हम क्या चाहते हैं?
जब भी समाज में अत्याचार होता है—आत्मसम्मान
इसी में है कि उठो और कहो कि यह अत्याचार
आज ही ख़त्म करना होगा, क्योंकि न्याय पाना मेरा
हक़ है।
सरोजिनी नायडू
इस किताब में दी गई जानकारी को पढ़कर हमारे मन को शायद धक्का लगा होगा। ऐसा होना भी चाहिये। जब हम इस बात को हर तरफ़ से देखते हैं कि लिंग चुनाव में हो रही बढ़ोतरी का नतीजा कितना भयंकर हो सकता है तो इसकी चिंता हमें होनी भी चाहिये। इसी बात पर हमें अपने आप से कुछ सवाल पूछने होंगे।
हम समाज में क्या चाहते हैं?क्या हमारा देश क़ातिलों का देश है? हमारी बेटियों की रक्षा की ज़िम्मेदारी किसकी है? क्या एक लड़की को हमारे देश में पैदा होने का हक़ नहीं है?
आख़िर कब तक हम अपने रीति रिवाजों के नाम पर औरतों पर अत्याचार करते रहेंगे? हम अपने रिवाजों पर एक नज़र डालें तो हमें क्या दिखाई देता है? हमारे समाज में शादी के बाद ज़्यादातर औरतों को अपने माँ-बाप से अपना रिश्ता ख़त्म ही करना पड़ता है। जब माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं तो औरत को यह हक़ नहीं दिया जाता कि वह उनकी सेवा कर सके। इस रिवाज से समाज को क्या फ़ायदा मिलता है? मौत के बाद ज़्यादातर माँ-बाप अपना सब कुछ बेटे के नाम छोड़ जाते हैं। क्या एक बेटी का कोई हक़ नहीं बनता? हमारे समाज की उन्नति में इन पुराने रिवाजों का क्या हाथ रहा है? कुछ भी नहीं। जब हम संविधान को एक तरफ़ रखकर देश की आधी आबादी को सेहत, पढ़ाई और आज़ादी का बराबर हक़ नहीं देते तो हमारा देश आगे कैसे बढ़ेगा?
इक्कीसवीं सदी में दहेज जैसे रिवाज की क्या ज़रूरत है? दहेज में एक परिवार को सब कुछ मिलता है, दूसरे परिवार को सब कुछ देना पड़ता है। आज के ज़माने में यह एकतरफ़ा रिवाज क्यों? जिस तरह सती के रिवाज को हमने इतिहास के पन्नों में दफ़न किया था, उसी तरह क्या आज वह समय नहीं आ गया कि दहेज के रिवाज को भी हम दफ़ना दें?
बेटियों की हत्या के बाद माँ-बाप अपने बेटों के लिये बहुएँ कहाँ से लाएँगे? ज़रा सोचें! जब हमारे समाज में हज़ारों, लाखों आदमी ऐसे होंगे जो औरतों की कमी की वजह से शादी नहीं कर पाएँगे, वे समाज से नाराज़ रहेंगे और अपने आप को समाज से अलग मानने लगेंगे, तब हमारे समाज की हालत कितनी ख़तरनाक हो जाएगी? आज जिस तेज़ी से औरतों के प्रति ज़ुल्म बढ़ रहे हैं, क्या उन्हें देखकर हमारा मन बेचैन नहीं होता? क्या हमें डर नहीं लगता? औरतों की कमी की वजह से औरत को ख़रीदकर ज़बरदस्ती बहू बनाना या एक औरत को ‘द्रौपदी’ बनाकर चार भाइयों के बीच बाँटना—क्या ये रिवाज हमें सही लगते हैं? क्या यही है हमारे देश का भविष्य?
जब हम अख़बार में पढ़ते हैं कि दहेज की वजह से किसी औरत को जला दिया गया या लड़की होने के कारण किसी बेटी को गर्भ में ही मार दिया गया तो हम अख़बार के पन्नों को पलटकर आगे बढ़ जाते हैं। ऐसा क्यों? क्या हम इन्हीं बातों को सालों से पढ़-पढ़कर पत्थरदिल हो गए हैं? या शायद हम सोचते हैं कि इन रिवाजों को बदलने की ताक़त तो हममें है ही नहीं, इसलिए हम शिथिल पड़ गए हैं! लेकिन सोचने की बात यह है—इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अगर हम आवाज़ नहीं उठाएँगे तो कौन उठाएगा?
हम परिवार में क्या चाहते हैं?कितने ही लोग अपनी आदतों से मजबूर हैं। कितने लोग लकीर के फ़कीर बने हुए हैं। इनमें कुछ लोग बेख़बर हैं, कुछ डरे हुए हैं और कुछ बेपरवाह हैं। अगर हम सुखी जीवन जीना चाहते हैं, तो हमें हर वक़्त सचेत रहना होगा।
एल्बर्ट आइंस्टाइन
हम भारतवासी अपने मूल्यों पर बहुत गर्व करते हैं। एक क्षण के लिये रुककर ज़रा विचार करें ìक्या हैं हमारे मूल्य? क्या हैं हमारे आदर्श? अपने बेटे से प्यार करना लेकिन अपनी बेटी से नहीं या अपने बेटे से प्यार करना लेकिन अपनी बहू से नहीं, क्या यही हैं हमारे आदर्श? कम उम्र में अपनी मासूम बेटी की शादी करवाकर उसे बेहद दु:ख पहुँचाना या दहेज के बाज़ार में उसे बेच देना, क्या यही हैं हमारे उसूल? अपनी मौत के बाद बेटी के लिये कुछ नहीं छोड़ जाना या बेटी को गर्भ में ही मार देना, क्या यही हैं हमारे मूल्य? क्या ये सब गर्व की बातें हैं?
हमारी कोशिश तो यह होनी चाहिये कि हम ऐसा परिवार बनाएँ जिसमें सबको एक समान प्यार, इज़्ज़त और शिक्षा तथा एक समान मौक़ा मिले, ताकि ज़िंदगी में वे कुछ बन सकें। यह बात शायद हम जानते ज़रूर होंगे कि परिवार के किसी एक सदस्य के साथ अगर हमारा बर्ताव ठीक नहीं है, तो इसका बुरा असर सारे परिवार पर पड़ता है।
अगर हम अपने बच्चों को सही उसूलों से जीने की शिक्षा नहीं देंगे तो बच्चे अपने उसूल उसी समाज से सीखेंगे जिसमें वे पले हैं। फिर उसका नतीजा हमारे बच्चों और हमें, दोनों को ही भुगतना पड़ेगा।
स्टीफ़न कवी
विवाह हमारे समाज और सभ्यता का बहुत ज़रूरी हिस्सा है। शादी को सफल बनाने के लिये दो का होना ज़रूरी है—एक औरत और एक मर्द—एक दूसरे का साथ निभाते हुए वे ज़िंदगी का सामना करते हैं। शादी के बाद आदमी और औरत मिलकर एक परिवार बनाते हैं, यह परिवार समाज की दीवार की एक ईंट है, एक ज़रूरी हिस्सा है। समाज इस परिवार के ज़रिये अगली पीढ़ी को अच्छे संस्कार और आदर्श देता है। जब इसी परिवार के बच्चे अंदर ही अंदर दु:खी और बेचैन होते हैं, तो ये कमज़ोर बच्चे बड़े होकर समाज को कमज़ोर बनाते हैं।
जो परिवार में ख़ुशियाँ बाँटता है, जिसके बच्चों को सही शिक्षा और अच्छे संस्कारों का मज़बूत आधार मिलता है, उस परिवार के बच्चों में आत्मसम्मान होता है और वे बड़े होकर समाज को नयी दिशा में ले जाते हैं।
हम अपनी ज़िंदगी में क्या चाहते हैं?क्या परमात्मा कोई ग़लती करता है जब वह हमें लड़की देता है? क्या हम सोचते हैं कि हम भगवान् बन गए हैं जो हम परमात्मा की रज़ा में दख़ल देने की कोशिश करते हैं?
विज्ञान आगे बढ़ता ही रहेगा, इसे कोई नहीं रोक सकता, लेकिन विज्ञान और आधुनिक तकनीक का प्रयोग हमारे हाथ में है। हमें अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिये ताकि विज्ञान का सही इस्तेमाल हो सके। मिसाल के तौर पर एक वैज्ञानिक तकनीक है जिसके ज़रिये लाखों लोगों को बिजली पहुँचाई जा सकती है, लेकिन उसी तकनीक के ज़रिये लाखों लोगों को एक क्षण में मारनेवाला एटम बम भी बनाया जा सकता है। फ़ैसला हमारे हाथ में है। इसी तरह अल्ट्रासाउंड तकनीक इसलिये बनाई गई थी ताकि हम शरीर में छिपी बीमारियों को ढूँढ़ पाएँ। इसी तकनीक के ज़रिये जच्चा और बच्चा की जान भी बचाई जाती है, लेकिन अफ़सोस! आज वही तकनीक बच्चे के लिंग की जाँच के लिये इस्तेमाल की जा रही है। यह सोच भी हमारे दिमाग़ की ही उपज है!
आज लिंग जाँच के बाद गर्भपात कराना हमारी अंतरात्मा को तो ग़लत लगता है, क्योंकि हमें मासूम बच्चे की जान लेनी पड़ती है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता रहेगा। आज नयी वैज्ञानिक तकनीक पर खोज चल रही है, जिसके ज़रिये हम शुरू में ही डॉक्टर से कह पाएँगे कि हमें बेटा चाहिये तो बेटा ही होगा। इस तकनीक के ज़रिये, बच्चे को मारे बिना, गर्भपात किये बिना, हमें बेटा मिल जाएगा। अब हम अपने आप से यह सवाल पूछें—क्या ऐसा करना सही होगा? बिलकुल नहीं! क्योंकि लिंग चुनाव का अपराध तो फिर भी होगा। बच्चे के लिंग का चुनाव करना क्या हमारा काम है? वैज्ञानिक तकनीक इतनी तेज़ी-से बढ़ती जा रही है कि एक दिन ऐसा आएगा जब हम यह भी चुन पाएँगे कि हमारा बेटा छ: फ़ुट लंबा, तेज़ दिमाग़वाला, सुंदर और बलवान् हो। क्या यह विकल्प हम स्वीकार करेंगे? सर्वगुण संपन्न बेटा पाने की हमारी कामना का क्या कहीं कोई अंत है?
ज़िंदगी में जिन चीज़ों की सबसे ज़्यादा अहमियत है, उनको ऐसी चीज़ों के लिये नज़रअंदाज़ न करें जिनकी रत्ती भर भी अहमियत नहीं है।
गैटे
जीवन में सबसे अधिक अहमियत हमारी आत्मा की है, तो क्या धन दौलत, परिवार का नाम, शान और शौहरत, जिनकी ज़िंदगी के अंत में कोई क़द्र नहीं, इनके लिये अपनी आत्मा को बेच देना उचित है? हम बेटी की बलि देकर उसकी जगह बेटा पाकर अपनी संपत्ति और हैसियत बढ़ाने की कोशिश करते हैं, फिर बड़ी शानशौक़त से उसकी शादी करते हैं और उसमें ख़ूब दहेज पाने की उम्मीद रखते हैं। ऐसा करते हुए हम अपने क़ीमती उसूलों को क़ुरबान तो नहीं कर रहे? किसी भी जीव को दु:ख देकर क्या हम अपने जीवन में कभी ख़ुशी और शांति पा सकते हैं?
अपनी ज़िंदगी में, परिवार में और समाज में हम जो फ़ैसला
करते हैं, क्या हम उससे ख़ुश हैं? कुछ नहीं करना, यह भी
एक प्रकार की करनी है। चुप रहना, यह भी एक फ़ैसला
है। इस ज़ुल्म को रोकने के लिये अगर हम कुछ नहीं करते
तो अपनी चुप्पी का नतीजा हम सबको भुगतना पड़ेगा।