सुख और दु:ख
हम अकसर यह सुनते हैं कि सतगुरु हमारे लिए बहुत कुछ करते हैं, मगर बदले में वह हमसे बहुत कम उम्मीद रखते हैं। वह हमसे जो उम्मीदें करते हैं, उनमें से कुछ को मानना बहुत आसान है जैसे हम क्या खाते और पीते हैं। हालाँकि, वह हमसे एक ऐसी उम्मीद भी रखते हैं जिसे पूरा करना इतना आसान नहीं है: वह चाहते हैं कि हम सुख और दु:ख में अंतर न करें; दोनों को समान भाव से स्वीकार करें।
हम अपने जीवन में सुखों को तो बड़ी ख़ुशी से स्वीकार कर लेते हैं। अगर हम संतमत के दृष्टिकोण से विचार करें तो दु:ख देनेवाली चीज़ों को भी स्वीकार करना संभव हो जाएगा। आख़िरकार, हमारा मुख्य उद्देश्य तो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर निज-घर वापस जाना है।
परम-पिता परमेश्वर की अपार दया-मेहर से ही हमें नामदान की बख़्शिश हुई है, क्योंकि उसे आत्माओं की तड़प का अहसास है। सतगुरु ने हमारे कर्मों के भुगतान की ज़िम्मेदारी ली है। वह समय-समय पर हमसे थोड़े-थोड़े कर्मों का भुगतान करवाते रहते हैं ताकि हम आसानी से यह भुगतान कर सकें। वह हमसे बहुत प्यार करते हैं और वह हमें अपना ही रूप बनाने में जुटे हुए हैं। सतगुरु जिस तरह चाहते हैं, वह हमें जीवन में उसी तरह आगे लेकर जाएँगे। जब हम परमात्मा की रज़ा में राज़ी रहते हैं, तो जो भी होता है, हम उसे भी ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लेते हैं।
प्रभात का प्रकाश पुस्तक में, महाराज सावन सिंह जी फ़रमाते हैं:
यह याद रखें कि जो कुछ बीत चुका है, बीत रहा है या आगे बीतेगा, वह सबकुछ परमात्मा की इच्छा के अनुसार है। सो हम चाहे किसी भी अवस्था से गुज़र रहे हों, हमें शान्त और सन्तुष्ट रहना चाहिये। अगर वह दुःख भेजता है तो हमें चाहिये कि उसे ख़ुशी से स्वीकार करें। अगर वह सुख भेजता है तो अपने आपको प्रभु के बच्चे समझ कर नम्रता के साथ उसे स्वीकार करना चाहिये। सो यह न सोचें कि जीवन फूलों की सेज नहीं है। इसे उसकी बख़्शिश समझ कर ख़ुश रहना चाहिये।
इनसान होने के नाते हमारे कर्मों का कर्ज़ दो प्रकार का है। हमारा प्रारब्ध हमारे मौजूदा कर्ज़ का भुगतान है। साथ ही साथ हम अपनी हर साँस और हर क़दम के साथ नए कर्मों को इकट्ठा करते जा रहे हैं। हमें अपने सभी कर्मों का हिसाब देना पड़ता है इसलिए कर्म करते समय हमें सावधान रहना चाहिए। परमात्मा की सहायता के बिना हमारे सभी कर्मों का कर्ज़ नहीं चुकाया जा सकता, मगर सतगुरु की मदद से यदि इस कर्ज़ को पूरी तरह चुकाया न जा सके तो भी कम ज़रूर किया जा सकता है।
प्रभात का प्रकाश पुस्तक में हुज़ूर बड़े महाराज जी फ़रमाते हैं:
जो कुछ भी अच्छा या बुरा हमारे साथ होता है, चाहे वह किसी व्यक्ति या वस्तु के ज़रिये हो, हमारे प्यारे प्रभु की रज़ा या इच्छा से होता है। सब लोग और सब वस्तुएँ उस मालिक के हाथ में कठपुतलियों के समान हैं। अगर आप पर कोई विपत्ति आये तो उसे परम पिता की दया-मेहर समझें।… हमारा सतगुरु चाहता है कि हम तकलीफ़ों को जल्दी-जल्दी भुगत कर उन कर्मों के बोझ से शीघ्र मुक्त हो जायें। कर्मों के कर्ज़ को इस प्रकार जल्दी चुकाने से—क्योंकि कर्ज़ तो वह है ही—तकलीफ़ की मात्रा कम हो जाती है। अगर हमें शुरू में मन-भर कर्ज़ उतारना था, तो अब हम किलो, दो किलो देकर ही छुटकारा पा लेते हैं।
सतगुरु हमारे लिए यह सब इसलिए करते हैं क्योंकि वे हमसे बहुत प्यार करते हैं, और उस प्यार के बदले में ही हम उनसे प्यार करना सीखते हैं। सतगुरु के लिए प्रेम होना ज़रूरी है क्योंकि अगर हम उनसे प्रेम करते हैं तो हम उनके हुक्म का पालन करना चाहेंगे और उन्हें ख़ुश करना चाहेंगे। उनके प्रति हमारा यह प्रेम हमें सांसारिक मोह के बहुत-से बंधनों से आज़ाद कर देता है और सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने की हमारी इच्छा को भी कम, यहाँ तक कि समाप्त ही कर देता है।
हमें चेतावनी दी जाती है कि हमारी हर इच्छा पूरी की जाती है। इन्हीं इच्छाओं के कारण इनसान को एक के बाद दूसरा जन्म लेना पड़ता है। इस समय हमारा उद्देश्य आवागमन के चक्र से बाहर निकलना है। हमारी आत्माएँ इस आवागमन के कभी न ख़त्म होनेवाले चक्र से थक चुकी हैं; इसी लिए अब हमें वही करना चाहिए, जो हमारे सतगुरु चाहते हैं।
भले ही कई बार हमें भजन-सिमरन में ख़ुशी के बजाय निराशा का सामना करना पड़े, लेकिन फिर भी हमें भजन-सिमरन करना चाहिए। हमें समझाया जाता है कि हमारा भजन-सिमरन ही हमें इन सांसारिक बंधनों से मुक्त करवाएगा। हुज़ूर बड़े महाराज जी समझाते हैं:
अगर सत्संगी का विश्वास अटूट और अटल है, वह रोज़ाना अभ्यास को वक़्त देता है और उसे कोई दुनियावी ख़्वाहिश नहीं है, तो ऐसी कोई भी ताक़त नहीं है जो उसे दुनिया में वापस ला सके। ऐसी जीवात्माओं का दोबारा जन्म नहीं होता। जन्म उन जीवों का होता है जो अपनी अतृप्त इच्छाएँ लिये रोते हुए मौत को प्राप्त करते हैं।
परमार्थी पत्र, भाग 2
महाराज चरन सिंह जी ने इसी बात को दोहराते हुए फ़रमाया कि हमारी इच्छाएँ ही हमारे अगले जन्म का कारण बन जाती हैं। हमारा इस संसार में होना इस बात का प्रमाण है कि हमारी इच्छाएँ अधूरी रह गई थीं। हमारी इच्छाओं के कारण ही हमारा प्रारब्ध बना है। हमें अपने आप को निरंतर यह याद दिलाते रहना चाहिए कि हमें क्या माँगना है, क्योंकि हमारी हर इच्छा पूरी की जाएगी, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में।
सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि वे इसी जन्म में पूरी हों।…आप उससे जो भी चाहते हैं, उससे जो कुछ माँगते हैं, वह आपको ज़रूर देगा। वह आपको देते-देते कभी नहीं थकता, लेकिन आप जो कुछ भी चाहते हैं, उस सब को पाने के लिये आपको फिर दोबारा, बार-बार वापस आना पड़ेगा।
संत संवाद, भाग 1
अब भी, हम अपने प्रारब्ध को स्वीकार करना सीख रहे हैं। यदि हम अपने अंदर झाँकें, तो पाएँगे कि जो ज़िंदगी हमें मिली है उसके अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की ज़िंदगी जीने की हमारी कोई प्रबल इच्छा नहीं है। जब हमें अपने सतगुरु से नामदान मिलता है, हम मान लेते हैं कि अब हमारी ज़िंदगी की बागडोर उनके हाथ में है। हम यह भी मान लेते हैं कि जब से हमें जन्म मिला है, उसी समय से हमारे साथ जो भी हुआ है, सब परमात्मा की मरज़ी से ही हुआ है। परमार्थी पत्र, भाग 1 पुस्तक में, बाबा जैमल सिंह जी फ़रमाते हैं:
जो कुछ करना, कहना है, सब ख़ुद मालिक राधास्वामी जी के हुक्म से होगा। बिना उनके कोई कुछ नहीं कर सकता है। पक्का भरोसा रखो। मनुष्य कुछ नहीं कर सकता है, न कुछ घटा सकता है, न कुछ बढ़ा सकता है।… क्योंकि राधास्वामी अनामी कुलमालिक ने मनुष्य देह धारण करके, कुल कारोबार दुनिया का, स्थूल का कारोबार करके मर्यादा बाँधी हुई है।
इसका अर्थ है कि उसकी मरज़ी से ही हमें इस मार्ग पर इतना लंबा संघर्ष करना पड़ रहा है। कभी-कभी इस कठिन और लंबे संघर्ष के कारण हो सकता है कि हम बेचैन और निराश हो जाएँ। हमने कोशिश की है और हम चाहते हैं कि हमें इन कोशिशों का परिणाम मिले। मगर हम यह स्वीकार करना सीख जाते हैं कि परिणाम सतगुरु के हाथ में है। वह समझाते हैं कि भजन-सिमरन के लिए की गई हमारी सभी नाकाम कोशिशों से वह ख़ुश हैं। इन कोशिशों का भी अपना महत्त्व है।
शायद हमें अपनी कोशिशों को अलग नज़रिए से देखना चाहिए। हम भजन-सिमरन इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि हमारे सतगुरु ने हमें ऐसा करने को कहा है और हम अपने सतगुरु की ख़ुशी चाहते हैं। इसलिए नहीं कि हमें कुछ हासिल करना है या किसी तरह की सफलता प्राप्त करनी है। हमें भरोसा है कि हर तरह का भजन-सिमरन, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, सतगुरु उससे हमारे कर्मों का भुगतान करवा रहे हैं; हमारे मोह के बंधनों को काट रहे हैं।
इसलिए हमें कोई माँग रखे बिना और विनती किए बिना, दीनता से उनके हुक्म का पालन करते हुए भजन-सिमरन करना चाहिए। भले ही हमें लगे कि भजन-सिमरन से हमारी तरक़्क़ी नहीं हो रही है फिर भी हमें उनका हुक्म मानकर बैठ जाना चाहिए।
कुछ और नहीं तो, भजन-सिमरन से कम से कम हमारा अहंकार तो समाप्त होता ही है। हमें विनम्र बनाने के लिए भजन-सिमरन से कारगर शायद ही कुछ और है! और आख़िरकार हम यह जान जाते हैं कि हमें कोई उम्मीद रखे बिना भजन-सिमरन करना चाहिए।
जीवत मरिए भवजल तरिए पुस्तक में महाराज जी के वचन हैं कि भले ही हमारा भजन-सिमरन अच्छा न हो, तो भी, इस समय हम जो हैं, उससे बेहतर बनने की प्रक्रिया में हैं। भजन-सिमरन द्वारा तथा उसकी मौज में रहने से, हम धीरे-धीरे अधिक निर्मल होते जाते हैं। विकास की यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक हम उसके नूरी स्वरूप में समाने के क़ाबिल नहीं बन जाते।
अपने आप को प्रभु के सुपुर्द कर दें। किसी से प्रेम करने का अर्थ है अपने आप को दे देना और बदले में कुछ भी पाने की आशा न रखना। अपने आप को दे देना, पूरी तरह से प्रभु को समर्पण कर देना, अपने आप को उसकी मौज पर छोड़ देना भी भजन ही है।…प्रेम में हमारी ‘मैं’ नहीं रहती। हम अपनेपन को खो देते हैं, समर्पित हो जाते हैं, परमात्मा की मौज में अपने आप को छोड़ देते हैं।…जितना ज़्यादा हम देते हैं, उतना ही हमारा प्यार बढ़ता है, उतना ही हम अपने आप को खोते हैं, उतना ही हम परमात्मा का रूप बनते जाते हैं।
जीवत मरिए भवजल तरिए