प्रेम को समझना
धर्म-ग्रंथ और संत-महात्मा अकसर समझाते हैं कि प्रेम केवल एक भावनात्मक अनुभव नहीं है, बल्कि यह हमारी हस्ती का सार है और ब्रह्मांड को संचालित करनेवाली सृजनात्मक शक्ति का स्वाभाविक गुण है। मौलाना रूम ने इसे बड़ी ख़ूबसूरती से व्यक्त किया है, वह कहते हैं कि प्रेम की यह धारा परमात्मा में से निकलकर पूरे ब्रह्मांड में बहती है। जब हम किसी व्यक्ति को देखते हैं तब हम केवल एक इंसान को नहीं देखते, बल्कि हम उस दिव्य सत्ता के साकार रूप को देखते हैं:
उस परमात्मा में से निकलने वाली प्रेम की धारा पूरे ब्रह्मांड में बह रही है। जब तुम किसी मनुष्य के चेहरे को देखते हो, तो क्या सोचते हो? ध्यान से देखो। वह कोई मनुष्य नहीं, बल्कि परमात्मा के प्रेम की धारा है, जो उसमें व्याप्त है।
ए सर्टन काइंड ऑफ़ सेल्फ़िशनेस: रूमीज़ ट्रांसफ़ॉर्मेशन ऑफ़ सूफीज़्म
हमारा असल स्वरूप प्रेम है और हमें बताया जाता है कि परमात्मा भी प्रेम-रूप है। इस तरह हम दिव्य प्रेम के विशाल महासागर में बूंदों की तरह हैं। लेकिन संत-महात्मा इस बात पर बल देते हैं कि हमारी प्रेम की परिभाषा भौतिक संसार तक ही सीमित है। यह विरोधाभास हमें सच्चे प्रेम को पहचानने और यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम सच्चे प्रेमी बनने के लायक़ हैं?
फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ द मास्टर्स, वॉल्यूम II पुस्तक में प्रेम को दो क़िस्मों में बाँटा गया है। पहली क़िस्म का प्रेम किसी वस्तु या व्यक्ति के विशेष गुणों, कार्यों या परिस्थितियों पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, जब एक सुंदर घोड़ा तेज़ दौड़ता है, तो हम उसकी क़द्र करते हैं। लेकिन जब उसकी टाँग चोटिल हो जाती है, तो हमारा रवैया बदल जाता है। यह प्रेम शर्तों पर आधारित होता है और परिस्थितियाँ बदलते ही समाप्त हो जाता है। ज़्यादातर सांसारिक प्रेम इसी श्रेणी में आता है, जिसका आधार हमारे अलग-अलग नज़रिए, ज़रूरतें और प्राथमिकताएँ हैं।
संत-महात्मा इस बात पर बल देते हैं कि सांसारिक और शारीरिक प्रेम भी ग़र्ज़ों से उत्पन्न होता है, यहाँ तक कि सबसे नज़दीकी संबंधों में भी। सूफ़ी इसे इश्क़ मिज़ाज़ी कहते हैं, जो हमारे वर्तमान स्वभाव द्वारा निर्धारित मिजाज़ (देह) का प्रेम है। दूसरी ओर, इश्क़ हक़ीकी अर्थात् सच्चा, दिव्य प्रेम भौतिक परिस्थितियों से परे होता है और आत्मा के अंदर उत्पन्न होता है। यह प्रेम बिना शर्त या स्वार्थ के होता है, यह बाहरी गुणों पर निर्भर न होकर प्रेमी के असल स्वभाव पर निर्भर करता है। इसे अनुभव करने के लिए अहं की भावना को छोड़ना पड़ता है, मोह और अपनी पसंद से ऊपर उठना पड़ता है। हृदय में इस दिव्य प्रेम की जगह बनाने के लिए अन्य इच्छाओं को हृदय में से निकालना पड़ता है।
प्रेम में ख़ुद को खो देने का एक दृष्टांत पुस्तक परमार्थी साखियाँ में दर्ज भगवान कृष्ण और उनकी अनन्य भक्त के बारे में दी गई “प्रेम की मस्ती” नामक साखी में मिलता है:
एक बार जब कृष्ण जी विदुर के घर गये, उस समय वह घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी नहा रही थी। द्वार पर कृष्ण जी ने आवाज़ दी। आवाज़ सुनते ही वह प्रेम में इतनी मस्त हो गयी कि उसे इतना भी होश न रहा कि कपड़े पहन लूँ। बिना कपड़ों के ही उठ भागी। ऐसी हालत में न पाप है, न पुण्य। कृष्ण जी ने कहा कि कपड़े तो पहन। तब उसने कपड़े पहने।
अब घर में खाने-पीने का कोई सामान नहीं था। सिर्फ़ केले रखे थे। वह प्रेम में इतनी मग्न हो गयी कि केले छील-छीलकर छिलका कृष्ण जी को देने लगी और गूदा फेंकने लगी। इतने में विदुर आ गये। जब उन्होंने देखा तो कहा, ‘अरी पगली! यह क्या कर रही है?’ यह सुनकर वह बोली, ‘ओहो! मुझे पता नहीं चला।’ फिर उसने कृष्ण जी को केले का फल दिया तो कृष्ण जी ने कहा, ‘विदुर! इसमें वह स्वाद नहीं है जो छिलके में था।’ यह है प्रेम की अवस्था।
संत-महात्मा प्रेम को रूहानियत में चलनेवाली मुद्रा मानते हैं, यह भजन-सिमरन द्वारा मिलनेवाला उपहार है। दिव्य प्रेम निष्काम भाव से कर्म करने और सतगुरु के हुक्म का पालन करने से मिलता है। हमें कभी भी अपने बाहरी हालात से निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि सतगुरु हमारे प्रारब्ध के बारे में जानते हैं, यह हमारे ही कर्मों का परिणाम है। हमारी गहरी आंतरिक भावनाएँ सतगुरु से छिपी हुई नहीं हैं। बाबा जैमल सिंह जी परमार्थी पत्र, भाग 1 में समझाते हैं कि हम इस नज़रिए को कैसे अपना सकते हैं:
शब्द धुन की प्रेम-प्रीत में सुरत, निरत व निज मन, तीनों को हाज़िर रखना। जिस जगह रखें राज़ी रहना जी। कारोबार सब उन्हीं का है। जहाँ रखें ख़ुश रहना और जो काम करना, सब सतगुरु का ही जानकर करना। अपना आप (अहं) बीच में न रखना, यह बात मन में हमेशा के लिए जमा देना, मन से कभी न निकले। तन, मन, धन, सुरत, निरत और आँखें, मुँह, नाक, कान, हाथ, पैर और सब सामग्री दुनिया के सामान की जितनी भी है, सब सतगुरु की है। ‘मैं’ है ही नहीं जी। सतगुरु का जानकर सब काम करना। जो मुनासिब है करना जी।
संतमत में सिमरन और भजन ही वे साधन हैं जिनके अभ्यास द्वारा ही हम “इश्क़ मिज़ाज़ी” भाव सांसारिक प्रेम व सांसारिक सुखों में मस्त होने से बच जाते हैं। भजन-सिमरन द्वारा हम अपने कर्मों का सामना कर पाते हैं और हर प्रकार की द्वैत से ऊपर उठकर परमात्मा से मिलाप कर लेते हैं। जितना अधिक हम समर्पण करते जाते हैं, हमारी नेकी और बदी उस एक में समा जाती है और हम प्रेम में लीन हो जाते हैं। इससे हमें वह शांति और ख़ुशी प्राप्त होती है जिसे हमारे आस-पास के लोग भी महसूस कर पाते हैं। हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी पुस्तक जीवत मरिए भवजल तरिए में समझाते हैं कि प्रेम क्यों करना है और कैसे करना है:
अपने आप को प्रभु के सुपुर्द कर दें। किसी से प्रेम करने का अर्थ है अपने आप को दे देना और बदले में कुछ भी पाने की आशा न रखना। अपने आप को दे देना, पूरी तरह से प्रभु को समर्पण कर देना, अपने आप को उसकी मौज पर छोड़ देना भी भजन ही है। हम अपनी पहचान, अपना व्यक्तित्व खोकर उस परमपिता परमात्मा में लीन होना चाहते हैं। तब हमारे अंदर किसी चीज़ की आशा नहीं रहती। आशा तभी रहती है जब ‘मैं’ का भाव रहता है कि ‘मैं’ हूँ और ‘मुझे’ यह चाहिए। जब ‘मैं’ नहीं रहता तो हमें क्या चाहिए? प्रेम में हमारी ‘मैं’ नहीं रहती। हम अपने आप को खो देते हैं, समर्पित हो जाते हैं, परमात्मा की मौज में अपने आप को छोड़ देते हैं। तब किसी चीज़ को पाने या निराश होने का सवाल ही नहीं उठता। जितना ज़्यादा हम देते हैं, उतना ही हमारा प्यार बढ़ता है, उतना ही हम अपने आप को खोते हैं, उतना ही हम परमात्मा का रूप बनते जाते हैं।
इसलिए हमें आरज़ी और झूठे सांसारिक रिश्तों के बजाय कभी न बदलनेवाले अमर-अविनाशी सत्य से प्रेम करना चाहिए। यही सच्चा प्रेम माया या भ्रम से ऊपर उठाकर, दिव्य प्रेम की हमारी खोज को पूर्ण कर हमें निज-घर वापस ले कर जाता है और अमर-अविनाशी परमात्मा से हमारा मिलाप करवाता है।