मनुष्य होना ही सबसे बड़ा उपहार है
मनुष्य-जन्म में हमें परमात्मा की खोज करने और उसे जानने का अवसर मिलता है। आदिकाल से ही जीवन के मायने, सौंदर्य और ईश्वर की खोज हमें बेचैन कर रही है। हमने हर युग में इस प्यास को धर्म, देवी-देवताओं की कथा-कहानियों और दंत-कथाओं व दिव्य-पुरुषों के यशोगान द्वारा बुझाया। उस दिव्यता से मोहित होकर हम दिव्य लोकों की ओर देखते हैं और हमें अपनी कमियों-कमज़ोरियों का एहसास होता है फिर हम सहज ही परमात्मा की तरफ़ रुख़ कर लेते हैं।
संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि जिस परमात्मा की हम खोज कर रहे हैं, वह हमारे इसी शरीर के भीतर है जिसमें हम रहते हैं, स्वाँस लेते हैं और जिससे हम प्यार करते हैं। वे बताते हैं कि यह मनुष्य जीवन अनमोल है क्योंकि इसी के द्वारा हम मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी सन्तमत दर्शन में फ़रमाते हैं:
मनुष्य-जन्म चौरासी लाख योनियों के बाद, मालिक की अति दया-मेहर और बख़्शिश से मिलता है। यह हमें परमात्मा की कृपा से मिला है ताकि इस मौक़े का लाभ उठाकर, उसकी भक्ति करके मुक्त होकर इस संसार के सब दु:खों से छुटकारा पा लें। मनुष्य जीवन इस जेलख़ाने से निकलने का एक-मात्र साधन है।
फिर भी, हम ऐसे विचरते हैं जैसे हमें यह पता ही न हो कि हमारे पास कितनी अनमोल दात है। हमारे हाथ में जीवन रूपी अमूल्य रत्न है, मगर फिर भी हम संसार के मायामय शक़्लों और पदार्थों को हासिल करने में इसे व्यर्थ गँवा देते हैं।
अमेरिकी कवियित्री मेरी ऑलिवर अपनी कविता “द समर डे” में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछती हैं:
मुझे बताओ, तुम क्या करने वाले हो
अपनी एक ही अद्भुत और अनमोल ज़िंदगी के साथ?
हम इस अद्भुत और अनमोल ज़िंदगी में मनुष्य-शरीर रूपी उपहार का उपयोग कैसे करेंगे? यह सोचने का विषय है, क्योंकि हम रोज़मर्रा की तुच्छ प्राप्तियों के लिए अपना जीवन खो देते हैं। संत-महात्मा समझाते हैं कि अनगिनत जन्म लेकर हर योनि में पैदा होने के बाद, मनुष्य के रूप में इस संसार में वापस आने का सौभाग्य मिलने पर ही हमें अपने उद्देश्य को पूरा करने का अवसर प्राप्त होता है। इस मनुष्य-जन्म में हम अपने मूल स्रोत में वापस समा जाने की कोशिश कर सकते हैं, जहाँ वापस लौटने के लिए हमारी आत्मा तड़पती है।
फ़ारसी कवि हाफ़िज़ अपनी कविता “ए कुशन फ़ॉर योर हेड” में हमारी इस दयनीय स्थिति जो कि परमात्मा से जुदाई है जिसे वह दुनिया का सबसे कठिन कार्य कहते हैं, पर गहरी सहानुभूति प्रकट करते हुए हमें सुकून देने के लिए फ़रमाते हैं:
अभी के अभी सिर्फ़ वहीं बैठ जाओ,
कुछ मत करो,
सिर्फ़ आराम करो।
ख़ुदा से तुम्हारी जुदाई,
उस महबूब से तुम्हारा बिछुड़ना,
इस दुनिया का सबसे कठिन काम है।
मुझे तुम्हारे लिए खाने की थालियाँ लाने दो
और तुम्हारे पीने के लिए कुछ ऐसा
जो तुम्हें पसंद हो।
तुम मेरे इन कोमल शब्दों का इस्तेमाल
अपने सिर के नीचे
तकिए की तरह कर सकते हो।
द गिफ़्ट: पोइम्ज़ बाय हाफ़िज़, द ग्रेट सूफ़ी मास्टर
स्पष्ट है कि आत्मा अपने स्रोत से बिछुड़ जाने के कारण दु:खी रहती है। इसे अकेलापन महसूस होता है, इसे कभी शांति नहीं मिलती, क्योंकि अपने इर्द-गिर्द की जिन चीज़ों से यह ख़ुशी पाना चाहती है वे सब निरंतर बदल रही हैं।
बी ह्यूमन दैन डिवाइन नामक पुस्तक में लेखक प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो के उस विचार का उल्लेख करते हैं जिसे वह “पंखों का पुन: उगना” कहते हैं। इस विचार के अनुसार, आत्मा के पास पहले पंख हुआ करते थे और वह “दिव्य लोक में स्वतंत्र होकर उड़ान भरती थी,” लेकिन दी गई दातों की क़द्र न करने के कारण आत्मा ने अपने पंख खो दिए और यह पृथ्वी पर गिर गई। अब, माया के जाल और स्थूल शरीर के पिंजरे में फँसी होने के कारण यह निरंतर ऊपर देखती है और अपने निज-घर जाना चाहती है।
द तिब्बतन बुक ऑफ़ द डेड पुस्तक में प्राचीन बौद्ध धर्म-ग्रंथ हमें हमारे असल स्वरूप की याद दिलाते हैं: “हे उच्च कुल में जन्मे, हे गौरवशाली मूल के जीव, अपने वास्तविक प्रकाशमय स्वरूप को याद कर, जो मन का निज स्वरूप है। इस पर भरोसा कर। इसकी तरफ़ वापस लौट आ। यही हमारा घर है।” दुर्भाग्यवश, हम अपने निज-घर को भूल गए हैं। लेकिन हमारे सतगुरु हमें उसकी याद दिलाने के लिए आए हैं।
अपने स्रोत की ओर लौटने के इस सफ़र में हमें कहीं दूर नहीं जाना पड़ता। वापसी का रास्ता हमारे अंदर ही है और हमारे सतगुरु हमें समझाते हैं कि इस पर कैसे चलना है। यह बहुत ही सरल है; इसके लिए न तो भौतिक या मानसिक उपलब्धियों की ज़रूरत है, न ही ब्रह्मांड की जटिलताओं को समझने या सुलझाने की। हमें बस एकांत में बैठकर ख़ामोशी से पाँच पवित्र नामों का जाप करना है। यह हमारे रूहानी अभ्यास का सिमरन वाला भाग है, जिसमें हम पवित्र नामों को निरंतर दोहराते हैं, जो हमें संसार से उपराम होने में मदद करता है। अपनी रूहानी साधना के भजन वाले हिस्से में हम अपने अंदर शब्द-धुन सुनने की कोशिश करते हैं।
सन्तमत दर्शन पुस्तक में हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी हमें इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग करने की प्रेरणा देते हैं:
हमें अपने ख़्याल को शरीर की ओर से हटाना चाहिये। हमारा लक्ष्य केवल सुख-सुविधाएँ हासिल करना नहीं है, बल्कि शरीर के अन्दर सबसे अनमोल वस्तु–शब्द धुन–को खोजकर उससे जुड़ना है। तभी हम मनुष्य-जन्म का उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। मनुष्य-जीवन का महत्त्व हमें अच्छी तरह समझना चाहिये। पुण्यों और श्रेष्ठ कर्मों के फलस्वरूप हमें मनुष्य-जन्म मिला है। इस जीवन को व्यर्थ के काम-धन्धों में गँवाना ठीक नहीं।
इंसान होने के नाते हमें विवेक दिया गया है भाव सही और गलत में फ़र्क़ करने का सामर्थ्य जो हमें सत्य और अच्छाई की ओर ले जाता है। इसी विवेक के साथ हम यह चुनाव करते हैं कि हम अपने जीवन में आनेवाली चुनौतियों का सामना कैसे करेंगे, किस चीज़ को स्वीकार करेंगे, किस चीज़ को जाने देंगे और अपनी शक्ति किस तरफ़ लगाएँगे। सतगुरु हमें याद दिलाते हैं कि हमें अपनी ज़िंदगी को व्यर्थ के कार्यों में बरबाद नहीं करना चाहिए और अपनी प्राथमिकताओं को तय करना चाहिए कि हमारे लिए सबसे ज़रूरी क्या है और किस चीज़ पर ध्यान देना है। किन गतिविधियों को छोड़ देना है और कौन-सी चिंताओं को छोड़ना है, ताकि हम अपना भजन-सिमरन अधिक सजग होकर और पूरा ध्यान लगाकर कर सकें?
अगर हम डगमगा जाएँ और भजन-सिमरन से चूक जाएँ या इसे पूरे ढाई घंटे न दे पाएँ, तो हमें शिद्दत से पुन: प्रयास करना चाहिए। कल हम फिर से नई शुरुआत कर सकते हैं, ख़ुद को यह याद दिलाते हुए कि अगर हम दृढ़ लगन से प्रयास करें, तो हमें सफलता ज़रूर मिलेगी।
मनुष्य-जन्म के महत्त्व को समझते हुए, हम अपने जीवन, अपनी आत्मा और अपने सतगुरु के साथ एक वायदा करते हैं कि हम अपने हर दिन और हर स्वाँस को अपनी ज़िंदगी के मक़सद को पूरा करने में लगाएँगे।
यह सब हम धन-दौलत इकट्ठी करके या दुनिया में नाम-शोहरत कमाकर नहीं बल्कि अपने भजन-सिमरन, अपने सतगुरु और शब्द के लिए समर्पित होकर करेंगे।
मनुष्य होना ही सच्चा उपहार है। इसके ज़रिए ही हम प्रेम को जान सकते हैं; रो सकते हैं, हँस सकते हैं और करुणा महसूस कर सकते हैं; और प्रकृति की अनुपम सुंदरता की सराहना कर सकते हैं। इस सब से बढ़कर, हम अपने सतगुरु के प्रेम को जान सकते हैं, उस अभ्यास को कर सकते हैं जो वह हमें सिखाते हैं और अपने निज-घर लौट सकते हैं। इससे बढ़कर कोई अन्य नियामत नहीं है।