पुराने रीति रिवाज तोड़े जा सकते हैं
किसी व्यक्ति से सब कुछ छीना जा सकता है सिवाय एक चीज़ के, वह है इनसान की अंत:करण की आज़ादी—किसी भी हालत में अपना नज़रिया, अपना रास्ता, ख़ुद चुनने की आज़ादी।
विक्टर फ़्रैंक्ल
औरतों के दु:खों का ज़िम्मेदार कौन है? और इनका हल क्या है?
औरतें ही औरतों को दु:ख क्यों पहुँचाती हैं?हालाँकि ऐसा लगता है कि औरतों को आदमियों ने सताया है, लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। लोग जल्द ही जान लेते हैं कि कई मामलों में औरतें ही औरतों को दु:ख पहुँचाती हैं। ऐसा क्यों? ख़ुद अत्याचार की शिकार होने के बावजूद कई औरतें दूसरी औरतों की मदद करने के बजाय उन्हें दु:खी क्यों करती हैं?
ऐसी कई मिसालें हैं जिनमें बाहरी तौर पर दिखाई देता है कि एक माँ अपनी मर्ज़ी से अपनी बेटी की जान ले रही है या एक सास अपनी बहू को सता रही है। इन घटनाओं के पीछे औरत की क्या सोच है? उस औरत की सोच के पीछे क्या है?
एक ग़रीब या अनपढ़ औरत अपनी चौथी बेटी को जान से क्यों मार डालती है? क्योंकि शायद उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा ही नहीं है। अगर कोई चाहे कि बच्चे न हों तो उन्हें गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करना चाहिये; लेकिन उसका पति न गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करता है और न उसे करने देता है। बेचारी औरत के पास इतनी हिम्मत नहीं है कि वह एक और बच्चे को पाल सके, एक और दहेज का इंतज़ाम कर सके। शायद वह बच्चों को पैदा करने और पालने के चक्कर से बिलकुल तंग आ गई है, क्योंकि यह चक्कर न तो उसके बस में है और न कभी रुकता है। इसके अलावा शायद वह दुगुना बोझ उठा-उठाकर अब बेहद थक गई है—उसे बिना आराम, घर के बाहर भी काम करना है और घर की ज़िम्मेदारियों को भी निभाना है। शायद अब इस थकी-हारी औरत को एक ही रास्ता सूझता है—गर्भ गिरा देना।
यदि औरत निर्णय लेने में आज़ाद नहीं है तो जो वह मजबूरी में करती है उसे विकल्प नहीं कहा जा सकता।
एक अमीर पढ़ी-लिखी औरत, यह पता चलने पर कि गर्भ में कन्या है, गर्भपात क्यों कराती है? दुर्भाग्य की बात है कि औरत के पढ़े-लिखे और अमीर होने के बावजूद भी उसमें आत्मसम्मान की कमी पाई जाती है। शायद उस औरत के मन में यह बात पक्की तरह बैठा दी जाती है कि यही ‘ज़िंदगी का सच है’ कि बेटा होना ज़रूरी है—बेटा ही वंश को आगे बढ़ाता है, बेटा ही कारोबार और जायदाद का मालिक बन सकता है, बेटा ही बुढ़ापे में माँ-बाप का सहारा बनता है। शायद उस औरत पर पति और परिवार का बहुत दबाव बना रहता है कि ‘कोशिश करते रहो जब तक बेटा पैदा नहीं होता।’ इसलिये वह औरत इतना साहस नहीं जुटा पाती कि वह इस दबाव का विरोध कर सके।
औरतें आत्मसम्मान के साथ तो पैदा नहीं होतीं। आत्मसम्मान, आत्मविश्वास—ये सब अनमोल तोहफ़े हैं जो माँ-बाप और समाज चाहें तो बेटियों को दे भी सकते हैं या उन्हें इनसे वंचित भी रख सकते हैं।
एक सास अपनी बहू को क्यों सताती है?
प्रीता मेहता (बदला हुआ नाम), उम्र 31 साल: जब से प्रीता ने एक बेटी को जन्म दिया है, उसकी सास उसको ताने देती रहती है कि उसके पति के चचेरे भाइयों के तो बेटे हुए हैं, लेकिन उसने अभी तक एक बेटे को भी जन्म नहीं दिया। उसकी सास ज़ोर डालती है कि परिवार का नाम आगे चलाने के लिये प्रीता को बेटा पैदा करना चाहिये। प्रीता कहती है, ‘मेरी सास ने मुझसे साफ़ तौर पर कहा है कि अगर लड़की हुई तो गर्भ गिरा देना।’ उसका पति भी अपनी माँ की बात को सही मानता है। प्रीता ख़ुद क्या चाहती है? ‘पता नहीं।
शेफ़ाली वासुदेव,‘मिसिंग गर्ल चाइल्ड’
औरतें दूसरी औरतों को दु:ख पहुँचाती हैं, ठीक उसी तरह जैसे एक क़ैदी दूसरे क़ैदी पर अत्याचार करता है या जैसे एक भिखारी बच्चा गली के दूसरे भिखारी बच्चों को धमकाता है। हम इनसानों का स्वभाव ही ऐसा है कि जब हम ज़रूरतमंद होते हैं तब एक और रोटी, कुछ और रुपये, थोड़ी ऊँची पदवी या थोड़ा ज़्यादा अधिकार और सुविधा पाने के लिये हम कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। अगर परिवार में अनेक औरतें हैं और वे प्यार, इज़्ज़त, धन या देखभाल के मामले में एक आदमी पर निर्भर हैं, वह आदमी चाहे उनका पति, पिता, भाई या बेटा ही क्यों न हो, इस कारण उन औरतों में एक दूसरे के लिये ईर्ष्या बनी रहती है।
हमारे पुरुष प्रधान समाज में औरतों पर दबाव डाला जाता है कि वे अपने दायरे में रहें। अगर जन्म से ही बच्चों को सिखाया जाए कि औरतों का दर्जा आदमियों से नीचा है, तो बच्चे इस बात को सच मानने लगते हैं। लड़के रोब दिखाना शुरू करते हैं और लड़कियाँ दबने लगती हैं। बड़ी होकर लड़की में यह सोच घर कर जाती है कि औरतों को दबकर रहना चाहिये और वह अपनी बेटी और बहू को भी यही शिक्षा देती है।
मिसाल के तौर पर पुराने ज़माने में लड़की को बचपन से ही समझाया जाता था कि जवानी में विधवा होकर सती हो जाना, औरत अपनी क़िस्मत में लिखाकर लाती है। यह शिक्षा उसे किससे मिलती थी—माँ से। एक जवान लड़की को अपने पति की चिता पर जल जाने के लिये दुल्हन की तरह कौन तैयार करता था? उस विधवा के परिवार की औरतें, वे औरतें जो जानती थीं कि उन्हें भी पति की चिता पर सती होना पड़ सकता है।
एक औरत दूसरी औरत को इसलिये दु:खी करती है, क्योंकि उसको बचपन से ही यह पट्टी पढ़ाई जाती है कि उसका दर्जा आदमी से नीचे है। औरतों की इस सोच की वजह से ही समाज में पुरुषों की प्रधानता बड़ी कामयाबी से टिकी हुई है। हालात देखते हुए औरतें भी पुरुषों के प्रधान होने की मान्यता को मौन सहमति दे देती हैं।
अगर एक चिड़िया को बचपन से ही पिंजरे में बंद रखा जाए और फिर कई साल बाद पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया जाए, तो हम क्या उम्मीद रखते हैं कि वह उड़ जाएगी? अगर वह चिड़िया बाहर आ भी गई, कुछ वक़्त के बाद वह पिंजरे में ज़रूर लौटेगी, क्योंकि पिंजरे में वह अपने आप को सुरक्षित महसूस करती है। यह जानते हुए कि उस पिंजरे में वह क़ैदी रहेगी, फिर भी उस पिंजरे की सुरक्षा को छोड़ना नहीं चाहती, क्योंकि उस पिंजरे के अलावा उसने दुनिया में कुछ नहीं देखा। उस चिड़िया के लिये आज़ादी ख़ुशी की बात नहीं, बल्कि एक डरावनी चीज़ है।
ठीक इसी तरह हमने बहुत-सी औरतों को अपंग बना दिया है। इन औरतों को परखने के बजाय हमें अपना दिल खोलकर उनका साथ देना चाहिये, उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिये, क्योंकि दोष इन औरतों में नहीं है। दोष हमारे समाज में है, दोष हमारे रीति रिवाजों में है।
औरतों की दु:खी हालत का ज़िम्मेदार कौन है?जब हम औरतों पर किये अत्याचारों के बारे में सुनते हैं तो हमारे मन में पहला ख़याल यह आता है कि क़सूर किसका है? हम जानना चाहते हैं कि इसका ज़िम्मेदार कौन है? सरकार क्या कर रही है? पुलिस क्या कर रही है? लेकिन ज़रा रुककर सोचें, शायद हम दोषी को ग़लत जगह खोज रहे हैं। इस बात का जो जवाब मिलेगा वह हमारी उम्मीद के मुताबिक़ नहीं होगा।
सबसे पहले हम सरकार की तरफ़ उँगली उठाते हैं। सरकार और पुलिस में समाज के वही लोग काम कर रहे हैं जिनकी सोच में औरत का दर्जा नीचा होने की बात बैठी हुई है। इसके अलावा सरकार, पुलिस विभाग और कोर्ट-कचहरी में बहुत कम औरतें हैं जो एक बदक़िस्मत औरत के दु:ख को औरत की नज़र से देख सकें।
कई बार हम ऐसा सुनते हैं कि दु:खी औरत मजबूर होकर ही पुलिस का सहारा लेने आती है, क्योंकि दहेज की वजह से ससुरालवाले उसके साथ मारपीट करते हैं, लेकिन पुलिसवाले उसका मामला दर्ज नहीं करते। वे उसे सलाह देते हैं कि औरत की जगह उसके पति के साथ है और उसे घर जाकर प्यार से अपने पति को मना लेना चाहिये।
इसी तरह जजों की मिसाल ली जा सकती है। एक अध्ययन में यह जानने की कोशिश की गई कि जब औरतों के साथ मारपीट के मामले जज के सामने आते हैं, तो हमारे देश के बहुत-से जजों की सोच क्या है। हैरानी की बात यह है कि इस अध्ययन के मुताबिक़ काफ़ी जजों की यह सोच है कि ऐसे कई हालात हैं जिनमें अगर एक पति ने अपनी पत्नी को थप्पड़ मारा तो पति ने ठीक ही किया; कि चाहे पत्नी पर कितना भी अत्याचार क्यों न हो रहा हो, फिर भी उसका फ़र्ज़ है कि वह अपने परिवार को जोड़े रखे; कि अगर औरत ने ऐसे कपड़े पहने हों जिसमें उसका शरीर ज़रा-सा भी दिख रहा हो, तो यह छेड़छाड़ का न्यौता है और इसमें छेड़छाड़ करनेवाले पुरुषों की ग़लती नहीं है; कि दहेज हमारी संस्कृति की एक पुरानी परंपरा है जिसकी समाज में मान्यता है।18 These beliefs are deep-rooted in our society.
यह सोच कुछ जजों की है, लेकिन इस तरह की मिसालें हर क्षेत्र में मिल सकती हैं। हमारे समाज में ऐसी मान्यताओं की जड़ें बड़ी गहरी हो चुकी हैं।
हम सरकार की तरफ़ देखते हैं, लेकिन सरकार माँ-बाप की तरफ़ उँगली उठाती है। सरकार कहती है कि माँ-बाप अपनी मर्ज़ी से दहेज लेते हैं और देते हैं तो वह क्या करे? लिंग चुनाव के मामले में सरकार माँ-बाप और डॉक्टर दोनों की तरफ़ उँगली उठाती है। उसका कहना है कि अस्पताल के किसी बंद कमरे में डॉक्टर और माँ-बाप गर्भ में पल रही लड़की की हत्या का फ़ैसला लेते हैं, ऐसे मामलों में कानून लागू करना बहुत मुश्किल है।
लेकिन डॉक्टर माँ-बाप की तरफ़ उँगली उठाते हैं और कहते हैं कि माँ-बाप ख़ुद चलकर उनके पास कन्या भ्रूणहत्या की माँग लेकर आते हैं, तो वे क्या करें? अगर वे ‘न’ कर दें तो माँ-बाप किसी दूसरे डॉक्टर से यह काम करवा लेंगे। आज ऐसे कई डॉक्टर हैं जो मानते हैं कि कन्या भ्रूणहत्या करके वे समाज की एक ज़रूरत को पूरा कर रहे हैं। उनकी सोच है कि अगर वे उस लड़की को जीने दें तो उसे ज़िंदगी भर दु:ख झेलने पड़ेंगे, क्योंकि हमारे समाज में औरतों की ज़िंदगी दु:ख भरी होती है। इन डॉक्टरों का मानना है कि कन्या भ्रूणहत्या करके वे उस बच्ची और उसके माँ-बाप पर रहम कर रहे हैं।
अगर एक माँ तीसरी या चौथी बेटी के बजाय एक बेटा चाहती है, तो आप उससे यह अधिकार कैसे छीन सकते हो? सदियों पुरानी सोच को एक तरफ़ रखकर आप यह नहीं कह सकते कि लड़के और लड़कियों का दर्जा एक बराबर है। ìएक अनचाही लड़की ज़िंदगी भर दु:ख सहती रहे, इससे तो अच्छा है कि उसके माँ-बाप आज ही उससे छुटकारा पा लें।
एक डॉक्टर के विचार, रीटा पटेल, ‘द प्रैक्टिस ऑफ़ 19
माँ-बाप अपने आप को दोषी नहीं समझते। वे समाज की तरफ़ उँगली उठाते हैं। वे कहते हैं कि हमारे समाज के रीति रिवाजों ने उन पर इतना दबाव डाला है, उन्हें इतनी मुसीबत में फँसा दिया है कि अपनी बेटी से छुटकारा पाने के सिवा उनके पास कोई चारा ही नहीं है।
इस तरह घूमकर हम वापिस उसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ से हमने शुरुआत की थी। औरतों के दु:खों का ज़िम्मेदार कौन है? इस प्रश्न का जवाब शायद हमें अच्छा नहीं लगेगा। वे हम हैं। याद रहे कि अगर हम दूसरों को ज़िम्मेदार ठहराने के लिये उनकी तरफ़ एक उँगली उठाते हैं, तो बाक़ी तीन उँगलियाँ हमारी तरफ़ भी उठती हैं। हम ही हैं जो इस समाज को बनाते हैं, हम माँ-बाप हैं, पड़ोसी हैं, डॉक्टर, पुलिस और जज हैं। हम सभी को अपना अंधविश्वास और ग़लत धारणाएँ बदलनी होंगी। हम ही वे अध्यापक हैं, जिन्हें बच्चों को शिक्षा देनी होगी कि लड़के और लड़कियाँ बराबर होते हैं। हम ही वे नेता और सरकार चलानेवाले हैं, जो कानून बनाते हैं और लागू करते हैं। हम ही वे मीडिया के लोग हैं, जिन्हें टी.वी., रेडियो और अख़बारों के ज़रिये लोगों को जाग्रत करके उनकी सोच में बदलाव लाना होगा।
देखा जाए तो ज़िम्मेदारी हम सब की है।
इस समस्या का हल क्या है?अगर हम सब इस समस्या के लिये ज़िम्मेदार हैं, तो फिर हम सबको इसके समाधान की भी ज़िम्मेदारी उठानी चाहिये। समाधान हमारे चुनाव पर निर्भर है और सही रास्ता चुनने का काम हम अकेले भी कर सकते हैं या फिर हम सब मिलकर समाज के रूप में भी कर सकते हैं।
परमात्मा ने हम इनसानों को एक अनमोल तोहफ़ा दिया है—वह है—विवेक। विवेक वह शक्ति है जिसके ज़रिये हम सही और ग़लत के बीच में फ़र्क़ देख सकते हैं। आइये! अब वक़्त आ गया है कि हम अपनी विवेक की शक्ति का इस्तेमाल करें और ग़लत रास्ते को छोड़कर सही रास्ते पर चलें। अब हम ऐसे इनसान बनने की कोशिश करें जो संतोष, नम्रता और प्यार से भरपूर हों और देश के कानून का पालन करें।
सही रास्ते पर चलने के लिये हमें कुछ कुरीतियों को पीछे छोड़ना होगा। बेशक यह आसान काम नहीं है। हमारे पुराने रीति रिवाज और सोच अब हमारी जड़ों में बस चुके हैं, यहाँ तक कि जब हम देश छोड़कर दूसरे देश में जाते हैं, इन्हें भी अपने साथ ले जाते हैं। आज जो भारतीय अमरीका, कनाडा और इंग्लैंड जैसे देशों में बसे हैं, वे भी बड़ी संख्या में कन्या भ्रूणहत्या कर रहे हैं। इन देशों में बसे पढ़े-लिखे भारतीय नौजवान दुल्हन चुनने के लिये छुटि्टयों में देश लौटते हैं और इनमें से कई भारी दहेज की माँग भी करते हैं। वे सोचते हैं कि ज़्यादा दहेज माँगना उनका हक़ है, क्योंकि वे इतने पढ़े-लिखे हैं और विदेश में बसे हुए हैं।
पुराने रीति रिवाजों को छोड़ना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि इन पर हमें अभिमान है। सदियों से माँ-बाप अपने बच्चों को इन रीति रिवाजों को सिखाते चले आ रहे हैं। क्योंकि बचपन से ही हम इन रीति रिवाजों को मान रहे हैं, इसलिये इनके पालन में हम अपने को सुरक्षित महसूस करते हैं। इनको मानने से समाज के लोग हमारे ऊपर उँगली नहीं उठाते। इन रीति रिवाजों का एक मक़सद समाज को मज़बूती देना भी है। लेकिन सच तो यह है कि समय के साथ समाज बदलता है; पुरानी परंपराएँ पीछे रह जाती हैं, नयी परंपराएँ उनकी जगह लेती हैं। समाज की बेहतरी के लिये यह ज़रूरी है कि वक़्त के साथ पुराने रिवाज और परंपराएँ भी बदलती रहें। हमारे देश की सबसे बड़ी ताक़त यह रही है कि कई सदियों से हमने भारत में आ बसनेवाले लोगों के रीति रिवाजों को भी अपने समाज में स्थान दिया है। उनकी संस्कृति को अपने समाज के साथ जोड़ा है। अपने आप को वक़्त के साथ बदला है। इसी वजह से आज हम गर्व से कहते हैं कि भारत की संस्कृति बेमिसाल है। ज़रा सोचिये! अगर हमने पुराने रिवाजों को पीछे छोड़ने का साहस न दिखाया होता, तो क्या आज औरत वोट डालने का अधिकार पाती? पढ़ाई कर पाती? नहीं! यह समाज अगर एक विधवा को फिर से विवाह करके अपना घर बसा लेने की इजाज़त न देता, तो आज भी उसे अपने पति की चिता पर सती होना पड़ता।
ये सब एक ज़माने में हमारे रिवाज थे, लेकिन अब हमने उन्हें पीछे छोड़ दिया है। हम यह इसलिये कर पाए, क्योंकि हमने अपने विवेक का इस्तेमाल किया। हम जानते थे कि अगर हम बिना सोचे-समझे, आँखें बंद करके इन रिवाजों को मानते रहे, तो ये समाज में ज़हर घोल देंगे और समाज को कमज़ोर बना देंगे। हम यह इसलिये भी कर पाए, क्योंकि उस समय हमारे समाज में कुछ साहसी लोग थे जो बदलाव के लिये अगुवा बने
बदलाव कहाँ से शुरू होता है?
औरतों की सोच में बदलाव लानायह कहना शायद सही होगा कि सबसे ज़्यादा बदलाव लाने की ज़रूरत दो जगह पर है—औरतों के बारे में आदमियों की सोच और औरतों के बारे में ख़ुद औरतों की सोच।
वेरा ब्रिटेन
हमारे समाज में बुनियादी बदलाव तब आएगा, जब औरतें अपनी सोच को बदलेंगी।
आज औरत की सोच, उसका पूरा विश्वास, उसका नज़रिया हमारे पुराने रीति रिवाजों पर आधारित है। दूसरे लोग उसे बताते हैं कि उसका आत्मसम्मान किन बातों पर निर्भर है। समाज उसके दायरों और उसकी ज़िम्मेदारियों को तय करता है। इस दायरे में अगर वह अपने बताए गए फ़र्ज़ को अच्छी तरह से निभाती है तो उसका आत्मसम्मान बढ़ता है। आज की औरत के आत्मसम्मान में कमी है, क्योंकि उसे विश्वास नहीं होता कि उसमें यह क़ाबिलीयत है कि वह अपने दायरों को बढ़ाकर आज़ाद हो सकती है।
लेकिन सच तो यह है कि हर औरत में अनोखी शक्ति होती है। वह अनमोल है। उसे डर और रुकावटों की परवाह किये बिना साहस और निश्चय से अपने सपनों को पूरा करना है और उसे यह क़दम सिर्फ़ अपने लिये ही नहीं, बल्कि अपने परिवार के लिये भी उठाना है।
हर औरत अपनी बेटी के लिये एक आदर्श होती है। जब एक औरत में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास होता है, तभी वह अपनी बेटी को सिखा सकती है कि उसे भी अपनी योग्यता पर विश्वास करना चाहिये, उसे भी अपने आप को सम्मान देना चाहिये। जो औरत अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करती है, वह अपनी बेटी की कल्पनाओं को साकार करने में उसका साहस बढ़ाती है।
औरत के प्रति आदमी की सोच में बदलावहमारे पुराने रीति रिवाज इतनी पीढ़ियों से चले आ रहे हैं कि अब ये हमारे दिलो-दिमाग़ में बस गए हैं। इसलिये आज बदलाव को अपनाना आसान नहीं है। ताक़त और ऊँचा दर्जा हमेशा आदमियों का हक़ रहा है। इस दर्जे पर वे अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं। आज अगर हम आदमियों से कह दें कि औरतों को अधिकार दो, औरतों का दर्जा बढ़ाओ तो ऐसा करने के लिये उन्हें बहुत साहस की ज़रूरत पड़ेगी। समाज में असली बदलाव तभी आएगा, जब आदमी अपनी सोच और बर्ताव में बदलाव लाएगा। आदमियों को यह समझना चाहिये कि अगर औरतों का दर्जा बढ़ेगा तो इससे आदमियों का दर्जा कम नहीं हो जाएगा। अगर औरतों की अहमियत बढ़ेगी तो इससे परिवार और समाज में अशांति नहीं फैलेगी, बल्कि औरत को इज़्ज़त और अधिकार देने से औरत ख़ुश रहेगी। इससे परिवार और समाज में प्रेम और शांति बढ़ेगी।
आज आदमियों में यह ताक़त है कि वे अपने परिवार की औरतों का दर्जा बढ़ा भी सकते हैं और घटा भी सकते हैं। अगर घर में औरत का दर्जा ऊँचा है तो बाहर की दुनिया भी उसे इज़्ज़त देगी। अगर घर में औरत के दायरे छोटे हैं, वह कमज़ोर है, उसे दबाया जाता है तो सोचिये घर के बाहर उसका क्या हाल होगा? जब हम औरत की ज़रूरतों और चाहतों की क़द्र करते हैं, तभी वह परिवार और समाज में अपने अमूल्य गुण बाँट सकती है। एक ख़ुश औरत ही घर और परिवार को प्रेम की बग़िया बनाती है और अपने बच्चों की सोच और नज़रिये को सही दिशा देती है
हर आदमी अपने बेटे के लिये एक आदर्श होता है। हमारे बच्चे केवल कहने से नहीं सीखते, वे हमारे बर्ताव को बड़े ध्यान से देखते हैं और उससे सीखते हैं। जब एक आदमी अपनी पत्नी की इज़्ज़त करता है और उसे ऊँचा दर्जा देता है, तब वह अपने बेटे को भी औरत की इज़्ज़त करना सिखाता है।
बदलाव के लिये आगे बढ़नाभारत के कोने-कोने से कई मिसालें सुनने को मिलती हैं, जिसमें किसी एक व्यक्ति ने अपनी आत्मा की पुकार को सुना और विरोध के बावजूद बड़े साहस से पुराने रिवाजों को तोड़ा।
शिवपुर काशी में कन्या लोहड़ी ...श्री गंगानगर के गाँव शिवपुर काशी में ऐसे ही बदलाव का एक क़िस्सा है। राजस्थान की इस तहसील में लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों की संख्या बहुत कम है। गाँव के लोगों को साफ़ नज़र आ रहा था कि अगर लड़के और लड़कियों की गिनती में अंतर इसी तरह बढ़ता रहा, तो इसका नतीजा बहुत बुरा होगा। इसलिये उन्होंने इसके बारे में कुछ करने की ठानी। उन्होंने ‘कन्या लोहड़ी’ का त्यौहार मनाया जिसमें सात हज़ार लोगों के सामने 101 लड़कियों का आदर किया। यह उनकी तरफ़ से एक साहसी क़दम था, क्योंकि पुराने रिवाजों के अनुसार लोहड़ी के दिन, नवजात लड़कों की सेहत और लंबी उम्र के लिये प्रार्थना करके आग में मिठाई डाली जाती है, लेकिन इस गाँव ने नवजात लड़कियों को यह आदर दिया। फिर इसी गाँव में दो जवान लड़कियों ने अपनी माँ का अंतिम संस्कार किया। सदियों पुराने रिवाज के मुताबिक़ माँ-बाप का अंतिम संस्कार सिर्फ़ बेटे ही कर सकते हैं, लेकिन शिवपुर काशी के लोगों ने इन लड़कियों का साथ दिया और उनकी सराहना की।
डॉक्टर मीता सिंह, ‘आउटकम्ज़ ऑफ़ द डिगनिटी ऑफ़ द गर्ल चाइल्ड प्रोग्राम’ 20
यह कहानी देवड़ा गाँव की है। देवड़ा गाँव में छ: पीढ़ियों ने सौ सालों से भी ज़्यादा समय से किसी भी लड़की को ज़िंदा नहीं छोड़ा। कन्या की हत्या करना वहाँ का रिवाज था। लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था। यह एक खुला राज़ था जो गाँव का हर व्यक्ति जानता था और ऐसा करता था। अगर गाँव से बाहर का कोई व्यक्ति इसका कारण पूछता, तो गाँववाले कहते कि हमारे कुएँ का पानी ही ऐसा है कि यहाँ लड़के पैदा होते हैं। इस रिवाज को गाँव के इन्द्र सिंह और उसकी पत्नी ने हिम्मत करके तोड़ा। उनके लड़के की मौत के पंद्रह दिन बाद उनके घर में लड़की पैदा हुई। दोनों पति और पत्नी का दिल नहीं माना कि वे उसे रिवाज के अनुसार मार डालें। उन्होंने अपनी बेटी जसवन्त कंवर को जीवन का तोहफ़ा दिया।
शुरू में छोटी जसवन्त गाँववालों को अजीब लगती थी। लेकिन उसके पिता ने (जो आगे जाकर गाँव के सरपंच बने) जसवन्त को आठवीं कक्षा तक पढ़ाया। उस समय गाँव का स्कूल इसी कक्षा तक था। इन्द्र सिंह के इस साहस को देखकर उसके भाई और चाचा ने भी अपनी लड़कियों को जीने का हक़ दिया। 1998 में जसवन्त कंवर की शादी धूमधाम से हुई। दूर-दूर से लोग इस शादी को देखने आए, क्योंकि इस गाँव में इससे पहले 1883 में ही बारात आई थी। आज भी देवड़ा गाँव में लड़कियों को जन्म के बाद मारने की परंपरा चल रही है, लेकिन अब गाँव में कई लड़कियाँ देखने को मिलती हैं। इन्द्र सिंह और उसकी पत्नी ने इस पुराने रिवाज को तोड़ने की हिम्मत की। देवड़ा गाँव के लोगों में बदलाव लानेवाले वे दोनों मुख्य माने जाते हैं।
राजेश सिन्हा, इण्डियन एक्सप्रेस, 10 मई, 1998, ‘115 साल बाद एक गाँव में लड़की की शादी’21
छत्तीसगढ़ के राजनन्द गाँव में, 80,000 औरतों ने एक दूसरे की मदद के लिये एक बैंक की शुरुआत की। यह बैंक माँ बामलेश्वरी बैंक के नाम से जाना जाता है। आज इस बैंक की 5372 शाखाएँ ज़िले के सभी गाँवों तक पहुँच गई हैं।
यह बैंक औरतों की ज़रूरतों के लिये बनाया गया है और इसे पूरी तरह से औरतें ही चला रही हैं। हर शाखा की औरतें ख़ुद पैसा जमा करने का तरीक़ा ढूँढ़ती हैं और ख़ुद निर्णय करती हैं कि किसको कितना क़र्ज़ दिया जाएगा। एक साल के अंदर ही इस बैंक में 1.19 करोड़ रुपये जमा हुए और 70 लाख का क़र्ज़ बाँटा गया है। ये क़र्ज़े छोटी और बड़ी हर तरह की माँगों के लिये दिये जाते हैं। सरकारी बैंक इस क़िस्म के क़र्ज़ों के बारे में कभी सोच भी नहीं सकते।
इस बैंक की सदस्य स्वाति अग्रवाल कहती हैं, ‘हम हर तरह की ज़रूरतों के लिये क़र्ज़ देते हैं—जैसे बच्चों के जन्म के समय, बच्चों को टीका लगवाने के लिये, बीमारी के इलाज के लिये या पुरानी साइकिल ख़रीदने के लिये।’ ये क़र्ज़े 200 रुपये से लेकर 10,000 रुपये तक, बीज ख़रीदने की ज़रूरत से लेकर ट्रैक्टर के पुर्ज़े ख़रीदने तक के लिये दिये जाते हैं। ज़िले की औरतें इस बैंक को चला रही हैं और वे किसी भी सरकारी सहायता पर निर्भर नहीं हैं।
इण्डिया टुडे, 15 जुलाई, 2002, ‘रूरल विमिन स्टार्ट सकसैसफ़ुल, माइक्रो-बैकिंग स्कीम इन छत्तीसगढ़’22
यह अनीता कुशवाहा की कहानी है जो बिहार के किसी दूर इलाक़े में एक पिछड़ी जाति के परिवार में पैदा हुई थी। उसका पिता जनार्धन सिंह बिहार के मुजफ़्फ़रपुर के बोचाहा गाँव में एक छोटी पंसारी की दुकान पर मामूली नौकर था। सबने सोचा कि दूसरी लड़कियों की तरह अनीता भी बकरियों को चराएगी और छोटी उम्र में शादी करेगी। जनार्धन सिंह को भी अपनी बेटी से यही उम्मीद थी। परंतु जो इस बात को मानने के लिये तैयार नहीं थी, वह थी अनीता। वह अपने बंधनों से आज़ादी चाहती थी। आज 21 साल की अनीता शहद के कारोबार की मालकिन है और वह सालाना ढाई लाख रुपये का कारोबार करती है। इस मक़सद तक पहुँचना आसान नहीं था। अनीता ने अपनी पहली लड़ाई छ: साल की उम्र में लड़ी। गाँव के एक अध्यापक की सहायता से उसने अपने माँ-बाप को उसे स्कूल भेजने के लिये राज़ी किया। अनीता कहती है, ‘मेरे माँ-बाप सिर्फ़ कहने से ही नहीं माने, बल्कि वे इसलिये राज़ी हुए क्योंकि हमारे गाँव में पाँचवीं क्लास तक पढ़ाई मुफ़्त है।’ लेकिन पाँचवीं क्लास के बाद पढ़ाई का ख़र्च उसके माँ-बाप नहीं उठा सकते थे, तो अनीता ने छोटे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया ताकि वह अपनी पढ़ाई का ख़र्च ख़ुद उठा सके। अनीता ने कहा, ‘उस वक़्त पड़ोसी गाँवों से मधुमक्खी पालनेवाले व्यापारी लीची के पेड़ों की वजह से हमारे गाँव आते थे। मैंने उनकी मदद करनी शुरू की और उनसे शहद बनाने का काम सीख लिया।’ इस तरह ग़रीबी से परेशान मज़बूत इरादों वाली अनीता ने यह व्यापार शुरू किया। बच्चों को पढ़ाकर बचाए हुए 5000 रुपये और कुछ रुपये अपनी माँ रेखा देवी से लेकर, 2002 में अनीता ने दो मधुमक्खी के बक्सों से अपना व्यापार शुरू किया। कुछ ही महीनों में उसने अच्छा ख़ासा मुनाफ़ा कमाया।
कई बार मधुमक्खियों के काटने से उसका चेहरा सूज जाता था और लोग उसका मज़ाक़ उड़ाते थे। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। वह कहती है, “लोग पूछते थे, ‘क्या मक्खियाँ तुम्हें काटती हैं?’ मैं कहती थी, ‘हाँ।’ ‘क्या दर्द होता है?’ मैं कहती थी, ‘हाँ’।”
अब अनीता के पिता ने अपनी नौकरी छोड़ दी है और अपनी बेटी के काम में उसकी मदद करते हैं। अनीता आज अंग्रेज़ी साहित्य की पढ़ाई कर रही है और उसने माँ-बाप से वचन लिया है कि वे उसकी शादी तब तक नहीं करेंगे, जब तक वह अपनी डिग्री नहीं पा लेती। झोंपड़ी की जगह अब उनका पक्का घर है। अनीता ने अपने छोटे भाई को मोटर साइकिल तोहफ़े में दिया है। समाज में उसकी इज़्ज़त की वजह से आज उसकी माँ गाँव में एक राजनैतिक दल की मुखिया है। उसकी इस जीत को देखकर गाँव के दूसरे लोगों ने भी मधुमक्खी पालने का काम शुरू किया है और गर्व की बात यह है कि आज गाँव की हर लड़की स्कूल जाती है।
अमिताभ श्रीवास्तव, इण्डिया टुडे, 1 मई, 2009, ‘ग्रिट एण्ड हनी’23
ये कहानियाँ उन साहसी लोगों की हैं जिन्होंने बदलाव लाने की कोशिश की। हम सब में यह शक्ति है कि हम बदलाव ला सकें। हम सब में यह क़ाबिलीयत है कि हम अपनी बेटियों के भविष्य को सुनहरा बनाएँ और उनके साथ अपनी ज़िंदगी में भी बदलाव लाएँ।