मनुष्य-जन्म—एक उपहार
हम शरीर नहीं हैं। न ही हम विचार, कर्म और भावनाएँ हैं। हमारी असली पहचान हमारी आत्मा है। संत-महात्मा समझाते हैं कि परमात्मा रूपी समुद्र की बूँद होने के कारण आत्मा के अंदर उस परमपिता परमात्मा जैसे गुण मौजूद हैं। सतगुरु हमें समझाते हैं कि यह नाशवान दुनिया आत्मा का असली घर नहीं है। इसका निज-घर शाश्वत सत्य और आनंद का धाम है।
इस शरीर के ज़रिए हमारा संबंध मन व इंद्रियों के साथ जुड़ गया। इंद्रियों के भोगों ने मन को भटका दिया जिसके फलस्वरूप, धीरे-धीरे आत्मा का प्रकाश धुँधला पड़ गया। आत्मा शरीर के बंधनों में बँध गई और जन्म-दर-जन्म इस रचना के साथ मज़बूती से बँधती चली गई। इसके फलस्वरूप, आत्मा अपने निर्मल स्वरूप और असल मक़सद को भूल गई।
संत-महात्मा समझाते हैं कि हमें इस सृष्टि में सदा रहने के लिए नहीं भेजा गया था। हमारा मक़सद वापस अपने मूल स्त्रोत में समाकर अपने रचयिता से मिलाप करना था। मनुष्य-जन्म रूपी यह उपहार प्राप्त होने से पहले हमें इस दुनिया में बहुत-सी अलग-अलग योनियों में जन्म लेना और मरना पड़ा है। यह मनुष्य-शरीर इतना मूल्यवान इसलिए है क्योंकि सिर्फ़ इस देह को पाकर ही परमात्मा के पास वापस लौटा जा सकता है।
जब हमारी आत्मा पहली बार नीचे इस दुनिया में उतरी तब से मन सदा इसके साथ रहा है। मन इंद्रियों के अधीन है और इंद्रियाँ हमारी इच्छाओं के। जो भी चीज़ मन को पहली चीज़ों से बेहतर लगती है, यह उसे प्राप्त करने के लिए निरंतर कोशिश करता रहता है: और अधिक धन-दौलत, और ऊँचा रुतबा, और अधिक ताक़त और ज़्यादा भौतिक सुख-सुविधाएँ इत्यादि ताकि इसे ख़ुशी मिल सके। मन के प्रभाव में आकर हम परमात्मा से और ज़्यादा दूर होते चले गए। मगर हमारी आत्मा बेचैन हो गई और हम आत्मिक सुख व परमात्मा के प्रेम के लिए तड़पने लग गए। संत-सतगुरु हमें समझाते हैं कि मन हमारा सबसे ख़तरनाक दुश्मन है, परंतु अगर इसे क़ाबू में कर लिया जाए तो यह उत्तम सेवक भी बन सकता है।
युगों-युगों से, संत-महात्मा हमें समझाते आए हैं कि परमात्मा हमारे शरीर में ही निवास करता है। हमें उसकी खोज में बाहर भटकने की ज़रूरत नहीं है। हमें जिस चीज़ की तलाश है, वह पहले से ही हमारे अंदर है। इसलिए हमें समझाया जाता है कि अपने ध्यान को अंतर्मुख करें और अपने विचारों को उस परमात्मा की ओर मोड़ें। वहाँ पहुँचकर हमें शांति और संतोष प्राप्त होगा, जिसके लिए हमारी आत्मा तड़पती है।
मनुष्य-जन्म का मिल जाना निज-घर वापसी के सफ़र का पहला क़दम है। अपने जीवन के उद्देश्य और अपने असल स्वरूप के बारे में याद दिलाए जाना अगला क़दम है।
सर्वज्ञाता परमात्मा यह जानता है कि इस कार्य को अपने दम पर पूरा कर पाना मनुष्य के बस की बात नहीं है। इसलिए उसे हम पर दया आई और उसने हमें अज्ञानता की गहरी नींद से जगाने के लिए संत-महात्माओं को इस दुनिया में भेज दिया।
मनुष्य-जन्म रूपी इस उपहार की अहमियत, अपने असल स्वरूप का ज्ञान और हमारे जीवन के उद्देश्य के बारे में पूरी समझ तब आती है जब हम अपने वक़्त के पूर्ण सतगुरु की शरण में आते हैं। वह हमें समझाते हैं कि हम शरीर नहीं हैं, हम निर्मल आत्मा हैं जो पूरी तरह मन और इंद्रियों के अधीन है। जैसे ही हम अपने सतगुरु के उपदेश पर अमल करना शुरू कर देते हैं हमें एहसास होने लगता है कि इस मनुष्य-जीवन का सच्चा उद्देश्य अपनी आत्मा को वापस परमात्मा में अभेद करना है। सतगुरु के मार्गदर्शन द्वारा हम इस क़ीमती ख़ज़ाने को प्राप्त करने का भेद जान जाते हैं।
जो सच्चे दिल से सत्य की खोज करते हैं, सतगुरु उन्हें जीवन का सबसे क़ीमती ख़ज़ाना—नाम रूपी दात बख़्श देते हैं। अलग-अलग समय पर, अलग-अलग धर्मों व देशों में हुए संत-महात्मा इसी एक सत्य को समझाने के लिए इस सृष्टि में आए हैं कि ‘नाम’ जो स्वयं परमात्मा की रचनात्मक शक्ति है जिसके ज़रिए इस संपूर्ण सृष्टि का सृजन हुआ है और जिसके आधार पर यह सृष्टि क़ायम है, वह शक्ति कहीं बाहर नहीं, हमारे अंदर ही है। नामदान के वक़्त भजन-सिमरन करने का जो तरीक़ा हमें बताया जाता है उसे ‘सुरत-शब्द योग’ कहा जाता है। इसके अभ्यास द्वारा हम अपनी सुरत को शब्द में लीन कर देते हैं और इसकी शक्ति द्वारा हमारी सुरत ऊपर की ओर चढ़ाई करती हुई सूक्ष्म रूहानी मंडलों में से होती हुई परमपिता परमात्मा के पास पहुँच जाती है।
यह अपनी पहचान और फिर परमात्मा की पहचान का मार्ग है। यह मार्ग सरल लगता है, मगर इस पर चलना इतना आसान नहीं है, इसलिए संत-महात्मा नामदान के बाद भी निरंतर हमारा मार्गदर्शन व हमारी सँभाल करते हैं। वह हमें हमारी अंतिम मंज़िल तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी लेते हैं। परमात्मा से मिलाप के बाद हमें वह अमूल्य दौलत प्राप्त हो जाती है जिसकी तुलना में बेशक़ीमती रत्न भी फीके लगने लगते हैं। प्यार व भक्ति के ज़रिए हम परमात्मा के दिव्य प्रकाश का अनुभव कर सकते हैं।
सुरत-शब्द योग का अभ्यास—परमात्मा के नाम पर ध्यान एकाग्र करना—हमारी आत्मा को परमात्मा के साथ मिला देता है, इस अभ्यास द्वारा हमारे अंदर परमात्मा के लिए सच्चा प्यार जागृत हो जाता है। यह ‘नाम’ यानी शब्द ही संपूर्ण ब्रह्मांड की सँभाल करता है और यही परमात्मा की सृजनात्मक शक्ति का साकार रूप है। परमात्मा का पैग़ाम हम तक पहुँचाने वाले सच्चे संत देहधारी ‘नाम’ होते हैं। परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के कारण वह उस ख़ास मुक़ाम पर पहुँच चुके होते हैं जहाँ उन्हें परमात्मा से मिलाप की युक्ति का ज्ञान हो जाता है और वह अपने शिष्यों को भी इस युक्ति का भेद समझा सकते हैं।
सतगुरु की शरण लेना और उनके द्वारा सिखाई गई युक्ति के अनुसार भजन-सिमरन करना ही आवागमन के चक्र से मुक्त होने का एकमात्र रास्ता है। अपनी सुरत को अंदर शब्द के साथ जोड़कर, धीरे-धीरे हमारे सभी कर्मों का नाश हो जाता है। जब सभी कर्म नाश हो जाते हैं, तभी आत्मा निर्मल रूहानी मंडलों में दाख़िल हो सकती है। जब आत्मा परमात्मा में समा जाती है तब हमारा आंतरिक सफ़र समाप्त हो जाता है।
नामदान के समय सतगुरु द्वारा सिखाई गई भजन-सिमरन के अभ्यास की युक्ति समझने में तो आसान है लेकिन उस पर अमल करना मुश्किल है। इस सफ़र के पहले पड़ाव पर हम ‘तीसरे तिल’ पर पहुँच जाते हैं जो हमारी इन दो स्थूल आँखों के पीछे व ऊपर है। दूसरा पड़ाव तीसरे तिल से शुरू होकर सबसे ऊँचे रूहानी मंडल तक है। तीसरी आँख के खुलने पर ही दूसरा पड़ाव शुरू होता है।
शरीर के नौ द्वारों के ज़रिए हमारा ध्यान हमेशा दुनिया में फैला रहता है। मन एकाग्रता को प्राप्त करने की हमारी बहुत-सी कोशिशों को नाक़ाम कर देता है। हर समय सांसारिक शक्लों-पदार्थों का सिमरन करते रहना मन की क़ुदरती आदत है। संत-महात्मा हमें मन की इसी आदत का लाभ उठाकर इसे दुनिया के सिमरन की बजाय परमात्मा के सिमरन में लगाने का सुझाव देते हैं। जब हम कोई ऐसा कार्य कर रहे हों जिसमें हमारी पूरी तवज्जोह की ज़रूरत नहीं पड़ती तब हम मन को सिमरन में लगाकर इसे भजन-सिमरन के लिए तैयार कर सकते हैं।
लगातार सिमरन करते रहने से हम रूहानी ऊर्जा से भरपूर रहते हैं जिससे भजन-सिमरन के समय तीसरे तिल पर ध्यान को एकाग्र करना आसान हो जाता है। ‘ध्यान’ सतगुरु द्वारा दी गई दात है जो वह हमें सही समय आने पर देंगे। भजन के दौरान हम शब्द-धुन को सुनने की कोशिश करते हैं जो हमारे अंदर निरंतर गूँज रही है। एक बार शब्द से जुड़ जाने के बाद हम ‘प्रकाश व शब्द-धुन’ के आनंद में लीन होकर अपने सतगुरु के साथ अंदर अद्भुत रूहानी मंडलों को पार करते जाते हैं जब तक कि हम परमपिता परमात्मा के चरणों में नहीं पहुँच जाते।
आज के समय में तनावपूर्ण और व्यस्त दिनचर्या के कारण हमारा इस दुनिया रूपी दलदल में फँसकर रह जाना स्वाभाविक है। हममें से जिन जीवों को देहधारी सतगुरु की संगति का सौभाग्य प्राप्त है, उन्हें इन उपहारों की क़द्र करनी चाहिए। मनुष्य-जन्म और नामदान—ये दोनों उपहार हमें परम सत्य और हमारे जीवन के उद्देश्य के प्रति सचेत करते हैं। हम इस दुनिया में रहते हुए इससे बेलाग होकर जीवन व्यतीत कर सकते हैं और भ्रम के दायरे से ऊपर उठकर अपने भीतर छिपे ख़ज़ाने को प्राप्त कर सकते हैं।