धर्मपरायणता का रथ
रामचरितमानस से उद्धरित
सोलहवीं शताब्दी में जब गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की तो उन्होंने अपना आध्यात्मिक संदेश देने के लिए प्राचीन महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि रामायण की रोचक कथा को इसका आधार बनाया। इस महाकाव्य में वर्णन किया गया है कि किस प्रकार परमात्मा ने श्रीराम के मानवीय रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया, एक राजकुमार के रूप में उनका लालन-पालन हुआ और सीता जी से उनका विवाह हुआ। इसमें श्रीराम के जीवन की सभी घटनाओं जैसे श्रीराम का वनवास, वन में रावण द्वारा सीता जी का अपहरण, सीता जी की खोज और सीता जी को मुक्त कराने के लिए रावण और उसकी राक्षस सेना के साथ युद्ध का विस्तृत वर्णन है।
भरद्वाज मुनि प्रयाग में स्थित अपने आश्रम में रहते थे। वह प्रभु राम के परम भक्त थे। एक बार उन्होंने प्रसिद्ध परम ज्ञानी और विवेकी ऋषि याज्ञवल्क्य के साथ कुछ समय बिताया।
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥
रावण लंका का राक्षसराज था…वह वेदों का महान पंडित था, सीता जी को पाने की लालसा के कारण वह अपना सारा विवेक खो बैठा।
विभीषण रावण के भाई थे, परन्तु उन्होंने श्रीराम को अपना आध्यात्मिक गुरु मान लिया।
श्रीराम और रावण के मध्य अंतिम युद्ध आरंभ होने वाला है, तुलसीदास जी उस रथ के बारे में बताते हैं जो विजय की ओर ले जाता है। वह यह दृष्टांत उन लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं जो आध्यात्मिक मुक्ति की तलाश करना चाहते हैं और अपने अंदर उन गुणों को विकसित करने की इच्छा रखते हैं जो मन के साथ लड़ाई जीतने के लिए आवश्यक हैं…फिर रावण अपने दिव्य रथ पर सवार हो गया जो वायु जैसी तेज़ गति से दौड़ सकता था।…
विभीषण युद्ध देखकर बहुत चिंतित हो रहे थे क्योंकि रावण अपने युद्धरथ पर सवार था और श्रीराम के पास कोई रथ नहीं था। प्रभु राम के प्रति अत्यधिक प्रेमवश उसके हृदय में संदेह पैदा हुआ और आगे बढ़कर उसने प्रणाम किया और कहा, “हे प्रभु! आप इस पराक्रमी योद्धा पर कैसे विजय प्राप्त करेंगे? आपके पास न ही कोई रथ है और न ही आपके पास शरीर के लिए कोई कवच और पाँवों की रक्षा के लिए जूते हैं।”
विभीषण की शंकाओं और भय का निवारण करने के लिए श्रीराम ने अपने मित्र से प्रेमपूर्वक कहा, “प्रिय मित्र ! सुनो, जो रथ विजय की ओर ले जाता है, वह अलग है।”
आप कहते हैं:
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥
अर्थात् वीरता और धैर्य इस रथ के दो पहिए हैं। सत्य और सदाचार का दृढ़ता से पालन इसकी ध्वजा और पताका हैं। इस रथ को बल, विवेक, आत्मानुशासन और परोपकार—ये चार घोड़े खींचते हैं जो क्षमा, करुणा और मन की समरसता की लगाम द्वारा नियंत्रित होते हैं। परमात्मा के प्रति भक्ति ही धर्मरथ* का बुद्धिमान सारथी है और वैराग्य इसकी ढाल है। संतोष इसकी कटार है, दान-पुण्य फरसा है, बुद्धि सबसे शक्तिशाली अस्त्र है और उच्चतम ज्ञान कठोर और न टूटने वाला धनुष है। निर्मल और स्थिर मन तरकश के समान है और शांति, आत्मसंयम और निर्धारित नैतिक सिद्धांतों और नियमों का पालन नुकीले बाण हैं। ज्ञानीजनों और अपने सतगुरु के प्रति श्रद्धा और भक्ति अभेद्य कवच की भाँति रक्षा करते हैं। विजय प्राप्त करने के लिए इन सब गुणों से अधिक प्रभावशाली और कुछ नहीं हो सकता। हे मित्र! जिसके पास धर्मपरायणता का ऐसा रथ है, उसका कहीं भी कोई शत्रु नहीं होता जिस पर उसे विजय प्राप्त करनी पड़े।
श्रीराम के प्रति बारंबार अपना प्रेम प्रकट करते हुए उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम को शीश नवाया।
तुलसीदास जी हमें बताते हैं कि हम केवल धर्मरथ यानी धर्मपरायणता के रथ पर सवार होकर ही विजय प्राप्त कर सकते हैं। यह रथ कोई बाहरी नहीं है बल्कि यह हमारे भीतर है।