम नहीं बनेगा। हमें लिंग चुनाव की कुप्रथा की जड़ों तक पहुँचना होगा—औरतों के प्रति असमानता और अत्याचार को जड़ से उखाड़ना होगा, तभी हमारे समाज में आवश्यकता के अनुसार बदलाव आएगा।

नारी को अधिकार दो पुस्तक का यह संदेश नहीं है कि नारी पुरुष पर बिना वजह अपना अधिकार जमाना शुरू कर दे और यह जताए कि औरत का दर्जा पुरुष से ऊपर होना चाहिये। इस पुस्तक का यह संदेश है कि हम मिलकर ऐसा समाज बनाएँ जहाँ औरत और आदमी में बराबरी का दर्जा हो, जहाँ वे एक दूसरे की योग्यता की क़द्र करें और एक दूसरे की कमियों के प्रति सहनशील हों। ऐसा सुखद समाज बनाने की ज़िम्मेदारी हम सब की है और हम सब अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं। हमारी ज़िंदगी और हमारे समाज से इस ज़हर को निकालने के लिये हमें औरतों के प्रति अपने नज़रिये को बदलना होगा। सही रास्ता चुनना हमारे हाथ में है।

जी.एस.ढिल्लों
दिसंबर 2009