अपने आपे को आईने में देखना
संत-महात्माओं द्वारा बताए गए दिलचस्प रहस्यों में से एक यह है कि हमारी आत्मा एक आईना है जिसमें परमात्मा का स्वरूप झलकता है। संत-महात्माओं की बानी में हम यह पढ़ते हैं कि जब परमात्मा हमारी आत्मा को देखते हैं, तो उन्हें इसमें अपनी ही छवि दिखाई देती है। संतजन समझाते हैं कि परमात्मा ने हमें अपने स्वरूप में रचा, ताकि हम उसकी सुंदरता को देख सकें।
सूफ़ी संत शेख़ फ़ख़रुद्दीन इराक़ी, अपनी पुस्तक द फेस इन ऐवरी रोज़ में पहले ख़ुद को संबोधन करते हुए कहते हैं:
मेरा हृदय एक आईना है,
इसे अच्छी तरह साफ़ करो और चमकाओ,
ताकि यह दमक उठे।
इसके बाद वे ख़ुदा से मुख़ातिब होते हैं जो अपने शागिर्द की रूह में झाँककर ख़ुद को ही देखता है:
तुम आईने में देखते हो,
ताकि अपनी ख़ूबसूरत छवि को निहार सको।
तुम मुझे अपनी ही हस्ती से सजाते हो,
ताकि मुझे अपनी ही ख़ूबसूरती दिखा सको।
परमात्मा प्रेम है और हमेशा देते जाना ही प्रेम का स्वभाव है। उस परमात्मा ने हमें अपने स्वरूप में इसलिए रचा है ताकि वह अपना प्रेम और अपना सौंदर्य हमारे साथ बाँट सके। शेख़ फख़रुद्दीन इराक़ी अपनी बात को जारी रखते हुए फ़रमाते हैं कि जब हमारी आत्मा अपने अंदर सतगुरु की अद्भुत छवि को देखती है, तो वह उसकी भक्ति करती है और उसके प्रेम को ही वापस प्रतिबिंबित करती है।
जब आशिक़ के दिल का आईना चमकाया जाता है,
तो उसे उसमें अपने महबूब का चेहरा दिखाई देता है।
फिर ये दोनों जगत आशिक़ के लिए
आईना बन जाते हैं
ताकि वह महबूब के नूर को निहार सके और उसकी तारीफ़ कर सके।
जब वह अपने महबूब को याद करता है,
तो आईना दमक उठता है।
और जब वह अपने बारे में सोचता है,
तो आईना धुँधला पड़ जाता है।
अपने दिल के आईने को साफ़ करने के लिए, हमें अपने आप को ख़ुद के ख़यालों से आज़ाद करना पड़ेगा और हमें अपनी आत्मा को अपने ध्यान का ओवरसियर बनाना होगा। हमारी आत्मा, जो इस समय ताक़तवर मन के शिकंजे में है, यह शोर-गुल, सांसारिक तृष्णाओं और मन के छलावे के पीछे चेतन मगर ख़ामोश है; परमात्मा के प्रेम और परमात्मा द्वारा दिए गुणों से सुशोभित आत्मा के अंदर सदा उसकी मौजूदगी का एहसास बना रहता है।
अपनी आत्मा के इस दिव्य स्वरूप का ज़िक्र करके, इराक़ी प्रश्न करते हैं कि तुम अहंकार से भरे अपने सीमित आपे को ही पकड़कर क्यों बैठे हो:
तू ख़ुद को क्यों पकड़े बैठा है?
तू अपने महबूब की आवाज़ तभी सुन पाएगा
जब तू ख़ुद को भूल जाएगा।
तू उस चेहरे का दीदार तभी कर पाएगा
जब ख़ुद से मुँह मोड़ लेगा।
हम ख़ुद को अनोखी और अलग हस्ती होने के भ्रम से कैसे मुक्त करें? हम कैसे उस मन को क़ाबू में करें, जो दृढ़ता से ख़ुद को अनूठा समझने के कारण अपने आप को परमात्मा से तथा दूसरों से अलग समझता है? अपने विचारों से मुक्त होना हमारे जीवन का सबसे बड़ा और कठिन संघर्ष है। न सिर्फ़ हमारा मन निरंतर कार्यशील रहता है बल्कि हमारे विचार हमारे अहं को निरंतर बढ़ावा देते हैं जो परमात्मा के साथ मिलाप में सबसे बड़ी रुकावट है।
आइए मन की कुछ आदतों पर नज़र डालें जो अहं को बढ़ाती हैं। अपने छोटे से जीवन में, हमने कई छोटी-मोटी और कुछ बहुत बड़ी ग़लतियाँ की होंगी। इन ग़लतियों से हम जीवन के सबक़ सीखते हैं। संतजन समझाते हैं कि हमें अपनी ग़लतियों से सीखकर आगे बढ़ना चाहिए। अगर हम अपनी ग़लतियों से सीखते हैं तो हमें कभी पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ता।
लेकिन मन ऐसा नहीं करता; वह अतीत में ही उलझा रहता है। ग़लती को स्वीकार करके उससे सीखने और उसे भूल जाने के बजाय हम उस याद को पकड़े रखते हैं। ऐसा करने से हमारा ध्यान ख़ुद पर ही केंद्रित रहता है, हम उन यादों को क़ायम रखते हुए अमिट बना लेते हैं। यह न सिर्फ़ हमारे अहं को बनाए रखकर हमारे मन को नकारात्मकता से बोझिल करता है, बल्कि भविष्य में भी समस्याएँ पैदा कर सकता है।
हम अपने कर्मों को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यदि हम यादों, पछतावों आदि को कसकर पकड़े रखते हैं, तो हो सकता है कि हमें उन कर्मों से मुक्त होने के लिए फिर से जन्म लेना पड़े। हमें बताया जा चुका है कि जब भी मन में कोई संस्कार उभरता है, तो हमें ‘डिलीट’ बटन दबा देना चाहिए, ताकि जीवन के अंत तक हमारा मन स्लेट की तरह साफ़ हो जाए।
इसी तरह, हमें अपने सपनों में अवचेतन प्रभावों को भी मिटाना होगा। सतगुरु समझाते हैं कि सपने की अवस्था में पिछले अनुभवों को दोबारा जीना उन कर्मों से मुक्त होने में मदद कर सकता है। लेकिन जब हम उन घटनाओं को पुन: याद करके उनका विश्लेषण करते हैं, तो हम उन्हें फिर से अपने चेतन मन में डाल देते हैं, जिससे उन्हें फिर से साफ़ करना पड़ सकता है।
अपनी ग़लतियों, पिछले कर्मों और यहाँ तक कि सपनों को सचेत रूप से छोड़ देना, अहं को धीरे-धीरे कम करने का एक ढंग है। आइए, उस धारणा पर ग़ौर करें जिसे हमारा मन दृढ़ता से बनाए रखता है कि हमारी एक अनूठी और अलग हस्ती है, जो रचयिता से अलग है। यह ‘हस्ती’ क्या है? हम ख़ुद को अपने शरीर, अपनी भूमिकाओं, अनुभवों, व्यक्तित्व, योग्यताओं, इच्छाओं और उपलब्धियों के आधार पर परिभाषित करते हैं।
हुज़ूर महाराज सावन सिंह जी (बड़े महाराज जी) हमारी इस मानव देह के बारे में फ़रमाते हैं:
बाहरी सौंदर्य, रूप की मनोरमता, व्यक्तित्व का आकर्षण – चाहे वह तुम्हारा हो या किसी और का – सदा नहीं रहता। इस झूठे दिखावे से आकर्षित मत हो जाना। इन अस्थायी ख़ूबियों से भ्रमित मत हो जाना। सुंदर या कुरूप, गोरा या साँवला, नाज़ुक या सख़्त, अति सुंदर या साधारण – जो भी आकार तुम देखते हो, वे सभी माटी से पैदा हुए हैं। वे माटी के पुतले हैं। ये सभी आकार क्षणभंगुर हैं, जल्द ही मिट जाएँगे और सदा क़ायम नहीं रहेंगे। ये इस मायामय संसार के बाज़ार से ख़रीदे गए उन वस्त्रों की तरह हैं जिन्हें हमें इस संसार से जाने से पहले त्यागना ही पड़ेगा। तुम्हारे जीवन का उद्देश्य इनसे ऊपर उठना होना चाहिए।
डिस्कोर्सेज़ ऑन संत मत, वॉल्यूम I
हम अपने बारे में क़ायम की गई धारणाओं की तुलना संतों द्वारा बयान किए गए सत्य से कैसे कर सकते हैं? संतजन समझाते हैं कि जब से यह सृष्टि बनी है, तब से हम यहाँ हैं और हम इस नश्वर शरीर को छोड़ने के बाद भी जीवित रहेंगे। उनका कहना है कि युगों-युगों से हमने अनगिनत योनियों में जन्म लिया है। वे बताते हैं कि यदि हम फिर से मनुष्य के रूप में जन्म ले भी लें, तब भी पिछले जीवन में जो पहचान या “व्यक्तित्व” हमने बनाया था, वह उस शरीर की मृत्यु के साथ हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है।
मगर अपने बारे में हमारा ख़याल कि हम कौन हैं, हम सोचते हैं कि हमारी व्यक्तिगत विशेषताएँ और अनुभव जो केवल इसी जन्म तक सीमित हैं, वे ही हमें परिभाषित करते हैं। तो फिर अपने सभी पिछले जन्मों में हम कौन थे और जब हमारा यह वर्तमान जीवन समाप्त हो जाएगा, तब किसकी हस्ती फिर भी क़ायम रहेगी?
संत-महात्मा समझाते हैं कि हम अमर-अविनाशी जीव हैं; हम अपने वास्तविक स्वरूप में विशुद्ध चेतना हैं। हमारा वास्तविक स्वरूप विचारों के पीछे छिपा रहता है, इसका आधार न तो यह संसार है और न ही वे बदलती भूमिकाएँ जिन्हें हम निभाते हैं। वे समझाते हैं कि हम असल में आत्मा हैं जो निर्मल, अमर, पवित्र, सूक्ष्म और सर्वशक्तिमान शब्द द्वारा क़ायम है। लेकिन इस मायामय संसार में आकर हम अपने असल स्वरूप को भूल गए हैं। माया के खेल में मस्त होकर और इंद्रियों भोगों के प्रलोभन में आकर हमने अपने मन को खुला छोड़ दिया है और आत्मा को बंदी बनाकर रख दिया है। लेकिन शिष्य होने के नाते अब यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने मन को अनुशासित करें और इसे एक बार फिर से आत्मा का वफ़ादार सेवक बना दें। जब मन हमारे वश में आ जाता है तब यह हमें संसार से बाँधकर नहीं रखता। जब मन की निरंतर हो रही हलचल शांत हो जाती है तब यह इस संसार से परे अपने असल सत्य में समा जाता है।
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के अनुसार, मन अपनी स्वाभाविक अवस्था में बादलों के पीछे छिपे आकाश की तरह है। अपने विशुद्ध स्वरूप में मन विचारशून्य, निर्मल और ज्ञान रूप है।
हम उस विचारशून्यता और निर्मलता तक कैसे पहुँच सकते हैं? सतगुरु समझाते हैं कि ऐसा केवल ‘शब्द’ की शक्ति द्वारा ही संभव है। सार बचन संग्रह पुस्तक में स्वामी जी महाराज के वचन हैं:
धुन सुन कर मन समझाई॥
कोटि जतन से यह नहिं माने। धुन सुन कर मन समझाई॥
मन और इंद्रियों ने हमारी आत्मा को उसकी असल पहचान भुला दी है। हुज़ूर बड़े महाराज जी पुस्तक डिस्कोर्सेज़ ऑन संत मत, वॉल्यूम I में फ़रमाते हैं कि आत्मा पर इनका प्रभाव किसी जादू जैसा है और अपने अंदर गूँजनेवाली दिव्य शब्द-धुन को सुनकर ही आत्मा इस मायामय संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकती है:
नाम के बिना, शारीरिक भोगों में लिप्त आत्मा मन के चंगुल से कभी नहीं छूट सकती। मन और इंद्रियों ने इस पर ऐसा जादू कर दिया है कि यह अपने ऊँचे स्रोत और जीवन के असल उद्देश्य को पूरी तरह से भूलकर इस दृश्यमान जगत में बुरी तरह से फँसी हुई है। नाम ही वह मंत्र है जो इस जादू के असर को ख़त्म कर सकता है और इसे फिर से इसकी सर्वोच्च विरासत के बारे में सचेत कर सकता है।
इस मायामय संसार में अनन्त जन्मों से विचरण करते रहने के कारण हमें अपनी सर्वोच्च विरासत की याद नहीं रही। शब्द ही वह मंत्र है जो इस जादू के असर को ख़त्म कर देगा और मन द्वारा सदियों से इकट्ठी की गई मैल को साफ़ कर देगा। भजन-सिमरन द्वारा हमारी आत्मा अपने अंदर की दिव्यता के बारे में जागरूक हो जाती है।
इराक़ी फ़रमाते हैं कि जब हम अपनी ख़ुदी को त्याग देते हैं, ख़ुदा हमें वापस निज-घर ले जाता है।
तू ख़ुद के दम पर वहाँ नहीं पहुँच सकता
क्या छोड़ नहीं देना चाहिए तुझे अपनी ख़ुदी को
तेरे अंदरूनी पंख तुझे वहाँ पहुँचा देंगे
एक बार जब अल-अहद से उठी लहर तुझे बुलंदी पर ले जाती है
फिर न इल्म बाक़ी रहता है, न जहालत
न विसाल होता है, न जुदाई
सिर्फ़ वही रह जाता है
और तुम्हारा कोई नामो-निशाँ नहीं बचता।
द फ़ेस इन ऐवरी रोज़
आख़िरकार जिसे हम अपनी पहचान समझते थे, वह पीछे छूट जाएगी। सिर्फ़ हमारा असल स्वरूप ही क़ायम रहेगा – वह चेतना जिसका संबंध स्वयं परमात्मा से है, जो उसकी ख़ूबसूरती, आनंद और प्रेम को प्रकट करती है।