जीवन की दिव्य एकता
रूहानी मार्ग पर चलते हुए हम अकसर अपने जीवन के बारे में समझने के लिए बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं। हमारी बुद्धि चीज़ों को वर्गों और श्रेणियों में बाँटती है। हम बुद्धि द्वारा चीज़ों को जाँचते हैं, परखते हैं और हर बात की वजह ढूँढ़ते हैं। असल में स्कूल में भी यही बातें हम अपने बच्चों को सिखाते हैं। हालाँकि ये हुनर पढ़ाई और कामकाज में तो बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं, लेकिन जब हम इन्हें रूहानियत में ले आते हैं तब ये प्राय: हमारे मार्ग में बाधा बन जाते हैं।
रूहानी मार्ग पर चलते हुए हम जीवन को श्रेणियों में बाँट लेते हैं। हम सोचते हैं कि या तो हम “मार्ग पर हैं” या “मार्ग से भटक चुके हैं।” हम ख़ुद को या तो “अच्छा सत्संगी” मानते हैं या “बुरा सत्संगी” और सोचते हैं कि क्या हमारा ध्यान तीसरे तिल पर है या दुनिया में फैला हुआ है। हममें से बहुत-से लोग ख़ुद को अच्छा सत्संगी तभी मानते हैं अगर वे सत्संग में जाते हैं, सेवा करते हैं, रोज़ ढाई घंटे भजन-सिमरन करते हैं और संतमत की ज़्यादा से ज़्यादा किताबें पढ़ते हैं। अगर हम अपने ख़ाली समय में संत-महात्माओं की बानी के शब्द सुनते हैं तो हम ख़ुद को और भी अच्छा समझने लगते हैं। लेकिन अगर हम सत्संग में नहीं जाते हैं, सेवा नहीं करते हैं या हर रोज़ पूरा समय भजन-सिमरन को नहीं देते हैं, तो ख़ुद को बुरे सत्संगी की श्रेणी में ले आते हैं। हमें दूसरों को भी श्रेणियों में बाँटने की आदत है कि उन्हें नामदान मिल चुका है या नहीं – वे “जिज्ञासु” हैं या दीक्षित।
हम सेवा करनेवालों को भी श्रेणियों में बाँट देते हैं जैसे ऊँचे दर्जे के या सतगुरु के क़रीबी सेवादार या नीचे दर्जे के सेवादार जिनकी सेवा हमारे हिसाब से उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसके अलावा हम उसी कार्य को सेवा मानते हैं जो सत्संग, डेरा से जुड़ा हो या “जिसका संबंध संतमत से हो।”
हालाँकि सतगुरु हमें इस नज़रिए से नहीं देखते। वह इस दुनिया में हमारी परख करने, हमें नीचा दिखाने या बाँटने के लिए नहीं आए हैं। वह हमें अच्छे या बुरे, भजन-सिमरन करनेवाले या भजन-सिमरन नहीं करनेवाले, ऊँचे सेवादार या निम्न दर्जे के सेवादार जैसी श्रेणियों में नहीं बाँटते। रूहानी मार्ग पर ऐसी सोच और इस तरह के वर्गीकरण हमारे दायरे को सीमित कर देते हैं इसलिए ये लाभदायक नहीं होते। सतगुरु हमें रूहानी जीवों के रूप में देखते हैं जो इस दुनिया में संघर्ष कर रहे हैं। वह प्रेम और दया का संदेश देते हैं।
संत पलटू साहिब के वचन हैं:
संत बराबर कोमल दूसर को चित नाहिं॥
दूसर को चित नाहिं करैं सब ही पर दाया।
हित अनहित सब एक असुभ सुभ हाथ बनाया॥
कोमल कुसुमी चाह नहीं सुपने में दूषन।
पलटू साहिब
यह सच है कि इस दुनिया में सतगुरु जैसा कोई नहीं है। हालाँकि कई बार सतगुरु को हमारे साथ सख़्ती से पेश आना पड़ता है या फिर हमें वह सख़्त लग सकते हैं, लेकिन उनका मक़सद हमेशा हमारी सँभाल करना, हमें प्रोत्साहित करना और हमें हमारे दिव्य-घर जाने का मार्ग दिखाना होता है। वे हमारी गलतियों को नहीं देखते, बल्कि हमारे सामर्थ्य को देखते हैं। संत-महात्मा सब की भलाई चाहते हैं, वे करुणामय, कोमलचित्त और दया का रूप होते हैं।
हुज़ूर बड़े महाराज जी परमार्थी पत्र, भाग 2 में फ़रमाते हैं: “वे हमेशा हमारे साथ हैं – हमारे अन्दर हैं – और हमारी उसी तरह निगरानी करते हैं जैसे माँ अपने बच्चों की। जब तक हम तीसरे तिल के नीचे बैठे हैं तब तक हम उन्हें यह काम करते नहीं देख पाते। पर वे सदा अपना फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं।”
हम अपने रूहानी सफ़र को संकीर्ण नज़रिए से देखते हैं, इसलिए हम उस कोमलता को महसूस नहीं कर पाते जिस कोमलता से सतगुरु हमारी सँभाल करते हैं। हम उन्हें वह सब करते हुए नहीं देख पाते क्योंकि हम मन द्वारा बनाए इन तंग दायरों में ही उलझे रहते हैं। यहाँ तक कि हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जानेवाले शब्दों जैसे सेवा, सेवादार और सत्संग के अर्थ भी सीमित हैं। अगर हम निस्स्वार्थ भाव से किसी की मदद कर रहे हैं तो हम सेवा कर रहे हैं और हम सेवादार हैं। यदि हम रूहानियत के बारे में चर्चा कर रहे हैं या परमार्थ से जुड़ रहे हैं तो हम सत्संग कर रहे हैं।
बाइबल के न्यू टेस्टामेंट में बुक ऑफ़ कुरिन्थिअन्ज़ में असीम प्रेम की परिभाषा दी गई है:
प्रेम धैर्यवान है, प्रेम दयालु है। यह ईर्ष्या नहीं करता, शेखी नहीं बघारता, अभिमानी नहीं होता। यह अशिष्ट नहीं होता, स्वार्थी नहीं होता, क्रोध नहीं करता और ग़लतियों का हिसाब नहीं रखता। प्रेम बुराई में नहीं, बल्कि सत्य में प्रसन्न होता है। यह हमेशा सुरक्षा प्रदान करता है, हमेशा विश्वास करता है, हमेशा सकारात्मक होता है और हमेशा क़ायम रहता है। प्रेम कभी विफल नहीं होता।
सतगुरु हमारी ग़लतियों का हिसाब नहीं रखते। वह हमें श्रेणियों में नहीं बाँटते। वह सदा हमारा साथ देते हैं, हम पर भरोसा रखते हैं और उम्मीद करते हैं कि हम अपने सच्चे घर की ओर रुख़ कर लेंगे। वह दयालु और धैर्यवान हैं। वह इस संघर्ष में हमारी मदद करने से कभी पीछे नहीं हटते। जैसा कि हुज़ूर बड़े महाराज जी परमार्थी पत्र, भाग 2 में फ़रमाते हैं:
मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आपको संघर्ष करना है। कुछ रुकावटें आपके अन्दर हैं जिन्हें पार करना है और कुछ रुकावटें बाहरी हैं जिन्हें क़ाबू में लाना है, लेकिन आप यह सब काम कर सकते हैं। अगर आपको अन्दर गुरु में पूरा विश्वास है तो वह आपको हमेशा मदद देगा और अकसर जब आपके सामने सबसे ज़्यादा मुश्किल होगी और घोर अँधेरा होगा, तब आप देखेंगे कि आपके सामने प्रकाश आ जायेगा और आप मुश्किलों से आज़ाद हो जायेंगे। किसी भी कारण से निराश न हों।
सतगुरु कई वर्षों से हमसे कहते आए हैं कि हमें अपनी सोच के दायरे को खोलने की ज़रूरत है। जब हम ऐसा कर लेते हैं और वर्गों और श्रेणियाँ से आगे बढ़ जाते हैं, तो हमारा मन धीरे-धीरे शांत होने लगता है और सहज ही अंतर की ओर मुड़ने लगता है। जैसे-जैसे हमें प्रेम की मिठास का अनुभव होने लगता है, हम सतगुरु की दया-मेहर, महानता और विनम्रता का गुणगान करने लगते हैं। आख़िरकार हम रचयिता के और ज़्यादा शुक्रगुज़ार होते हैं जिसने हमें सब कुछ दिया है और हमें सभी जीवों में दिव्य एकता दिखाई देने लगती है।