चल री सुरत अब गुरु के देश
स्वामी जी महाराज हमें समझाते हैं कि हम वास्तव में इस दुनिया के नहीं हैं। आप इसे पराया देश कहते हैं। यहाँ जो चीज़ें हमें इतनी वास्तविक और अपनी-सी लगती हैं, वे सब मायामय हैं। आप आत्मा को सतगुरु के लोक में आने का निमंत्रण देते हैं:
चल री सुरत अब गुरु के देश। जहाँ न काया कर्म कलेश॥
तन मन इन्द्री यह परदेश। छोड़ो भेष भवन का लेश॥
सुनो कान से गुरु संदेश। सुरत शब्द ले धाओ शेष॥
सारबचन संग्रह
स्वामी जी महाराज हमें समझाते हैं कि शरीर, मन और इंद्रियाँ हमारा असली वुजूद नहीं हैं। ये सब एक ऐसे खेल का हिस्सा हैं जिसमें हम फँसे हुए हैं। यह बहुत विशाल और पेचीदा खेल है: इस खेल को आत्मा द्वारा अलग-अलग हालात में अलग-अलग शरीर धारण करके खेला जाता है। यह खेल स्थान और समय के मंच पर खेला जाता है जो कि कड़े नियमों या क़ानूनों के अधीन होता है। यह खेल हमें वास्तविक लगता है लेकिन संत-महात्मा हमें समझाते हैं कि ये सब भ्रम है।
हम इस संसार के नहीं हैं। हम परम धाम से आए हैं, एक ऐसे मुक़ाम से जो देवताओं की पहुँच से भी परे है—एक ऐसे मंडल से जहाँ स्थूल, सूक्ष्म और कारण जगत के शासक काल की कोई शक्ति या प्रभाव नहीं है।
मन द्वारा किए कर्मों और इच्छाओं के फलस्वरूप आत्मा युगों-युगों से एक जन्म के बाद दूसरे जन्म, एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण कर आवागमन के अनंत चक्र में पड़ी हुई है। इस तरह आत्मा कर्मों, इच्छाओं और मोह के बोझ को लगातार बढ़ाती जाती है जो इसे तब तक इस खेल से बाँधे रखता है जब तक कि वह अपने असल स्वरूप और अपने मूल को नहीं जान लेती।
संत-महात्मा समझाते हैं कि आत्मा ही जीवन को चलानेवाली वास्तविक शक्ति है। मन ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए आत्मा को अपने अधीन किया हुआ है और फलस्वरूप आत्मा इस दृश्यमान जगत के प्रलोभनों में फँस गई है। हम इंद्रियों और उनसे उत्पन्न हुई इच्छाओं के कारण इस संसार में फँस गए हैं। इस प्रकार मन इंद्रियों का ग़ुलाम बन गया है और हम अपनी आत्मा को ही भूल गए हैं। हम असल सत्य से पूरी तरह बेख़बर हो गए हैं। अपने कर्मों के कारण, हम अपने भाग्य की कठपुतली बन गए हैं।
मन, शरीर और इंद्रियाँ हमारे सामने मुश्किल चुनौतियाँ पेश करते हैं और इन पर जीत हासिल करने में पूरा जीवन लग सकता है। मन के प्रभाव से बच पाना बेहद मुश्किल है। हम संत-महात्माओं के उपदेश को सुनते हैं और उसे सच मान लेते हैं। हम स्वयं को कितना भाग्यशाली समझते हैं, मगर मन फिर भी मनमानी करता रहता है; हम ख़ुद को लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, महत्वाकांक्षा और कई तरह के मोह से घिरा हुआ पाते हैं।
आंतरिक रूहानी मंडलों में दाख़िल होने के लिए, हमें संत-सतगुरुओं के निर्देश के अनुसार अपनी चेतना के स्तर को ऊँचा उठाना पड़ेगा। यह शायद इनसान द्वारा किया जानेवाला सबसे कठिन कार्य है। यह अभ्यास ही संतमत का असल सार है। यह शब्द-धुन में समाकर आत्मा के परमात्मा से पुन: मिलाप की प्रक्रिया है। शब्द में समाए बिना, हम मन और माया के दायरे से ऊपर उठकर अपने सच्चे घर नहीं लौट पाएँगे।
संत-महात्मा समझाते हैं कि सारी रचना शब्द द्वारा ही रची गई है। यह असल में परमात्मा का क्रियाशील रूप है, और यदि हम ख़ुद को इसमें लीन कर दें तो हम अंतत: परमपिता परमात्मा में समा जाएँगे। हालाँकि शब्द को स्पष्ट रूप से सुनने के लिए पहले हमें अपने ध्यान को बाहरी जगत से हटाकर तीसरे तिल पर एकाग्र करना पड़ेगा, जहाँ पर मन और आत्मा की गाँठ बँधी हुई है।
दु:ख की बात तो यह है कि हममें से ज़्यादातर लोगों को आत्मा के बारे में पता ही नहीं है। हमारी आत्मा कर्मों, इच्छाओं और मोह के बोझ तले इतना दब चुकी है कि हमें इसके होने का एहसास ही नहीं होता। यह मार्ग आत्मा की मुक्ति के लिए है, मगर इस पर चलना मन को पड़ेगा—ध्यानपूर्वक और मनोबल के साथ। इसलिए हमारी ज़िम्मेदारी अपने मन को अपनी आत्मा की असलियत के प्रति जागरूक करना है और इसके लिए प्रतिबद्धता, अनुशासन, हुक्म के पालन और भक्ति-भाव की ज़रूरत है। बड़े महाराज जी ने एक पत्र में अपने शिष्य को समझाया:
इस चंचल मन को स्थिर करने और ख़याल को शरीर से समेटकर तीसरे तिल में ठहराने का काम धीरे-धीरे होता है। एक सूफ़ी फ़क़ीर कहते हैं, “प्रियतम को हासिल करके उसे अपनी बाँहों में बाँध लेना ज़िन्दगी भर का काम है।” ध्यान को आँखों के केन्द्र में इकट्ठा करना एक चींटी के दीवार पर चढ़ने के समान है। चींटी बार-बार गिरती है, फिर भी चढ़ने की कोशिश करती रहती है और आख़िर दीवार के ऊपर पहुँच जाती है। लगातार मेहनत से वह सफल हो जाती है और फिर नहीं गिरती।…सुमिरन और भजन को एक रोज़ का काम या बोझ समझकर उदास मन से नहीं करना चाहिए, बल्कि प्रेम और चाव से करना चाहिए।
परमार्थी पत्र, भाग 2
बड़े महाराज जी ने एक अन्य पत्र में फ़रमाया कि हमें मार्ग पर पूरी सफलता इसलिए नहीं मिलती क्योंकि हम अपने भजन-सिमरन को प्राथमिकता नहीं देते—संसार और इसकी वस्तुएँ हमारे लिए रूहानियत से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। इस संसार में भी सफलता तभी मिलती है जब हम दिलो-जान से किसी कार्य में लग जाते हैं। आप फ़रमाते हैं कि हमारे मन में बहुत ज़्यादा सांसारिक तृष्णाएँ होती हैं और हमने इसे खुली छूट दी हुई है।
मन की कमज़ोरियों पर क़ाबू पाने का सिर्फ़ एक ही तरीक़ा है इनसे ऊपर उठना और हम ऐसा सिर्फ़ अपने भजन-सिमरन के प्रति प्रतिबद्ध होकर ही कर सकते हैं। हम रोज़ाना अपने दाँत साफ़ करते हैं, कपड़े धोते हैं, घर की सफ़ाई करते हैं और नहाते व खाना खाते हैं—ये सभी कार्य हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी हैं। लेकिन हम सिर्फ़ भौतिक जीव नहीं हैं—हमें अपनी आत्मिक ज़रूरतों का भी ध्यान रखना चाहिए। भजन-सिमरन इन ज़रूरतों को पूरा करता है। हमें चाहिए कि हम अपनी आत्मा की निर्मलता, विकास और ख़ुराक की तरफ़ भी उचित ध्यान दें।
हमें यह समझने की ज़रूरत है कि भजन-सिमरन कितना महत्त्वपूर्ण है और इसे विश्वास व प्रेम के साथ करना चाहिए। शुरू में इसके लिए थोड़ा संघर्ष करना पड़ सकता है लेकिन जैसे-जैसे हम इसे दृढ़तापूर्वक करते रहते हैं, हमें एहसास होता है कि सतगुरु की दया-मेहर और मदद के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते।
जब तक हम अपने मन और इंद्रियों के ग़ुलाम बने रहते हैं तब तक आत्मा की जुदाई की पीड़ा क़ायम रहती है। हमारे सतगुरु हमारे निज-घर लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं। वह हर तरह से हमारी मदद करने के लिए तैयार हैं और मदद करते भी हैं। वह सब कुछ संभव बना देते हैं। जब वह हमें प्रेम की दात बख़्श देते हैं तब हम प्रेम और श्रद्धा से उनकी भक्ति करने लग जाते हैं। सतगुरु के लिए प्यार के बिना हमारी रूहानियत सिर्फ़ धारणा है। हमारे जीवन में सतगुरु की मौजूदगी से हमें यह मार्ग सच्चा लगने लगता है। देहधारी सतगुरु की संगति द्वारा सदा के लिए हमारा कायाकल्प हो जाता है।
हम अपनी कोशिशों द्वारा इस रूहानी सफ़र को पूरा नहीं कर सकते—हम उनकी मौज से ही इस सफ़र को शुरू कर पाएँ हैं। युगों-युगों की जुदाई के बाद हम वापस घर लौट रहे हैं। परमात्मा की इस दया-मेहर को लफ़्ज़ों में बयान कर पाना मुमकिन नहीं है। कैसी दया-मेहर और कैसा सौभाग्य! इस बार हमें निज-घर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कितने जन्मों से हम आवागमन के चक्र में फँसे हुए हैं, हमारी आत्मा कारण, सूक्ष्म और स्थूल पर्दों में लिपटी हुई है और उनसे जुड़ी हर चीज़ के साथ बँधी हुई है। पिछले संस्कारों, इच्छाओं और मोह के बावजूद आत्मा हमेशा परमात्मा के लिए तड़पती रहती है।
समय के साथ हमें यह एहसास होने लगता है कि इस मार्ग पर हमारी दृढ़ता ही अपने आप में दया-मेहर की स्पष्ट निशानी है। और देर-सवेर, जब परमात्मा की मौज होगी, हम रूहानी तरक़्क़ी कर पाएँगे और हमारा कायाकल्प हो जाएगा। तब हमारे सारे संदेह दूर हो जाएँगे। जैसा कि संत एकनाथ ने पुस्तक स्वर अनेक, गीत एक में कहा है:
तीन लोक का देखा नूर,
दिखा फिर हृदय में सतगुरु का स्वरूप।
फैला प्रकाश दीपक की बाती से,
हो गई देह पुरनूर प्रकाश से।
है चेतन प्रकाश यह मेरी आत्मा का,
कहे एकनाथ नाश हुआ अब सभी भ्रमों का।
हम उपदेश पर अधिक भरोसा करने लगते हैं, हमें पूरा विश्वास हो जाता है कि सतगुरु हमारी सहायता करेंगे। हमारा प्रेम परिपक्व होने लगता है और हम बड़े श्रद्धा-भाव से, तन-मन से भजन-सिमरन करने लग जाते हैं। एक दिन वह समय ज़रूर आएगा जब हम विशाल आंतरिक मंडलों में से गुज़रते हुए आख़िरकार अपने सतगुरु के देश में पहुँच जाएँगे।