दया-मेहर: प्रेम की अभिव्यक्ति
संत-महात्मा हमारा ध्यान जीवन की दो अटल चीज़ों की ओर खींचते हैं, जो हमारी मर्ज़ी के बिना घटती हैं और जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता: जन्म और मृत्यु। हम अपने जन्म का फ़ैसला ख़ुद नहीं लेते, एक ऐसी शक्ति जो हमारे नियंत्रण से परे है, हमें इस जगत में भेजती है। हममें से कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता, चाहे हम इसे अनदेखा करने की कितनी भी कोशिश कर लें। हम प्रतिदिन सुबह उठते हैं, अपनी दैनिक ज़िम्मेवारियों को निभाते हैं और शाम को आराम करते हैं, मगर कभी भी विचार नहीं करते कि हम क्या कर रहे हैं। जैसा कि हमसे अक़सर पूछा जाता है: “हमारा अस्तित्व तो है, पर क्या हम सचमुच जी रहे हैं?”
मन के किसी कोने में हमें इस बात का एहसास है कि एक दिन हम जीवित नहीं रहेंगे। फिर भी, हम मृत्यु के बारे में नहीं सोचते, गंभीरता से तो बिलकुल भी नहीं, जिसके फलस्वरूप हम ज़िंदगी जीने के ढंग को बदलने का प्रयत्न करें। अपने प्रियजनों के अंतिम संस्कार में शामिल होना एक ऐसा अवसर होना चाहिए जो हमें अपनी नश्वरता का एहसास दिलाए, पर इसकी बजाय हम इस सोच के साथ घर लौटते हैं कि शुक्र है कि हम अभी जीवित हैं। अज्ञानतावश, हम उस दिन के बारे में सोचते तक नहीं जब मृत्यु हमारे दरवाज़े पर भी दस्तक देगी—हम यही सोचते हैं कि मृत्यु केवल दूसरों के लिए है। किंतु क्या हमने कभी विचार किया है कि समय के आरंभ से अब तक असंख्य लोग यहाँ पर रहे हैं, सिर्फ़ यहाँ से जाने के लिए? इस समय जीवित 8.1 अरब लोग भी अपने से पहले आए लोगों की तरह एक दिन यहाँ से चले जाएँगे। क्या हमने कभी सोचा है कि मृत्यु के बाद उनके साथ क्या हुआ होगा? वे कहाँ चले गए? उनके जीवन का क्या उद्देश्य था? और इस संसार में हमारे अस्तित्व का क्या मक़सद है? हम कहाँ से आए हैं और हमारी यात्रा का अंत क्या होगा?
यदि हम अपने दायरे को खोलें, तो हमें एहसास होगा कि हमारी हस्ती समय के इतिहास में क्षणभंगुर ज़र्रे से अधिक नहीं है। यदि ज्ञान, विज्ञान या कला के क्षेत्र में हमारा योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाए, तो शायद हमारा नाम पुस्तकों में अमर हो जाए और हमारे बुत पर राहगीर श्रद्धासुमन अर्पित करें। किंतु इन सबके बीच, हम स्वयं कहाँ हैं? दार्शनिकों, कवियों, लेखकों और उपन्यासकारों ने जीवन के उद्देश्य, परमात्मा के अस्तित्व, हमारी हस्ती के सार और वास्तविकता के स्वरूप पर अनगिनत शब्द लिखे हैं। एक के बाद एक सिद्धांत पेश किए जा चुके हैं और इन पर बहुत चर्चाएँ हुईं हैं। फिर भी अधिकांश लोग जीवन और मृत्यु का रहस्य सुलझा नहीं पाए और यह उनके लिए एक पहेली ही रहा।
इस दयनीय स्थिति को समझने के लिए एक अँधे व्यक्ति का दृष्टांत लेते हैं। वह व्यस्त सड़क के किनारे खड़ा है। तेज़ी के साथ गुज़रनेवाली गाड़ियों के हॉर्न की आवाज़ उसकी बेचैनी को बढ़ा रही है। भय से सहमे होने के कारण वह सड़क पार करने का साहस नहीं जुटा पाता। तभी, एक दयालु व्यक्ति उसकी मुश्किल को भाँपकर उसकी तरफ़ मदद के लिए हाथ बढ़ाता है। वह उसे आश्वासन देता है कि वह उसे सुरक्षित ढंग से सड़क के उस पार ले जाएगा। अँधा व्यक्ति उस पर भरोसा करता है और दोनों सुरक्षित ढंग से सड़क के उस पार पहुँच जाते हैं।
जिस तरह वह अँधा व्यक्ति व्यस्त यातायात के बीच में व्याकुल हो जाता है, उसी तरह हम भी अक़सर मार्ग को लेकर आशंकित होते हैं। मगर हम अकेले नहीं हैं। संत-महात्मा पास से गुज़रने वाले उस दयालु राहगीर की तरह हमारी मुश्किल को दूर करने के लिए हमारी तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाते हैं और यदि हम उन पर भरोसा करते हैं तो आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए वे हमारा मार्गदर्शन करते हैं। वे हमारे भ्रम को दूर करते हुए हमें समझाते हैं कि जिस शरीर को हम अपना समझ रहे हैं, वह हमारा असल आपा नहीं है।
गुरु तारेंगे हम जानी। तू सुरत काहे बौरानी॥
दृढ़ पकड़ो शब्द निशानी।
स्वामी जी महाराज, सारबचन संग्रह
परमात्मा की अपार दया से ही हम सैद्धांतिक तौर पर इन सत्यों को स्वीकार कर सकते हैं, कि:
- परमात्मा सिर्फ़ कल्पना नहीं है, उसका अस्तित्व वास्तविक है।
- परमात्मा ने स्वयं को शब्द रूपी दिव्य ध्वनि की धारा के रूप में प्रकट किया। शब्द की इसी महान शक्ति द्वारा वह ब्रह्मांड की रचना और संचालन करता है। संपूर्ण ब्रह्मांड की जीवन शक्ति होने के कारण हर वस्तु का अस्तित्व शब्द के सहारे क़ायम है और इस प्रकार, हर वस्तु शब्द का ही रूप है।
- ध्वनि की सूक्ष्म तरंगों की तरह परमात्मा शब्द रूप में सारी सृष्टि में व्याप्त है; सूक्ष्म से सूक्ष्म कण भी शब्द से ख़ाली नहीं है। शब्द की ध्वनि डोरी की तरह हर किसी को और हर वस्तु को परमात्मा से जोड़ती है।
- चौरासी लाख योनियों में केवल मनुष्य को ही परमात्मा से मिलाप का सौभाग्य प्राप्त है।
- पूर्ण सतगुरु के मार्गदर्शन के बिना परमात्मा से मिलाप नामुमकिन है।
जब पहले हो चुके संत-महात्माओं के जीवन के बारे में पढ़ते हैं तब एक ही साँझा बात सामने आती है—अनेक संत-महात्माओं को सच्चे गुरु की तलाश में बहुत-सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वर्तमान समय के जिज्ञासुओं को जिस आसानी से रूहानी मार्गदर्शन प्राप्त हो जाता है, अगर इस विचार को एक तरफ़ भी कर दें तो भी संतमत का सारा साहित्य इस महत्त्वपूर्ण तथ्य में दृढ़ता से विश्वास रखता है: किसी पूर्ण संत-सतगुरु के मार्गदर्शन का अवसर प्राप्त हो जाना परमात्मा की सबसे बड़ी दया-मेहर है। इस दया-मेहर के बिना कोई परमात्मा के बारे में सोच भी नहीं सकता, निज-घर वापस जाना तो दूर की बात है। असल में सच तो यह है कि हमारी आध्यात्मिक यात्रा सिर्फ़ और सिर्फ़ दया-मेहर पर ही निर्भर है। परमात्मा की पहली दया-मेहर (आत्माओं पर निज-घर वापस लौटने के लिए मोहर लगाने के रूप में) के बाद शिष्यों के लिए सतगुरु की दया-मेहर सर्वोपरि होती है।
वह सब कुछ जो सतगुरु अपने शिष्य के लिए करते हैं, उसे शब्दों में बयान कर पाना असंभव है, परंतु 1990 के दशक में प्राइमल स्क्रीम के गीत ‘मूविंग ऑन अप’ की पंक्तियाँ सतगुरु द्वारा शिष्य में लाए गए इस बदलाव के एक पहलू का चित्रण करती हैं:
मैं अंधा था, अब मैं देख सकता हूँ
तूने मुझे आस्तिक बना दिया है…मैं खो गया था, अब मैंने ख़ुद को पा लिया है
मैं तुझ पर भरोसा करता हूँ, अब मैं बंधनों से मुक्त हूँ
मैं अब आगे बढ़ रहा हूँ
अँधेरे से बाहर निकल रहा हूँमेरा नूर चमक रहा है, मेरा नूर चमक रहा है।
जब कोई हमारी मदद करता है या हमें उपहार देता है, तब स्वाभाविक तौर पर हम बदले में उसके लिए कुछ करना चाहते हैं। चूँकि सतगुरु ने हमें नामदान रूपी सर्वश्रेष्ठ उपहार दिया है, इसलिए हमें उनके प्रति आभार प्रकट करने के लिए उनके हर आदेश का पालन करना चाहिए। प्रेम रूहानियत का सार है और सतगुरु द्वारा समझाई गई युक्ति के अनुसार भजन-सिमरन करना अपने प्रेम की अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम ढंग है। संत-महात्मा हमें विश्वास दिलाते हैं कि हमारा प्रत्येक प्रयास, चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, महत्त्वपूर्ण है। मौजूदा सतगुरु हमें समझाते हैं: हमें परिणाम को कुल-मालिक पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह प्रेम का सागर है और एक दिन हम उसके प्रेम द्वारा उसका ही रूप बन जाएँगे। यह उनका हमसे वायदा है।