एक पत्र
प्यारे सतगुरु,
इस शिष्य के दिल में उस दिन की याद हमेशा बनी रहेगी। यह वह दिन था जब आपने हममें से कुछ लोगों से एक ऐसा प्रश्न पूछा जिसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की थी। “यदि आपकी केवल एक ही इच्छा होती, तो वह क्या होती?”
मन में पहला विचार आया कि इस प्रश्न का उत्तर देना तो बहुत आसान है। दूसरों के बाद अब उत्तर देने की मेरी बारी थी। लेकिन मन के साथ तर्क-वितर्क के बाद किसी निर्णायक उत्तर तक पहुँचने के लिए यक़ीनन उतना समय पर्याप्त नहीं था। और फिर, मित्र कह लें या शत्रु, मेरे मन ने मुझे जिस उत्तर के काफ़ी ठीक होने का विश्वास दिलाया, आख़िरकार वह भी इतना उचित नहीं था।
क्या हमेशा ऐसा नहीं होता? क्या हम सभी जब पीछे मुड़कर देखते हैं तब मन ही मन यह महसूस नहीं करते कि जिस काम को हमने अपना सर्वस्व दे दिया, हम उससे बेहतर काम कर सकते थे और हमारी सिर्फ़ यही इच्छा होती है कि काश! हमें एक और मौक़ा मिल जाता और जो हो चुका है, हम उसे बदल पाते? लेकिन फिर, जैसा कि हमें अक़सर याद दिलाया जाता है: यदि चाहने मात्र से सब कुछ मिल जाता तो आलसी भी सब कुछ हासिल कर लेते।
शायद यह सवाल आत्म-चिंतन के लिए है, क्योंकि जीवन का यह सफ़र अकेले ही तय किया जाता है—जीवन रूपी पुस्तक में डुबकी लगाकर अलग-अलग अनुभवों को स्वीकार करके। दुर्भाग्यवश, हालात को स्वीकार करना जीवन में सबसे कठिन है।
स्वीकृति—अपने जीवन को परमात्मा की रज़ा या हुक्म मानना, आप चाहे इसे कुछ भी कह लें। यह एक ऐसी ख़ूबसूरत कला है जिसे हमें स्वयं ही सीखना है। क्योंकि सतगुरु जीवन में आने वाली हर परिस्थिति को स्वीकार करने का साक्षात् उदाहरण हैं, भले ही उनके पास इन परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य है। फिर भी, उस सर्वोच्च दिव्य शक्ति से जुड़े होने के बावजूद, वह ऐसा नहीं करते। क्या यह एक शाही खेल है जिसे बाज़ीगर द्वारा बड़ी कुशलता से खेला जाता है? शायद। या क्या यह नश्वर शरीर के भीतर छिपी अमर-अविनाशी आत्मा द्वारा जान-बूझकर उठाया गया क़दम है?
यह किसी का अनुमान भी हो सकता है। लेकिन ऐसा लगता है कि सतगुरु जीवन के हर प्रकार के हालात को स्वीकार करते हुए उनमें से गुज़रते चले जाते हैं, क्योंकि वह एक सच्चे संत-सतगुरु के रूप में एक पूर्ण शिष्य की भी जीती-जागती मिसाल होते हैं।
सीखने के लिए बहुत कुछ है, कहने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन हज़म करने के लिए उससे भी कहीं ज़्यादा है। बिना किसी संदेह, प्रश्न या मन की मर्ज़ी के निर्देशों का पालन करने की हिम्मत होना वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है—सतगुरु पर अटूट विश्वास और भरोसा रखकर ही ऐसी हिम्मत प्राप्त की जा सकती है।
इस क़द्र विश्वास होने पर, छोटी से छोटी, सरल और साधारण चीज़ों में से ख़ुशी प्राप्त होने लगती है। यदि हम सिर्फ़ हम पर की गई दया-मेहर को जज़्ब कर करके हज़म कर पाएँ और वही करें जो हमें समझाया जाता है, तो शायद जीवन उतना जटिल नहीं होगा जितना हमने इसे बना लिया है और हम संतुष्ट रहेंगे। उस सहज अवस्था के प्राप्त होने पर, हमें परम सत्य का एहसास होगा, हमें इस सत्य का बोध होगा कि परमात्मा ही सब कुछ है।
शुक्रिया, सतगुरु, मुझे वह एक वरदान देने के लिए।
काश! हम हमेशा परमात्मा की रज़ा को स्वीकार करके उसी में रहना सीखें…