मृत्यु सिर पर मंडरा रही है
हम मृत्यु के बारे में क्या सोचते हैं? हम इसे एक मित्र के रूप में देखते हैं या एक शत्रु के रूप में या हम इसे मुक्ति के रूप में देखते हैं? हम इसे अंत के रूप में देखते हैं या एक नई शुरुआत के रूप में? इसमें कोई संदेह नहीं कि एक न एक दिन हमारी मृत्यु ज़रूर होगी—शायद चौबीस घंटे में या चौबीस साल में। किसी भी हाल में, हमारी मृत्यु अटल है।
हमारे समाज में मृत्यु के बारे में बात करना अच्छा नहीं समझा जाता। लोग इसे भयानक समझते हैं और सोचते हैं कि जो इसके बारे में बात करता है वह मरना चाहता है या मानसिक तौर पर रोगी है। असल में मृत्यु उन्हें उस सत्य की याद दिलाती है जिसे वे याद नहीं करना चाहते। कितनी अजीब बात है क्योंकि जब हम टेलीविज़न देखते हैं, हम लोगों को मरते देखते हैं और जब हम समाचार-पत्र पढ़ते हैं तब भी हम मृत्यु के बारे में ही पढ़ रहे होते हैं। अपहरण के दौरान गोली लगने से कोई नन्हीं-सी बच्ची मारी गई, भूकंपों, विमान दुर्घटनाओं, ज्वार-भाटे में सैकड़ों लोग मारे गए। हमें बार-बार मृत्यु के बारे में याद करवाया जाता है। लेकिन किसी तरह, हम अपने चारों ओर महीन-सा अभेद्य कोकून बुन लेते हैं और सोचते हैं कि ऐसा हमारे साथ नहीं होगा।
फिर भी, अगर यह संसार और इसका मोह-जाल हमारा लक्ष्य नहीं है, यदि हमारा लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति, मुक्ति या आत्मज्ञान है तो हमें मृत्यु के बारे में सोचना चाहिए। हमें ख़ुद से दो सवाल पूछने चाहिएँ: क्या मुझे यह याद रहता है कि मैं हर पल मौत के नज़दीक जा रहा हूँ तथा यह भी कि हर कोई व हर वस्तु धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है, इसलिए मुझे सभी जीवों के साथ दया-भाव से पेश आना चाहिए? क्या मैं मृत्यु की सच्चाई को इतनी अच्छी तरह से समझ गया हूँ कि मैं अपना हर पल आत्म-ज्ञान की प्राप्ति में लगा रहा हूँ? अगर इन सवालों का जवाब हाँ में है तो हम जीते-जी मरना सीख रहे हैं—हम जागरूक हो रहे हैं।
जिस संसार में हम रहते हैं, वह केवल एक भ्रम है। फिर भी हमारा मन इतना भ्रमित है कि हमें लगता है कि यह सब सत्य और चिरस्थायी है। इस जीवन और केवल इसी जीवन पर अपना ध्यान केंद्रित रखना सबसे बड़ा धोखा है। और असल में, मन का उद्देश्य ही हमें धोखा देना है। हमारा ध्यान जितना अधिक फैलता है, अपने ध्यान को केंद्रित करना और हक़ीक़त के प्रति जागरूक होना उतना ही मुश्किल हो जाता है।
जागरूकता का पहला क़दम यह जान लेना है कि हम हक़ीक़त से कितना दूर हो चुके हैं और फिर इस बारे में कुछ करने का फ़ैसला लेना है। ऐसा लगता है कि हमारी ज़िंदगी अपनी अजीब-सी चाल से चल रही है। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि हमने अपने जीवन की बागडोर मन को सौंप दी है। स्वामी जी महाराज फ़रमाते हैं:
देखो न्याव कर मन में अपने।
बुधि से जग को कहते सुपने॥
मन तरंग में छिन छिन बहते।
तब जग को जागृत सम कहते॥
राधा स्वामी टीचिंग्स
स्वामी जी महाराज यह नहीं फ़रमा रहे हैं कि हमें बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इस संसार में रहते हुए बुद्धि का इस्तेमाल ज़रूर करना चाहिए। सबसे पहले, हमें बौद्धिक स्तर पर यह समझना होगा कि यह संसार मिथ्या है लेकिन फिर हमें यह भी समझना चाहिए कि बुद्धि द्वारा इस बात को जान लेने का कोई महत्त्व नहीं है। बुद्धि केवल उस दिशा की ओर संकेत कर सकती है जिस दिशा में जाने की ज़रूरत है। लेकिन यह हमें वहाँ पहुँचा नहीं सकती! वहाँ पहुँचने के लिए, हमें अपने सतगुरु की दया-मेहर की ज़रूरत है।
युगों-युगों से बहुत-से आलिम-फ़ाज़िल मन द्वारा धोखा खा चुके हैं, मगर हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमें मन के दायरे से परे देख पाने का मौक़ा मिला है। बदक़िस्मती से सतगुरु के होने के बावजूद हम माया के इस भ्रम में फँस जाते हैं और कभी-कभी खोया और उलझा हुआ महसूस करते हैं। ऐसा लगता है कि हमारी कोई तरक़्क़ी नहीं हो रही है और मानो सतगुरु ने भी हमें बेसहारा छोड़ दिया है।
जब ऐसा होता है तब इसका मतलब यह नहीं है कि सतगुरु हमें छोड़कर चले गए हैं या उन्होंने हमारी आत्मा को बेसहारा छोड़ दिया है क्योंकि वह देहस्वरूप में मौजूद नहीं हैं। सतगुरु कहीं और नहीं बल्कि यहीं हैं, हमारे अंदर और हर उस चीज़ में जिसे हम देखते या छूते हैं। लेकिन हमारा ध्यान भटक जाता है, हम यह भूल जाते हैं कि हम कौन हैं और क्या हैं और किस दिशा में जा रहे हैं।
यह किसी फिल्म को देखने जैसा है। जब आप फिल्म देखने के लिए बैठ जाते हैं तब आप अपने आस-पास के लोगों, पॉपकॉर्न की ख़ुशबू और जिस कुर्सी पर आप बैठे हैं, उन सभी चीज़ों के बारे में सचेत होते हैं। लेकिन जब फिल्म शुरू हो जाती है तब आप कहानी में खो जाते हैं। वह फिल्म ही आपको वास्तविक लगने लगती है।
क्या इस दुनिया में हमारे साथ बिलकुल ऐसा ही नहीं होता? बौद्धिक स्तर पर हम जानते हैं कि यह एक भ्रम है: एक नाटक, जैसा कि सतगुरु अक़सर समझाते हैं। लेकिन जन्म-दर-जन्म, हम इस नाटक में और भी ज़्यादा मस्त हो गए हैं। हमें यह संसार रूपी नाटक ही वास्तविक लगता है, इसी तरह हमारा बहुत-सा समय लेने वाली नौकरियाँ और हमारे बेहद गहरे रिश्ते, हमारे बच्चे, हमारे दोस्त, हमारे घर या हमारी कमियाँ इत्यादि हमारे लिए वास्तविक बन गए हैं। हम परम सत्य के प्रति अचेत हो गए हैं।
माया का यह भ्रम इतना व्यापक है कि आत्मा रोते हुए पुकार उठती है, स्वामी जी महाराज के वचन हैं:
भरोसा दम का है नहिं भाई। मर्म मैं अब तक कुछ नहिं पाई॥
करूँ क्या…मरूँ क्या अब मैं माहुर खाई॥
गुरू तब बचन सुनाया सार। मरे मत बौरी धीरज धार॥
नाम रट मन से बारम्बार। रूप गुरु धारो हिये मँझार॥
सारबचन संग्रह
सभी संत-महात्मा समझाते हैं कि हमें भजन-सिमरन करते रहना चाहिए और हर समय अपना ध्यान सतगुरु की ओर रखना चाहिए। अगर हम ऐसा करते हैं तो हम चेतनता और ‘जीते-जी मरने’ का अभ्यास कर रहे होते हैं। यह फैले हुए मन को वापस उसके ठिकाने पर लाने जैसा है। भजन-सिमरन, जीते-जी मरने का यह अभ्यास, कुछ ऐसा नहीं है जिसमें हम ज़बरदस्ती सफलता प्राप्त कर सकते हैं जैसा कि हम अपने जीवन में बहुत-सी चीज़ों में करते हैं। इसके लिए अलग नज़रिया अपनाना पड़ता है। अपने दैनिक जीवन में हम संघर्ष करते हैं जबकि भजन-सिमरन में हमें छोड़ना पड़ता है।
क्या सतगुरु हमें बार-बार यही नहीं समझाते हैं? सिर्फ़ अपना भजन-सिमरन करो। बाक़ी सब सतगुरु पर छोड़ दो। सब छोड़ दो, सब उन्हें करने दो। कुछ भी हासिल करने की कोशिश मत करो। भजन-सिमरन में हम जिसे ‘सफलता’ कहते हैं, वह हमारे हाथ में नहीं है। जो कुछ भी होता है, उनके हुक्म से होता है। सिर्फ़ स्थिर रहने की कोशिश करें। बैठे रहें। जितना ज़्यादा हम संघर्ष करते हैं, उतनी ही ज़्यादा बाधाएँ हमारे रास्ते में आती हैं तथा मार्ग मुश्किल और नीरस बन जाता है।
हमारी पहली ग़लत धारणा यह है कि हम जल्दी से जल्दी ‘नतीजा’ चाहते हैं। इससे सिर्फ़ निराशा ही मिलेगी। बेशक इसका मतलब यह नहीं कि हम भजन-सिमरन करना छोड़ दें। इसका अर्थ भजन-सिमरन को सिर्फ़ नए नज़रिए से करना है। निस्संदेह हमें सतगुरु पर पूरा भरोसा रखना चाहिए और हमें उनकी इस बात पर भी विश्वास करना चाहिए कि अगर हम सिर्फ़ भजन-सिमरन करते जाएँ तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
हमें लगता है कि जब हम भजन-सिमरन के लिए बैठ जाते हैं, यह तब शुरू होता है, मगर ऐसा नहीं है। भजन-सिमरन का कोई आरंभ या अंत नहीं होता—यह लगातार चलता रहना चाहिए। असल में यह इसके बारे में सोचने-भर से ही शुरू हो जाता है। यह जागरूकता की शुरुआत है। यह मन को ग्रहण करने के लायक़ बनाना है। जागरूकता का अभ्यास हर समय किया जा सकता है, यहाँ तक कि जब हम बहुत व्यस्त हों तब भी। इसके लिए शांति का सिर्फ़ एक पल ही बहुत है जब हमें सतगुरु की याद आए और फिर ऐसा लगेगा जैसे हमने भजन-सिमरन करना कभी छोड़ा ही नहीं था और यह अभ्यास निरंतर चलता रहेगा।
जब हम सब कुछ उस पर छोड़ देते हैं, जब हम सोचना बंद कर देते हैं, जब मन अचानक विचारों से ख़ाली हो जाता है तब सतगुरु वहाँ मौजूद होते हैं। वह हमेशा वहीं मौजूद थे लेकिन उस पल हम उन्हें याद करते हैं। ऐसे पल विरले होते हैं और इसलिए हमें इनकी ख़ातिर पल-भर के लिए अपने विचारों के सिलसिले को तोड़ने की कोशिश करनी चाहिए। धीरे-धीरे ये पल बढ़ते जाएँगे जब तक कि ये सतगुरु की यादों का सिलसिला नहीं बन जाते। फिर सतगुरु हमारी हर सोच, हर करनी में होंगे।
यह सब तो सिर्फ़ नींव बनाने जैसा है। असल में हम अभी तक भजन-सिमरन के लिए बैठे ही नहीं हैं। इसके बाद जब हम भजन-सिमरन के लिए बैठते हैं तब हमें फिर से ऐसी ही प्रक्रिया से गुज़रना पड़ सकता है। भजन-सिमरन की शुरुआत स्पष्ट सोच के साथ करनी चाहिए, जिसका मतलब है कि सबसे पहले हमें सचमुच अच्छी तरह से जागना है। पूरी तरह से जागने के लिए समय लें। हमें सिमरन शुरू करने की इतनी जल्दी क्यों होती है? अगर हम उठते ही सिमरन शुरू कर दें तो क्या हम जल्दी किसी मुक़ाम पर पहुँच जाएँगे? अगर हम जल्दबाज़ी करते हैं तो हम फिर से सो सकते हैं या भजन-सिमरन से ही उठ जाते हैं।
भजन-सिमरन की शुरुआत सही सोच के साथ करें। बस शांति से बैठ जाएँ और सतगुरु के बारे में सोचें। महसूस करें कि वह वहीं पर हैं। चाहे इसमें कितना भी समय क्यों न लगे। इस अवस्था में सतगुरु को अपने अंग-संग महसूस करना ही भजन-सिमरन है। इससे शांतिमय माहौल बनता है। अब हम सिमरन शुरू कर सकते हैं। फिर यह सहज भाव से होने लगेगा। लेकिन सतगुरु के मौजूद होने के एहसास को बनाए रखें। सजग रहें।
सिमरन की शक्ति इस बात में है कि ये पवित्र लफ़्ज़ हमें सतगुरु द्वारा बताए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि हम जो लफ़्ज़ दोहराते हैं, वे सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं हैं। इनमें सतगुरु की शक्ति समाई हुई है। इसलिए जब हम इन्हें दोहराएँ तब हम इनकी अहमियत को समझें और इनकी क़द्र करें। इनसे हमें अपने सतगुरु की याद आनी चाहिए।
जैसे ही हम शांतिमय माहौल बनाकर सिमरन करना शुरू कर देते हैं, वैसे ही एक पल ऐसा आएगा जब हमें सहज रूप से शब्द-धुन सुनाई देने लग जाएगी। उस समय सिमरन और बाक़ी सब कुछ पीछे रह जाता है। सिर्फ़ शब्द-धुन ही सुनाई देती है। और यहीं पर हम सच में सब कुछ जाने देते हैं—जहाँ हम उस सर्वश्रेष्ठ धुन में समा सकते हैं। यही जीते-जी मरना है।