सबसे ज़बरदस्त परिवर्तन
क्या हमने कभी अपने गिरेबान में झाँका है और हैरान होकर यह सोचा है कि हम कैसे कभी इतने निर्मल बन पाएँगे कि रचयिता के शब्द के निर्मल प्रकाश और ध्वनि में लीन हो सकें क्योंकि हम तो सांसारिक इच्छाओं, आलस्य, बुरी आदतों और प्रलोभनों से भरे हुए हैं। सौभाग्य से, हम अपने सतगुरु के पास जाकर अपना खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से पा सकते हैं और अपनी इच्छाओं को नई दिशा देकर अपने दिव्य स्वरूप को खोजने की कोशिश कर सकते हैं। अपने आलस्य को प्रकाश में बदलने की संभावना से हमारे भरोसे और आत्म-विश्वास को नई गति मिलती है।
इस भौतिकता और आलस्य से निकलकर प्रकाश और ध्वनि के मंडलों में पहुँचने की हमारी यात्रा आधुनिक विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण खोज से मिलती-जुलती है। आइंस्टीन से पहले भौतिक विज्ञान में पदार्थ (द्रव्यमान) और ऊर्जा को अलग-अलग माना जाता था। लेकिन उनके सूत्र E=mc² (ऊर्जा= पदार्थ × प्रकाश की गति का वर्ग) ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रकृति में पदार्थ और ऊर्जा की समानता है। उन्होंने पदार्थ और ऊर्जा के संबंध के बारे में इनसान की सोच को पूरी तरह से बदल दिया। दरअसल, उन्होंने बताया कि पदार्थ भी ऊर्जा ही है और पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है।
सबसे बुनियादी स्तर पर आइंस्टीन का सूत्र यह बताता है कि ऊर्जा और पदार्थ एक-दूसरे में बदले जा सकते हैं; वे एक ही तत्त्व के दो अलग-अलग रूप हैं। सही परिस्थितियों में ऊर्जा को पदार्थ में और पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है। लेकिन हम लोग इसे इस तरह नहीं देखते – आख़िर कैसे प्रकाश की एक किरण और फ़र्नीचर जैसे कि मेज़ एक ही चीज़ के विभिन्न रूप हो सकते हैं? यह समझ पाना मुश्किल है, लेकिन सच तो यह है कि अगर एक छोटी-सी पिन को पूरी तरह ऊर्जा में बदल दिया जाए, तो उसमें उतनी ही शक्ति होगी जितनी हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम में थी।
इसी तरह, जब हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा शुरू करते हैं, तो हमें संदेह होता है कि इतनी सारी सांसारिक इच्छाओं के साथ यह स्थूल शरीर उन ऊँचे मंडलों तक कैसे पहुँच सकता है जिनकी चर्चा संत-महात्मा करते हैं। लेकिन जैसे कि आइंस्टीन ने प्रमाणित किया कि स्थूल पदार्थ कोई स्थायी चीज़ नहीं है और उसे ऊर्जा में बदला जा सकता है तथा इसी तरह ऊर्जा को स्थूल पदार्थ में बदला जा सकता है, वैसे ही सतगुरु – जो रूहानी वैज्ञानिक होते हैं – हमें बताते हैं कि हमें ख़ुद में जो कमियाँ, आलस्य और कर्मों का बोझ नज़र आता है, ये भी स्थायी नहीं है, इन्हें बदला जा सकता है। हम शब्द की शक्ति में परिवर्तित हो सकते हैं क्योंकि शब्द की दिव्य शक्ति पहले से ही हमारे भीतर मौजूद है – ठीक वैसे ही जैसे पदार्थ के छोटे-से अंश में भी असीम ऊर्जा छिपी होती है। संत-महात्मा समझाते हैं कि जो आत्मा शब्द से जुड़ जाती है, वह अकल्पनीय सुंदरता, आनंद और प्रकाश का अनुभव करती है।
सतगुरु रूपी रूहानी वैज्ञानिक से मिलाप हो जाने से पहले हम यह सोचते थे कि हमारी ख़ुद की छोटी-सी हस्ती, संसार की बाक़ी सभी चीज़ों से अलग है जैसे कि ब्रह्मांड, परमात्मा और उन रूहानी मंडलों से जिनके बारे में हम सुनते थे। लेकिन सतगुरु ने हमें बताया कि अपने ही शरीर को प्रयोगशाला बनाकर दो चरणों वाला एक प्रयोग करना है जो हमारी पुरानी मान्यताओं को ग़लत सिद्ध कर देगा और जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल देगा।
इस प्रयोग को करने के लिए दिए गए निर्देश सरल थे: शांत होकर बैठो, सिमरन करो और फिर शब्द-धुन को सुनो। भजन-सिमरन का अधिकतर समय, कम से कम शुरू में, सिमरन करने में बिताया जाना चाहिए। लेकिन इन निर्देशों की सरलता के कारण हम अकसर उलझन में पड़ जाते हैं और जल्दी निराश भी हो जाते हैं। हमें लगता है कि जब सब कुछ इतना सरल है, तो हम अपने लक्ष्य को बहुत जल्दी और आसानी से पूरा कर लेंगे। हम यह नहीं समझ पाते कि चाहे यह युक्ति सरल है, लेकिन प्रयोगशाला में किए जानेवाले परीक्षण की तरह इसकी प्रक्रिया भी धीमी है, इसके लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है और यह अत्यंत प्रभावशाली होती है। भले ही इसमें केवल दो चरण हों, पर इस प्रयोग के अंत में हम अद्भुत रहस्यों को जान लेते हैं। इस खोज द्वारा हमारा नाता सीधे उस निर्मल और पूर्ण परमात्मा से जुड़ जाता है।
हालाँकि भजन-सिमरन के लिए दिए गए निर्देश बहुत सरल हैं, लेकिन रूहानी कायापलट इतना आसान नहीं है। हम आदतों और आलस्य के शिकार हैं, क्योंकि हमारे विचार और इच्छाएँ हमें इस संसार से बाँध कर रखती हैं। जैसे पदार्थ में छिपी ऊर्जा को बाहर निकालने के लिए अत्याधिक प्रयास करना पड़ता है, वैसे ही हमें भी धीमी गति से होने वाले इस क्रमिक कायापलट के लिए अपनी तरफ़ से अपना श्रेष्ठ देने और अधिकतम प्रयास करने के लिए तैयार रहना चाहिए। केवल तभी हम इस प्रयोग द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप और अपने दिव्य स्रोत की खोज में सफल होने की आशा रख सकते हैं।
इस प्रयोग और हमारे कायापलट की प्रक्रिया को ऊर्जा प्रदान करनेवाली शक्ति है प्रेम और विरह। मीराबाई ने अपनी कविता में इस भावना को इस प्रकार व्यक्त किया है:
मोहे लागी लगन गुरु-चरनन की।
चरन बिना कछुवै नहिं भावै, जग-माया सब सपनन की॥
भवसागर सब सूखि गयौ है, फिकर नहीं मोहि तरनन की॥
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, आस वही गुरु-सरनन की॥
प्रेम और विरह की भावना द्वारा किया जानेवाला भजन-सिमरन इस धरती पर कायापलट का सबसे प्रभावशाली साधन है। यह उस भौतिक परिवर्तन से भी कहीं अधिक अद्भुत और ज़बरदस्त है जिसमें पदार्थ को ऊर्जा में बदला जाता है। यही मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य है। इस मनुष्य-शरीर रूपी प्रयोगशाला में यह महान प्रयोग होता है—जहाँ मानव रूपी स्थूल पदार्थ को विशुद्ध ऊर्जा अर्थात् अनाहत नाद – शब्द – में बदला जाता है। हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी परमार्थी पत्र, भाग 2 में हमें इस बात का आश्वासन देते हुए फ़रमाते हैं:
प्रकाश और शब्द दोनों तीसरे तिल में मौजूद रहते हैं…तीसरे तिल में सब कुछ है, जिसकी शान और महिमा का अन्दाज़ा हम कल्पना के ज़रिये या सपने में भी नहीं कर सकते। ख़ज़ाना आपके अन्दर है और वहाँ आपके लिए ही रखा हुआ है। आप जब भी अन्दर जायेंगे, उसको पा सकेंगे। आप मेरी बात मानिए और हमेशा के लिए यह समझ लीजिए कि हर एक चीज़ – यहाँ तक कि सिरजनहार भी आपके अन्दर है और जिस किसी ने उसको प्राप्त किया है, तीसरे तिल के अन्दर जाकर प्राप्त किया है।
इस कायापलट के पीछे हमारे सतगुरु होते हैं। वह हमें समझाते हैं कि इस प्रयोगशाला (तीसरे तिल) में प्रवेश कैसे करना है और वहाँ क्या करना है। वह हमें नामदान देकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं और इस प्रक्रिया के दौरान वह हमारे भीतर प्रेम और विरह रूपी ऊर्जा भर देते हैं जो इस स्थूल शरीर में इकट्ठी ऊर्जा को शब्द रूपी शक्ति में बदल देती है।
हम केवल यह शरीर नहीं हैं – हम तो स्वयं परमात्मा का अंश हैं। यही हमारी वह अद्भुत सामर्थ्य है, जो पदार्थ के भीतर छिपी क्षमता की तरह केवल ऊर्जा में परिवर्तित होने के इंतज़ार में है।
प्रयोग सबसे अच्छे और सटीक परिणाम एयर टाइट ट्यूब (airtight tube) या नियंत्रित वातावरण में ही देते हैं। ठीक इसी प्रकार, हमारा रूहानी प्रयोग और कायापलट भी ऐसे नियंत्रित वातावरण में संभव है जिसमें सारे विचार समाप्त हो जाएँ। डॉ. जूलियन जॉनसन अपनी पुस्तक अध्यात्म मार्ग में विस्तारपूर्वक इस बारे में समझाते हैं:
जब मन इधर-उधर भटकता है, तो सिमरन का जाप इसे फिर से केंद्र पर ले आता है। वह बाहरी जगत् को पूरी तरह भुला देता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये जिन साधनों से भी सहायता मिले, उन्हें अपनाया जा सकता है। परंतु सतगुरु हमें सर्वश्रेष्ठ साधन बताते हैं। सतगुरु द्वारा बताये साधन से कोई अन्य साधन बेहतर नहीं हो सकता। यह ऐसा साधन है जो अनगिनत वर्षों से जाँचा-परखा गया है और कसौटी पर खरा उतरा है। जब तक मन बाहरी संसार की वस्तुओं में अटका हुआ है, तब तक वह उच्च लोकों में प्रवेश नहीं कर सकता। इसी लिये सतगुरु बाहरी जगत् के नौ द्वारों को बंद करने का उपदेश देते हैं।
हमें बताया जाता है कि सिमरन के ज़रिए अपने ध्यान को तीसरे तिल पर स्थिर करना भजन-सिमरन के इस वैज्ञानिक प्रयोग की युक्ति है।
जैसे प्रयोगशाला में खोज पूरी करने में दशक न भी लगें पर कुछ वर्ष तो लग ही जाते हैं, वैसे ही रूहानी कायापलट भी धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा और सूक्ष्म ढंग से होता है। परंतु इसका नतीजा अत्यंत प्रभावशाली होता है, जो किसी चमत्कार से कम नहीं होता। हमारा संसार से जुड़ा तुच्छ-सा आपा, जो सांसारिक इच्छाओं और कार्यों में व्यस्त रहता है, शब्द रूपी शक्ति में बदल जाता है। इस कायापलट के लिए प्रेम और विरह के साथ विचार-रहित प्रयोगशाला में निरंतर भजन-सिमरन करना ज़रूरी है, जहाँ पर हम स्थूल शरीर से शब्द रूपी विशुद्ध शक्ति बन जाते हैं।
जब भी हम भजन-सिमरन में बैठते हैं, तब हम वह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे होते हैं जो केवल मनुष्य ही कर सकता है। हम इस धरती के सबसे ताक़तवर और भयंकर शत्रु – मन – को क़ाबू में करने का प्रयास कर रहे होते हैं और फिर हम मनुष्य-जन्म के सर्वोच्च उद्देश्य को प्राप्त कर लेते हैं जोकि परमात्मा की पहचान करना है। हम स्थूल शरीर में रहते हुए मरने का अभ्यास कर रहे होते हैं, जबकि हम शब्द की प्रेरणादायक शक्ति के दायरे में जीवित होते हैं।
सबसे ज़बरदस्त कायापलट तब होता है, जब हम परमात्मा के साथ अपनी एकता का अनुभव करना शुरू कर देते हैं। तब हमें अद्भुत रूहानी अनुभव होता है जो वैज्ञानिक सत्य के समान है: पदार्थ और ऊर्जा एक ही हैं। हमारा तुच्छ, अहं से भरा आपा और हमारा निर्मल, दिव्य स्वरूप एक ही है और यह दिव्य स्वरूप हमारे इसी आपे के भीतर है। उपयुक्त परिस्थितियों और सही वैज्ञानिक की निगरानी में, एक रूप को दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है।