दृष्टिकोण बनाम वास्तविकता
हर चीज़ के बारे में हमारा दृष्टिकोण हमारी सोच पर आधारित होता है। हमारे दृष्टिकोण पर हमारे सीमित ज्ञान और सोचे-समझे बिना पहले से बने हमारे विचारों का प्रभाव होता है। इसलिए, चीज़ों को उनके निष्पक्ष रूप में समझ पाना मुश्किल होता है।
पहले से बने हमारे निजी विचार वास्तविकता को धुँधला कर देते हैं और फिर उस धुँधली वास्तविकता को हम सत्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। हमारी धार्मिक और आध्यात्मिक मान्यताओं के साथ भी बिलकुल ऐसा ही होता है। हालाँकि, सच्चे संत-महात्मा स्वयं सत्य का साक्षात् अनुभव कर चुके होते हैं और वे बिना भेदभाव किए उन अनुभवों को हमारे साथ साँझा करते हैं। वे हमें आध्यात्मिकता के बुनियादी सत्य के बारे में समझाते हैं; साथ ही यह भी सिखाते हैं कि अपने वास्तविक स्वरूप—आत्मा का अनुभव कैसे किया जाता है।
एक अन्य आध्यात्मिक सत्य या वास्तविकता यह है कि हर कर्म का फल होता है। हर प्राकृतिक नियम की तरह यह नियम सर्वव्यापक है। कर्म और फल का यह नियम बड़ी सूक्ष्मता और बारीक़ी से लागू होता है। कोई भी व्यक्ति गुरुत्वाकर्षण, भौतिकी और गति जैसे विज्ञान के प्राकृतिक नियमों से अछूता नहीं रह सकता, वैसे ही कोई भी व्यक्ति कर्म-फल के क़ुदरती क़ानून से बच नहीं सकता।
इसे कर्म-सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। बाइबल के कथन अनुसार, ‘जैसा बीज बोओगे, वैसी फसल काटोगे।’ जब हम अच्छे कर्म करते हैं, तो हमें अच्छा फल मिलता है। बुरे कर्म करने पर भी हमें उन्हीं के अनुसार बुरा फल मिलता है। यह सिद्धांत न्यायपूर्ण और निष्पक्ष है। इस सिद्धांत के अनुसार बिना किसी पक्षपात या भेदभाव के सभी को पूरा न्याय मिलता है।
एक और आध्यात्मिक सत्य यह है कि हमारा अस्तित्व हमारे जन्म से शुरू होकर हमारी मृत्यु के साथ समाप्त नहीं हो जाता। यह शरीर साधन मात्र है, जो इस अनंत संसार में हमें निश्चित समय के लिए मिला है। महाराज जगत सिंह जी फ़रमाते हैं:
यह जीवन अस्तित्व की अनन्त शृंखला की एक कड़ी है। शरीर नष्ट हो जाता है, पर आत्मा सदा रहती है। वह अमर है। वह मालिक से अपने दुःखपूर्ण वियोग और संसार में व्यर्थ भटकने की अवस्था से निकलकर परमात्मा के धाम में वापस आनन्दपूर्वक लौटने का मार्ग अपनाती है।
आत्म ज्ञान
महाराज जगत सिंह जी के इन वचनों से हमें एक अन्य प्राकृतिक नियम—पुनर्जन्म के सिद्धांत के बारे में पता चलता है। इस सिद्धांत के अनुसार आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है, ताकि अपने अनगिनत पिछले जन्मों के कर्मों का फल भोग सके।
कर्म और पुनर्जन्म दोनों सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू होते हैं, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि इनके परिणाम तुरंत प्राप्त हो जाएँ और यह भी ज़रूरी नहीं है कि ये परिणाम इसी जीवन में प्राप्त हो जाएँ। चूँकि ये परिणाम अगले जन्मों में मिलते हैं, इसलिए किसी कर्म को उसके परिणाम के साथ प्रत्यक्ष रूप से जोड़ देना भी संभव नहीं है।
यह सब हमें निरंतर इस सृष्टि में फँसाए रखने के लिए बिछाया गया ख़तरनाक जाल है। चूंकि हम अपने कर्मों के परिणाम के बारे में नहीं जानते, इसलिए हम निरंतर कर्म करते जाते हैं। कर्मों के परिणाम की परवाह किए बिना, अज्ञानतावश हम कर्मों का भारी बोझ इकट्ठा करते जाते हैं, जिसे भविष्य में किसी न किसी जन्म में हमें चुकाना पड़ेगा।
अधिकांश धर्मों और आध्यात्मिक मार्गों में एक नैतिक संहिता होती है, जिनके अनुसार जिज्ञासु को अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। ये संहिताएँ सामान्यत: बाइबल के सिद्धांत ‘जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे’ पर आधारित होती हैं। मगर इसके बावजूद कई लोग मानते हैं कि हम केवल मनुष्यों द्वारा बनाए गए क़ानूनों के अधीन हैं और इन्हीं के मुताबिक़ हमें परखा जाता है। कोई भी व्यक्ति जब कोई ग़ैरक़ानूनी कार्य करता है, तो वह कभी भी ख़ुद को दोषी नहीं मानता। कभी-कभी, किसी क़ानूनी ख़ामी के कारण, वह क़ानून से बच जाता है और मान लेता है कि वह अपने कर्मों का परिणाम भुगतने से बच गया है। लेकिन कर्मफल के इस क़ुदरती क़ानून से कोई भी बच नहीं सकता।
महाराज जगत सिंह जी समझाते हैं:
कर्मों का क़ानून सब पर लागू होता है। यह सृष्टि का अटल नियम है। प्रत्येक जीव को अपने बोए बीज की फ़सल काटनी पड़ती है, अपने किए कर्मों का फल भुगतना पड़ता है। कर्मों की गति को कोई नहीं टाल सकता।
आत्म ज्ञान
यह नियम बहुत अहम है क्योंकि कर्मों का जो कर्ज़ हम इकट्ठा करते हैं, वह हमें अनंत काल तक इस सृष्टि से बाँधकर रखता है। इस सृष्टि से मुक्ति प्राप्त करने के लिए, हमें कर्मों की इस रुकावट को दूर करना होगा। जो फल हम पाना चाहते हैं, हमें उसके अनुसार ही कर्म करने चाहिएँ। हमें व्यर्थ ही नए कर्मों को इकट्ठा नहीं करना चाहिए और इकट्ठा हो चुके कर्मों के कर्ज़ के भुगतान की कोशिश करनी चाहिए।
पूर्ण संत-महात्मा स्वयं सच्ची मुक्ति प्राप्त कर चुके हैं। वे ही हमें सच्ची मुक्ति को प्राप्त करने की युक्ति समझा सकते हैं। वे हमें ऐसी जीवन शैली बताते हैं जो इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक होती है। वे हमें जीवन के हर पहलू के बारे में उपदेश देते हैं; इसमें हमारा आहार और नैतिक आचरण भी शामिल है। वे हमें यह भी समझाते हैं कि हम किस प्रकार कर्मों का बोझ इकट्ठा करते हैं। हमारा आहार कैसा होना चाहिए इस विषय में संतमत के साहित्य में विस्तारपूर्वक बताया गया है और इसके पीछे की ठोस वजह भी बताई गई है। हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए और हमें इस संसार में किस तरह रहना चाहिए, इस बारे में भी आध्यात्मिक साहित्य हमारा मार्गदर्शन करता है।
नामदान प्राप्त कर चुकी एक सत्संगी महिला को उसके पत्र का उत्तर देते हुए महाराज चरन सिंह जी ने अनमोल ख़ज़ाना पुस्तक में फ़रमाया:
जब तुमने अपने खान-पान में मनमानी करनी शुरू कर दी और संतमत के सिद्धांतों के पालन में ढील देनी शुरू कर दी तो मुझे बेहद दुःख हुआ, क्योंकि इसके परिणाम मुझे मालूम थे; लेकिन मैंने इस बारे में तुमसे कुछ नहीं कहा क्योंकि मैं तुम्हारे दिल को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता था।…पिछले तीन-चार महीने से तुम ज़िद्द कर रही थीं कि मैं तुम्हें बताऊँ कि तुम्हें इतनी तकलीफ़ क्यों भुगतनी पड़ रही है, हालाँकि तुम अपने अंदर ही इसके कारण को पूरी तरह जानती थीं।
मनुष्य ग़लतियों का पुतला है। सतगुरु हमें समझाते हैं कि हमें पीछे हो चुकी ग़लतियों पर ध्यान नहीं देना है और संतमत के सिद्धांतों के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारनी है। ऐसे में केवल हमारे संचित कर्मों का भुगतान करना ही बाक़ी रह जाएगा।
महाराज जी हमें हमारी स्थिति से अवगत करवाने के लिए एक बिजली के बल्ब का उदाहरण दिया करते थे। जब एक जलते हुए बिजली के बल्ब के चारों ओर कई काले कपड़े लपेट दिए जाते हैं, तो उसकी रोशनी, चाहे कितनी भी तेज़ क्यों न हो, धुँधली पड़ जाएगी। अगर हम कपड़े की एक परत हटा दें तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसी तरह, अगर हम दूसरी और तीसरी परत हटा दें, तो भी बहुत कम फ़र्क़ पड़ता है। तब, शायद हम रोशनी की तलाश करना ही छोड़ दें, लेकिन अगर हम ऐसा करते हैं, तो रोशनी हमेशा के लिए धुँधली रहेगी।
इसी प्रकार, हमारा रोज़ाना का भजन-सिमरन हमारे संचित कर्मों को समाप्त करने के लिए हमारी तरफ़ से किया गया प्रयास है। अगर हम हिम्मत और विश्वास के साथ दिए हुए हुक्म का पालन करते हुए धीरे-धीरे परतें हटाते रहें, तब चाहे हमें अपना यह प्रयास कितना भी कठिन और निरर्थक क्यों न लगे, हमारी उन्नति होगी। आख़िरकार जब सभी परतें हट जाएँगी, तो हम उस रोशनी की पूर्ण चमक का अनुभव कर पाएँगे।
हम सबकी चेतना या आत्मा, बिजली के बल्ब की तरह है। यह हमें दिखाई नहीं देती क्योंकि यह कर्मों के बोझ तले दबी हुई है, काले कपड़े की परतों से लिपटे बिजली के बल्ब की तरह। जब हम इतनी बड़ी बाधा को दूर कर लेंगे, तो आत्मा फिर से प्रकाशमयी हो जाएगी और हमें अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान हो जाएगी।
आत्म-साक्षात्कार हमारी चेतना के स्तर को ऊँचा उठाने और सुरत को जाग्रत करने की प्रक्रिया है जिससे हमें यह बोध हो जाता है कि हम वास्तव में निर्मल आत्मा हैं। इस समय हमें इस बात का एहसास नहीं है क्योंकि हमारा ध्यान बाहर सारे संसार में फैला हुआ है। अपनी आत्मा की इस वास्तविकता का अनुभव करने के लिए, हमें अपने ध्यान को बाहरी स्थूल भौतिक जगत से हटाकर अपने अंतर में रूहानी जगत की ओर मोड़ना चाहिए।
सैद्धांतिक तौर पर यह सब समझना आसान है। हालाँकि जिन्होंने आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की कोशिश की है या आत्म-साक्षात्कार का प्रयास किया है, केवल वही जानते हैं कि इस लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन है। इसी कठिनाई के कारण इन सिद्धांतों को करनी में लाने की कोशिश धीमी पड़ जाती है।
हमें समझना चाहिए कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने और लक्ष्य को प्राप्त करने में अंतर होता है। इस मार्ग पर चलने के लिए ज़रूरी है कि हम एक ऐसी विशेष जीवन शैली अपनाएँ जिसे हम सभी अपना सकते हैं। लेकिन लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया लंबी है, इसमें अकसर कई दशक या यहाँ तक कि पूरा जीवन भी लग जाता है। इस वजह से हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, क्योंकि सतगुरु हमें विश्वास दिलाते हैं कि लक्ष्य का प्राप्त होना निश्चित है। हुक्म का पालन करते हुए, नियमपूर्वक भजन-सिमरन करने की कोशिश करना लक्ष्य तक पहुँचने का हमारा प्रयास है। ये प्रयास हमें अपने प्यारे सतगुरु के साथ प्रेम का दिव्य संबंध जोड़ने में मदद करते हैं।