वर्तमान पल
इनसान ने अपनी ज़िंदगी में वर्तमान पल को सबसे कम आँका है, सबसे कम अहमियत दी है। हम यादों, पछतावों और आत्म-ग्लानि के कारण अतीत में उलझे रहते हैं और ख़ुद ही समझ-बूझकर भविष्य का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं, जिससे हमारा मन चिंताओं और परेशानियों से भर जाता है। तो फिर, अभी इस वर्तमान पल के लिए हमारे पास वक़्त ही कहाँ है?
अगर हम तर्कपूर्ण ढंग से सोचें, तो गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फ़ायदा होगा? अतीत को फिर से जीया नहीं जा सकता, सही नहीं किया जा सकता, सुधारा नहीं जा सकता। यह बीत चुका है। सतगुरु यक़ीनन चाहते हैं कि हम अपनी ग़लतियों से सीखें; साथ ही समझाते हैं कि हम उन्हें न दोहराएँ। उन निराशा से भरी यादों में डूबे रहने का कोई फ़ायदा नहीं; ऐसी यादें हमारे आज यानी वर्तमान पल को आशावादी बनाने में कोई सहायता नहीं करतीं।
जहाँ तक भविष्य की बात है, यह उस लॉटरी की तरह है जिसका कोई भरोसा नहीं है। अतीत के अनुभवों के आधार पर हम अपना मन कई आशाओं, आशंकाओं और उम्मीदों से भर लेते हैं। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि बीत चुके कल के अनुभवों और परिणामों के आधार पर हम आनेवाले कल की भविष्यवाणी कर सकते हैं। हम सब मानते हैं कि ज़िंदगी में दो बातें ही अटल हैं—बदलाव और मौत। लेकिन भविष्य को लेकर, ये दोनों न तो हमें ख़ुशी दे सकती हैं, न ही हमारा आत्म-विश्वास बढ़ा सकती हैं। अब चाहे यह बात हमें पसंद आए या न आए, हम इन दो अटल सच्चाइयों से बच नहीं सकते।
मृत्यु के बारे में स्वामी जी महाराज के वचन हैं:
डरते रहो काल के भय से। ख़बर नहीं कब मरना॥
स्वाँसो स्वाँस होश कर बौरे। पल पल नाम सुमिरना॥
यहाँ की ग़फ़लत बहुत सतावे। फिर आगे कुछ नहिं बन पड़ना॥
जो कुछ बने सो अभी बनाओ। फिर का कुछ न भरोसा धरना॥
सारबचन संग्रह
स्वामी जी महाराज ने साफ़-साफ़ शब्दों में असलियत हमारे सामने रखी है। भविष्य में मौत हर किसी को आनी है। इसलिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि हम अपने क़ीमती पलों को कैसे जी रहे हैं जबकि मौत हर पल हमारे नज़दीक आ रही है? हो सकता है कि हममें से कुछ एक मृत्यु का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हों, जबकि कुछ लोगों के मन में इसकी दहशत हो। हमारी जो भी निजी सोच है, हम सबके पास ये पल हैं जिन्हें मौत के आने से पहले हमें जीना है। यह फ़ैसला हमें लेना है कि इन्हें कैसे जीएँ। क्या हमारा फ़ैसला रूहानी नज़रिए से आशावादी होगा, लाभदायक होगा या नहीं?
हमारे सतगुरु हमसे क्या उम्मीद रखते हैं कि हम इन पलों को कैसे जीएँ—हम इस बात से अनजान नहीं हैं। हम जानते हैं कि वह चाहते हैं कि दिन में जितना हो सके हम सिमरन करें और सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि हम हर रोज़ अपना भजन-सिमरन पूरे ध्यान, उत्साह और एकाग्रता से करने की कोशिश करें। सतगुरु की इस हिदायत के महत्त्व को समझना आसान है, लेकिन नामदान ले चुके ज़्यादातर जिज्ञासु देर-सवेर यह जान जाते हैं कि इस हिदायत को पूरा करना इतना आसान नहीं है। समस्या यह है कि इस हिदायत को मानने के लिए हमें अपने मन को भजन-सिमरन में लगाना होगा—उसी मन को जो हमें अतीत से बाँधकर रखता है, भविष्य में उलझाए रखता है और वर्तमान में हर तरह से फँसाए रखता है। मन का अपना ख़्याल है कि हमें अपना वक़्त कैसे गुज़ारना है और, अफ़सोस कि सिमरन कभी भी इसकी पहली पसंद नहीं होता।
यह रूहानी सफ़र जो हमने शुरू किया है, वह असल में हमारी आत्मा का सफ़र है। यह आत्मा की परमात्मा से मिलाप की एक कोशिश है। इस सफ़र को पूरा करने के लिए हमें परमात्मा की सृजनात्मक शक्ति—शब्द से जुड़ना होगा, जो हमारी आत्मा को निज-धाम ले जाएगा। तीसरे तिल पर पहुँचकर ही शब्द के साथ जुड़ा जा सकता है। सिमरन वह ज़रिया है जिसके द्वारा तीसरे तिल पर पहुँचा जा सकता है।
परमार्थी पत्र, भाग 2 में महाराज सावन सिंह जी फ़रमाते हैं:
सन्तों का वास्तव में एक ही सन्देश होता है और वे उस सन्देश को समय के अनुसार देते हैं। उनका सन्देश है, “हे आत्मा, तू अपने मूल को भूल गई है। वह मूल या स्रोत सचखण्ड में है और वहाँ पहुँचने का रास्ता शब्द-धुन है, जो तेरे अन्दर है। हम वहाँ तक तेरी रहनुमाई करेंगे।”
हमें अपने निज-घर की याद नहीं है। हममें से बहुत-से लोग आत्मा के बारे में नहीं जानते। संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि अपने विशुद्ध रूप में आत्मा बहुत निर्मल, प्रकाशमान और तेजपूर्ण है। मगर नीचे इस रचना में आते हुए, यात्रा के हर पड़ाव पर इसका प्रकाश पर्दों में ढकता गया। अब, इस स्थूल जगत में, हमारी आत्मा मन, शरीर और इंद्रियों के प्रभाव के अधीन होने के कारण दब चुकी है और ये तीनों आत्मा को इस रचना के साथ बाँधकर रखने की हर संभव कोशिश करते हैं। मन और इन्द्रियाँ कितने शक्तिशाली हैं, इस बात से हम सब भली-भाँति परिचित हैं। परमार्थी पत्र, भाग 2, में हुज़ूर बड़े महाराज जी हमारी अवस्था को बयान करते हुए फ़रमाते हैं: “केवल मन ही हमारा शत्रु है क्योंकि इसकी यह कोशिश है कि हमारा ध्यान तीसरे तिल से नीचे-नीचे रहे। हमें मन की ताक़त का पता तब लगता है जब हम सिमरन और भजन करना शुरू करते हैं।”
जब हम अपने सतगुरु का ध्यान करते हैं और पूरा दिन सिमरन करने की कोशिश करते हैं, तब हम अपने उस रूहानी ख़ज़ाने को और ज़्यादा बढ़ा रहे होते हैं जो हमें पहले से ही दिया जा चुका है। नामदान प्राप्त हो जाने के बाद हम उस शब्दरूपी रत्न को हासिल कर सकते हैं। हमें तन-मन से इस कार्य में जुट जाना चाहिए। ऐसा करने पर ही हम अपना रूहानी ख़ज़ाना इकट्ठा कर पाएँगे। जितना भी समय हमारे पास बचा है, जहाँ तक हो सके हमें उसका सदुपयोग करना चाहिए। हमें ऐसे कर्म करने चाहिएँ जिनसे हमें अपना आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त हो सके। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें हर संभव कोशिश करके अपना पल-पल इसमें लगा देना चाहिए।
हमारे सामने चुनौती यह है कि हर रोज़ जब भी हमारा ध्यान भटके, हम इसे सिमरन में लगाएँ। यह कार्य कठिन ज़रूर है, लेकिन जितना हो सके, हमें लगन और प्रेम से इस कार्य को करने का प्रयास करना चाहिए। स्वामी जी महाराज ने पल-पल सिमरन करने का उपदेश दिया है क्योंकि इस समय की गई लापरवाही हमें अंत में बहुत महँगी पड़ेगी।
अपने जीवन में हम सब संघर्ष करते हैं, कड़ी मेहनत करते हैं और मुश्किलों का डटकर सामना करते हैं। हम सब शारीरिक और मानसिक संघर्ष से भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए, हम मन द्वारा दी गई चुनौतियों का सामना करने के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं ताकि आख़िरकार उसे वश में कर सकें। ‘पुरानी आदतें मुश्किल से छूटती हैं’ यह प्रसिद्ध कहावत मन के बारे में बिल्कुल सच है। मन अपनी आज़ादी या सत्ता को छोड़ना नहीं चाहता। इसकी जड़ों को धीरे-धीरे कमज़ोर करना हमारा काम है। जब भी हम मन का कहा नहीं मानते, तब हमें गुरुमुख बनने, आत्मा को सशक्त बनाने और शब्द की दिव्य ध्वनि और प्रकाश के नज़दीक जाने का अवसर मिलता है। क्या सचमुच मन के साथ यह अंतिम लड़ाई लड़ी जानी चाहिए?
आत्मा सिर्फ़ मनुष्य जन्म पाकर ही परमात्मा के पास वापस जाने का अपना उद्देश्य पूरा कर सकती है। मगर इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमें मन की शक्ति को कम करना पड़ेगा और आत्मा को सशक्त बनाना पड़ेगा। यह दुर्लभ मनुष्य जन्म एक सुनहरा अवसर है, जो हमें आवागमन के चक्र से हमेशा के लिए छूटने के लिए प्राप्त होता है।
स्वर अनेक, गीत एक पुस्तक में महाराष्ट्र के संत कन्होबा के वचन हैं: “तुम्हारे हाथ में कितना बड़ा ख़ज़ाना रखा गया है!… नर-देही पाने से बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता।”
यदि हम मनुष्य जन्म रूपी इस ख़ज़ाने का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, तो इसके महत्त्व को समझते हुए हमें जल्दी से जल्दी तीसरे तिल पर पहुँचकर शब्द से जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए। दिन भर संसार के बारे में सोचने के बजाय हमें अपना हर पल सिमरन करने में लगाना चाहिए। जब हम सिमरन करते हैं तब हम सतगुरु के प्रेम के छोटे से ख़ूबसूरत बीज का पोषण करते हैं। इस बीज को बढ़ने और प्रफुल्लित होने के लिए देखभाल और ध्यान की आवश्यकता होती है। कर्तव्य या आदत के बजाय प्रेम और लगन से भजन-सिमरन करने पर हम आध्यात्मिक उन्नति करने में अधिक सफल होते हैं। प्रेमपूर्वक भजन-सिमरन करने पर मार्ग में कुछ भी बाधा नहीं बन सकता; यहाँ तक कि हमारा मन भी नहीं। इस बात में रत्ती-भर भी संदेह नहीं है कि सिमरन हमारे अंदर प्रेम को प्रफुल्लित करने में मदद करता है।
हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी के वचन हैं:
लगातार सिमरन करने से हमारे अंदर रूहानी अभ्यास के लिए रूझान पैदा होता है, मन को अभ्यास में लगाने में मदद मिलती है… इसीलिए जब भी हमें समय मिले या जब भी हमारा मन ख़ाली हो, हमें सिमरन करना चाहिए।
संत संवाद, भाग 2
हमें हमेशा कोशिश करते रहना चाहिए। जब भी हमें लगे कि हमारा ध्यान भटक गया है, हमें फिर से सिमरन करना शुरू कर देना चाहिए और इस तरह अपने हर अनमोल पल को अपने सतगुरु के ध्यान में समर्पित कर देना चाहिए। ऐसा करने से आख़िरकार हमारा आध्यात्मिक भविष्य उज्ज्वल होगा। वास्तव में इस उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रतिदिन कोशिश करना फलदायक सिद्ध होगा।
हुज़ूर बड़े महाराज जी परमार्थी पत्र, भाग 2 में फ़रमाते हैं:
हिम्मत न हारिए, बल्कि साहसपूर्वक लड़िए। लड़ाई तो अभी शुरू ही हुई है। मन शब्द-धुन से ज़्यादा ताक़तवर नहीं है। सतगुरु आपके अंग-संग हैं। वे आपकी हर एक गतिविधि को देख रहे हैं। वे आपके साथ आपकी ओर से लड़ाई लड़ने को तैयार हैं। उन्हें अपना मददगार बनाइए। उन पर भरोसा कीजिए। मन से लड़िए और आपको कामयाबी मिलेगी।