हंस का अंतिम गीत
सतगुरु अकसर परमात्मा के साथ रिश्ता जोड़ने का महत्त्व समझाते हैं। आम तौर पर कोई भी संबंध दो लोगों के बीच में होता है। परमात्मा से प्रेम के संबंध में वे दो लोग प्रियतम और प्रेमी होंगे। शुरू में हमारा नज़रिया यह होता है कि परमात्मा प्रियतम है और हम सब उसके प्रेमी हैं। इस नज़रिए से हम उस प्रियतम के साथ अपने प्रेम की शुरुआत करते हैं, पहले देहधारी सतगुरु के ज़रिए और फिर शब्द-गुरु द्वारा। अब प्रश्न यह उठता है कि सच्चा प्रेमी कौन है और सच्चा प्रियतम कौन है?
जब मन त्रिकुटी, अपने स्रोत में समा जाता है, तब मन के चंगुल से आज़ाद हुई आत्मा को यह एहसास होता है कि प्रियतम और प्रेमी वास्तव में एक ही हैं। परमात्मा-रूपी प्रियतम ने जिज्ञासु के मन में प्रेम का बीज बोया जिसके फलस्वरूप वह यह सोचने लगा कि वह प्रेमी है। उस परमात्मा के बिना न तो प्रेम होगा, न ही प्रेमी और न ही प्रियतम।
महाराज चरन सिंह जी अकसर फ़रमाया करते थे कि परमात्मा अपने आप को हमारे ज़रिये पूजता है। शायद शुरू में हमें यह बात कम या बिल्कुल भी समझ में न आए, पर जब आत्मा अपनी अलग पहचान खोकर परमात्मा में समा जाती है, तब वह अनुभव करती है कि प्रेमी और प्रियतम एक ही हैं। परमात्मा आत्मा से अपनी भक्ति करवाता है; इसी लिए वह ख़ुद ही प्रेमी है और ख़ुद ही प्रियतम।
एक होने के नाते प्रेमी और प्रियतम दोनों का स्वभाव भी एक-सा ही होना चाहिए—प्रेम करनेवाला। परमात्मा प्रेम का रूप है, इसलिए वह केवल प्रेम ही करता है। दुविधा यह है कि इस रहस्य में जिज्ञासु की भूमिका को कैसे पहचाना जाए। अगर परमात्मा हमारे ज़रिए अपनी भक्ति करता है, तो इसका अर्थ है कि हम केवल ज़रिया हैं। हम इस प्रेम को स्वतंत्र रूप से प्रवाहित भी होने दे सकते हैं और इस प्रेम में रुकावट भी बन सकते हैं। जिज्ञासु का कर्त्तव्य है कि वह परमात्मा के साथ सहयोग करे और इस प्रेम को प्रवाहित होने दे। चूँकि जिज्ञासु आत्मा, मन और शरीर तीनों का मेल है, तो मन और शरीर इस सहयोग में रुकावट कैसे बनते हैं?
हमारे शरीर में कोलेस्टेरॉल या धमनियों में जमा प्लाक हमारी धमनियों को अवरुद्ध और रक्त-प्रवाह को प्रतिबंधित कर सकता है। इसी तरह, मन भी प्रेम के प्रवाह को रोकने के लिए इंद्रियों, इच्छाओं और वासनाओं का इस्तेमाल करके बहुत बड़ी रुकावट पैदा करता है। प्रेम बिना किसी रुकावट के प्रवाहित हो सके, इसके लिए मन को तीसरे तिल पर एकाग्र करना पड़ता है, ऐसा करने पर आत्मा की धाराएँ कुछ समय के लिए शरीर से सिमट जाती हैं। आत्मा की धाराओं का तीसरे तिल पर सिमटना मृत्यु की तरह है और इसे ‘जीते-जी मरने’ की अवस्था कहा जाता है। आत्मा की धाराओं को तीसरे तिल पर समेटना हमारे लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
हम अपने सतगुरु को सहयोग तभी दे सकते हैं अगर हम मन, इंद्रियों और वासनाओं द्वारा इकट्ठा किए ‘प्लाक’ को जमा न होने दें और प्रेम बिना किसी रुकावट के प्रवाहित हो सके। इस कार्य को पूरा करने का सबसे आसान तरीक़ा अपने सतगुरु के हुक्म का पालन करना है और सच्चे दिल से लगन के साथ भजन-सिमरन करते हुए अपने ध्यान को तीसरे तिल पर एकाग्र करना है।
सतगुरु जानते हैं कि उनके उपदेश को समझना बहुत ही आसान है, परंतु उसे करनी में लाना उतना आसान नहीं है। महाराज जी के वचन हैं:
संतों की शिक्षा बहुत आसान है, लेकिन उस पर चलना बहुत मुश्किल है। यह मन के साथ लगातार चलनेवाली लड़ाई है; हमें अपनी ज़िंदगी का पूरा तरीक़ा ही बदलना पड़ता है, जीवन के प्रति अपना सारा दृष्टिकोण ही बदलना पड़ता है। संतमत पर चलने के लिए आमूल परिवर्तन की, काया-कल्प की ज़रूरत है और यह आसान नहीं है। इसके लिए ज़िंदगी में काफ़ी कुर्बानी करनी पड़ती है।
जीवत मरिए भवजल तरिए
बहुत-से धर्मों में परमात्मा को सर्वव्यापक, सर्वज्ञाता, सृजनात्मक शक्ति माना गया है। इस शक्ति को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है: होली घोस्ट, वर्ड, लोगॉस, नाम, शब्द इत्यादि। संतमत में इस ‘शब्द’ रूपी शक्ति के बारे में जागरूक होने को बहुत महत्त्व दिया गया है। इस सृजनात्मक शक्ति के बिना किसी चीज़ का अस्तित्व संभव नहीं है। सृष्टि की रचना और सँभाल करनेवाली यह शक्ति, सृष्टि में चेतना का संचार करती है और हमारी आत्मा इसी ‘शब्द’ की अंश है।
किसी देहधारी सतगुरु की सहायता से ही शब्दरूपी इस शक्ति का अनुभव किया जा सकता है। यह कोई नया सिद्धांत नहीं है। सृष्टि में हमेशा से ही देहधारी सतगुरु, मुक्तिदाता, पैग़ंबर, संत-महात्मा और पूर्ण साधु मौजूद रहे हैं, जिनका उपदेश ही सभी धर्मों की बुनियाद है। केवल मौजूदा सतगुरु, बाहरी कर्मकाण्ड में उलझाए बिना, हमें अंतर में शब्द का अनुभव करने की सही युक्ति समझा सकते हैं। सतगुरु से नामदान प्राप्त हो जाने पर हमें चाहिए कि हम अपने उसूलों से कोई भी समझौता किए बिना, लगनपूर्वक उनके उपदेश के अनुसार चलें।
हालाँकि सतगुरु का उपदेश सर्वव्यापक है, परंतु इसके दो पहलुओं पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है—आशावादी नज़रिया और परमात्मा की रज़ा में रहना। ख़ुशहाल और संतुष्ट जीवन जीने के लिए नज़रिए का आशावादी होना ज़रूरी है। जीवनरूपी इस नाटक में आशावादी नज़रिया कैसे अपनाया जा सकता है? यह हमारे नज़रिए पर निर्भर है। परमात्मा का आभार मानने से हमारा रवैया बेहतर हो जाएगा। महाराज चरन सिंह जी, पुस्तक अनमोल ख़ज़ाना में फ़रमाते हैं:
महाराज जी हमेशा कहते हैं कि मालिक हमें जो कुछ भी दे उसके लिए हमें उसका कृतज्ञ होना चाहिए। हमें चाहिए कि ज़िंदगी के हर क़दम पर मालिक का आभार मानें और हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा हो, वह चाहे हमें अच्छा मालूम दे या बुरा, उसे ख़ुशी से स्वीकार करना चाहिए। हम नहीं जानते कि जो दिखने में बुरा मालूम देता है उसमें क्या रूहानी भलाई छिपी हुई है, और जो अच्छा दिखाई देता है उसमें क्या बुराई। हमें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि मालिक की रज़ा में राज़ी रहते हुए जो कुछ भी वह दे उसके लिए शुक्रगुज़ार हों।
आशावादी नज़रिया स्पष्ट सोच का परिणाम है। मगर जब हमारा मन चिंता, विश्लेषण और ज़रूरत से ज़्यादा सोचता है तो यह अकसर निराशावादी सोच और दुविधा का शिकार हो जाता है। आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हुए, सतगुरु की रज़ा में राज़ी रहने से तथा इस बात को स्वीकार करने से कि कर्मों के क़ानून और भाग्य को बदला नहीं जा सकता, हमारा दृष्टिकोण आशावादी बनता है। आशावादी दृष्टिकोण से इस सत्य को स्वीकार करने में सहायता मिलती है कि हर चीज़, नियत समय पर, हमारे भाग्य के अनुसार ही होती है, विरोध करने से जीवन में घटनेवाली घटनाओं को बदला नहीं जा सकता।
आख़िरकार स्वीकृति जीवन के प्रति सबसे उत्तम नज़रिया है। अपने भाग्य को स्वीकार करने और इसमें किसी परिवर्तन की चाह न रखने की मनोवृत्ति से हमें संतोष और सुख प्राप्त होता है। जब हम यह मान लेते हैं कि सब कुछ परमात्मा की रज़ा से हो रहा है, तो हम कुछ भी स्वीकार कर सकते हैं। हमें, शुरू-शुरू में, परमात्मा की रज़ा में रहना असंभव लगता है, मगर जैसे-जैसे हमारी सोच स्पष्ट होती जाती है, हमें महसूस होने लगता है कि परमात्मा की रज़ा में रहना ही जीवन जीने का एकमात्र तरीक़ा है। जितनी जल्दी हमें इस बात का एहसास हो जाएगा कि परमात्मा की इच्छा ही सर्वोपरि है, उतनी जल्दी हम अपने भाग्य को स्वीकार करना सीख जाएँगे।
दिव्य प्रकाश पुस्तक में, महाराज जी फ़रमाते हैं:
हमें सब कुछ सतगुरु की मौज पर छोड़ देना चाहिये और जिस हाल में भी वह हमें रखना चाहे, उसी में रहना चाहिये। हमारी इच्छाएँ और कामनाएँ हमारा मन उत्पन्न करता है और उन्हें हम अपनी भक्ति के बदले में, परमात्मा से पूरा करवाना चाहते हैं। यह ग़लत विचारधारा है और इससे बचना चाहिये। हमें तो मालिक की इच्छा में, उसके भाणे में रहने की कोशिश करनी चाहिये।
केवल भजन-सिमरन द्वारा ही हम उस परमात्मा की रज़ा में राज़ी रह सकते हैं। पुस्तक संत संवाद, भाग 2 में महाराज जी फ़रमाते हैं:
प्रार्थना में, हम परमात्मा से बात करते हैं। हम अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये उससे कुछ उम्मीद करते हैं। भजन-सिमरन में हम परमात्मा को सुनते हैं। हम अपने आप को उसकी मौज पर छोड़ देते हैं। रूहानी अभ्यास में आप परमात्मा की आवाज़ को सुनते हैं और आप अपनी मरज़ी को उसके सुपुर्द कर देते हैं। आप उसकी रज़ा में रहते हैं।
भजन-सिमरन परमात्मा की रज़ा में राज़ी रहने का ज़रिया है। प्रत्येक कर्म का कोई न कोई परिणाम अवश्य होता है और भजन-सिमरन वह करनी है जो हमें उत्तम फल प्रदान करती है।
करोड़ों बार अलग-अलग योनियों में जन्म लेने के बाद, परमात्मा की दया से अब हमें मनुष्य-जन्म का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, यह अपने जीवन को हंस गीत बनाने का—अंतिम बार गीत गाने का—अनमोल अवसर है। लोक कथा के अनुसार, आम तौर पर हंस मौन रहते हैं परंतु मृत्यु से कुछ क्षण पहले वे सुंदर गीत गाते हैं। अत: “हंस गीत” अंत से पहले दिए गए अंतिम संकेत, प्रयास या अभिनय का एक रूपक है।
हमारे सतगुरु जो भी करते हैं, उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं। यदि हमारे अंदर फिर से जन्म लेने की इच्छा नहीं है, तो हमारा यह जीवन हमारे प्यारे सतगुरु के लिए हमारा अंतिम गीत होना चाहिए। हमें इस अंतिम गीत के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए। यह सतगुरु के प्रति आभार व्यक्त करने का प्रयास मात्र है, जिनकी दया-मेहर से हम वह अद्भुत ख़ज़ाना प्राप्त करने जा रहे हैं, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।