प्रभु बिराजे तन-मन्दिर में
ब्रह्माण्ड अनन्त समाए प्रभु में,
जीव-रूप प्रभु मेरे अन्दर।
प्रभु बिराजे तन-मन्दिर में,
खोजने जाएँ क्यों और मन्दिर॥
यर्थाथ स्वरूप प्रभु का कैसा—यह
जानना हो तो जाओ तन-मन्दिर।
यह अनुभव तो तब ही होगा
जब तुम खोज करोगे अन्दर॥
विश्व-रूप प्रभु, उसकी कोई
ना शाखा है, ना ही मूल है।
जीव-रूप उस प्रभु की कोई
ना तो जाति है, ना ही कुल है॥
प्रभु नित्य है, और अगम्य है,
ना मन्दिर, ना महल में रहता।
समय नहीं, ना अभाव समय का,
प्रभु अगम्य जहाँ है रहता॥
वहाँ न भावना, ना ही भक्ति,
ना है मोक्ष और ना ही मुक्ति।
वहाँ न दिन चढ़ता-ढलता है,
ना आती-जाती है रात्रि॥
मेरे सतगुरु बाबा जी ने ही यह सारा
अनुभव मुझे प्रदान किया है।
तुका, उन्होंने धाम में अपने
वास स्थायी मुझे दिया है॥
अनंत ब्रह्मांडें जयाचे उदरीं, छन्दबद्ध गाथा 58