सतगुरु की मित्रता
मित्रता, हमें प्राप्त अनमोल उपहारों में से एक है। मनुष्य स्वभाव से ही संगति में रहना पसंद करता है और हम सतगुरु को अकसर मित्र की आवश्यकता के बारे में बात करते हुए सुनते हैं।
मित्र कौन है? मित्र वह है जिसे हम पसंद करते हैं, जो हमें जैसे भी हम हैं, उसी रूप में स्वीकार करता है और जिसके साथ प्रेम और विश्वास का ख़ास नाता जुड़ जाता है। मित्र हमारा उत्साह बढ़ाते हैं और हमारे जीवन को संपन्न बनाते हैं। महाराज चरन सिंह जी हमें हमेशा प्रेरणा देते थे कि हमें ऐसे आशावान लोगों की संगति करनी चाहिए जो हमारा उत्साह बढ़ाएँ। ऐसे ख़ास लोगों को ही हम दोस्त कहते हैं।
जैसे-जैसे हमें जीवन का अनुभव होता है, हमें एहसास होता है कि सच्चा मित्र वह है जो मुश्किल समय में हमारा साथ देता है। ऐसा सच्चा मित्र बुरे वक़्त में साथ छोड़ देनेवाले हज़ारों स्वार्थी मित्रों से कहीं अधिक मूल्यवान होता है।
हम जानते हैं कि अध्यात्म में सतगुरु को सच्चा मित्र माना जाता है। डॉ. जूलियन जॉनसन अपनी पुस्तक अध्यात्म मार्ग में लिखते हैं:
वे हमें बाहर निकलने का मार्ग ही नहीं बताते, बल्कि जहाँ अकेले जाना संभव नहीं है, वहाँ हमारे साथ भी होते हैं।…हमारा परममित्र वही हो सकता है, जो हमें कठिनाइयों से केवल बचना ही नहीं सिखाता, बल्कि ज़रूरी सहायता भी देता है। यही सच्चे सतगुरु की निशानी है।
फ्रांसीसी दार्शनिक और लेखक अल्बर्ट कैमस का एक प्रसिद्ध कथन है, जिसमें उन्होंने लिखा था: “मेरे आगे मत चलो, शायद मैं तुम्हारा अनुसरण न कर सकूँ। मेरे पीछे मत चलो, हो सकता है मैं तुम्हारा नेतृत्व न कर सकूँ। मेरे साथ चलो। केवल मेरे मित्र बनो।” शिष्यों से बातचीत के दौरान शायद हमने सतगुरुओं को उपर्युक्त हवाला देते हुए सुना होगा, लेकिन सतगुरु के मित्र बनने का क्या अभिप्राय है? क्या हम इस तरह की मित्रता के महत्त्व की कल्पना भी कर सकते हैं? हम इस मित्रता को किस नज़रिए से देखेंगे?
मान लीजिए कि सतगुरु हमें अपना मित्र बनने का अवसर दें, तो क्या वे हमें अपने साथ फ़िल्में देखने के लिए आमंत्रित करेंगे? या हमें अपने साथ घूमने-फिरने का न्योता देंगे? हमारा ऐसा सोचना निपट मूर्खता होगा। इस बारे में शम्स तब्रीज़ी का फ़रमान है:
कितनी विचित्र बात है! तुम परमात्मा से मित्रता को क्या समझते हो, उस परमात्मा से मित्रता को जिसने पृथ्वी रची है, आकाश रचे हैं, और यह सृष्टि रची है? क्या तुम समझते हो कि परमात्मा से मित्रता इतनी आसान है कि बस, तुम जाओ…उसके पास बैठो और उससे बातचीत करो। क्या तुम समझते हो कि यह मित्रता करना उतना ही आसान है जितना एक ढाबे में जाना और खाना शुरू कर देना?
यह मित्रता तुम्हारी बे-लगाम कल्पना की उड़ान से भी परे है।
शम्स तब्रीज़ी: रूमी के कामिल मुर्शिद
जब सतगुरु हमारे सामने मित्र बनने का प्रस्ताव रखते हैं तो उनका क्या तात्पर्य होता है? शायद वह ऐसा इसलिए कहते हैं ताकि हम उनकी संगति में स्वाभाविक और सहज रहें, ठीक वैसे ही जैसे हम किसी अच्छे मित्र की संगति में होते हैं। हमारे मन में सतगुरु के प्रति इतना डर है कि हमें उनकी उपस्थिति में सहज रहना असंभव लगता है। हालाँकि, अनौपचारिक स्थिति में, जैसे कि प्रश्न-उत्तर के कार्यक्रमों में, शायद हमें सतगुरु के साथ बातचीत करना आसान लगता हो।
इन कार्यक्रमों के दौरान, हमें सतगुरु और उनके शिष्यों की प्रेमभरी बातें सुनने का मौका मिलता है। उपदेश चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो वह बड़ी कुशलता से, धैर्यपूर्वक संतमत के पहलुओं के बारे में हमें समझाते हैं। इन अनौपचारिक सत्रों के दौरान ही हमें सतगुरु के साथ मित्रता का एहसास होता है, क्योंकि तब वे हमारे लिए, दीवार पर फ़्रेम में लगी एक तस्वीर न होकर, हक़ीक़त बन जाते हैं। संत संवाद, भाग 1 के परिचय में, महाराज जी द्वारा 1950 के दशक में शुरू किए गए प्रश्न-उत्तर के कार्यक्रमों के पीछे की सोच के बारे में विस्तार से बताया गया है। पुस्तक में, इन कार्यक्रमों के संगत पर पड़नेवाले प्रभाव को ख़ूबसूरती से बयान किया गया है:
महाराज जी ने इन शाम के वक़्त होनेवाली मुलाक़ातों को अपनी विदेशी संगत के लिये एक ऐसा माध्यम बनाया जिनसे प्यार, भरोसे और दोस्ती का एक अटूट रिश्ता क़ायम किया जा सके। हर किसी को महसूस होता कि उसकी पूरी तरह से सँभाल हो रही है। महाराज जी के वचन एक सुकून भरा ख़ूबसूरत दायरा बना लेते जिसकी रोशनी में हम अपने जीवन और दुनिया को एक नये नज़रिये से देखते। अपने नेक और विनम्र, लेकिन शाही अंदाज़ से हुजूर महाराज जी अपनी मौजूदगी के हर पल को अपने आकर्षण से इतना प्रेम भरा बना देते कि हम उनके प्यार में सराबोर हो जाते।
जिस तरह महाराज जी अनेक तरह के और बार-बार पूछे जानेवाले सवालों का धैर्यपूर्वक जवाब देते थे, उसी तरह मौजूदा सतगुरु भी धैर्यपूर्वक अपनी संगत के साथ संवाद करते हैं। संभवतः उनकी सबसे अहम और विशेष ज़िम्मेदारियों में से एक ज़िम्मेदारी अपने शिष्यों के साथ उनका प्रेमपूर्ण संबंध है। जैसा कि सूफ़ी उस्ताद शेख़ सादी ने अपने शिष्यों से फ़रमाया:
मेरे अलावा कौन आपसे इश्क़
करने की बात कहने की कोशिश कर सकता है?
क्योंकि दूसरों के पास कोई बुनियाद नहीं है,
इसलिए उनके लफ़्ज़ सच नहीं लगते।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक, भाग 2
हमारे रूहानी मार्गदर्शक होने के नाते, सतगुरु हमें समझाते हैं कि आत्मा और परमात्मा एक हैं और जुदाई निरा भ्रम है। वह बहुत विनम्र ढंग से हमारी आध्यात्मिक अज्ञानता के बारे में हमें जागरूक करते हैं। वह हमें समझाते हैं कि हम वास्तव में कौन हैं, हम यहाँ क्यों हैं और मनुष्य-जन्म रूपी इस उपहार का असल में क्या उद्देश्य है।
वह इस मायामय संसार की असलियत पर प्रकाश डालते हैं। वह हमें समझाते हैं कि भजन-सिमरन द्वारा अपने ध्यान को संसार से निकालकर आंतरिक मार्ग पर केंद्रित करना कितना ज़रूरी है। जब हम अपने कर्मों का फल भोग रहे होते हैं, तो उनकी दया-मेहर भरी नज़र हमेशा हम पर होती है। जब हम अपने कर्मों के बोझ से छुटकारा पाने, अपनी आत्मा को आज़ाद करवाने और निज घर वापस जाने की कोशिश कर रहे होते हैं, तब भी वे हमारे मन के संघर्ष से अनजान नहीं होते।
शेख़ फ़रीद ने रूहानी मार्गदर्शक की भूमिका का वर्णन करते हुए फ़रमाया है: “पीर अपने शिष्य की सच्ची सुंदरता को सामने लाने के लिए कार्य करता है। वह शिष्य को हर तरह से तराशता है।”
हम अपने जीवन और अपने रूहानी कायाकल्प में सतगुरु की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका के बारे में बहुत कम जानते हैं। सतगुरुरूपी ज्योति हमारे भीतर प्रकाश को प्रज्वलित करती है। सतगुरु हमें नामदान इसीलिए देते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि हमारे अंदर आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने की क्षमता जन्मजात है। अपने मार्गदर्शन द्वारा वह हमें आध्यात्मिक तौर पर सशक्त और पूर्ण बनाते हैं। रूहानी अभ्यास द्वारा हमें एहसास होता है कि उन्होंने हमें कितनी अनमोल दात बख़्शी है। सूफ़ी उस्ताद हज़रत इनायत ख़ान ने बहुत सुंदर ढंग से नाम की दीक्षा के समय ली जानेवाली शपथ को ‘वफ़ादारी की शपथ’ कहा है। इस शपथ का संबंध अनंतता से है:
मैंने अपने मुर्शिद से, नाम की दीक्षा देनेवाले से, कुछ ऐसा सुना, जिसे मैं कभी नहीं भूलूँगा: “यह मित्रता, यह नाता जो दो व्यक्तियों के बीच नाम की दीक्षा द्वारा जुड़ता है, कुछ ऐसा है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता; कुछ ऐसा है जिसे अलग या जुदा नहीं किया जा सकता; कुछ ऐसा है जिसकी तुलना दुनिया की किसी भी चीज़ से नहीं की जा सकती; इसका संबंध अनंतता से है।”
शेख़ फ़रीद: महान सूफ़ी फ़क़ीर
इसी पुस्तक में बताया गया है कि अनौपचारिक रूप से, सूफ़ी नाम की दीक्षा को ‘शेख़ का हाथ पकड़ना’ कहते हैं। यह प्रतीक प्रेमपूर्ण संबंध की ओर संकेत करता है जो नाम की दीक्षा के समय मज़बूत होता है: “गुरु शिष्य की सहायता और सहारे के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाता है; शिष्य उनके प्रेमपूर्ण संरक्षण को स्वीकार करने के लिए उनका हाथ थाम लेता है।”
हमारे पास भी एक ऐसी अद्भुत और शाश्वत मित्रता है: नामदान के समय सतगुरु और हमारे बीच ली गई वफ़ादारी की शपथ। एक ऐसी शपथ जिसे मौत भी नहीं तोड़ सकती जो अन्य सभी रिश्तों को तोड़ देती है। शायद, समय-समय पर, हमें शिष्यों के रूप में अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता हो, क्योंकि उनका हाथ थामने का मतलब है कि जिस रूहानी अभ्यास को समय देने की ज़िम्मेदारी हमने ली है, हम उसे पूरा करेंगे। जब हम उनका हाथ थामते हैं, तब वह हमारा रूहानी मार्ग रोशन कर देते हैं। हमें चाहिए कि हम दृढ़ लगन और सच्चे हृदय से उस मार्ग पर चलें।
उनकी मित्रता, मार्गदर्शन और प्रेम के फलस्वरूप, एक दिन हमारी आत्मा वापस उस असीम परमात्मा में समा जाएगी और हमें परम आनंद का अनुभव होगा। अंततः हमारे लिए उनका प्रेम ही हमारी आत्मा को इस रचना से मुक्त करके वापस निज-घर ले जाएगा, और हमारा युगों-युगों का यह भ्रम समाप्त हो जाएगा कि हम कभी परमात्मा से अलग थे।
डॉ. जूलियन जॉनसन अपनी पुस्तक अध्यात्म मार्ग में लिखते हैं: “युगों-युगों से सतगुरु हर उपग्रह पर जहाँ मनुष्य का वास है, प्रकाश के संदेशवाहक रहे हैं। जब तक यह सृष्टि है वे उन सभी जीवों के मित्र और मुक्तिदाता रहेंगे जो प्रकाश तक पहुँचने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।”
कौन ऐसी मित्रता के बारे में समझ सकता है?