कर्म-प्रधान संसार
जब हम भीड़ में खड़े होकर दुनिया को देखते हैं तब हमें क्या दिखाई देता है—क्या हम सिर्फ़ लोगों को ज़िंदगी का आनंद लेते और अपने कार्यों में व्यस्त देखते हैं? दरअसल, हम जो देखते हैं, वह कर्मों के सागर में उठते-गिरते ज्वार-भाटे और लहरें हैं, जो हमारे सामने जीवंत दृश्य के रूप में प्रकट होती हैं। और यह सिर्फ़ सीमित दायरे में ही सच नहीं है—यह संसार में घट रही हर घटना के पीछे की सच्चाई है।
जब हम इसका विश्लेषण करते हैं तब हमें एहसास होता है कि हम जो भी देख रहे हैं, वह जीवों द्वारा अतीत में किए गए कर्मों का फल है जो उन्हें वर्तमान में प्राप्त हो रहा है। इस भौतिक जगत को स्वर्ग बनाने के उद्देश्य से नहीं रचा गया। असल में, हम ख़ुद को एक अंधकारपूर्ण और भयानक सागर में पाते हैं, जहाँ हमें अपने प्रारब्ध के अनुसार उतार-चढ़ाव में से गुज़रना पड़ता है। इस संदर्भ में, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है जब स्वामी जी महाराज ने इस संसार के बारे में यह फ़रमाया:
जग में घोर अंधेरा भारी। तन में तम का भंडारा॥
सारबचन संग्रह
यह समझना मुश्किल नहीं है कि आपने संसार को इस रूप में बयान क्यों किया है। हम जानते हैं कि संसार में सभी जीवों पर इंद्रियों के भोगों, सत्ता और उच्च पदों व हर प्रकार की संपदा को पाने का जुनून सवार है। लोग अपनी निजी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हर तरह के ग़लत कर्म करते हैं। देश अपने निजी हितों के लिए युद्ध करते हैं। आज भी ऐसे राष्ट्र और लोग हैं जो घातक संघर्ष में उलझे हुए हैं। हैरानी होती है कि क्या कभी ऐसा समय भी था जब संसार में शांति और सद्भाव रहा हो?
यदि हम अपने सतगुरु के मार्गदर्शन द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर स्थिति का विश्लेषण करें तो हम स्पष्ट देख सकते हैं कि इस दु:खद स्थिति की सारी वजह अहंकार और निजी स्वार्थों की पूर्ति है। लोग इस ग़लतफ़हमी का शिकार होकर अपनी इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करते हैं कि इससे उन्हें ख़ुशी प्राप्त होगी। लेकिन वे कभी भी इस बात पर विचार नहीं करते कि इन कर्मों का क्या परिणाम होगा। वे कर्म करते जाते हैं, उन्हें लगता है कि उन्हें इन कर्मों का कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा, मगर हम सब जानते हैं कि ऐसा कोई कर्म नहीं है जिसका कोई परिणाम न हो। इस संसार में बिना क़ीमत चुकाए कुछ भी नहीं मिलता।
कर्म के बाद परिणाम का अर्थ है कि हर बार जब हम कोई नया कर्म करते हैं तब हम उसके परिणाम से बँध जाते हैं जो बाद में मिलता है। ये परिणाम समय आने पर मिलते हैं और इस बात को समझ लेना चाहिए कि ये ज़रूरी नहीं कि कर्म करने के तुरंत बाद ही परिणाम सामने आ जाए—इसमें वर्ष, दशक, यहाँ तक कि कई जन्म भी लग सकते हैं। यह मुमकिन नहीं है कि हम इस जन्म में किए गए सभी कर्मों का हिसाब इसी जन्म में चुका पाएँ, पिछले जन्मों में किए गए कर्मों की तो बात ही छोड़ देनी चाहिए।
इसके अलावा, जिन हालात में से हम गुज़र रहे हैं, उनका आधार हमारा प्रारब्ध है। अगर हम सांसारिक सुखों के पीछे भागते रहेंगे और दिन-ब-दिन अतिरिक्त कर्मों का बोझ उठाते रहेंगे तो हम भूलभुलैया में फँसे चूहों से बेहतर कैसे हो सकते हैं, जो पनीर के टुकड़े को पाने की चाह में भाग रहे हैं? जब तक इस भूलभुलैया से बाहर निकल चुका कोई व्यक्ति हमारी मदद और हमारा मार्गदर्शन न करे, हम इस भुलभूलैया से बाहर निकलने की उम्मीद कैसे रख सकते हैं?
संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि आत्मा को चौरासी लाख अगल-अलग योनियों में से किसी भी योनि में जन्म मिल सकता है। इसलिए मनुष्य के रूप में जन्म लेना एक दुर्लभ और अनमोल अवसर है। यह ख़ास तौर पर इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि केवल मनुष्य-जन्म में ही हम मुक्ति प्राप्त करने की आशा रख सकते हैं। चूँकि हम इस भरोसे नहीं बैठ सकते कि हमें हर बार यह अवसर प्राप्त हो जाएगा, इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि हम मनुष्य-जन्म के रूप में मिले इस अद्भुत अवसर की अहमियत को पहचानें।
जो कुछ हम हमेशा से करते आए हैं, वही सब करते हुए इस क़ीमती अवसर को गँवा देना बहुत बड़ी मूर्खता होगी। हम सृष्टि के आरंभ से ही मन और माया के बंधनों में जकड़े हुए हैं परंतु अब हमें मौक़ा मिला है जिसमें हम सर्वोच्च मुक्ति के लिए कोशिश कर सकते हैं।
चूँकि हमें मनुष्य-जन्म की दात प्राप्त हो गई है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि हमने इस संसार में आवागमन के चक्र से मुक्ति पाने की पहली रुकावट को पार कर लिया है। लेकिन अगर हम वही सब करते रहेंगे जो हम हमेशा से करते आए हैं तो हमारे दु:खों का वह सिलसिला जारी रहेगा जिससे हम छुटकारा पाना चाहते हैं। फिर हम मन और इंद्रियों के चंगुल से कैसे बच पाएँगे जिन्होंने हमें अब तक बंदी बनाकर रखा है?
पूर्ण संत-महात्मा हमें माया की इस भूलभुलैया से निकालने के उद्देश्य से ही इस संसार में आए हैं। वे हमारे अनेक प्रश्नों के उत्तर लेकर और हमें मुश्किल हालात से बाहर निकालने के लिए आते हैं।
सतगुरु हमें समझाते हैं कि हम किस तरह इस संसार रूपी बंदीख़ाने में दु:खों से घिरे हुए हैं और मन ने किस तरह लगातार दुनिया में उलझाकर हमें हमारी असलियत ही भुला दी है कि हम असल में उस रचयिता की अमर-अविनाशी संतान हैं।
हमारी सच्ची विरासत स्वयं वह परमात्मा है, फिर भी हम संसार के क्षणभंगुर आकर्षणों की दलदल में फँसे रहते हैं। सतगुरु के अमूल्य उपदेश को समझने और उस पर अमल करने में हम बहुत लापरवाही करते हैं। वह समझाते हैं कि सिर्फ़ भजन-सिमरन द्वारा मन को स्थिर करके इसे तीसरे तिल पर ले जाकर ही हम इस संसार के बंधनों से आज़ाद हो सकते हैं। मन और माया के चंगुल से मुक्त होने का एकमात्र तरीक़ा अपने शरीर के अंदर दाख़िल होकर नाम से जुड़ना है। आख़िरकार यही हमें हमारे सच्चे घर और परमपिता परमात्मा के पास वापस ले जाएगा।
यह नाम परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति है जिसके ज़रिए उसने सब कुछ रचा है और जिसके ज़रिए वह अब भी इसकी सँभाल कर रहा है। इस शक्ति के अनेक नाम हैं—वर्ड, लॉगॉस, शब्द, कलमा, ताओ इत्यादि। लेकिन वह बुनियादी सच एक ही है: हम सभी के भीतर वह दिव्य धारा जिससे कोई भी जीव जुड़ सकता है जो अपने परमपिता परमात्मा के धाम वापस लौटना चाहता है। इसे पूर्ण देहधारी सतगुरु द्वारा समझाई गई युक्ति पर अमल करके हासिल किया जा सकता है।
इसके लिए कुछ विशेष शर्तों का पालन करना ज़रूरी है वरना हमारी कोशिशें व्यर्थ सिद्ध होती हैं। सबसे पहले हमें शाकाहारी भोजन को अपनाना होगा। हमें सचेत होकर ऐसे भोजन का चुनाव करना है जिससे कम कर्म इकट्ठे हों ताकि हमारे कर्मों का बोझ कम से कम रहे।
दूसरा, हमें उन पदार्थों से परहेज़ करना चाहिए जिनसे हमारा मन फैलता है। इनमें शराब, मादक पदार्थ और तंबाकू इत्यादि शामिल हैं। चूँकि रूहानी अभ्यास का उद्देश्य मन को एकाग्र और स्थिर करना है, इसलिए स्पष्ट है कि इन पदार्थों का सेवन हानिकारक सिद्ध होगा और हमारे जीवन के मुख्य उद्देश्य के अनुकूल नहीं होगा।
तीसरा, हमें नैतिक जीवन व्यतीत करना चाहिए जैसा कि बहुत-से धर्मों और ईसाई धर्म के दस आदेशों में भी समझाया गया है। आख़िरी शर्त यह है कि हमें भजन-सिमरन करना चाहिए, जो हमें हमारी रूहानी विरासत की ओर लेकर जाता है।
सिर्फ़ अपने सतगुरु के हुक्म का पालन करके ही हम आंतरिक सूक्ष्म मंडलों में चढ़ाई कर सकते हैं। इससे हम उस दिव्य शब्द से जुड़ पाएँगे जो हमें हमारे कर्म के ऋण से मुक्त करेगा, हमारी आत्मा से मन और माया के पर्दों को हटा देगा और हमें परमात्मा की हुज़ूरी में पहुँचने के लायक़ बनाएगा।
हमें यह मान लेना चाहिए कि हम सचमुच असहाय और अज्ञानी हैं। हमारा एकमात्र सहारा हमारे सतगुरु ही हैं और उनके मार्गदर्शन में रहते हुए उनके उपदेश पर अमल करना ही सबसे बड़ी समझदारी है। इसी से हमें सफलता मिलेगी।
हमारे जीवन में इतनी ज़्यादा समस्याओं के पैदा होने की एक ही वजह है, वह है हमारा ‘अहंकार’। हमें अपने अहंकार को एक तरफ़ रखकर सतगुरु द्वारा दिखाए मार्ग पर चलने की आदत डालनी चाहिए और अपना पूरा ध्यान उस रूहानी अभ्यास में लगाना चाहिए जिसकी युक्ति उन्होंने हमें समझाई है।
अब हमें देर नहीं करनी चाहिए। समय किसी के लिए नहीं रुकता– यह जीवन भी सदा क़ायम नहीं रहता। हमारे पारिवारिक सदस्यों और उन मित्रों की सूची लंबी होती जा रही है जो हमारा साथ छोड़कर इस दुनिया से जा चुके हैं और निश्चय ही हमारा समय भी नज़दीक आ रहा है। यही करनी करने का समय है। टालमटोल करना हमारे हित में नहीं है।
हमारा हर दिन भजन-सिमरन से शुरू होना चाहिए और सतगुरु की मौजूदगी का एहसास निरंतर बना रहना चाहिए। सिमरन करके हम सतगुरु को अपने नज़दीक ला सकते हैं और जब भी हमारे पास थोड़ा-सा ख़ाली समय हो, हम बैठकर, चाहे कुछ मिनटों के लिए ही सही, एकाग्रचित्त होकर सिमरन और भजन की कोशिश कर सकते हैं।
उनकी मौजूदगी के निरंतर एहसास से हमारी तरक़्क़ी तेज़ी से होगी और हम पाएँगे कि हमारा दैनिक जीवन भक्ति और दया-मेहर के रंग में रँग गया है।
तू नहिं जाने भेद। भर्म जाल में फँस रहा॥
या ते कर विश्वास। गुरु बिन और न दूसरा॥
गुरु का घाट निहार। सुरत बाँध निज शब्द में॥
शब्द बिना कोइ नाहिं। जो काढ़े इस फंद से॥
ता ते शब्द किवाड़। खोलो गुरु कुँजी पकड़॥
स्वामी जी