सतगुरु की शरण लेना
हम कठिनाइयों से भरे संसार में रहते हैं, इसलिए हमें यहाँ मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसा समय भी आता है जब हमारे किसी अपने का निधन हो जाता है; जब हम किसी बीमारी से जूझ रहे होते हैं; या ऐसा लगता है कि हमारा परिवार टूटने जा रहा है। ऐसा दौर भी आता है जब हमें अपना परमार्थी जीवन नीरस प्रतीत होता है। हमें महसूस होता है कि किसी को हमारी परवाह नहीं है।
हम मानें या न मानें, हमें इन मुश्किल घड़ियों के लिए शुक्रगुज़ार होना चाहिए। महाराज चरन सिंह जी अक़सर फ़रमाया करते थे कि दु:ख वास्तव में छिपी हुई दया-मेहर है, क्योंकि ऐसे समय में हम परमात्मा के बहुत नज़दीक चले जाते हैं। चाहे यह सुनने में कड़वा लगे, परिवार में किसी का निधन, आर्थिक समस्याएँ, बीमारी या तिरस्कार, ये सभी उसकी दया की निशानियाँ हैं क्योंकि जो कुछ भी हमारा ध्यान परमात्मा की तरफ़ ले जाता है, वह दया है।
हमारे हिसाब से, एक अच्छे जीवन-साथी, आरामदायक घर, समृद्ध जीवन इत्यादि का प्राप्त होना ही दया-मेहर है। पर दया-मेहर के बारे में संतों की विचारधारा अलग है। महाराज जी के वचन हैं:
वह आपकी पत्नी, आपके बच्चे या आपके दोस्त को वापस बुला सकता है और आप इस रचना से उचाट होकर परमात्मा की तरफ़ रुख़ कर लेते हैं। हो सकता है कि परमात्मा संसार के मोह के बंधनों से बाहर निकालने के लिये आप पर दया-मेहर कर रहा हो, ताकि आपको इस संसार की असलीयत का ज्ञान हो जाये। यदि वह ऐसा न करे तो आपका ध्यान कभी उसकी ओर नहीं जायेगा। आप अपने प्रेम में, अपनी कामयाबियों और अपनी धन-दौलत में इतने ज़्यादा मग्न हो गये थे कि आप उसे बिलकुल ही भूल गये थे। यह उसकी दया-मेहर नहीं है। उसकी दया-मेहर तो वह है, जो आपको उसके पास वापस खींच ले और हो सकता है कि वह बहुत कड़वी दवा हो।
संत संवाद, भाग 1
दु:ख की घड़ी में हम सतगुरु के प्रति प्यार को अपना सहारा बनाकर अपना संतुलन क़ायम रख सकते हैं, फिर चाहे हमें ऐसा क्यों न लगे कि सतगुरु के लिए हमारा प्यार बहुत कम है या हमें सतगुरु से प्यार ही नहीं है।
ऐसा भी हो सकता है कि मुश्किलों का सामना करते हुए हम उसकी मौजूदगी और उसके प्रेम को महसूस न कर पाएँ। ऐसे समय में, हम उन लोगों से सुख की आशा रखते हैं, जो हमारे नज़दीक होते हैं। मगर हमारा अनुभव हमें सिखाता है कि मानवीय रिश्तों से सच्चे प्रेम की उम्मीद रखना मूर्खता है क्योंकि इनसानी प्रेम अस्थायी है। सतगुरु और शिष्य का प्यार ही चिरस्थायी है क्योंकि वास्तव में यह परमात्मा और आत्मा का आपसी प्रेम है।
हम इस तरह के प्यार को कैसे बढ़ा सकते हैं? महाराज जी, पुस्तक संत संवाद, भाग 2 में इसका बहुत स्पष्ट उत्तर देते हैं:“प्रेम में हम हमेशा देते ही देते हैं।… इसमें सिर्फ़ देना ही देना है।” प्यार का मतलब है देना, उस हद तक देना कि आपाभाव ही समाप्त हो जाए। वास्तव में हमें तो सिर्फ़ अपना समय और ध्यान देना है—रोज़ाना सिर्फ़ ढाई घंटे भजन-सिमरन का अभ्यास करना है। यह सतगुरु के प्रति हमारे प्यार और आभार को प्रकट करने का भाव है।
प्रश्न-उत्तर के लगभग हर कार्यक्रम में कोई न कोई सतगुरु के प्रति आभार ज़रूर प्रकट करता है। महाराज जी उनकी कृतज्ञता के इस भाव का उत्तर इन शब्दों में देते हैं:
दरअसल, हमारे पास उसका शुक्रिया अदा करने के लिये कोई शब्द ही नहीं हैं, जो कुछ भी मालिक या सतगुरु इस ज़िंदगी में हमारे लिये करते हैं, हम इस ज़ुबान से कभी उसका शुक्रिया कर ही नहीं सकते। हमारा पूरा जीवन और ये सब नियामतें परमात्मा की बख़्शिश से ही हैं। यह मनुष्य-जन्म उसकी दया-मेहर के अलावा और कुछ नहीं है।
संत संवाद, भाग 3
परमात्मा और सतगुरु की अपार दया-मेहर से ही हमें सब कुछ प्राप्त हुआ है। हम कुछ समय निकालकर, प्रेमपूर्वक भजन-सिमरन करने की कोशिश कर के सही मायने में उनका शुक्रिया अदा कर सकते हैं। हमारी इन्हीं कोशिशों से वे सबसे अधिक प्रसन्न होते हैं।
हुक्म में रहकर, भजन-सिमरन को पूरा समय देकर, अपने प्रारब्ध कर्मों का ख़ुशी-ख़ुशी भुगतान करना मुमकिन है। हो सकता है कि यह मुश्किल हो, मगर फिर भी यह मुमकिन है। हमें संतमत को अपने जीवन की बुनियाद बनाना पड़ेगा और भजन-सिमरन को अपनी हस्ती का सार। हमें भजन-सिमरन को प्राथमिकता देनी होगी, चाहे हम कर्मों के किसी भी दौर से क्यों न गुज़र रहे हों। एकाग्रचित्त होकर अभ्यास करने से हमारे दृष्टिकोण और व्यवहार में बदलाव आता है, जिससे हम बेहतर इनसान बनते हैं, जैसे कि हमारे सतगुरु चाहते हैं कि हम बनें। जैसे-जैसे हमारे अंदर ये बदलाव आते हैं, हमारा अहंकार कम होना शुरू हो जाता है और हमारा ध्यान ख़ुद के बजाय सतगुरु पर केंद्रित होता जाता है। अहंकार हमारी रूहानी उन्नति में मुख्य रुकावट है।
हउ जीवा नाम धिआए पुस्तक में अहंकार की तुलना समुद्र में तैर रही पानी से भरी काँच की बोतल से की गई है:
हम अपने आप को पानी समझने के बजाय बोतल समझ रहे हैं। जब बोतल किसी चट्टान के साथ टकराकर चूर-चूर हो जाएगी तो पानी, पानी में समा जाएगा। फिर हमारा अलग अस्तित्व कहाँ रह जाएगा? फिर एक क़तरा भी बाक़ी नहीं रहेगा और यह समुद्र में मिलकर समुद्र का रूप हो जाएगा।
अहंकार का नाश करके हमें एहसास होता है कि वास्तव में हम निर्मल चेतना और असीम प्रेम का रूप हैं। पर इस सत्य का अनुभव हमें तभी होता है जब हम अहंकार से मुक्त होकर परमात्मा-रूपी समुद्र में समा जाते हैं। इस अनुभूति में सिमरन की भूमिका बहुत अहम है, यह बहुत ज़रूरी है कि सिमरन सांसारिक विचारों का स्थान ले ले। इससे अहंकार पर विजय प्राप्त करने में मदद मिलती है, जिससे आत्मा सभी बंधनों से मुक्त हो जाती है। हमारा अहंकार ही हमें परमात्मा की शरण में जाने से रोकता है, जबकि परमात्मा हमें अपनी शरण में लेने के लिए तैयार है।
अहंकार को त्याग देना प्रेम का बुनियादी सिद्धांत है, जहाँ प्रेमी की इच्छाएँ प्रियतम की मरज़ी के अधीन हो जाती हैं और ख़ुदी प्रियतम में फ़ना हो जाती है। अहंकार के समाप्त होने पर सांसारिक बंधन ढीले पड़ जाते हैं, जिससे धीरे-धीरे आत्मा इस मायामय संसार से ऊपर उठकर प्रियतम में समा जाती है।
प्रभु-प्रेम के कारण विरह की तीव्र भावना के उत्पन्न होने से हो सकता है कि अध्यात्म का सच्चा जिज्ञासु कभी-कभी ख़ुद को बहुत अकेला महसूस करे। हालाँकि, हृदय में विरह की यह तीव्र भावना वह प्रार्थना है जो निरंतर चलती रहती है। इसी प्रार्थना के फलस्वरूप परमात्मा आत्मा को अपने नज़दीक ले आता है।
कितनी अजीब बात है, हम जितना उसके क़रीब जाते हैं, हमें लगता है कि वह हमसे उतना ही दूर है क्योंकि उसके लिए हमारी तड़प बढ़ती जाती है। पुस्तक किताब-ए-मीरदाद में जुदाई की इस तीव्र तड़प और महाविरह का वर्णन इस प्रकार किया गया है:
ज्वर के समान है यह महाविरह। जैसे शरीर में सुलगा ज्वर शरीर के विष को भस्म करते हुए धीरे-धीरे उसकी प्राण-शक्ति को क्षीण कर देता है, वैसे ही अन्तर की तड़प से जन्मा यह विरह मन के मैल तथा मन में एकत्रित हर अनावश्यक विचार को नष्ट करते हुए मन को निर्बल बना देता है।
एक चोर के समान है यह महाविरह। जैसे छिप कर अन्दर घुसा चोर अपने शिकार का भार तो कुछ हलका करता है, पर उसे बहुत दुखी कर जाता है, वैसे ही यह विरह गुप्त रूप से मन के सारे बोझ तो हर लेता है, पर ऐसा करते हुए उसे बहुत उदास कर देता है और बोझ के अभाव के ही बोझ तले दबा देता है।
पुस्तक के लेखक मिख़ाइल नईमी द्वारा महाविरह के बारे में किया गया यह वर्णन एक निराशाजनक तस्वीर प्रस्तुत करता है। मगर हमें निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि परमात्मा भी अपने भक्त के लिए तड़पता है। उसने स्वयं हमारे अंदर उसे जानने की और उसकी शरण लेने की तीव्र इच्छा—भूख—पैदा की है। इसलिए हम भजन-सिमरन करते हैं और जब हम भजन-सिमरन द्वारा उसके नज़दीक होते हैं तो उसका हृदय प्रसन्न हो जाता है।
हम इस सफ़र में अकेले नहीं हैं। जब हम ख़ुद को तनहा पाते हैं और परमात्मा को महसूस कर पाना मुश्किल होता है, तब भी सतगुरु सदा हमारे अंग-संग होते हैं। वह हमारा आश्रय और ताक़त हैं, जो मुश्किल के समय हमेशा मौजूद रहते हैं। वह हमारे लिए, हमसे भी कहीं अधिक उत्सुक हैं कि हम अपने इस रूहानी सफ़र में सफल हों। ज़िंदगी में हमारे सामने कई चुनौतियाँ आती हैं, मगर यदि हम ईमानदारी से भजन-सिमरन करते हुए, उनका हाथ थामे रखते हैं तो हमें हमेशा ही उनका आश्रय और सुरक्षा प्राप्त होगी।
जब एक सत्संगी ने महाराज चरन सिंह जी से कहा कि उसे बहुत डर लगता है कि वह सतगुरु के देहस्वरूप की मौजूदगी वाले माहौल को खो देगा, तो महाराज जी ने उनसे पूछा: “क्या आपको यक़ीन है कि जब मैं यहाँ मौजूद नहीं होता, तब मैं आपके साथ नहीं होता?” आपने आगे फ़रमाया:
अगर हम सिर्फ़ इतना जान लें और समझ सकें कि हम कभी अकेले नहीं होते, हमारा सतगुरु हमेशा हमारे साथ होता है, हम कभी उसके बग़ैर नहीं होते, तो हमेशा वही माहौल बना रहेगा। हम अपने आप को यह बताने की कोशिश करते हैं कि वह यहाँ नहीं है जब कि असल में वह यहाँ हमारे साथ होता है। इसलिये हमें बस यही यक़ीन होना चाहिये कि वह हमेशा हमारे साथ होता है।
संत संवाद, भाग 3