सत्संगी बनना
हमें नामदान की बख़्शिश हुए चाहे कुछ महीने या कई साल हुए हों, हम ख़ुद को सत्संगी समझने लगते हैं। हम सत्संगी बनने को अपनी पहचान का महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानने लगते हैं, इसका प्रभाव हमारी जीवन शैली पर पड़ता है। पर क्या हम सचमुच सत्संगी हैं? असल में सत्संगी होने का क्या मतलब है? साधारण लफ़्ज़ों में किसी रूहानी मार्ग पर चलनेवाले या किसी से दीक्षा प्राप्त करनेवाले को सत्संगी कहा जाता है, लेकिन इस शब्द का असल अर्थ इससे अलग और गहरा है। महाराज जगत सिंह जी इस बारे में विस्तार से समझाते हुए फ़रमाते हैं:
केवल नाम पा लेने से ही कोई सत्संगी नहीं बन जाता। सत्संगी को अपने जीवन को संतमत के साँचे में ढालना चाहिए। उसका हर एक विचार, वचन और कर्म संतमत के उसूलों के अनुसार होना चाहिए। कथनी से करनी ज़्यादा ज़रूरी है। विचारों की शक्ति तो और भी अधिक है। सत्संगी का रोज़ का जीवन और रहन-सहन बहुत साफ़ और ऊँचे दर्जे का होना चाहिए। उसकी रहनी से ही यह ज़ाहिर होना चाहिए कि वह पूरे सतगुरु का शिष्य है।
आत्म-ज्ञान
जब तक हम अंदर जाकर परमात्मा रूपी सच से, शब्द स्वरूपी सतगुरु से नहीं जुड़ जाते, तब तक हम सत्संगी नहीं हैं, हम सिर्फ़ जिज्ञासु हैं। शायद इससे हम अपनी पहचान को लेकर दुविधा में पड़ जाएँ, पर हममें से ज़्यादातर लोगों के बारे में यह बात बिलकुल सच है। हम जानते हैं कि हमारा अनुभव कितना सीमित है, ज़्यादा से ज़्यादा हम अपने आप को सत्संगी बनने के इच्छुक कह सकते हैं। ऐसा कहने में कोई बुराई नहीं है। सतगुरु हमें समझाते हैं कि अगर हम अपनी पूरी ज़िंदगी खोज में लगा दें, तो भी यह समय को व्यर्थ गँवाना नहीं है। सच की खोज में बिताया जीवन ही सार्थक है। खोज करने से हम आगे बढ़ते हैं, हम किसी लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। एक जिज्ञासु किसी ऐसी चीज़ को खोजने का यत्न करता है जो खो गई है या जो उसकी पहुँच से परे है। हम सब तो उस परम सत्य की खोज में निकले हैं। हम अपने भीतर परमात्मा की आवाज़ – शब्द – के बारे में पूर्ण रूप से जागरूक होना चाहते हैं। हम परमात्मा की पहचान करना चाहते हैं।
जिज्ञासु के विपरीत वह व्यक्ति है जिसने पा लिया है। पानेवाला वह है जिसे खोज के बाद कुछ हासिल हो जाता है। इसीलिए करनी पर बल दिया जाता है। कुछ पाने के लिए खोज करनी पड़ती है और अगर हम खोज करते हैं तो यक़ीनन पा लेते हैं। सतगुरु हमें विश्वास दिलाते हैं कि जिस परम सत्य की खोज में हम निकले हैं, उसे हम ज़रूर अनुभव कर लेंगे क्योंकि सच तो यह है कि वह हमारे भीतर ही है। हमें केवल अपने ध्यान को अंतर्मुख करके अनुभव करने और जो पहले से ही हमारा है उसके बारे में जागरूक होने की ज़रूरत है।
खोज का एक अहम हिस्सा इस बात को स्वीकार करना है कि हम भटक गए हैं और चाहते हैं कि कोई हमें मार्ग दिखाए। फिर हमें किसी ऐसे व्यक्ति की मदद लेनी चाहिए जिसने पहले से ही उस सत्य की खोज कर ली हो। सतगुरु परमात्मा के घर के मार्ग के जानकार हैं और अब उनका कार्य इस सफ़र में हमारी मदद और मार्गदर्शन करना है। हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी सतगुरु की ज़रूरत के बारे में समझाते हुए फ़रमाते हैं:
लोगों की रहनुमाई करने, उन्हें समझाने, उनसे हमदर्दी दिखाने, उनसे प्रेम करने, उनमें विश्वास और भरोसा पैदा करने, उनमें अपने अन्दर शान्ति और आनन्द की तलाश का शौक़ पैदा करने, उन्हें रास्ता दिखाने, उन्हें एक मिसाल बनकर समझाने, उनमें दैवी गुण पैदा करने और उन्हें इस स्थूल शरीर से निकालकर सूक्ष्म शरीर में ले जाने के लिए गुरु इनसानी चोला धारण करता है।
परमार्थी पत्र, भाग 2
सतगुरु इंसानी जामे में इसलिए आते हैं ताकि हम उनके साथ रिश्ता जोड़ सकें। वह भी जीवन के उन्हीं अनुभवों से गुज़रते हैं जिन से हम गुज़रते हैं जैसे बचपन, शिक्षा, विवाह, बच्चों का पालन-पोषण, बीमारियों से जूझना ताकि हमें सिखा सकें। हमें इस संसार रूपी भवसागर में फँसा हुआ देखकर जब वह हमसे सहानुभूति दिखाते हैं तब हम उन्हें अपना दोस्त मानने लगते हैं। जैसे-जैसे गुरु और शिष्य का रिश्ता गहरा होता है, हम उन्हें और अधिक जानना चाहते हैं। हम जानना चाहते हैं कि वह असल में कौन हैं, हम उनके बताए रास्ते पर चलना चाहते हैं और उनकी मौजूदगी और प्यार का अनुभव करना चाहते हैं।
चूँकि हमारा दायरा सीमित है, मन और शरीर हमें भ्रमों में डालकर उलझाए रखते हैं। हमें मदद की ज़रूरत है। हमें सच्चे देहधारी सतगुरु की रहनुमाई की ज़रूरत है ताकि हम शिष्य बनना सीख सकें। एक सच्चे देहधारी सतगुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करना शिष्य के लिए सबसे बड़ा सौभाग्य है। सतगुरु की दया-मेहर से ऐसे हालात बन जाते हैं जो हमें उनके पास ले जाते हैं। सही समय आने पर हमारा उनसे मिलाप हो जाता है। उनकी खोज करना और उनका मिल जाना क़िस्मत में लिखा होता है। हम वे चुनी हुईं (marked) आत्माएँ हैं जो इस इंतज़ार में हैं कि सतगुरु ख़ुद हमें यह यक़ीन दिलाएँ कि वह हमारे लिए आए हैं। वह भटके हुए हम जीवों को रास्ता दिखाते हैं। वह हमें नामदान बख़्शकर उस मार्ग पर डाल देते हैं जिस पर चलकर हम यक़ीनन निज-घर परमात्मा के पास वापस पहुँच सकते हैं।
सतगुरु हमें रूहानी अभ्यास के लिए लगातार प्रेरित करते रहते हैं। वह नहीं चाहते कि हम सिर्फ़ उनके कहने पर भरोसा रखकर बैठे रहें, बल्कि वह चाहते हैं कि हम ख़ुद उस सच्चाई का अनुभव करें। वह चाहते हैं कि हमें सच्ची और शाश्वत ख़ुशी प्राप्त हो, जो केवल अंदर से ही मिल सकती है। जैसा कि हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी अपनी पुस्तक संत संवाद, भाग 1 में समझाते हैं, “मालिक की दया-मेहर और बख़्शिश से ही शिष्य सतगुरु के पास खिंचा चला आता है, सतगुरु उसे नामदान की बख़्शिश कर देते हैं और इस तरह वह मालिक के पास वापस पहुँचने के लिये भजन-सिमरन में लग जाता है।”
अब यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम परमात्मा के पास वापस लौटने के लिए करनी करें। जीवन में कुछ भी बिना प्रयास के नहीं मिलता। संतमत करनी का मार्ग है जिसमें अनुशासन और हुक्म का पालन करना ज़रूरी है। जीवन-भर भजन-सिमरन करने के लिए आध्यात्मिक जीवन जीना बहुत ज़रूरी है। इसका मतलब है कि हमें संसार में फैले अपने ध्यान को बाहर से हटाकर अंतर में परमात्मा की तरफ़ मोड़ना है। हमें अभ्यास की एक ऐसी विधि समझाई जाती है जिसमें सिमरन अर्थात् सतगुरु की शक्ति से भरपूर पाँच पवित्र नामों का जाप और भजन यानी तीसरे तिल पर परमात्मा की आवाज़ – शब्द – को सुनना शामिल है। सिमरन द्वारा अपने ध्यान को आँखों के पीछे एकाग्र कर लेने पर आत्मा को रूहानी शक्ति प्राप्त हो जाती है क्योंकि हम सत्य का अनुभव करने की कोशिश कर रहे होते हैं। वह सत्य ‘शब्द’ है, परमात्मा की दिव्य-ध्वनि जो पूरी सृष्टि में गूँज रही है।
शब्द ही वह धुनात्मक मार्ग है जो हमें वापस निज-घर ले जाता है। यद्यपि यह सदा हमारे भीतर गूँजता रहता है, मगर हम इसे सुन नहीं पाते। दुनिया के शोर-गुल और उससे भी कहीं अधिक अपने मन की बक-बक के कारण हमारा ध्यान फैला हुआ है। एकाग्र होकर भजन-सिमरन करना ही इस मधुर ध्वनि को सुनने का एकमात्र ज़रिया है।
जब हम सिमरन के ज़रिए मन को शांत और एकाग्र कर लेते हैं, तब हम धीमी से धीमी आवाज़ को भी सुनने की कोशिश करते हैं जो हमें निज-घर परमात्मा के पास पहुँचाने में मदद करती है। संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि वह शब्द-धुन हमेशा हमारे साथ है लेकिन हम बाहरी आवाज़ों को सुनने के इतने आदी हो चुके हैं कि हम अपने चारों तरफ़ और भीतर गूँजनेवाली इस मीठी और सूक्ष्म आवाज़ को पहचान नहीं पाते। अगर हम स्थिर होकर इसे सुनने की कोशिश करते रहेंगे तो एक न एक दिन इसे सुनने में सफल ज़रूर होंगे और यह हमें वापस निज-घर की ओर ले जाएगी।
चुनाव हमें करना है। हम या तो एक सच्चे शिष्य बनने के लिए इस रूहानी सफ़र को तय करना चुन सकते हैं या मन के कहने में आकर सदा के लिए इसी रचना से बँधे रह सकते हैं। सत्संगी होने के नाते हमारे पास यह मौक़ा है कि हम मन के धोखे में फँसे रहने के बजाय सत्य के रास्ते पर चलनेवाले शिष्य बनें। इस सफ़र में विरह की ख़ास भूमिका है; इसी की वजह से हम अधिक प्रयास करते हैं और सत्संगी बनने और सत्य को जानने की इच्छा हमें मार्ग पर आगे बढ़ाती है।
ध्यान देनेवाली बात यह है कि सतगुरु हमारी कमियों-कमज़ोरियों की तरफ़ बिलकुल भी ध्यान नहीं देते हैं। जिसे हम अपनी असफलता समझते हैं, उसे वह हमारी कोशिश के रूप में देखते हैं। सतगुरु हमें हमारे असल स्वरूप यानी एक आत्मा के रूप में देखते हैं जो मानव जीवन का अनुभव करती हुई सच्ची शिष्य बनने की कोशिश कर रही है। हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी ने पुस्तक परमार्थी पत्र, भाग 2 में लिखा है “सन्तजन अभ्यासियों की आत्मा को देखते हैं, न कि उनके मन और शरीर को और यही वजह है कि सन्त कभी जीवों से निराश नहीं होते।” सतगुरु सिर्फ़ इतना ही चाहते हैं कि हम निरंतर कोशिश करते रहें।
यह सफ़र धीरे-धीरे तय होता है और इसे तय कर पाना असंभव लग सकता है पर सतगुरु हर शिष्य को जीवन के हर पड़ाव पर प्रोत्साहित करते हैं। उन्हें हम पर विश्वास है और वह हमें धैर्यपूर्वक निज-घर की तरफ़ बढ़ते हुए देखते हैं। भजन-सिमरन द्वारा हम धैर्यपूर्वक, दृढ़ता व लगन से निरंतर प्रयास करते हुए मन को क़ाबू कर लेते हैं और मन पर पड़े जन्म-जन्मांतर के संस्कारों के गहरे प्रभाव मिटने शुरू हो जाते हैं। इस तरह हम अपने ध्यान को परमात्मा की तरफ़ मोड़ लेते हैं। हमारे अंदर से सतगुरु का नूर चमकने लगता है और इस नूर का अनुभव करने के लिए प्यार और मेहनत करने की ज़रूरत है। हम अकसर प्रेम और मेहनत के बारे में एकसाथ नहीं सोचते पर जब कोई सचमुच निस्स्वार्थ भाव से हमारे लिए कुछ करे तो हम कह देते हैं, “यह तो असल में प्यार से की गई मेहनत थी।”
बड़े महाराज जी फ़रमाया करते थे कि दो रास्ते हैं – समर्पण का रास्ता और अभ्यास का रास्ता। आप फ़रमाया करते थे कि इन दोनों में से अभ्यास का रास्ता आसान है। चूँकि भजन-सिमरन हमें समर्पण की ओर ले जाता है इसलिए हमें इस कठिन मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चलते रहना चाहिए। बेशक यह रास्ता आसान नहीं है, हम सब कुछ भूलकर सहज होकर भजन-सिमरन के इस उपहार का आनंद ले सकते हैं। समय आने पर हमारी यह कोशिश हमें समर्पण की ओर ले जाएगी। संत-सतगुरु हमें बार-बार यही समझाते हैं कि चलते रहो, अपनी तरफ़ से हमेशा पूरी कोशिश करो, थोड़ा और अधिक प्रयास करो जब तक कि पूर्ण समर्पण की अवस्था प्राप्त न हो जाए। जब हम समर्पण कर देते हैं तो वह हमें उस रूहानी ख़जाने से भरपूर कर देते हैं, जिसे वह हमारे लिए सँभाले हुए थे।
फिर हमें अपने अंदर परमात्मा के सच्चे प्रेम का अनुभव होता है। हमारा काम उन्हें खोजना, उनके हुक्म का पालन करना, अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करना, उनसे प्रेम करना और उनका सच्चा शिष्य बनना है। सतगुरु ने हमसे वायदा किया है कि हम अंदर जाने में सफल ज़रूर होंगे। जब हम एक बार उस आंतरिक प्रेम का अनुभव कर लेंगे तब हम सचमुच सत्संगी बन जाएँगे।