आध्यात्मिक दृष्टिकोण - नारी को अधिकार दो

आध्यात्मिक दृष्टिकोण

अगर हम अपनी आत्मा को हारकर सारा संसार
जीत लें तो सोचिये! हमने क्या पाया?
मैथ्यू 16:26

हमने देखा है कि क़ुदरत में संतुलन बनाए रखने के लिये औरत का होना कितना ज़रूरी है। हम यह भी जान चुके हैं कि आजकल औरत कैसे हालात में से गुज़र रही है। यह भी साफ़ ज़ाहिर है कि अगर औरतों के प्रति असमानता इसी तरह चलती रही, तो समाज को कितना भयंकर नतीजा भुगतना पड़ेगा। दूसरी तरफ़ धार्मिक दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो औरतों के साथ बेइंसाफ़ी के नतीजे बड़े गंभीर हैं।

सब धर्मों के संत-महात्मा और महान् विचारक हमें हर युग में साफ़-साफ़ लफ़्ज़ों में उपदेश देते रहे हैं कि आध्यात्मिक नज़रिये से औरत और आदमी बराबर हैं। औरतों की आज की दर्दनाक हालत देखकर वे संत-महात्मा क्या सोचते होंगे, यह सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिये।

क़ुदरत का संतुलन बिगाड़ना

क़ुदरत में हमेशा संतुलन रहा है। संतुलन बनाए रखने के लिये भगवान् ने दुनिया में जोड़े बनाए हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है, जैसे—अँधेरा और रोशनी, दिन और रात, जवान और बूढ़ा, तेज़ और नर्म, औरत और मर्द। सृष्टि में संतुलन को बनाए रखने में इनकी अपनी-अपनी अहमियत है। औरत हो या मर्द, हर एक इनसान में क़ुदरती तौर पर औरत और आदमी दोनों के गुण मौजूद होते हैं। इसलिये औरत और आदमी दोनों मिलकर ही समाज में संतुलन क़ायम रखने के लिये अपना सहयोग देते हैं।

भगवान् ने हममें से कुछ को आदमी और कुछ को औरत क्यों बनाया है? क्योंकि औरत भगवान् के प्यार का एक रूप है और आदमी भगवान् के प्यार का दूसरा रूप है। दोनों को प्यार बाँटने के लिये बनाया गया है, लेकिन दोनों के प्यार का स्वरूप अलग है।
मदर टेरेसा

आजकल हमारे देश में लिंग चुनाव का प्रचलन बढ़ता जा रहा है जो हमारे समाज के लिये ख़तरे की निशानी है। कुछ इलाक़ों में तो आदमी ज़्यादा और औरतें कम होने की वजह से क़ुदरत का संतुलन बिगड़ने लगा है। जब समाज में आदमियोंवाले गुण ज़्यादा और औरतोंवाले गुण जैसे—नम्रता और सहनशीलता कम हो जाते हैं, तब समाज में अशांति फैल जाती है और इसका नतीजा समाज की बरबादी हो सकती है।

क़ुदरत अपना संतुलन ख़ुद बना लेती है। जब क़ुदरत के काम में हम अपना दख़ल देते हैं तो इसका संतुलन बिगड़ने लगता है। ऐसे में क़ुदरत अपना संतुलन फिर से पाने की कोशिश करती है। संतुलन वापस लाने के लिये क़ुदरत जो तरीक़ा अपनाती है, वह हम सबके लिये बड़ा दु:खदायी हो सकता है।

मक़सद को ध्यान में रखते हुए कर्म करना

आओ! सोचें कि हमारे जीवन का असली मक़सद क्या है? अगर हमारा मक़सद परमार्थ है तो हमें अपने आप से सवाल पूछते रहना चाहिये, ‘क्या हमारे रोज़ के कार्य हमें उस मक़सद को हासिल करने के नज़दीक ले जा रहे हैं या उससे दूर?’ कई लोगों ने परमात्मा की पूजा के लिये एक ख़ास वक़्त और जगह तय की हुई है। उस वक़्त तो हम भगवान् की पूजा-पाठ की रस्म पूरी कर लेते हैं, लेकिन बाद में पूरा दिन हमारा ध्यान अपने असली मक़सद से हटा रहता है। ऐसी हालत में हम भ्रूणहत्या जैसे बहुत-से नीच कर्म कर बैठते हैं। दूसरों के साथ हमारा बर्ताव भी इतना कठोर और बुरा हो जाता है कि पूजा-पाठ के अच्छे कर्म का फल ख़त्म हो जाता है। क्या भगवान् रस्मी तौर पर की गई ऐसी पूजा क़बूल करेगा?

परमात्मा के दरबार में प्यार की एक रत्ती की क़ीमत भी दुनिया भर की धार्मिक रस्मों से कहीं ज़्यादा है।
हज़रत सुलतान बाहू, बैत 58

परमार्थ के ऊँचे मक़सद को पाने के लिये हमें अपनी ज़िंदगी को ऐसे ढाँचे में ढालना होगा, जिससे परमार्थ और स्वार्थ यानी रूहानियत और रोज़ाना की ज़िंदगी दोनों अलग-अलग न नज़र आएँ।

औरत को बराबरी का हक़

संत हमें समझाते हैं कि हम सब परमात्मा के प्रकाश की किरणें हैं और हम सब पवित्र हैं।

एक नूर ते सभ जग उपजिआ, कउन भले को मंदे ॥
कबीर साहिब, आदि ग्रन्थ, पृ.134

आत्मा की शक्ति से आज हम ज़िंदा हैं उसका कोई लिंग नहीं है। भगवान् की नज़र में आदमी और औरत में कोई फ़र्क़ नहीं है—सब पवित्र आत्माएँ हैं, सब मालिक का रूप हैं और सब बराबर हैं।

हत्या करना पाप है

संत-महात्मा हमेशा से कहते आए हैं कि हर जीव की ज़िंदगी क़ीमती है, उसकी अपनी अहमियत है। इसलिये हत्या करना पाप है। उनका उपदेश है कि ज़िंदगी देना या लेना मालिक के हाथ में है। भगवान् ने हमें यह हक़ नहीं दिया कि हम तय करें कि किसे ज़िंदा रखना है या किसे मारना है।

हत्या न करना।
बाइबल, मैथ्यू 5:21

आपको ग़रीबी के डर से अपने बच्चों की जान नहीं लेनी चाहिये। आपके और आपके बच्चों की देखभाल का इंतज़ाम हमने कर दिया है। बच्चों को मार डालना महापाप है।
क़ुरान [17:31]

प्रानी बध नहिं कीजियहि, जीवह ब्रह्म समान।
‘रविदास’ पाप नंह छूटइ, करोर गउन करि दान॥
रविदास दर्शन, पद 186

एक तरफ़ तो पेट में पलते हुए भ्रूण को हम ज़िंदा बच्चे के रूप में नहीं मान पाते, इसीलिये इस ग़लतफ़हमी का शिकार बने रहते हैं कि बच्चे में अभी जान नहीं पड़ी। दूसरी तरफ़ नवजात बच्ची की हत्या करना भी हमारे लिये आम बात हो गई है। बच्ची की हत्या करने के बाद हम अपने आप को गुनहगार तो ज़रूर महसूस करते हैं, क्योंकि माँ उस बच्ची को अपनी गोद में लेती है और हत्या करते वक़्त दाई भी देखती है कि वह बच्ची जीने के लिये कैसे हाथ पैर मारती है और चीख़ती है। पुराने ज़माने में बच्ची की हत्या के बाद घर में पंडित को बुलाकर पूजा-पाठ के ज़रिये देवी-देवताओं को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती थी, क्योंकि अंतरात्मा तो कोसती है कि हमने जो किया है वह ग़लत है।

अफ़सोस की बात यह है कि कन्या भ्रूणहत्या के वक़्त हमारी अंतरात्मा सोई होती है। डॉक्टर जब भ्रूणहत्या करता है, हम उस कमरे में नहीं होते, इसलिये हम अपने आप को इस पापकर्म के भागी नहीं समझते। इसके अलावा बच्ची ने अभी जन्म नहीं लिया होता, किसी ने उसकी शक्ल नहीं देखी होती और सबसे बड़ी बात यह है कि हम यह मानकर बैठ जाते हैं कि उसकी हत्या डॉक्टर ने की है, हमने नहीं। इस बारे में एक और तर्क दिया जाता है कि शिशु में आत्मा छठे महीने में प्रवेश करती है, इसलिये कन्या भ्रूणहत्या करना ग़लत काम नहीं है। हमें अपने आप से ज़रा पूछना चाहिये कि यह फ़ैसला लेनेवाले हम कौन हैं? इस तर्क में कहाँ तक सच्चाई है?

क़ुदरत ने माँ के गर्भ को इतना सुरक्षित बनाया है जहाँ मासूम शिशु अच्छी तरह पल सकता है। वह भ्रूण जो परमात्मा की एक अनमोल रचना है, मनुष्य जन्म में आने की तैयारी कर रहा होता है। इस भ्रूण में परमात्मा की अंश आत्मा बसती है, इसलिये उसे हर प्रकार का दु:ख-दर्द भी महसूस होता है। यह भ्रूण बच्ची के रूप में प्यार का वायदा लेकर आती है। उस मासूम की सुरक्षा और देखभाल करना हमारा फ़र्ज़ बन जाता है।

दूसरे जीव को दु:ख देना

जब हम जीवों को परमार्थ की नज़र से देखते हैं तो हमारे अंदर दया भाव पैदा हो जाता है। हम यह समझने लगते हैं कि किसी की हत्या करना तो दूर की बात रही, हमें तो किसी का दिल भी नहीं दुखाना चाहिये। हम अपनी बेटी, बहन, पत्नी या बहू का दिल दुखाकर यह आशा कैसे कर सकते हैं कि परमात्मा के घर में हमें कोई जगह मिलेगी?

कभी किसी के दिल को न दुखाओ। यह ऐसा पाप है जिसे मालिक भी माफ़ नहीं करता, क्योंकि यह परमार्थ की जड़ को ही काट देता है।
महाराज जगत सिंह

अपनी इच्छाओं पर क़ाबू पाना

हम ज़रा सोचें ìजो हम कर रहे हैं, वह किस मतलब से कर रहे हैं? हम दहेज क्यों माँगते हैं? और अगर दहेज नहीं माँगते, लेकिन लड़कीवाले दे देते हैं तो हम उसे अपना हक़ समझकर क्यों ले लेते हैं? क्या हम समझते हैं कि लेना हमारा हक़ है और देना लड़कीवालों के नसीब में लिखा है?

क्या हमारी इच्छाएँ हमारी ज़रूरतों से ज़्यादा हैं? अच्छा टी.वी., नयी कार, बड़ा घर वग़ैरह पाने के लिये हम किस हद तक अपने उसूलों को क़ुरबान कर देते हैं? अगर हमारी सारी इच्छाएँ पूरी हो भी जाएँ तो क्या हमें सब्र आ जाता है? क्या हमारे मन में कोई नयी इच्छा नहीं जागती?

ज़िंदगी में हमारी पूरी कोशिश होनी चाहिये कि हमारी इच्छाएँ हमारी ज़रूरतों से बाहर न जाएँ। अगर दुनियादारी की ख़ुशियाँ पाने के लिये हम एक बार भी अपनी ज़रूरतों से आगे निकल जाते हैं तो फिर उन इच्छाओं को रोक पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है, क्योंकि ज़रूरतों की हद पार करते ही हमारी इच्छाओं की कोई सीमा नहीं रहती।
फ़िलोकैलिया

क्या हमने कभी इस बात पर ग़ौर किया है कि ज़्यादा से ज़्यादा दुनियावी पदार्थों को पाने की लालसा का नतीजा हमें ही भुगतना पड़ेगा?

तुम ऐसी चीज़ों को पकड़े हो जो किसी और की हैं।
लेकिन मालिक सब सुनता है, सब जानता है।
इस लालच में खोकर
तुम नरक के कुएँ में गिर जाओगे,
बिलकुल बेख़बर हो कि आगे जाकर तुम्हें क्या भुगतना पड़ेगा।
गुरु अर्जुन देव

बेटे की इच्छा और पैसे के लालच में हम औरतों के ख़िलाफ़ न जाने कितने ही नीच और बेरहम कर्म कर बैठते हैं, लेकिन क्या बेटे और धन सच में हमारे हैं? जब हम दुनिया से जाएँगे, तो क्या हम इन्हें अपने साथ लेकर जाएँगे?

मूर्ख को यह सोच सताती रहती है
ये बेटे मेरे हैं,
ये धन मेरा है,
पर जब वह ख़ुद अपना नहीं है,
फिर ये बेटे उसके कैसे हो सकते हैं?
फिर ये धन उसका कैसे हो सकता है?
धम्मपद

हमारे कर्मों का फल

कर्मों का कानून परमात्मा का बनाया हुआ है। सारा संसार कर्मों के कानून के मुताबिक़ चलता है। इस कानून के अनुसार हमारी हर सोच और हर कर्म का कोई न कोई नतीजा ज़रूर हमारे सामने आता है—जैसी करनी वैसी भरनी।

जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेत॥
गुरु अर्जुन देव, आदि ग्रन्थ, पृ.134

हमारी ज़िंदगी की हर करनी और सोच का हिसाब कर्मों के खाते में जमा किया जाता है। इन कर्मों का फल हमें या तो इस जन्म में या फिर अगले जन्मों में भुगतना ही पड़ता है। हम किसी भी हालत में कर्मों के फल से बच नहीं सकते। एक कहावत है कि कर्मों की चक्की धीमी चलती है, पर वह पीसती बड़ी बारीक़ी से है। इसके बारे में संत कबीर ने कहा है:

चलती चक्की देखि कै, दिया कबीरा रोय।
दुइ पट भीतर आइकै, साबित गया न कोय॥
कबीर साखी-संग्रह, पृ.66

महाभारत में एक कहानी है, जिससे हम कर्मफल के कानून को बहुत अच्छी तरह से समझ सकेंगे। राजा धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे और इस अभिशाप से वे बहुत दु:खी थे, परंतु कुछ पुण्य कर्मों की वजह से उनमें शक्ति थी कि वे अपने पिछले जन्मों के बारे में जान सकते थे। उन्होंने अंधेपन की वजह जानने के लिये अपने पिछले सौ जन्मों पर नज़र डाली, लेकिन उन्हें अंधेपन की कोई वजह नहीं मिली। पूछने पर भगवान् कृष्ण ने सलाह दी कि वे सौ जन्मों से भी पीछे के जन्मों पर नज़र डालें। राजा ने ऐसा ही किया और देखा कि किसी एक जन्म में उन्होंने बचपन के अनजानेपन में किसी जानवर को उसकी आँखों में काँटे चुभाकर अंधा कर दिया था। उस करनी का फल उन्हें इस जन्म में मिला है, जिससे वे अंधे राजा के रूप में पैदा हुए।

ददै दोस न देऊ किसै दोस करंमा आपणिआ॥ जो मै कीआ सो मै पाइआ दोस न दीजै अवर जना॥
गुरु नानक देव, आदि ग्रन्थ, पृ.433

ग़लत काम करके भी हम कई बार बेफ़िक्र हो जाते हैं, क्योंकि हम दुनियावी कानून के शिकंजे से बच जाते हैं। हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी कहा करते थे कि एक कमरे में अगर पाँच साल का बच्चा भी हो तो हम उस कमरे से एक पेंसिल भी नहीं चुराते, लेकिन परमात्मा के हमारे अंदर होते हुए भी हम क्या कुछ नहीं करते। इसलिये हमें सावधान रहना चाहिये—परमात्मा सब कुछ जानता है, सब कुछ देखता है, हम उसे धोखा नहीं दे सकते।

धोखा मत खाओ; परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उडाया जाता;
क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटता है।
बाइबल, गलेशियन्ज़ 6:7

हमें इस ग़लतफ़हमी में कभी नहीं रहना चाहिये कि जो हम कर रहे हैं वह ठीक है, क्योंकि हम ऐसे कर्म या तो हालात से मजबूर होकर करते हैं या अपने प्रियजनों की ख़ातिर करते हैं। परमात्मा के दरबार में जब हमारे कर्मों का हिसाब होगा, तब इन कर्मों के लिये हमें ही ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। हमारे क़र्ज़ को कोई दूसरा नहीं चुका सकता।

हर आत्मा जो कुछ कर्म कमाती है, अपने लिये ही कमाती है। कोई किसी दूसरे के कर्मों का बोझ नहीं उठा सकता।
क़ुरान

हत्या करना महापाप है। यहाँ हर चीज़ की क़ीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि संसार में कोई भी चीज़ मुफ़्त नहीं मिलती। हमारे पास बेटा हो सकता है, धन भी हो सकता है, लेकिन जिस बेटे और धन को पाने के लिये हमने जो नीच कर्म किये, क्या उसके बाद हम कभी चैन से जी पाएँगे?

परमात्मा की रज़ा में रहना

परमात्मा की रज़ा में रहने का मतलब है कि इस बात को पल्ले बाँध लें कि हमारे जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, वह बिना वजह नहीं हो रहा। हमने अपने पिछले जन्मों में जो कर्म किये थे, आज हम उन्हीं कर्मों का नतीजा भुगत रहे हैं। इसलिये अगर हमारी क़िस्मत में बेटी है तो यह मालिक की रज़ा है। हमें प्यार से उसका स्वागत करना चाहिये। माँ के गर्भ में बेटी का आना कोई दुर्घटना नहीं होती जिसका हमें इलाज करना पड़े, बल्कि यह उस कुल मालिक की रज़ा होती है।

उसकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता।
एक पंजाबी कहावत—महाराज चरन सिंह के शब्दों में

हम परमात्मा की रज़ा में क्यों नहीं रह सकते? हमें चिंता किस बात की है? हमें बेटा ही क्यों चाहिये? इसलिये कि वंश चलता रहे? इसलिये कि ज़मीन-जायदाद परिवार में ही बनी रहे? क्या बुढ़ापे में पैसे और सहारे के लिये? क्या अपने कारोबार या धन कमाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये? हमें ये सब चिंताएँ एक तरफ़ रख देनी चाहियें। हमें वही करना चाहिये जो सही है और जब बुरा वक़्त आए, हमें मालिक की तरफ़ मुँह मोड़ना चाहिये, इस विश्वास से कि वह हमारी मदद ज़रूर करेगा।

आपका चिंता करना यह बताता है कि आपको परमात्मा की रहमत में, ख़ुद परमात्मा तक में भरोसा नहीं है। मालिक को अपनी मौज के माफ़िक ही सबकुछ करने दो, उसे अपनी इच्छा पर चलाने की कोशिश न करो। अपने आप को उसकी मौज और रज़ा में राज़ी रखो तो कभी दु:खी न होंगे।
महाराज जगत सिंह

जब परमात्मा फूलों की इतनी अच्छी तरह से देखभाल करता है जो आज हैं और कल नहीं होंगे, क्या वह तुम्हारी देखभाल नहीं करेगा? तुम्हारे विश्वास में कमी है।
बाइबल, ल्यूक 12:23

अपने रिश्ते-नाते और दुनिया के साज़-सामान को अगर परमार्थ की नज़र से देखें तो सच्चाई हमारे सामने आ जाएगी और हमें एहसास होगा कि ये हमारे हैं ही नहीं। हमें जो मिला है वह कुछ समय के लिये है। इसलिये हम इन चीज़ों को अपना मानकर इनसे चिपक न जाएँ, अपने उसूलों के साथ समझौता न करें और न ही अपनी इच्छा को मालिक की इच्छा से ऊपर मान लें। असल में सबकुछ मालिक का है, हम सिर्फ़ उन चीज़ों को सँभालनेवाले कारिंदे हैं। हमारा फ़र्ज़ है कि हम अपना काम ईमानदारी और प्यार से करें और उस करनी का फल पूरे विश्वास के साथ मालिक के हाथों में छोड़ दें।

अगर हम परमात्मा से मिलनेवाली हर चीज़ को उसकी बख़्श्शि समझकर अपनाएँ तो वह चीज़ पवित्र हो जाती है—अपमान सम्मान बन जाता है, कड़वाहट मिठास बन जाती है और अँधेरा प्रकाश बन जाता है। हर एक चीज़ में परमात्मा की महक आने लगती है। इस दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसके पीछे परमात्मा का हाथ नज़र आने लगता है।
महाराज चरन सिंह

परमार्थ हमारा मूल

आइये! हम अपने आप से एक ज़रूरी सवाल पूछें—हम कौन हैं? शायद हम सोचते हैं कि हम मनुष्य हैं, जो इस कठिन जीवन को जीने की कोशिश में लगे हुए हैं। ज़िंदगी का असली मतलब समझने के लिये हम कभी-कभी परमात्मा की खोज में भी लग जाते हैं, लेकिन संतों की सोच इससे बहुत ऊँची और अलग है। वे समझाते हैं:

हम केवल इनसान नहीं हैं जो रूहानियत का अनुभव कर रहे हैं, बल्कि रूहानी जगत् की आत्माएँ हैं जो इनसानी जीवन का अनुभव कर रही हैं।
पियेर तय्हार द शारदैं

यह विचार हमारी सोच को पलटने वाला है। क्या हम अपने आप को रूहानी जीव के रूप में देखते हैं? यह एक बहुत ज़रूरी और बुनियादी सवाल है, क्योंकि जिस नज़रिये से हम अपने आप को देखते हैं, उसी नज़रिये से हम सारी दुनिया को भी देखते हैं। ज़िंदगी में हम जो भी कर्म करते हैं, अपने नज़रिये से करते हैं। जब हममें आत्मसम्मान होगा, तभी हम दूसरों को सम्मान दे सकेंगे और जब हमें अपने अस्तित्व से प्यार होगा, हम दूसरों में भी प्यार बाँट सकेंगे। अपने आप को पवित्र आत्मा समझने लगेंगे और तब हम दूसरों के अंदर की पवित्रता को भी देख पाएँगे।

हम दूसरों से जो बर्ताव करते हैं वह एक आईना है जिसमें साफ़ झलक दिखाई देती है कि हम अपने आप को किस नज़र से देखते हैं।

अंत में यह कहा जा सकता है कि हम इस सच को अनदेखा नहीं कर सकते–एक बच्चे या भ्रूण को मारना पाप है। सोच के ज़रिये, शब्दों के ज़रिये या कर्मों के ज़रिये–किसी औरत का जी दुखाना पाप है। जब हम किसी का दिल दुखाते हैं, उसे गाली देते हैं या उस पर ज़ुल्म करते हैं तो यह अच्छी तरह जान लें कि हमें अपनी करनी का नतीजा ज़रूर भुगतना पड़ेगा। जब हम किसी को दु:ख देते हैं तो हमारी अपनी रूहानी तरक्की में रुकावट आ जाती है। इसलिये आओ! जागें और अपनी मानवता को पहचानें। हमें ऐसा जीवन जीना चाहिये जिसमें हम सब जीवों को बराबर का दर्जा दें–चाहे वह आदमी हो या औरत, लड़का हो या लड़की। हम सब उस रूहानी नूर की किरणें हैं। जैसे कि कबीर साहिब ने कहा है:
एक नूर ते सभ जग उपजिआ, कउन भले को मंदे॥