नारी को अधिकार दो
सबसे बड़ा ख़तरा
इस बात का नहीं है हमें
कि हममें कम शक्ति है;
ख़तरा तो यह है
कि हमारी शक्ति अपार है।
सबसे अधिक हमें
अंदर का अँधेरा नहीं
बल्कि प्रकाश डराता है।
पूछते हैं हम ख़ुद से–
कि क्या हक़ है हमें
तेजस्वी, गौरववान्, प्रतिभाशाली,
या एक अद्भुत व्यक्ति बनने का?
असल में पूछना तो ख़ुद से यह चाहिये
क्यों नहीं बन सकते इस योग्य तुम?
प्रभु की संतान हो तुम
अपने दायरे को छोटा करोगे अगर
तो कोई लाभ न होगा संसार को।
हमारे इर्द-गिर्द दूसरे
ख़ुद को असुरक्षित न समझें–
इस विचार से
अपने दायरे को छोटा कर लेना
नहीं है लक्षण तेजस्वी व्यक्ति का।
जन्म लिया था हमने
अनुभव करने को अपने अंदर के
प्रभु की महानता का।
यह दिव्य महानता
हममें से कुछ में ही नहीं,
बल्कि सब में है।
और जब हम
संसार के सामने
प्रकट करते हैं
अपने आध्यात्मिक प्रकाश को
तो अनजाने ही
प्रेरणा देते हैं दूसरों को
कि वे भी ऐसा ही करें।
मेरीएन विलियम्सन
अगर हमें इस जीवन में औरत का साथ मिला है तो यह एक अनमोल तोहफ़ा है। इनसानियत के नाते यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम उसे प्यार दें, इज़्ज़त दें और उसकी देखभाल करें। हमारे समाज में औरत को छोटा दर्जा दिया गया है, इसलिये हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उसकी मदद करें ताकि वह अपने आप को समर्थ बना सके।
समर्थ औरत कौन है? यह समझना ज़रूरी है ताकि हम औरतों को आज़ादी हासिल करने में उनकी मदद करें, औरतों की आज़ादी से डरें नहीं। समर्थ औरत में आत्मविश्वास होता है—वह अपनी क़ाबिलीयत पर विश्वास करती है। वह आत्मसम्मान बनाए रखती है। इसी वजह से दूसरे भी उसकी इज़्ज़त करते हैं। वह चाहे घर में काम करे या घर से बाहर, उसमें आत्मनिर्भर होने की भावना होती है। वह दया और प्यार से भरपूर होती है। ऐसी औरत अपने पति पर अधिकार नहीं जमाती, बल्कि कंधे से कंधा मिलाकर उसका साथ निभाती है। उसकी मौजूदगी से घर और आसपास का माहौल ख़ुशनुमा हो जाता है।
कई अध्ययनों से हमें यह पता चलता है कि समाज में जब औरत आत्मनिर्भर हो और समाज के कामों और फ़ैसले लेने में पूरी तरह से हिस्सा ले रही हो, तो इससे समाज को बहुत फ़ायदा पहुँचता है।
आशा-रोज़ मिगिरो, संयुक्त राष्ट्र संघ, डिप्टी सेक्रेटरी जनरल
भारत बहुत समय से पुरुष प्रधान समाज रहा है, लेकिन अब समानता से आगे बढ़ने का वक़्त आ गया है। अब समय आ गया है कि हम ऐसा समाज बनाएँ जिसमें न आदमी प्रधान हो, न औरत; ऐसा समाज जिसमें आदमी और औरत का दर्जा बराबर का हो—सामाजिक रूप से, आर्थिक रूप से और राजनीतिक रूप से। यह एक नामुमकिन सपना नहीं है। ऐसे कई पश्चिमी देश हैं जो कुछ समय पहले तक पुरुष प्रधान देश थे, लेकिन इस सपने को पूरा करने के लिये उन्होंने कई सही क़दम उठाए जिनकी वजह से आज इन देशों में औरत का दर्जा बहुत ऊँचा है। अगर वे इस मक़सद को कुछ ही सालों में हासिल कर सके तो हम भी यह कर सकते हैं।
इस दिशा में कुछ क़दम उठाकर हम इन रीति रिवाजों की जकड़ से छूट सकते हैं और औरतों की ज़िंदगी में बदलाव ला सकते हैं।
• आओ! मिलकर कहें ‘दहेज नहीं लेंगे’दहेज माँगना या लड़कीवालों की ‘मर्ज़ी से दिये गए’ तोहफ़े लेने का रिवाज अब हमारी जड़ों में इस हद तक बस गया है कि ज़्यादातर लोगों को यह महसूस ही नहीं होता कि वे कुछ ग़लत कर रहे हैं या किसी परिवार को दुविधा की स्थिति में डाल रहे हैं। दहेज को ऐसी सामाजिक मंज़ूरी मिली हुई है कि लड़केवाले बड़ी शान से खुलेआम बोलते हैं कि उन्हें दहेज में कितना मिल रहा है, ‘दस लाख की पार्टी है,’ वग़ैरह। अफ़सोस की बात है कि शादी में आए मेहमानों के सामने लड़कीवाले जब दहेज का प्रदर्शन करते हैं तो देखनेवाले मेहमानों को भी बुरा नहीं लगता। दहेज प्रथा की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि इन्हें जड़ से उखाड़ने के लिये बहुत हिम्मत की ज़रूरत पड़ेगी।
इस ज़हर को समाज से निकाल सकने की हिम्मत करना आज के नौजवानों में और उनके माँ-बाप के हाथों में है। दहेज माँगना ग़लत है, तोहफ़े लेना ग़लत है, चाहे वह बिना माँगे ही क्यों न मिले हों। दहेज ने औरत के दर्जे को पैसों से लेन-देन की वस्तु का रूप दे दिया है। दहेज औरत और उसके परिवार को कमज़ोर करता है। ऐसे माहौल में सच्चा प्यार, सुख और शांति कभी नहीं आ सकती। एक ताक़तवर आत्मसम्मान से भरपूर आदमी की निशानी यह है कि वह औरत को बराबर का दर्जा देता है।
जो नौजवान दहेज की शर्त पर ही शादी करता है, वह अपनी शिक्षा, अपने देश और नारी जाति सबका निरादर करता है।
महात्मा गांधी
यह सच है कि लड़की के माँ-बाप पर दहेज देने के लिये बहुत दबाव होता है, लेकिन अगर दहेज नहीं माँगा गया और हम इसे अपनी मर्ज़ी से दे रहे हैं, तो समझ लीजिये कि हम अपनी लड़की के साथ बहुत अन्याय कर रहे हैं। शादी के वक़्त तोहफ़े और पैसे देने की क्या ज़रूरत है? क्या हमारी बेटी ख़ुद एक तोहफ़ा नहीं है? हम कहते हैं कि हम लड़के-लड़की को नये जीवन में अच्छी शुरुआत देना चाहते हैं, लेकिन यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ लड़की के माँ-बाप पर क्यों है? क्या यह दोनों तरफ़ से नहीं होनी चाहिये?
जहाँ तक हो सके हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि लोग क्या कहेंगे, हमें सिर्फ़ अपनी बेटी की भलाई के बारे में सोचना चाहिये। माँ-बाप का फ़र्ज़ सिर्फ़ यहाँ तक है कि वे अपनी बेटी को पढ़ाएँ-लिखाएँ, उसे अच्छे उसूल सिखाएँ। इसके बाद यह उस लड़के और लड़की की ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी मेहनत और लगन से एक क़ामयाब ज़िंदगी बनाएँ। जब हम लड़के के परिवार को महँगे तोहफ़े देते हैं, ये तोहफ़े उनकी उम्मीदों को बढ़ाते हैं। जब माँ-बाप बार-बार तोहफ़े देने के लिये मजबूर होते हैं तो उनकी बेटी में हीनता का भाव आ जाता है। हीनता की बेड़ियों को वह ज़िंदगी भर नहीं तोड़ पाती। कितना अच्छा हो कि लड़केवाले दहेज की माँग न करें और लड़कीवाले तोहफ़े न दें। इसी में परिवार की इज़्ज़त और ख़ुशहाली है।
• आओ! अपने बेटे की शादी का ख़र्च बाँट लेंहम बिना सोचे-समझे इस परंपरा को क्यों मानते आ रहे हैं कि शादी का पूरा ख़र्च लड़कीवालों को ही उठाना चाहिये? क्या यह सही है? क्या यह न्याय है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि लड़के और लड़की दोनों के परिवार शादी का ख़र्च मिलकर उठाएँ, ताकि सारा बोझ लड़कीवालों पर न पड़े। अगर हम बेटे के माँ-बाप हैं तो यह चुनाव करके हम एक नयी परंपरा की शुरुआत कर सकते हैं।
• आओ! शादियाँ सादगी से करेंकुछ परिवार शादी में बहुत ज़्यादा ख़र्च नहीं कर सकते, लेकिन लड़कीवालों पर समाज की तरफ़ से बहुत दबाव होता है कि वे ज़्यादा ख़र्च करके बेटी की शादी धूमधाम से करें। शानशौक़त से शादी करने की वजह से वे क़र्ज़ के बोझ तले दब जाते हैं और इस क़र्ज़ को वापिस करने में कई साल लग जाते हैं। कुछ लोग ख़ूब पैसेवाले होते हैं और उनका कहना है कि हम अपनी बेटी की शादी में ख़र्च क्यों न करें? हमें ख़ुद से पूछना चाहिये कि शादी में इतना ख़र्च करने के पीछे हमारा मक़सद क्या है? क्या यह हमारा अपनी बेटी के लिये प्यार है? क्या हमारा अहंकार अपना सिर तो नहीं उठा रहा? क्या हमारा असली मक़सद यह तो नहीं कि इस शादी के ज़रिये हम समाज को अपना दर्जा, अपनी अमीरी और ताक़त दिखा सकें? शाही शादी और महँगे तोहफ़े बेटी के प्रति प्यार की निशानी नहीं हैं।
अगर हमारे पास ज़्यादा पैसे हैं तो हम अपने बच्चों को ज़रूरत के समय दे सकते हैं या कहीं दान कर सकते हैं। दुनिया को इसका पता नहीं चलेगा, लेकिन परमात्मा सब कुछ देखता है और सब कुछ जानता है।
समाज की भलाई के लिये शादियाँ जितनी सादगी से हों उतना ही अच्छा है। सादगी, सरलता और नम्रता बहुत बड़े गुण हैं।
• आओ! बेटियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले न करेंइसमें कोई शक नहीं है कि हम पर लड़कियों की शादी जल्दी करने का सामाजिक दबाव होता है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि कुँवारी लड़कियों की देखरेख की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है और इसकी वजह से हमें फ़िक्र लगी रहती है। लेकिन 18 साल से कम उम्र की लड़की एक बच्ची ही तो है। इस उम्र में वह मासूम है, अगर ससुरालवाले उस पर अत्याचार करें, तो वह अपने आप को बचाने के लिये कुछ नहीं कर सकती। कम उम्र में गर्भवती होने और बच्चे पैदा करने से उसकी सेहत ख़राब होती है और उसकी ज़िंदगी को भी ख़तरा हो सकता है। इसके अलावा आपकी बेटी पढ़ने का मौक़ा खो देती है, अपने चरित्र और गुणों के विकास का मौक़ा खो देती है। आज़ादी, ख़ुशी और हँसी-खेल से भरे बचपन के कुछ साल वह यूँ ही खो देती है। शादी के बाद तो परिवार की ज़िम्मेदारियों का बोझ ज़िंदगी भर उठाना ही होता है, लेकिन हर बच्चे का हक़ है कि उसे एक सुनहरा बचपन मिले। अगर यह हक़ बेटों को दिया जाता है, तो बेटियों को क्यों नहीं?
• आओ! जब बेटियाँ अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँ—हम उनका साथ देंज़्यादातर जवान औरतें घोर अत्याचार चुपचाप सहन करती हैं, क्योंकि समाज उनका और उनके माँ-बाप का साथ नहीं देता। औरतों के ख़िलाफ़ अत्याचार और दहेज संबंधी मामले थानों में दर्ज ही नहीं होते, क्योंकि इन औरतों को डर होता है कि समाज इन्हें दोषी ठहराएगा। इन औरतों को परखने के बजाय हमें इनका साथ देना चाहिये।
• आओ! हम अपनी बहुओं को अपने बेटों की तरह मानेंहमें अपनी नयी बहू का ख़ुशी से स्वागत करना चाहिये और उसे अपने बेटे के बराबर ही प्यार और इज़्ज़त देनी चाहिये। इससे हमारे घर में प्यार, शांति और ख़ुशहाली का माहौल पैदा होगा।
• आओ! हम अपनी पत्नी या बहू कोबेटा पैदा न करने का दोष न देंअगर एक औरत को बच्चे नहीं होते तो इसमें उसका पति भी बराबर का ज़िम्मेदार हो सकता है। इसके अलावा, अगर एक औरत को बेटा नहीं होता तो इसके लिये वह बिलकुल भी ज़िम्मेदार नहीं है। सच तो यह है कि बच्चा लड़का हो या लड़की, इसमें औरत का कोई हाथ नहीं होता। इसके लिये उसका पति ही ज़िम्मेदार होता है।
• आओ! लिंग जाँच को ‘न’ कहेंलिंग जाँच बिलकुल नहीं करवानी चाहिये। बेटे की चाहत में औरत का बार-बार गर्भपात कराते रहना ग़लत है। बहुत-सी लड़कियों को जन्म देते रहना ग़लत है, इस उम्मीद में कि कभी न कभी बेटा होगा। देश और समाज के हालात देखते हुए आज के वक़्त की पुकार है कि ज़्यादा से ज़्यादा दो बच्चे हों तो अच्छा है। अगर भगवान् ने भाग्य में दोनों लड़कियाँ लिखीं हैं, तो हम इसे भगवान् की रज़ा मानकर स्वीकार करें।
• आओ! अपनी बेटियों को बेटों के बराबर की पढ़ाई करने का और आगे पढ़ने का मौक़ा देंलड़कियाँ लड़कों के बराबर ही क़ाबिल और होशियार होती हैं। जब हम स्कूलों और कॉलेजों या प्रशासनिक सेवा परीक्षा के नतीजे देखते हैं, तो यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि लड़कियाँ बहुत अच्छे नंबर ले रही हैं। आम तौर पर मेरिट लिस्ट में सबसे ऊपर ज़्यादातर लड़कियाँ ही होती हैं। लड़कियों को पढ़ाने से बहुत फ़ायदे हैं। एक कहावत है: जब आप लड़के को पढ़ाते हैं तो एक व्यक्ति को शिक्षा मिलती है, लेकिन जब आप लड़की को पढ़ाते हैं तो सारे परिवार को शिक्षा मिलती है। अगर हम आज के वक़्त में लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाएँ तो उनकी कमाने की क़ाबिलीयत काफ़ी बढ़ जाती है।24
आइये! हम अपनी बेटी को वैसे ही पढ़ाएँ जैसे अपने बेटे को। उसे भी नयी चीज़ें सीखने के मौक़े दें। उसे भी अपने पैरों पर खड़े होने के क़ाबिल बनाएँ। हमें विवेक से रास्ता चुनने की ताक़त मिली है। तो आइये! पढ़ाई के ज़रिये, हम अपनी बेटियों को भी यह वरदान दें—सही और ग़लत के बीच फ़र्क़ देखने की क़ाबिलीयत और सही रास्ते को चुनने की हिम्मत।
पैसा कमाने की योग्यता औरत को कई चीज़ें देती है—ख़ुद पर विश्वास, आज़ादी और सुरक्षा का एहसास, परिवार और समाज में इज़्ज़त और घर को चलाने में हिस्सा लेने का एहसास।
जब औरत घर के बाहर काम करके अपनी आमदनी लाती है, परिवार और समाज में उसकी अहमियत बढ़ जाती है। जब वह कमाती है तो परिवार की ख़ुशहाली में उसका सहयोग साफ़ नज़र आता है। परिवार में उसकी आवाज़ सुनी जाती है, क्योंकि वह किसी की मोहताज नहीं होती। इसके अलावा बाहर काम करने से पता चलता है कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है। इससे उसका ज्ञान बढ़ता है।
डॉ.अमर्त्य सेन
लेकिन ऐसी कई औरतें हैं जो घर से बाहर काम करना पसंद नहीं करतीं, शायद इसलिये कि वे घर के कामों में ही संतुष्ट हैं और परिवार को उनकी आमदनी की ज़रूरत नहीं है। औरत घर सँभाले या बाहर कोई व्यवसाय करने का इरादा करे, हमें उसे इज़्ज़त देनी चाहिये और एक-सा नज़रिया रखना चाहिये।
• आइये! विधवा औरत को सहयोग देंजब पति का देहांत हो जाता है तो उसकी पत्नी को क्यों कोसा जाता है? क्या जन्म से पहले वह अपने भाग्य में उम्र लिखवाकर नहीं लाता?
इस कठिन समय में हमें विधवा और उसके बच्चों की हर तरह से सहायता करनी चाहिये—पैसों से और हमदर्दी से। जहाँ तक हो सके उसे फिर से शादी करने का मौक़ा देना चाहिये, ताकि वह एक नयी ज़िंदगी शुरू कर सके।
• आओ! हम अपनी पत्नी और माँ के काम की क़द्र करेंज़्यादातर औरतों को महसूस होता है कि उनके काम की कोई क़द्र नहीं है। जो औरतें घर से बाहर काम नहीं करतीं उन्हें यह बात और भी ज़्यादा चुभती है। औरतें सुबह से लेकर रात तक घर के कामों में लगी रहती हैं। वे सारा दिन छोटे-बड़े काम करती रहती हैं जैसे—बच्चे को जूते पहनाना, बच्चों के लिये ख़रीदारी करना, परिवार के लोगों के लिये खाना बनाना, बीमार रिश्तेदार की देखभाल करना वग़ैरह, लेकिन उन्हें लगता है कि अंत में उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ और न ही किसी ने उनकी क़द्र की। सच बात तो यह है कि जो बातें आज छोटी लगती हैं, समय पाकर उनकी बड़ी अहमियत हो जाती है। इन्हीं बातों की वजह से बच्चे होनहार बनते हैं, सुख और शांति से भरे हुए घर बनते हैं और मज़बूत रिश्तेदारियाँ बनती हैं। इन्हीं छोटी-छोटी बातों की वजह से परिवार और समाज मज़बूत बनते हैं। लेकिन जब औरत ये सब करती है, हम उसका शुक्रिया तक नहीं करते, क़द्र नहीं करते।
आइये! अपनी पत्नी और माँ की क़द्र करें और शुक्रिया के तौर पर उनके कामों में हाथ बटाएँ। जब हम ऐसा करेंगे, तो हमें एहसास होगा कि इससे हमारे रिश्तों में सुखद बदलाव आ गया है। एक छोटे-से शुक्रिया कहने से ही घर में सुखद माहौल पैदा हो जाएगा।
• आओ! हम बेटियों को अपनी जायदाद में बराबर हिस्सा देंहम ऐसा क्यों सोचते हैं कि बेटियों को परिवार की जायदाद और व्यापार का हिस्सा नहीं देना चाहिये? क्या हमारी बेटियाँ हमारे परिवार का हिस्सा नहीं हैं? बेटियों को बराबर का हिस्सा देने में क्या नुकसान है?
जब हम सभी बच्चों को बताते हैं कि जायदाद में बेटी का बराबर का हिस्सा होगा, तो हम अपनी बेटी को सशक्त बनाते हैं। इसके उलट जब हम बेटी को बराबर के हिस्से से वंचित कर देते हैं, हम उसे संदेश देते हैं कि हम उसे बेटे के बराबर प्यार नहीं करते, उसकी क़द्र नहीं करते। इस संदेश के साथ हम अपनी बेटी को कमज़ोर कर देते हैं।
• आओ! हम अपने बेटों को जाग्रत करेंहम बदलाव की उम्मीद सबसे ज़्यादा आनेवाली पीढ़ी से करते हैं। आइये! अपने बेटों और बेटियों को बराबर का प्यार और दर्जा दें। भाइयों को सिखाएँ कि वे बहनों की इज़्ज़त और आदर करें। बेटों को सिखाएँ कि औरतें हर तरह से आदमियों के बराबर हैं। हालाँकि यह सोच समाज में चल रही सोच से बहुत अलग है, लेकिन बेटों को यह शिक्षा देना सही और बहुत ज़रूरी है, क्योंकि ऐसी सोच से ही हमारी अगली पीढ़ी की औरतों को बराबरी का हक़ मिल सकता है। यह अहम ज़िम्मेदारी बेटों के माँ-बाप की है।
• आओ! हम अपनी बेटियों को सबसे बड़ा तोहफ़ा दें—आत्मसम्मानआज हमारी बेटियाँ एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जिसमें बेटों को पूजा जाता है। बचपन से लड़कियों को पुरुष प्रधान समाज की परंपरा और मर्यादा सिखाई जाती है कि उनका दर्जा आदमियों से कम है।
हम अपनी बेटी को बड़े से बड़ा तोहफ़ा यही दे सकते हैं कि उसे सशक्त करके आत्मसम्मान दें। यह तभी हो सकता है जब उसे बराबर का प्यार, बराबर की पढ़ाई और बराबर के मौक़े दिये जाएँगे। उसे हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा दें। उसे ऐसी ज़िम्मेदारियाँ दें जो आज तक आदमियों को ही दी जाती रही हैं और शुरू से सबको बता दें कि बेटी जायदाद में बराबर की हिस्सेदार होगी।
आत्मसम्मान से भरपूर बेटी एक दिन आपके लिये गर्व का कारण होगी। शादी के बाद अगर ससुरालवाले दहेज की माँग करेंगे तो उसमें ‘न’ कहने का साहस होगा। अगर लिंग जाँच करवाने का दबाव होगा तो उसमें मना करने का साहस होगा। अगर कन्या भ्रूणहत्या करने का दबाव होगा तो इस ग़लत बात को भी वह नहीं मानेगी। वह आत्मनिर्भर होगी, उसमें पैसा कमाने और सँभालने की शक्ति होगी। वह अपनी ज़िंदगी को इस तरह से जी सकेगी कि लोग उसकी इज़्ज़त करेंगे और वह अपनी बेटी को भी वही संस्कार देगी जिससे उसकी बेटी आत्मसम्मान से भरपूर होगी। आत्मसम्मान से भरपूर औरत ही क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है।
मैं अपने माँ-बाप की लाडली बेटी थी। मैं आज जो भी हूँ, यह मेरे माँ-बाप की अच्छी परवरिश का नतीजा है। लड़की का भविष्य पूरी तरह से उसके माँ-बाप के आदर्शों पर निर्भर है कि वे उसका पालन पोषण कैसे करते हैं। उसे पढ़ाइये, उसे आदर दीजिये और पैसे के मामले में उसे ऐसी शक्ति दीजिये कि उसे कभी किसी का मोहताज न होना पड़े। ìअगर आज आप को लगता है कि आपकी बेटियाँ कमज़ोर हैं तो यह समझें कमज़ोर वे नहीं, बल्कि आपकी परवरिश में कोई कमी रह गई है। अगर मेरे माँ-बाप भी इसी तरह से सोचते तो मैं जो आज हूँ वह कभी नहीं बन सकती थी। उनकी सोच मज़बूत थी, इसलिये आज मैं एक शक्तिशाली औरत हूँ। आप भी ऐसा कर सकते हैं। अपनी बेटी को बड़े प्यार से, बड़े ध्यान से पालो। उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाओ। आत्मनिर्भरता ही शक्ति है और आत्मनिर्भर होने के लिये शिक्षा की ज़रूरत है। अगर आप अपनी बेटियों के लिये ऐसा करेंगे, तो वे आपकी इज़्ज़त करेंगी और ज़िंदगी भर आपका ख़याल रखेंगी।
किरन बेदी, भारत की सबसे पहली महिला पुलिस अफ़सर 25
जिस लड़की में आत्मसम्मान है वही समाज को बदलने के क़ाबिल होती है, क्योंकि आज की क़ाबिल बेटी कल की माँ और सास है। हमारे समाज में यह अन्याय और अत्याचार का चक्कर कब ख़त्म होगा? जब लड़कियाँ सीख जाएँगी कि वे क़द्र के लायक़ हैं और जब लड़के भी यह सीख जाएँगे कि लड़कियाँ उनके बराबर हैं। यदि हम लड़कियों में यह भावना जाग्रत करते हैं कि वे किसी से कम नहीं हैं, तो इसके साथ लड़कों में भी यह भावना लानी है कि लड़की और औरत किसी भी मामले में उनसे कम नहीं बल्कि बराबर है। उनकी क़द्र करो। ऐसा होने पर समाज में औरत के प्रति अन्याय और असमानता का भाव ख़त्म हो जाएगा।
• आओ! हम कानून का पालन करेंहमारे देश के कानून इस विषय पर बिलकुल साफ़ हैं—लिंग चुनाव करना कानून के ख़िलाफ़ है। इस कानून के तहत और भी बहुत से कानून हैं जैसे—लिंग जाँच करवाना ग़ैरकानूनी है; लिंग जाँच के व्यापार के बारे में लोगों को जानकारी देना भी ग़ैरकानूनी है; सरकार की इजाज़त के बिना क्लिनिक, अस्पताल या मोबाइल वैन चलाना ग़ैरकानूनी है। इसी तरह से दहेज लेना और देना भी कानून के ख़िलाफ़ है।
आओ! हम अपने देश के कानून का पालन करें।
• आओ! हम लिंग चुनाव के बारे में जानकारी बढ़ाएँहम जानते हैं कि कई लोग लिंग जाँच कराते हैं और यदि बेटी हो तो गर्भपात करा देते हैं, लेकिन बहुत-से लोग यह नहीं जानते कि आज हमारी जनसंख्या से 5 करोड़ से भी ज़्यादा औरतें कम हो गई हैं। लोग यह भी नहीं जानते कि यह समस्या कम होने के बजाय तेज़ी से बढ़ रही है। लोग सुनकर हैरान हो जाते हैं कि यह काम सिर्फ़ किसी गाँव में ही नहीं हो रहा, बल्कि इसे अमीर, पढ़े-लिखे और शहरी लोग भी करवा रहे हैं। बहुत-से लोग यह सुनकर चौंक जाते हैं कि लिंग चुनाव की वजह से हमारा समाज कितनी ख़तरनाक दिशा में जा रहा है।
अगर आप समाज की मदद करना चाहते हैं तो लोगों को इस समस्या के बारे में जानकारी दीजिये। अपने दोस्तों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों को इसके बारे में जानकारी दें। समाज के ऐसे लोगों से सहयोग की अपील करें जिनकी बात लोग सुनते हैं जैसे—अध्यापक, वकील, डॉक्टर, जज, नेता, सरकारी अफ़सर और मीडिया। इस समस्या के बारे में जानकारी बढ़ाना सबसे पहला क़दम है। लिंग चुनाव और औरतों के प्रति असमानता और अत्याचार तभी रुकेंगे, जब पूरे समाज की आवाज़ इनके ख़िलाफ़ उठेगी।
औरत को इज़्ज़त और बराबरी का दर्जा देने में समाज को अपनी भूमिका निभानी चाहिये। लेकिन औरतों को भी बहुत अच्छी तरह से यह सच्चाई समझ लेनी चाहिये—ज़िंदगी की सबसे अहम चीज़ें जैसे—आज़ादी, बराबरी और अधिकार—ये हमें कोई और नहीं दे सकता, ये हमें ख़ुद लेनी पड़ेंगी। जिस तरह रूहानियत के क्षेत्र में हमें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, उसी तरह इन कार्यों में सफलता के लिये हमें जूझना पड़ेगा। जब बेहद कोशिशों के बाद हमें अपने अधिकार पाने में सफलता मिल जाएगी, तब हमें इसकी अहमियत का एहसास होगा और फिर हम इसे कभी खोना नहीं चाहेंगे और हम इसके बचाव के लिये हमेशा सतर्क रहेंगे। अगर आज़ादी और बराबरी का हक़ हमें पकी-पकाई रोटी की तरह यानी बड़ी आसानी से मिल जाता है, तो हमारे मन में इसकी अहमियत नहीं रहेगी और फिर हम इसे खो भी सकते हैं।
समाज हमारी मदद ज़रूर करेगा, लेकिन यह हम औरतों की ज़िम्मेदारी है कि हम एक दूसरे का साथ दें और मिलकर अपनी ताक़त बढ़ाएँ। यह हम पर निर्भर है—अपने आप को मज़बूत और शक्तिशाली बनाएँ।