एक पुकार - नारी को अधिकार दो

एक पुकार

‘देश मृनमोए नोए, देश चिनमोए’
देश सिर्फ़ धरती का एक टुकड़ा ही नहीं,
देश हमारी चेतनता की कहानी है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर

नारी को अधिकार दो पुस्तक एक पुकार है—कुछ करने की पुकार। इस पुस्तक में यह संदेश है कि समाज के रीति रिवाज हमने ख़ुद ही बनाए हैं और इन्हीं रीति रिवाजों की वजह से आज हमारे देश की औरत बेहद दु:ख सह रही है।

एक तरफ़ तो हमारा देश धर्म प्रधान देश माना जाता है। यहाँ हमें जगह-जगह मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या गिरजाघर बने मिलते हैं। संसार के सबसे ज़्यादा शाकाहारी लोग यहीं बसते हैं। हमने आज़ादी अहिंसा से पाई और सारे संसार को अहिंसा का संदेश दिया। हमारे देश की धार्मिक परंपराएँ सदियों पुरानी हैं।

दूसरी तरफ़, हम ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ औरतों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जाता है। हमारे समाज में लड़कियों का पैदा होना इतना नापसंद है कि लाखों लड़कियों को जन्म से पहले ही गर्भ में या जन्म लेते ही जान से मार दिया जाता है। जो लड़कियाँ किसी वजह से बच जाती हैं, उनका बचपन दु:खों और ज़ुल्मों का सामना करने में निकल जाता है। यहाँ तक कि हम लड़कियों को उनके भाइयों के बराबर का खाना-पीना नहीं देते, पढ़ाई का मौक़ा नहीं देते और किसी भी काम में उनको बराबरी का दर्जा नहीं देते। कई लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती है। शादी में दहेज भी देना पड़ता है और दहेज के कारण माँ-बाप क़र्ज़ के बोझ तले दब जाते हैं। ज़्यादातर औरतें पैसों के मामले में आदमियों की मोहताज होती हैं। उन्हें बचपन से ही दबाव में रखा जाता है और समझाया जाता है कि वे आदमियों के मुक़ाबले में कमज़ोर हैं। बहुत-सी औरतें आदमियों के हाथों मारपीट या बुरे बर्ताव का शिकार होती हैं।

एक तरफ़ तो हम देवी रूप में नारी की पूजा करते हैं; मंदिर में जाकर लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा माँ को पूजते हैं। हम ‘माँ’ को इतना आदर देते हैं कि जिस ज़मीन पर रहते हैं उसे ‘धरती माता’ कहते हैं, जिस देश में रहते हैं उसे ‘मातृभूमि’ कहते हैं। लेकिन दूसरी तरफ़ हम एक बच्ची की जान ले लेते हैं, क्योंकि वह लड़की है! क्या भारत जैसे धार्मिक देश को अपनी आधी जनसंख्या—औरतों के साथ इस तरह का बर्ताव करना चाहिये? हम अपने धर्मग्रंथों में पढ़ते हैं कि परमात्मा की नज़रों में सभी बराबर हैं। परमात्मा प्रेम का रूप है और उसकी बनाई दुनिया में हमें सबसे प्यार करना चाहिये। इसके बावजूद हम अपने बेटों से प्यार करते हैं, अपनी बेटियों से नहीं!

क्या हमने कभी सोचा है कि हम कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं?

औरतों की ज़िंदगी को सुधारना—यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है। कई सरकारी और ग़ैरसरकारी संस्थाएँ औरतों की पढ़ाई, सेहत, खान-पान और सुरक्षा को सुधारने के लिये लगातार क़दम उठा रही हैं। नारी को अधिकार दो पुस्तक इन सभी समस्याओं का हल ढूँढ़ने की कोशिश नहीं है, बल्कि इस पुस्तक में एक बहुत ज़रूरी मुद्दे की तरफ़ ध्यान खींचने की कोशिश है और वह है—अगर समाज में कभी भी कोई बदलाव आया है तो उसकी शुरुआत किसी एक व्यक्ति ने ही की है। आजकल हमारे देश में पैदा होनेवाले बच्चे के लिंग चुनाव का चलन इतना बढ़ता जा रहा है कि यह एक भारी समस्या बन गई है। हम अपने मन में विचार करें कि इस समस्या के बारे में हम कितना जानते हैं? और अगर जानते हैं तो इसे सुधारने के लिये हमने क्या क़दम उठाए हैं? यह नहीं सोचना चाहिये कि हम अकेले हैं और बदलाव लाना अकेले इनसान के वश में नहीं है। सच तो यह है कि हर इनसान का अपना महत्त्व है, क्योंकि इनसान मिलकर परिवार बनाते हैं और परिवारों से समाज बनता है।

इस किताब में आपसे एक निवेदन है—आओ! हम जागें और अपनी इनसानियत को पहचानें। अच्छी सोच और दया—ये दो गुण हमें सच्चा इनसान बनाते हैं और ये गुण हम सब में मौजूद हैं। महान् कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि हमारा देश सिर्फ़ धरती का टुकड़ा ही नहीं बल्कि हमारी चेतनता की एक कहानी है। हम सब एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। जो फ़ैसले हम आज ले रहे हैं उनका असर सिर्फ़ हमारी ज़िंदगी पर ही नहीं पड़ेगा, बल्कि हमारे बच्चों की ज़िंदगी पर भी पड़ेगा।

नारी को अधिकार दो पुस्तक की पुकार है कि हम ज़रा रुकें और अपनी आत्मा की गहराइयों में झाँकें और परखें—क्या औरतों के साथ हमारा बर्ताव सही है? जिस परमपिता परमात्मा की हम पूजा करते हैं, क्या वह चाहेगा कि औरतों के साथ हमारा बर्ताव ऐसा ही रहे? इस किताब का संदेश है कि औरत बोझ नहीं, बल्कि इस दुनिया में एक अनमोल रत्न है। आज के वक़्त की पुकार है कि हम जागें और मिलकर औरत को मज़बूत और शक्तिशाली बनाएँ।