सेवा – बदलाव का ज़रिया
कई साल पहले सतगुरु अचानक आने वाले थे। उनके इंतज़ार की ख़ुशी में, हम कुछेक सेवादार नए ‘साईंस ऑफ़ द सोल स्टडी सेंटर’ के आधे बन चुके हिस्से में कुर्सियों को व्यवस्थित करने की अपनी सेवा में लगे थे। वह दिन कितना भाग्यशाली था!
अचानक से एक आदमी बीच के गलियारे में से तेज़ी के साथ चलता हुआ आया और रौब जमाते हुए बोलने लगा जिस कारण वहाँ की शांति एकदम से भंग हो गई। “यहाँ से बाहर निकलो! इसी वक़्त इस इमारत से निकल जाओ और फिर यहाँ कभी मत आना वरना तुम्हें यहाँ से बाहर निकाल दिया जाएगा!”
उस सेवादार ने तेज़ी से अपनी बाजुओं को ऐसे उठाया मानो वह हमें धकेल कर बाहर निकाल देगा जैसे कि यह इमारत उसी की हो।
इस भयावह घटना के बाद एकाएक बहुत कुछ हुआ जिससे वहाँ का माहौल बिगड़ गया। एक जिज्ञासु जो हमारी मदद कर रहा था, जल्दी से बाहर निकल गया, शायद कभी वापस न आने के लिए। एक सेवादार फूट-फूट कर रोने लगा जिसे अभी-अभी नामदान मिला था और वह घण्टों रोता रहा। और मैंने, इस मार्ग के बारे में अपने तीस साल के ज्ञान के आधार पर सतगुरु के फ़ैसले पर सवाल खड़े कर दिए…
“मैं बार-बार अपने मन में उनसे यही सवाल किए जा रहा था कि आप इतने कठोर लोगों को इतने ऊँचे पदों पर क्यों बिठाते हैं?” आपकी संगत में इतने भले, समर्पित व अनुभवी लोग हैं, उन्हें सेवा के लिए इन पदों पर क्यों नहीं रखा जाता ताकि उनके शांतिपूर्ण स्वभाव से इन इमारतों में अच्छा माहौल बने जो यहाँ आनेवाले हर व्यक्ति को सुकून दे। क्या यहाँ पर ऐसे प्रसन्नचित्त जीवों को लाना बेहतर नहीं होगा जो जहाँ भी जाते हैं वहाँ के माहौल को ख़ुशनुमा और सकारात्मक बना देते हैं।
और मैं मन ही मन बड़बड़ाता गया कि जो इमारतें प्रेम, प्रेरणा और निस्स्वार्थ सेवा का केंद्र होनी चाहिएँ वे पदवी के अभिमान, अपना हक़ जमाने, राजनैतिक चालों और सत्ता की इच्छा से ग्रस्त क्यों हो जाती हैं? लेकिन फिर ख़याल आया कि क्या कोई संत-सतगुरु कभी भी कुछ भी ऐसा करते हैं जिसके पीछे कोई रूहानी मक़सद न हो?
बच्चों की एक किताब ‘द लिटिल सोल एण्ड द सन’ में एक आत्मा जो परमात्मा के साथ रहती है, परमात्मा से कहती है कि मैं ख़ुद को ‘क्षमा’ के रूप में अनुभव करना चाहती हूँ। परमात्मा उसे कहते हैं कि ऐसा करने के लिए उसे प्रकाश की दुनिया को छोड़कर नीचे अंधकार की दुनिया में जाना पड़ेगा। उस आत्मा से प्रेम के कारण, दूसरी आत्मा ने बहुत बड़ा त्याग करते हुए नीचे अंधकार की दुनिया में आने और उसके साथ कुछ बुरा करने का प्रस्ताव रखा ताकि उस आत्मा को ‘क्षमा’ का अनुभव हो सके। त्याग करने वाली आत्मा ने सिर्फ़ यह माँग रखी कि उस बुराई की घड़ी में वह आत्मा यह याद रखे कि यह सब उसने प्यार की ख़ातिर किया था। वह आत्मा आभार व्यक्त करते हुए यह सब याद रखने का वायदा करती है और फिर वह इस ‘क्षमा’ को अनुभव करने के चुनौतियों से भरे सफ़र के लिए निकल पड़ती है और इसके साथ इस कहानी का अंत हो जाता है।
यहीं से हमारी सेवा की कहानी शुरू होती है…
सतगुरु हमें सेवा करने का मौक़ा देते हैं, हम इसे अपने कायाकल्प का ज़रिया समझ सकते हैं। और इस तरह हम मिल-जुलकर इमारतों का निर्माण करने, बाग़-बगीचे की देख-रेख करने, किसी किताब को छपवाने या ऐसी ही किसी अन्य सेवा में लग जाते हैं। अगर हमारे पास वे आँखें होतीं जो माया के इन पर्दों से परे देख पातीं तो हम देहधारी सतगुरु के दिव्य ज्ञान और करनी को समझ सकते और उनके हर एक सेवादार के भीतर हो रहे बदलाव को भी। मिल-जुलकर सेवा करना रूहानी तौर पर उन्नत होने का सशक्त साधन है। इससे हम और अधिक विनम्र बनते हैं जब हमें धीरे-धीरे यह एहसास होने लगता है कि शब्द-गुरु ही असल में कर्ता हैं जिन्होंने हमें सेवा में ये अलग-अलग भूमिकाएँ अदा करने के लिए दी हैं। वह हमारे ज़रिए ख़ुद ही सेवा कर रहे हैं।
एक बार किसी ने कहा था कि सेवा में अकसर भँवरा होता है। हम मधुरता, रोशनी, फूल और ख़ुशबू की खोज में सेवा करने जाते हैं लेकिन कभी-कभी ऐसा डंक बजता है कि अपनी जान बचाने के लिए भागते हैं। किसी ने सही कहा है कि फूलों की तरह सेवा में भी भँवरा बैठा है।
हाँ, हम सब विनीत और ख़ुशनुमा लोगों के साथ सेवा करना चाहते हैं जो प्यार से शाबाशी देकर हमारे झूठे अहंकार को बढ़ावा दें। मगर ऊँचे पदों पर बैठे सेवादारों के कठोर शब्द और निर्दयी व्यवहार बहुत-से लोगों में तेज़ी से बदलाव ला सकते हैं। ऐसे सख़्त सेवादारों के साथ हमें एहसास होता है कि परिस्थिति को सँभालने के लिए हमें पहले से भी अधिक प्यार और विनम्रता से सेवा करनी पड़ेगी।
अगर हम सेवा को छोड़ने के बजाय हिम्मत के साथ सेवा में डटे रहें तो हमारा प्रेम और भी ज़्यादा बढ़ सकता है। हम ज़्यादा सहनशील, समझदार बन जाते हैं और हर चीज़ को स्वीकार करने लगते हैं। हम अंहकारवश प्रतिक्रिया देने के बजाए आत्मिक गुण ग्रहण करके सहजता और सहनशीलता से उत्तर देना सीख जाते हैं। हम यह जानने लगते हैं कि ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं जिसे प्रेम द्वारा जीता न जा सके।
हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी प्रकाश की खोज पुस्तक में फ़रमाते हैं: “न तो कोई व्यक्ति हमारा भला या बुरा कर सकता है और न ही कोई हमारा अपमान या सम्मान कर सकता है। सतगुरु अंदर से डोर खींचते रहते हैं और हमारे कर्मों के अनुसार हमारे प्रति लोगों से व्यवहार कराते रहते हैं।”
श्री स्वामी सच्चिदानंद कहते हैं:
“परमात्मा की मर्ज़ी के बिना हमें कोई दु:ख-तक़लीफ़ नहीं दे सकता। ये लोग परमात्मा के लिए निमित्त मात्र हैं। परमात्मा हमें कोई अनुभव देने के लिए इनका इस्तेमाल करता है। यह सब हमें सिखाने और हमारे भले के लिए होता है। अगर हम ऐसी सोच रखते हैं तो जो लोग हमें लगता है कि हमें दु:ख-तक़लीफ़ दे रहे हैं, हम उनके लिए मन में कोई बुरी भावना नहीं रखेंगे। बल्कि अगर हम उस व्यक्ति को परमात्मा का ज़रिया मानेंगे जिसके द्वारा परमात्मा हमें सिखाने की कोशिश कर रहा है और सोचेंगे कि वह बहुत अच्छा इनसान है तो मन में कोई बुरी भावना नहीं रहती और फिर कोई इनसान बुरा नहीं रहता। फिर प्यार करना आसान हो जाता है।”
गाइडिड रिलैक्सेशन एण्ड ऐफर्मेशन्ज़ फ़ॉर इन्नर पीस
शायद कष्ट देनेवाले के पीछे एक फ़रिश्ता, एक निर्मल आत्मा होती है जो डरावना चोला पहनकर, एक ख़लनायक की भूमिका निभाकर हमारी आत्मा का भला करती है। जिन लोगों को लेकर हम कड़ी प्रतिक्रिया देते हैं शायद उन्हें हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए हमारे सतगुरु द्वारा भेजा गया हो। हो सकता है कि वे हमारे अंदर छिपी हुई मलिनता को देखने में हमारी मदद करते हों ताकि हम उस मलिनता से छुटकारा पा सकें। हो सकता है कि वे ऐसे काँटें हों जिनके द्वारा सतगुरु हमें अंदर से धीरे-धीरे हमारे अवगुणों से मुक्त कर रहे हों? हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी स्पिरिचुअल डिस्कोर्सेज़, वॉल्युम I समझाते हैं:
जो कुछ भी मालिक की तरफ़ से आता है अगर आप उसे स्वीकार कर लें, तो वह दिव्य बन जाता है; बेइज़्ज़ती इज़्ज़त बन जाती है, कड़वाहट मिठास बन जाती है और गहन अँधकार निर्मल प्रकाश बन जाता है। हर चीज़ परमात्मा से आती है और दिव्य बन जाती है, जो कुछ भी होता है उसमें परमात्मा का प्रकाश नज़र आता है। जब इनसान का मन इस तरह से सोचने लगता है, फिर हर चीज़ से एक जैसा रस आने लगता है और इस तरह जीवन के सबसे कड़वे पलों और सर्वश्रेष्ठ सुखों के पीछे परमात्मा की दया नज़र आती है।
आओ, ऐसे लोगों को भेजने के लिए सतगुरु का शुक्रिया अदा करें, जिनके बोल कड़वे और व्यवहार सख़्त लगता है, जो हमारे कर्मों के बचे हुए गहरे दाग़ों को धोने में हमारी मदद करते हैं। असल में वे हमें कष्ट पहुँचाने वाले न होकर वे फ़रिश्ते हैं जो हम तक हमारे सतगुरु का यह संदेश पहुँचाते हैं कि हम सच्चे सेवादार बनें। सच्चा सेवादार कौन है? ऐसा निर्मल स्रोत जिसके ज़रिए उस शब्द रूपी ‘सतगुरु’ की दया-मेहर और प्रेम, निस्स्वार्थ सेवा की धारा के रूप में निरंतर बहता है।