सतगुरु के लिए हमारा उपहार
कल्पना कीजिए कि अगर हम अपने सतगुरु को कोई ऐसा उपहार दे सकें जो उन्हें सचमुच पसंद आए। शायद हम सब उन्हें कुछ न कुछ देना चाहेंगे ताकि उन्होंने हमें जो कुछ भी दिया है और निरंतर दे रहे हैं, उन सब चीज़ों के लिए, भले थोड़ा-सा ही सही, हम उनका शुक्रिया अदा कर सकें। वह अपने शिष्यों से किसी भी दुनियावी चीज़ की न तो कभी चाहत रखते हैं और न ही उनके द्वारा दी गई कोई दुनियावी चीज़ स्वीकार करते हैं। अगर हम उन्हें कोई सांसारिक उपहार नहीं दे सकते तो फिर क्या हम उन्हें कुछ ऐसा दे सकते हैं जो उनके लिए मायने रखता हो? हाँ, बिलकुल।
हम जानते हैं कि हम सब सतगुरु से किए गए वायदों को निभाकर एक अच्छे इनसान बन सकते हैं और हुक्म में रहकर उनके शुक्रगुज़ार हो सकते हैं। हम उन्हें अपना प्रेम और भक्ति भी समर्पित कर सकते हैं। लेकिन इन सबमें से सबसे मूल्यवान उपहार जो हम उन्हें दे सकते हैं, वह है हमारा ध्यान जो रूहानी मार्ग पर सोने से भी अधिक मूल्यवान है।
इनसान होने के नाते, हम यह चुन सकते हैं कि किस चीज़ पर ध्यान देना है। हमारे पास विवेक की शक्ति है और हम इस लायक़ हैं कि जाग्रत अवस्था में हम अपने विचारों को और अपने ध्यान को दिशा दे सकते हैं। जब हम अपने ध्यान को लगातार अपने सतगुरु पर केंद्रित रखते हैं तब हमारा वह सारा दिन सतगुरु और उनकी सेवा में समर्पित हो जाता है।
पर यह इतना भी आसान नहीं है, है ना? चाहना और करना—ये दोनों बिलकुल अलग बातें हैं। हम सब यही चाहते हैं कि हमारा ध्यान निरंतर हमारे सतगुरु की ओर रहे और हम ऐसे सच्चे शिष्य बन सकें जिनका ध्यान सदा अपने रूहानी उद्देश्य पर केंद्रित रहे। हो सकता है कि इस मार्ग पर रूहानी तरक़्क़ी कर चुके ऐसे शिष्य भी हों जो ऐसी अवस्था प्राप्त चुके हैं लेकिन बाक़ी सब कभी सफल होते हैं और कभी असफल—आम तौर पर अधिकांश जीव ऐसा करने में असफल ही होते हैं।
हमें इस असफलता से निराश नहीं होना चाहिए। ऐसी चाहत का होना भी प्रशंसा के योग्य है। आज के इस अत्यंत भाग-दौड़वाले और तनावपूर्ण जीवन में, कितने ऐसे ख़ुशनसीब जीव हैं जो ये चाहते हैं कि उनका ध्यान उनके सतगुरु की ओर रहे? हम कितने भाग्यशाली हैं कि हम हर रोज़ भजन-सिमरन करने की जितनी भी थोड़ी-बहुत कोशिश करते हैं, उसे अपने सतगुरु को समर्पित कर देते हैं।
इसके साथ ही हमें यह एहसास भी होना चाहिए कि हम अपनी सभी सांसारिक ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए अपने रूहानी विकास के लिए और क्या कर सकते हैं। हमें अधिक सचेत होकर इस बारे में सोच-विचार करना चाहिए कि हम अपना ध्यान किस तरफ़ लगा रहे हैं और सतगुरु को दिए जानेवाले ध्यान रूपी उपहार को बेहतर कैसे बनाया जा सकता है?
संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि हमें अच्छे इनसान बनने का प्रयास करना चाहिए। इसका अर्थ है कि हमें अपने व्यवहार को लेकर सजग रहना चाहिए, इसमें हमारा खानपान और रहन-सहन भी शामिल है। हमें इस बात को सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हमारा व्यवहार मुक्ति प्राप्त करने के हमारे रूहानी मक़सद के मुताबिक़ है।
इस सबके लिए हमें अपने विचारों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। यदि हम निरंतर सतर्क न रहें तो मन हमें अहंकार और इंद्रियों के ज़रिए बहकाकर अपने मक़सद में क़ामयाब हो जाता है।
हमारे रूहानी सफ़र का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग बाक़ी बचे हुए जीवन में हर रोज़ कम से कम ढाई घंटे भजन-सिमरन करना है। इसमें सबसे ज़्यादा अहमियत ध्यान की है। सिमरन, ध्यान और भजन तीनों के लिए हमारे ध्यान का स्थिर और एकाग्र होना बहुत ज़रूरी है।
इस मार्ग पर चलते हुए हम इतना तो जान गए हैं कि अगर दिन-भर हमारा ध्यान हमारे उद्देश्य पर केंद्रित नहीं रहता तो हमारे लिए भजन-सिमरन कर पाना कितना ज़्यादा मुश्किल हो जाता है। अगर हमने दिन-भर मन को क़ाबू में नहीं रखा तो फिर हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि भजन-सिमरन के समय यह वश में आ जाएगा? हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी फ़रमाते हैं:
संतमत की शिक्षा के अनुसार रहना, संतमत के वातावरण में रहना, अपने आप में भजन ही है। आपको चाहिए कि अपने प्रतिदिन के भजन का वातावरण बनाने के लिए अपने जीवन के हर क्षण का उपयोग करें। जो भी काम आप करें वह भजन में बैठने के लिए आपके अंदर शौक़ और प्यार पैदा करे।
जीवत मरिए भवजल तरिए
हम जिन चीज़ों पर ध्यान देते हैं उनसे हमारे जीवन की प्राथमिकताओं और उद्देश्य की झलक मिलनी चाहिए। हम उन उद्देश्यों को लेकर कितने संजीदा हैं इसका पता इस बात से चलता है कि हमारी रहनी कैसी है, हमारी सोच क्या है और हम अपने सतगुरु के हुक्म में कितना रहते हैं। जहाँ तक मुमकिन हो सके हमें पूरा दिन ऐसे बिताना चाहिए कि हम ख़ुद को भजन-सिमरन के लिए अधिक से अधिक तैयार कर सकें। क्योंकि हर वह शिष्य जो परमात्मा से मिलाप करना चाहता है उसके जीवन का सबसे ज़रूरी काम है सिर्फ़ भजन-सिमरन करना।
सतगुरु द्वारा सिखाई गई भजन-सिमरन की युक्ति के तीन भाग हैं: सिमरन, भजन और ध्यान। सिमरन से भाव है उन पाँच पवित्र लफ़्ज़ों को दोहराना, जो हमें नामदान के समय बताए जाते हैं। भजन में हमें अंदर गूँज रहे शब्द को सुनने के लिए कहा जाता है और ध्यान में अपने सतगुरु के स्वरूप को सामने लाने के लिए। सिमरन सबसे पहला और शुरू में सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है और सिमरन में हमें अपने फैले हुए ख़याल को अंतर्मुख करने का अभ्यास करना है। भजन-सिमरन वह उपहार है जिसे हम अपने सतगुरु को दे सकते हैं, जिसे वह हमेशा पसंद करते हैं।
सतगुरु चाहते हैं कि हम तीसरे तिल पर पहुँचे। सिमरन वह युक्ति है जो फैले हुए ख़याल को इकट्ठा करके तीसरे तिल पर एकाग्र करने के लिए हमें समझाई जाती है। सतगुरु हमें समझाते हैं कि हमारा सच्चा रूहानी सफ़र उस समय शुरू होता है जब हम तीसरे तिल पर पहुँच जाते हैं, इसलिए हमें यहाँ पहुँचने के लिए लगातार कोशिश करते रहना चाहिए। महाराज सावन सिंह जी ने फ़रमाया है:
इसलिए पहला ज़रूरी काम है बिखरे हुए ख़याल को तीसरे तिल में इकट्ठा करते हुए अपने शरीर रूपी प्रयोगशाला में प्रवेश करना।…यह हमारा काम है, हमें ही इसे करना है और अभी इसी ज़िन्दगी में करना है।
परमार्थी पत्र, भाग 2
आपने यह भी फ़रमाया है:
यह कोई मुश्किल काम नहीं है। बस सबकुछ ध्यान को तीसरे तिल में पूरी तरह एकाग्र करने पर निर्भर है जिसमें कोई दूसरा विचार ध्यान में प्रवेश न करे और ध्यान को केन्द्र से बाहर न ले जाये।
परमार्थी पत्र, भाग 2
हमारा ख़ज़ाना हमारे सतगुरु का नूरी स्वरूप है और स्वयं वह शब्द है जो हमारे इंतज़ार में है। असल में यह शब्द क्या है? सतगुरु का नूरी स्वरूप क्या है? और क्यों हमें इससे जुड़ने की ज़रूरत है? शब्द, जिसे‘वर्ड’ भी कहा जाता है, परमात्मा की सृजनात्मक शक्ति है।
संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि शुरू में केवल परमात्मा का ही अस्तित्व था। जब परमात्मा ने सृष्टि की रचना का हुक्म दिया तब यह सृजनात्मक शक्ति प्रकट हो गई जिससे परमात्मा ने हर चीज़ का सृजन कर दिया। हम सभी शब्द द्वारा उत्पन्न हुए हैं और आख़िरकार इसी शब्द में समा जाएँगे। संत-महात्मा समझाते हैं कि शब्द के बिना हर चीज़ की हस्ती समाप्त हो जाएगी।
सदियों से सभी पूर्ण संत-महात्माओं का मुख्य रूहानी उपदेश एक ही रहा है: परमात्मा स्वयं शब्द है और शब्द के ज़रिए उसने हर वस्तु की रचना की है। महाराज सावन सिंह जी ने फ़रमाया है:
सबका आदि और अन्त शब्द है। सब स्थूल तत्त्व, आकाश आदि, सूक्ष्म तत्त्व या तन्मात्रा, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध सब शब्द ही हैं। जो कुछ है शब्द ही है, इसलिये उससे जो कुछ प्रकट हो वह भी शब्द के सिवाय और क्या हो सकता है। शब्द हमें पैदा करनेवाला है, वह हमारा आधार है। हम शब्द के हैं और शब्द हमारा है।
गुरुमत सिद्धान्त, भाग पहला
यह निराकार शक्ति जिसे किसी भी तरह से साधारण इनसानी इंद्रियों द्वारा देखा या अनुभव नहीं किया जा सकता, हर जगह व्याप्त है और हर वस्तु का आधार है। यह शक्ति सभी पूर्ण संतों के उपदेश का आधार है। यही सुरत-शब्द योग के मार्ग का सार है। सुरत-शब्द योग का मार्ग हमें बताता है कि हमारी आत्मा इसी दिव्य शक्ति का अंश है जो कि परमात्मा की अपनी शक्ति है। इस शक्ति से जुड़ने के लिए हमें अपने ध्यान को प्रेम और भक्ति-भाव के साथ सतगुरु को समर्पित करना चाहिए। हमारा ध्यान हमारा निराला और निजी उपहार है। आइए इसे हर रोज़ अपने सतगुरु को भेंट करें।
सतगुरु शब्द स्वरूप हैं। रहें अर्श मँझार॥
तू भी सुरत स्वरूप है। रहो गुरु की लार॥
नैनन में गुरु रूप है। तू नैन उघार॥
सरवन में गुरु शब्द है। सुन गगन पुकार॥
राधास्वामी कह रहे। यह मारग सार॥
जो जो मानें भाग से। सो उतरें पार॥
सारबचन संग्रह