सर्वोत्तम मुक्ति
हमारा मानव शरीर, हर जीवित वस्तु की तरह, नाशवान है। यह केवल एक चोला है जिसके ज़रिए हम इस दुनिया में कार्यशील हैं और विचरण करते हैं तथा आख़िरकार यह शरीर भी ख़त्म हो जाएगा।
संत नामदेव की कविता, जो स्वर अनेक, गीत एक पुस्तक में दर्ज है, जीवन की क्षणभंगुर प्रकृति को व्यक्त करती है:
पानी में जो दिखें बुलबुले, पल भर में ये मिट जाएँ।
दिखता है संसार भी यूँ ही, अंत समय कुछ हाथ न आए।
जैसे खेल सपेरे का कुछ पल का, वैसा ही यह संसार का तमाशा।
जग का सत्य भी पल भर का, कहे नामा यहाँ कुछ नहीं अच्छा।
इस समय हमें जीवन असल लगता है, लेकिन फिर हम नहीं रहेंगे। आज यहाँ हैं, कल नहीं होंगे। हममें से बहुत-से लोगों को मृत्यु बहुत दूर की बात लगती है और हम आमतौर पर जीवन को ऐसे लेते हैं जैसे कि हम हमेशा के लिए यहाँ रहेंगे। लेकिन जीवन जादूगर के हाथ में सिक्के की तरह है, जो ग़ायब होने से पहले केवल एक पल के लिए दिखाई देता है। यह जीवन आरज़ी, मायामय और निराशाजनक है।
परमात्मा द्वारा दिया गया सबसे अमूल्य उपहार जीते-जी मरने का अवसर प्राप्त होना है। इस दौरान हम अपने शरीर के चोले को छोड़कर अपनी आत्मा को मुक्त करने की तैयारी करते हैं। समय के साथ एक जागरूकता हमें बाहरी वास्तविकता से आंतरिक असलियत की ओर ले जाती है, जहाँ हमें किसी आवरण की ज़रूरत नहीं पड़ती। हम बाहर जो कुछ भी देखते हैं, वह आंतरिक सच्चाई की परछाईं मात्र है। न केवल हमारा शरीर बूढ़ा होकर मृत्यु को प्राप्त होता है बल्कि हमारी ज़मीन-जायदाद भी नष्ट हो जाती है और हमारे जीवन में लोग भी केवल सीमित समय के लिए रहते हैं। आख़िरकार हमें यह एहसास होता है कि हम मायामय संसार में रहते हैं।
जैसे-जैसे जीवन बदलता है, हमें अपनी पहचान के खो जाने का डर सताता है। हालाँकि, रूहानियत में हम अपने आप को मिटाकर ही अपना आत्मिक स्वरूप खोज सकते हैं। इस अस्थायी दृश्यमान माया के जाल से मुक्ति हमें उस परम सत्य परमात्मा की ओर ले जाती है जो शाश्वत और अनादि है।
कभी-कभी सबसे बड़ी मुक्ति की शुरुआत अपनी मूर्खता का एहसास होने से होती है ताकि हम अपनी ग़लतियों से सीख सकें और फिर ऐसे निर्णय लें जो हमें मुसीबत में न डालें। संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि हम अपने कर्मों से अपने लिए एक कर्मजाल बुन लेते हैं क्योंकि हर कर्म का कोई न कोई परिणाम होता है। जैसा हम बोते हैं, वैसा ही काटना पड़ता है। इसलिए, हमें कर्म करने से पहले सोचना चाहिए, बिना सोचे-समझे कुछ नहीं करना चाहिए, ताकि हम कर्म और फल के इस संसार में ख़ुद को और अधिक मज़बूती से बँधने से बचा लें।
जब तक हम अपने कर्मों का हिसाब चुकता नहीं कर लेते, हम इस दुनिया से मुक्त नहीं हो सकते। समय के साथ हमने बहुत सारे कर्म इकट्ठे कर लिए हैं, अच्छे और बुरे दोनों, जो हमें इस संसार से ही बाँधकर रखते हैं। अपने रूहानी सफ़र के दौरान इस बात की तरफ़ ध्यान देना ज़रूरी है कि क्या हमारे द्वारा लिए गए फ़ैसले हमारे हित में हैं या वे हमें हानि पहुँचा सकते हैं। हम अकसर ऐसे कर्म कर बैठते हैं जो विनाशकारी होते हैं या हमें परमात्मा के नज़दीक ले जाने के बजाय उससे दूर ले जाते हैं।
अपने सच्चे निज-घर परमात्मा के पास वापस लौटकर सर्वोत्तम मुक्ति प्राप्त करने के लिए, हमें थोड़े समय के लिए मिले इस मनुष्य-शरीर का सदुपयोग करना चाहिए। हमें अपने कर्मों को भोगते हुए, संसार में अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए, एक नेक इनसान बनकर अपने सतगुरु के हुक्म का पालन करते हुए हर रोज़ भजन-सिमरन करना चाहिए। हुज़ूर महाराज चरन सिंह पुस्तक संत संवाद, भाग 1 में इस प्रकार समझाते हैं:
भजन-सिमरन करते हुए हमें दो बातों को ध्यान में रखना है, पहली यह कि मन के प्रभाव और उसके बहकावे में आकर हम किसी भी ऐसे बुरे कर्म के बीज न बोयें, जिनके कारण हमें इस संसार में वापस आना पड़े। दूसरी यह कि पिछले जन्मों में हमने जो भी कर्म इकट्ठे किये हैं यानी हमारे संचित कर्म, हमारे कर्मों का भंडार, उसे भी नष्ट करना होगा। क्योंकि जब तक उसे नष्ट नहीं किया जाता, हम परमात्मा के पास कभी वापस नहीं जा सकते और न ही कभी इन कर्मों से छुटकारा पा सकते हैं।…अपने संचित कर्मों को हम केवल भजन-सिमरन से ही नष्ट कर सकते हैं।
केवल तभी आत्मा मृत्यु के समय शरीर और मन के बंधनों से मुक्त हो सकती है और हम आख़िरकार परमात्मा के पास अपने निज-घर वापस लौट सकते हैं। मुक्ति की यह प्रक्रिया अकसर धीमी होती है, क्योंकि हमें अनगिनत जन्मों में जमा किए बेशुमार कर्मों का हिसाब देना होता है।
भजन-सिमरन द्वारा हम हर रोज़ परमात्मा की ओर क़दम आगे बढ़ाते हैं। जब हम यह यात्रा शुरू करते हैं, तब हम स्वयं को कभी संदेह करनेवाले, कभी जिज्ञासु या विश्वास करनेवाले के रूप में पाते हैं। जब हम संदेह करते हैं, तो प्रश्न उठते हैं और फिर हम उत्तरों और सत्य की खोज करते हैं। जब हमारे सभी सवालों के जवाब मिल जाते हैं, तब हमें इस मार्ग पर भरोसा हो जाता है फिर हम निष्ठा से दृढ़तापूर्वक इस मार्ग पर चलते हैं।
संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि यह दुनिया हमारा सच्चा घर नहीं है। हम कई जन्मों से यहाँ फँसे हुए हैं। इस मनुष्य-शरीर में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त होने के साथ हमें परमात्मा के पास घर लौटने का अवसर मिला है। यह परमात्मा की मौज पर निर्भर करता है कि वह हमें घर जाने का रास्ता कैसे दिखाता है। इस पूरे सफ़र के दौरान, जब भी हमें ज़रूरत होती है, हमारे सतगुरु सहायता करने के लिए, हमें प्रेरणा देने के लिए, हमारी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए हमेशा मौजूद रहते हैं। वह हमारे अंदर तड़प पैदा करते हैं, जो इतनी तीव्र होती है कि हम इसे अनदेखा नहीं कर सकते। नामदान के समय, सतगुरु हमें इस दुनिया से मुक्त करवाकर परमात्मा के पास वापस ले जाने का वायदा करते हैं। नामदान कोई रस्म या रिवाज नहीं है। यह एक प्रतिबद्धता है। पूर्ण देहधारी सतगुरु हमारे और परमात्मा के बीच बिचौलिया होता है। हम उससे मिल सकते हैं, बात कर सकते हैं और उत्तर जान सकते हैं। रूहानी सफ़र में हमें सही मार्ग पर डालने के लिए सतगुरु का होना बहुत अहम है।
भजन-सिमरन हमें मृत्यु के लिए तैयार करता है क्योंकि भजन-सिमरन द्वारा हम रोज़ाना मरने का अभ्यास करते हैं ताकि जब मृत्यु आए तो हम उसका स्वागत करने के लिए तैयार रहें। मृत्यु को प्राय: मनुष्य शरीर के नाश के रूप में देखा जाता है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मृत्यु इससे कहीं बढ़कर है।
मृत्यु क्या है? जब हमारी इच्छाएँ ख़त्म हो जाती हैं और हमारा मोह धीरे-धीरे कम हो जाता है और हम अपने आप को इस संसार में फँसा हुआ नहीं पाते। भजन-सिमरन द्वारा हमें उस आंतरिक सत्य का अनुभव होता है जो हमें हमारे निज-घर शब्द के प्रकाश और ध्वनि की ओर ले जाता है। यह वह चिंगारी है जो आत्मा को जागृत करती है। संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि भजन-सिमरन द्वारा हम ख़ुद को मृत्यु के लिए तैयार करते हैं। यह तैयारी हमारे मन को शांत करती है और हमें उस अद्भुत ख़ज़ाने की झलक दिखाती है जो हमारे इंतज़ार में है। हमें मृत्यु से डरने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि मृत्यु इस अधूरे संसार से सदा के लिए मुक्ति, आनंद और सच्चे प्रेम की प्राप्ति का रास्ता है।
इस सर्वोत्तम मुक्ति को पाने और भ्रम तथा सत्य के द्वार से गुज़रने के लिए, हमें अपने दायरों को खोलने और मन को स्थिर करने की ज़रूरत है। जो चीज़ें हर रोज़ हमारे ध्यान को भटकाती हैं, हमें भजन-सिमरन के ज़रिए अपने ध्यान को उनकी तरफ़ से हटाना चाहिए ताकि हमें परमात्मा की मौजूदगी का एहसास हो सके। हर चीज़ की शुरुआत प्रेम से और जो भी वह हमें दे रहा है उसे स्वीकार करने से होती है। सतगुरु मृत्यु के समय हमें निज-घर ले जाने के लिए तैयार खड़े होते हैं और हमें परमात्मा के साम्राज्य की कुंजी सौंप दी जाती है। परमात्मा हमारे इंतज़ार में है।
हमें ख़ुद से पूछना चाहिए कि हम पीछे क्यों हट रहे हैं। क्या हमें डर है कि हम इतने अच्छे नहीं, हमारे क़दम डगमगा सकते हैं व हम असफल हो सकते हैं और वह हमें स्वीकार नहीं करेगा तथा हमसे प्रेम नहीं करेगा? ऐसे डर निराधार हैं। नामदान के समय सतगुरु हमें हमारी सभी कमियों और कमज़ोरियों के साथ स्वीकार कर लेते हैं। सतगुरु हमारी परख नहीं करते क्योंकि परमात्मा के दरबार में सिर्फ़ दया ही है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात, संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि संतमत में असफल होने जैसा कुछ है ही नहीं।
सतगुरु ने हमारे सामने अपना भेद प्रकट कर दिया है। हमारे पास लगन के साथ दृढ़तापूर्वक भजन-सिमरन करने का अवसर है। सतगुरु के प्रति प्रेम और भक्ति-भाव प्रकट करने का सबसे उत्तम ढंग यह है कि हम रोज़ाना सिमरन और भजन करने की पूरी कोशिश करें।
आइए, इस मनुष्य-जन्म के अनमोल उपहार का लाभ उठाएँ और मृत्यु को अंत समझने के बजाए शुरुआत समझते हुए इसकी तैयारी में लगें। जन्म और मृत्यु के चक्र से बचने और अपनी आत्मा को मुक्त करवाने के लिए हमें परमात्मा की तरफ़ से वरदान दिया गया है। हमें परमात्मा के दरबार में जाने का न्योता मिला है। इस सफ़र को तय करने के लिए शारीरिक तौर पर क़दम उठाने की ज़रूरत नहीं है। यह चेतना की वह अवस्था है जो मन के दायरे से परे है। हमें पहले जागरूक होना है और फिर विचारों से मुक्त ताकि हम इस संसार से ही न बँधे रह जाएँ।
सतगुरु ने प्रत्येक शिष्य को निज-घर ले जाने का वायदा किया है। आइए हम इस न्योते को विनम्रता से स्वीकार करें, अपना स्थूल चोला उतार फेंके और अपनी आत्मा को मुक्त कर लें। अपने कर्मों और संसार रूपी इस क़ैदखाने को छोड़कर परमात्मा से सच्चा मिलाप कर लेना सभी मुक्तियों में से उत्तम मुक्ति है।
सूफ़ी रहस्यवादी चिश्ती इस सफ़र का सार इस प्रकार बयान करते हैं:
नहीं परदा कोई अब आशिक़ औ माशूक़ के दरम्याँ,
कि विसाले-यार होकर हर इक दुश्मन से फ़ारिग़ हूँ।
हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती