सतगुरु से हमारा रिश्ता
हम में से बहुत-से सत्संगी कई वर्षों से इस मार्ग पर चल रहे हैं। समय के साथ हम सभी ने यह महसूस किया है कि यह मार्ग हमारे जीवन में कितना मायने रखता है—यह सोचकर भी सिहरन होती है कि अगर हम इस मार्ग पर न होते तो हम ज़िंदगी कैसे जीते। शायद हमें यह एहसास हो गया हो कि हम कितने ख़ुशनसीब हैं कि पूर्ण देहधारी सतगुरु ने हमें खोज लिया और हमें नामदान बख़्श दिया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे सतगुरु से हमारा रिश्ता हमारे जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण रिश्ता है।
यह रिश्ता इतना पुराना है कि हम सोच भी नहीं सकते—असल में यह नाता उस पल से है जब हमारा जन्म हुआ था या शायद उससे भी पहले से। यह रिश्ता तब शुरू हुआ जब हमारे दिल में परमात्मा के लिए चाहत उठी और परमात्मा ने हमारे अंदर अपने मिलाप की तड़प पैदा कर दी। उसी पल से हम सही मायनों में उससे नाता जोड़ने का मार्ग ढूँढने लगे।
हम जानते हैं कि जो सच्चे दिल से परमात्मा से मिलाप करना चाहते हैं, उन्हें किसी ऐसे देहधारी सतगुरु की खोज करनी चाहिए जिससे वे नाता जोड़ सकें और प्रेम कर सकें। केवल देहधारी सतगुरु ही हमारे सामने उस परमात्मा रूपी परम सत्य के भेद को प्रकट कर सकते हैं जो किसी भी तरह के सोच-विचार और कल्पना से परे है। इसके अलावा, सतगुरु के लिए हमारे प्यार और हमारे लिए सतगुरु के प्यार की अहमियत को हमें कभी भी कम नहीं समझना चाहिए। आख़िरकार यही परमात्मा की खोज में हमारी मदद करेगा।
सच तो यह है कि हम कभी भी सतगुरु की खोज नहीं करते बल्कि जब शिष्य तैयार होता है तब सतगुरु ख़ुद-ब-ख़ुद उसे खोज लेते हैं। और शायद यही वजह है कि हमें इस दुनिया में कहीं भी सुकून महसूस नहीं होता। हमें हमेशा ऐसा लगता है कि जैसे हम इस दुनिया के नहीं हैं। शायद इसी वजह से हमें इस दुनिया में अकेलापन भी महसूस होता है।
संतजन बताते हैं कि यह अकेलापन एक ज़रिया है जिससे हम उस प्रभु की खोज करने के लिए बेचैन हो जाते हैं। अगर हम हमेशा इस दुनिया में सुखी होते तो हमारे मन में कभी भी परमात्मा का ख़याल तक न आता। हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी ने फ़रमाया है कि “हमारा अकेलापन आत्मा की गहरी तड़प है जो अपने परमपिता के पास वापस लौटना चाहती है।”
सतगुरु ने हमें यह भी समझाया है कि हम केवल यह शरीर नहीं हैं। हम रूहानी जीव हैं जो अब उसी शांति और परम आनंद के धाम में वापस लौटना चाहते हैं जहाँ से हम असल में आए हैं। और हम यह भी जान चुके हैं कि जिस तरह हमारा अस्तित्व सिर्फ़ शारीरिक नहीं है, उसी तरह हमारे सतगुरु भी सिर्फ़ शरीर नहीं हैं। सतगुरु का एक आंतरिक स्वरूप भी है जो रचयिता के साथ एकरूप है। और हमारे मन में सतगुरु के लिए तथा उनके अंदर हमारे लिए जो प्यार है उसके ज़रिए ही सतगुरु हमें वापस हमारे रचयिता के पास लेकर जाते हैं।
आख़िरकार सिर्फ़ एक ही बात महत्त्वपूर्ण है—हमारा अपने सतगुरु से प्रेम और उनका हमसे प्रेम। महाराज चरन सिंह जी ने फ़रमाया है कि इस दुनिया में सतगुरु और शिष्य के रिश्ते से गहरा अन्य कोई रिश्ता नहीं है। और इसकी पहल सतगुरु की ओर से होती है। उनके प्रेम के फलस्वरूप हम भी उनसे प्रेम करने लगते हैं।
पूर्ण सतगुरु हमारे अंदर अपने लिए कशिश किस तरह पैदा करते हैं इस बारे में बड़े महाराज जी गुरुमत सिद्धान्त के दूसरे भाग में फ़रमाते हैं:
गुरु में ख़ास तौर पर प्रेम की कशिश का जलवा होता है जो सच्चे तालिब को अपनी ओर खींचता है तथा संसार की समस्त निआमतों से उसके मन को विमुख करके अपनी ओर ले आता है।…गुरु की जलाली शान, बेरुखी, मस्तक पर बल डालना और मुँह फेरना, जमाली शान (सुन्दर रूप), जलवा दिखाना (दर्शन प्रदान करना), हार्दिक सहानुभूति के साथ बातें करना, मुस्कराना—सब ही बातें सच्चे तालिब को बेधती और मोहित करती चली जाती हैं।
हमारी आत्मा उन्हें पहचानती है और उनसे एक होना चाहती है। सबसे अद्भुत बात तो यह है कि हमारे सतगुरु को इसी मक़सद से भेजा गया है।
कभी-कभी हमें लगता है कि हम भटक गए हैं। हमें लगता है कि हमारे सतगुरु हमसे इतने दूर हैं कि हम उन तक नहीं पहुँच सकते। लेकिन वह हमें यक़ीन दिलाते हैं कि वह सदा हमारे साथ हैं। वह हमारा साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। अब यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम भी अपना फ़र्ज़ निभाएँ। इस मार्ग पर सतगुरु के साथ चलना एक साँझेदारी है जिसमें मुख्य भूमिका सतगुरु ही निभा रहे हैं। हम उनकी करनी को नहीं समझ सकते और शायद इस सारे सफ़र में हमारी भूमिका बहुत छोटी है। अपनी बेबसी और अज्ञानता को ध्यान में रखते हुए हमें केवल वही करना चाहिए जो हमारे सतगुरु हमें करने के लिए कहते हैं।
अपनी तरफ़ से जो थोड़ा-बहुत हम कर सकते हैं वह है भजन-सिमरन करना और इस मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चलने की कोशिश करना—इस तरह हमें अपना फ़र्ज़ निभाना है। तीसरे तिल से नीचे-नीचे हम जो कर सकते हैं, हमें करना है जबकि सतगुरु अंदर अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं जिसे हम अभी देख नहीं सकते। अगर हमें यह लगता है कि यह कार्य बहुत धीमी गति से हो रहा है तो इसे तेज़ करने का एक ही तरीक़ा है—मेहनत करना। इसके बाद सतगुरु पर यह भरोसा रखना चाहिए कि उचित समय आने पर, वह हमें सब कुछ दे देंगे।
सतगुरु हमारे कर्म अपने ऊपर नहीं लेते—वह हमारे प्रारब्ध को नहीं बदलते। लेकिन कर्मों के भुगतान में वह हमारी मदद करते हैं। वह हमें इतनी हिम्मत बख़्श देते हैं कि हम सहज-भाव से उन कर्मों का भुगतान कर देते हैं और हमें वह बोझ हल्का महसूस होता है, हमारे लिए उसे उठाना आसान हो जाता है।
वह हमें नए कर्म करने से भी नहीं रोकते क्योंकि वह जानते हैं कि जीवन गुज़ारते हुए नए कर्म करने से बचा नहीं जा सकता। हमें यह बताया गया है कि सिर्फ़ भजन-सिमरन करने से इन नए कर्मों का हिसाब बहुत हद तक चुकता हो जाता है। और अगर हम नैतिक जीवन जीते हैं तो हम नए कर्मों का बोझ बढ़ाने से बच जाते हैं। फिर भी, हमें इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि हम कई बार ग़लत लफ़्ज़ बोल जाते हैं या ग़लत कर्म कर बैठते हैं जिसके लिए शायद बाद में हमें शर्मिंदगी भी महसूस होती है या फिर इसी वजह से हमारा भजन-सिमरन भी बहुत डाँवाडोल रहता है। मगर फिर भी, सतगुरु हमसे नाराज़ नहीं होते। इस बारे में महाराज जी ने एक बार किसी से फ़रमाया:
मैं आपको इस बात का यक़ीन दिला दूँ कि हम कभी उसे नाराज़ नहीं करते। हम उसे नाराज़ कैसे कर सकते हैं?…जब वह जानता है कि हम कितने बेबस हैं, मन के कितने अधीन हैं, हर क़दम पर ठोकर खाते हैं।…लेकिन संतमत के उसूलों के अनुसार जीवन बिताकर, भजन-सिमरन को पूरा वक़्त देकर हम उसे ख़ुश ज़रूर कर सकते हैं। ऐसा करने से वह ज़रूर ख़ुश होता है, लेकिन उसे नाराज़गी किसी बात से नहीं होती।
संत संवाद, भाग 3
यह जानते हुए कि हम उनकी ख़ुशी प्राप्त करने के लिए क्या कर सकते हैं; हमें चाहिए कि हम सिर्फ़ उनसे प्रेम करें और उनके हुक्म का पालन करें। इस दुनिया में हमारे लिए उनके हुक्म का पालन करना ही प्रेम है। महाराज जी अक़सर फ़रमाते थे कि प्रेम भजन-सिमरन द्वारा पैदा होता है। हम भजन-सिमरन द्वारा अपने प्रेम को बढ़ा सकते हैं। यह सच है कि जब हम सतगुरु की हुज़ूरी में होते हैं तब हम उनके प्रति गहरा प्रेम महसूस करते हैं। लेकिन कई बार वह प्रेम भी महसूस नहीं होता। फिर भी सतगुरु हमें यक़ीन दिलाते हैं कि जब हम अंदर उनसे मिलाप कर लेंगे तब हमें समझ आएगा कि सतगुरु से प्रेम करने के क्या मायने हैं।
तब तक हम केवल उनकी आज्ञा का पालन कर सकते हैं। हम केवल भजन-सिमरन के अभ्यास में लगे रह सकते हैं, भले ही इसके लिए हमें मन के साथ कितना भी संघर्ष क्यों न करना पड़े। संत-महात्मा हमें पहले ही चेतावनी दे चुके हैं: यह संघर्ष जीवन-भर भी चल सकता है। क्योंकि हम अपने चंचल मन को क़ाबू करने की कोशिश में लगे हैं जो पल-पल हमें भटकाता रहता है।
असल में अपने ख़याल को सांसारिक कार्य-व्यवहार की तरफ़ से रोकने का केवल एक ही तरीक़ा है: वह है हमारा सिमरन—मन ही मन उन लफ़्ज़ों को दोहराना जो सतगुरु ने हमें बताए हैं। सिर्फ़ सिमरन ही वह ज़रिया है जो हमारे विचारों के प्रवाह को रोक सकता है और चाहे कुछ पलों के लिए ही सही, यह हमारे मन को स्थिर कर सकता है। लेकिन ध्यान के ज़रिए इन पलों को लंबा किया जा सकता है। और जब हम भजन के लिए बैठते हैं तब हमें फिर से स्थिर होकर सिर्फ़ सुनना है। हो सकता है कि हमें कुछ भी सुनाई न दे लेकिन हमें पूरे ध्यान से सुनना चाहिए। केवल सिमरन और भजन ही वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने सतगुरु के शब्द-स्वरूप से जुड़ सकते हैं।
लेकिन हममें से अधिकतर लोगों के लिए भजन-सिमरन करना एक संघर्ष है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम सभी ने कभी न कभी निराशा या दु:ख महसूस किया है, जब हमें ऐसा लगता है कि हमारी कोई तरक़्क़ी नहीं हो रही। मगर हो सकता है कि हमारे इस संघर्ष का मक़सद हमारे अंदर सतगुरु के प्रति विरह की भावना को बढ़ाना हो।
असल में हम किस चीज़ के लिए तड़प रहे हैं? हम भजन-सिमरन शायद इसलिए करते हैं क्योंकि हम अपने सतगुरु के नूरी स्वरूप का दर्शन करना चाहते हैं। अगर हम बाहर उनके साथ नहीं रह सकते तो हम अंदर उनके साथ रहना चाहते हैं। मगर हमें बताया गया है कि सतगुरु का आंतरिक स्वरूप शब्द ही है। दूसरे शब्दों में कहें तो सतगुरु का असल स्वरूप शब्द-धुन और प्रकाश है। अगर हमारे अंदर इस शब्द-धुन और प्रकाश के लिए तीव्र इच्छा है तो इसका अर्थ है कि हम अपने सतगुरु के नूरी स्वरूप के लिए ही तड़प रहे हैं। असल में ये एक ही हैं।
डाई टू लिव में महाराज जी फ़रमाते हैं: सतगुरु के दर्शन की तड़प हमें भजन-सिमरन की ओर ले जाती है। और जब हमें बाहर सतगुरु के दर्शन नहीं होते तब हम उन्हें अंदर ढूँढने की कोशिश करेंगे। उनके दर्शन की चाह ही हमें अंतर की ओर ले जाएगी और हमारी सुरत उस मुक़ाम पर पहुँच जाएगी जहाँ हमारे सतगुरु मौजूद होंगे, जहाँ वह सदा हमारे अंग-संग रहेंगे।
सजनी रजनी घटती जाइ।
पल पल छीजै अवधि दिन आवै, अपनौं लाल मनाइ॥
अति गति नींद कहा सुख सोवै, यहु औसर चलि जाइ॥
यहु तन बिछरें बहुरि कहँ पावै, पीछें ही पछिताइ॥
प्राणपति जागै सुंदरि क्यों सोवै, उठि आतुर गहि पांइ॥
कोमल बचन करुणा करि आगैं, नख सिख रहु लपटाइ॥
सखी सुहाग सेज सुख पावै, प्रीतम प्रेम बढ़ाइ॥
दादू भाग बड़े पिव पावै, सकल सिरोमणि राइ॥
सन्त दादू दयाल