संतुलन बनाए रखना
संतुलन बनाकर रखें। ये तीन छोटे-छोटे शब्द बहुत मायने रखते हैं और हमारे जीवन के अनगिनत हालात पर लागू होते हैं। हम कई तरह से अपना संतुलन खो देते हैं जब हम अपने परिवार की तरफ़ ध्यान न देकर अपनी नौकरी को ज़्यादा अहमियत देते हैं—एक और ई-मेल देखना, एक और फ़ोन कॉल सुनना, एक और समस्या का समाधान ढूँढना और यह सूची बढ़ती ही जाती है।
हम अपने कार्यों में इतने अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि हम संतुलन का महत्त्व ही भूल जाते हैं। लेकिन अगर हम संतुलन खो देते हैं तो हम उस मार्ग पर क़ायम नहीं रह पाएँगे जिसे हमने ख़ुद चुना है। इसलिए सतगुरु समझाते हैं: संतुलन बनाकर रखें।
कर्मों का क़ानून पूरी तरह से संतुलन पर आधारित है। कर्म और फल का सिद्धांत क़ुदरत का क़ानून है जिसके अनुसार हमें अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। यह कार्य और कारण के सुप्रसिद्ध नियम से मिलता-जुलता है।
मनुष्य सब कुछ जीवित रहने और ख़ुश रहने के बीच में संतुलन बनाने के लिए करता है—दूसरे शब्दों में, तर्कशील मन और आत्मा के बीच में संतुलन बनाकर रखने के लिए। संतुलन में रहने के लिए हमें तर्क और आत्मा दोनों को अहमियत देनी चाहिए, लेकिन हममें से बहुत-से लोग इसे नामुमकिन मानते हैं। दुनिया हमें आत्मा को नज़रअंदाज़ करने के लिए कहती है जबकि रूहानियत में हमें मन की ओर ध्यान न देने के लिए कहा जाता है।
हमें लगता है कि भजन-सिमरन संतमत का सार है, इसलिए कितना अच्छा होगा अगर हम हर रोज़ ज़्यादा से ज़्यादा समय भजन-सिमरन को दें। हो सकता है कि हम शादी न करने, कोई भी कार्य न करने, बच्चे पैदा न करने, एकांत में रहने और पूरा दिन भजन-सिमरन करने को ही सबसे उत्तम समझ लें। लेकिन जब हम एक-तरफ़ा हो जाते हैं तब स्वाभाविक तौर पर हमारा मन प्रतिक्रिया करता है। इसलिए हमें संतुलन बनाकर रखना चाहिए।
इसी तरह सतगुरु समझाते हैं कि हमें संसार में गृहस्थ जीवन जीना चाहिए। संत-सतगुरुओं का भी परिवार होता है फिर भी वे अपना संतुलन बनाए रखते हैं। जब भी हम अपने जीवन में एक-तरफ़ा हो जाते हैं तब हम अपना मक़सद और संतुलन गँवा बैठते हैं।
संतुलन बनाए रखना इतना मुश्किल क्यों है? क्योंकि हमें हमेशा ख़ास बनना, दूसरों से बेहतर होना, प्रतिस्पर्धी होना सिखाया गया है। हम ख़ास और श्रेष्ठ समझे जाने को अपनी क़ाबिलीयत समझते हैं।
रूहानियत का मतलब दूसरों से अलग होना नहीं है। इस संसार में रहते हुए हमारा हमेशा यही प्रयास रहता है कि हम दूसरों से ख़ास हों। यह रूहानियत—जिसका मतलब ख़ुदी को मिटाकर उस परम सत्ता में समा जाना है—के विपरीत है। हम ख़ास बनने के लिए जितना अधिक प्रयास करते हैं उतना ही हम सच से दूर होते जाते हैं। यदि हम सचमुच हर चीज़ के आधार उस परमात्मा में अभेद होने की कोशिश करते हैं तो हमारे अंदर चलनेवाला द्वंद्व पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा।
असंतोष और अपेक्षाएँ भी संतुलन खो देने का कारण हैं। हम अपनी ज़रूरतों को बढ़ा लेते हैं और तर्क देते हैं कि हम उनके पूरा होने का इंतज़ार क्यों न करें। अगर हम इस सोच के साथ ज़िंदगी जीते हैं कि जो कुछ भी हमारे पास है वह पर्याप्त नहीं है तो हम और अधिक हासिल करने के लिए अपना सब कुछ क़ुर्बान कर देते हैं और ऐसा करके अपना संतुलन खो बैठते हैं।
जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ और मुश्किलें भी हमारे संतुलन के खो जाने की वजह बन सकती हैं। हम सभी की अपनी-अपनी परेशानियाँ होती हैं। हमारे जीवन में ऐसे समय भी आते हैं जब हमारे किसी प्रियजन का निधन हो जाता है या वह किसी बीमारी से जूझ रहा होता है या जब ऐसा लगता है कि हमारा परिवार बिखर रहा है। कभी-कभी हमें ऐसा लग सकता है कि जैसे पूरी दुनिया हमारे ख़िलाफ़ है। और कभी-कभी हम रूहानी तौर पर नीरसता और ख़ालीपन महसूस कर सकते हैं — मानो हम बिलकुल बेसहारा हैं, जिसकी वजह से हम अपना संतुलन खो सकते हैं।
हालाँकि हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी अकसर मुश्किलों को छिपा हुआ वरदान कहा करते थे क्योंकि जीवन के सबसे कठिन समय में ही हम प्रभु के नज़दीक खिंचे चले जाते हैं। संत-महात्मा समझाते हैं कि दु:ख हमें निर्मल करते हैं और हमें अंतर में चिरस्थायी आनंद को प्राप्त करने के लायक़ बनाते हैं।
यह बात चाहे कितनी भी कड़वी क्यों न लगे, मगर परिवार में किसी की मृत्यु, आर्थिक मुश्किलें, बीमारी या निरादर ये सभी प्रभु की दया-मेहर की निशानियाँ हैं। हमें हर उस घटना के लिए शुक्रगुज़ार होना चाहिए जिससे हमें परमात्मा और उसके प्रेम की याद आए और जिसके कारण हमारा ध्यान संसार की तरफ़ होने के बजाय उस परमात्मा की ओर खिंचा चला जाए। हम ख़ुद को यह तसल्ली भी दे सकते हैं कि इन कठिनाइयाँ द्वारा हमारे कर्मों का भुगतान होता है और हमारी सहन-शक्ति बढ़ती है।
हम अपने जीवन में संतुलन को लगातार कैसे बनाए रख सकते हैं? हमें ज़रा सोच-विचारकर अपनी प्राथमिकताएँ तय करनी होंगी। हमें जीवन के भौतिक और रूहानी दोनों पहलुओं पर विचार करना होगा। जीवन के भौतिक पहलू में हमारा दूसरों के प्रति और ख़ुद के प्रति—यहाँ तक कि शरीर के प्रति रवैया भी शामिल है। आख़िरकार, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बिना हम जीवन और भजन-सिमरन दोनों का ही आनंद नहीं ले सकते।
हमारा परमार्थी जीवन ही हमारी बुनियाद, हमारी पहचान और जीने के मक़सद को दर्शाता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हम इस ब्रह्मांड का केंद्र नहीं हैं; हमें अपने ध्यान को परमात्मा की ओर मोड़ने को पहल देनी चाहिए। हम अपने सतगुरु द्वारा दी गई संतुलन बनाए रखने की सरल और व्यावहारिक सलाह को सच्चे दिल से मानकर ऐसा कर सकते हैं।
जब हम इस मार्ग पर चलना शुरू करते हैं तब उत्साह में आकर हमारे मन में अचानक तपस्वी और संन्यासी बनने की चाहत पैदा हो सकती है। हो सकता है कि हम ख़ुद को एक कमरे में बंद कर लें ताकि हम सारा दिन भजन-सिमरन कर सकें और अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग सकें। लेकिन संत-महात्मा हमें ख़बरदार करते हैं कि हमें सामान्य जीवन जीना चाहिए और अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाना चाहिए। वे हमें निर्लेप होकर जीवन जीने और भजन-सिमरन को अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बनाने की सलाह देते हैं—वे हमें मध्य मार्ग चुनने और संयम में रहने के लिए कहते हैं।
हमें साधारण इनसान बनकर सामान्य जीवन जीना चाहिए। हमें भजन-सिमरन को अपनी सामान्य दिनचर्या का हिस्सा बनाना चाहिए। जब व्यवसाय और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण जीवन में चुनौतियाँ आएँ तब हम सतगुरु की शरण ले सकते हैं। सतगुरु इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अपने कार्य-व्यवहार में संतुलन बनाए रखने के लिए, हमें अपने मन को स्थिर करना होगा ताकि हम शांति का अनुभव कर सकें।
हम ऐसा कैसे कर सकते हैं? हममें से ज़्यादातर लोगों का मन पूरी तरह से बेक़ाबू है। इसमें एक के बाद एक विचार उठते ही रहते हैं और हमारा मन शायद ही कभी स्थिर होता हो। अगर हम चिंता करना छोड़ देते हैं तो इच्छाएँ पैदा हो जाती हैं और फिर हम उन्हीं के बारे में सोचते और चिंता करते रहते हैं। मन को शांत और स्थिर करना हमारे लिए एक बड़ी चुनौती बन जाता है।
संत-महात्मा हमें आंतरिक संतुलन प्राप्त करने के लिए अलग-अलग तरीक़े से समझाते हैं—हम संतुलन की उस अवस्था को कैसे प्राप्त करें। सतगुरु हमें समझाते हैं कि यदि हम निज-घर वापस जाना चाहते हैं और परमात्मा में अभेद होना चाहते हैं तो हमें आंतरिक स्थिरता प्राप्त करनी पड़ेगी।
जब हमें लगे कि अपने मन को वश में करके पहले जैसा संतुलन बनाए रखना हमारे लिए मुमकिन नहीं है तब हमें याद रखना चाहिए कि सतगुरु ख़ुद हमें इस भवसागर से पार लगाने के लिए आए हैं। वह हमारी मदद के लिए हमेशा मौजूद हैं, लेकिन यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम सिमरन के लिए ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश करें और एक अच्छे इंसान बनकर संतुलित जीवन व्यतीत करें।