अंतिम शब्द
हर कार्य को ‘सतगुरु का कार्य’ समझकर करना
शब्द धुन की प्रेम-प्रीत में सुरत, निरत व निज मन, तीनों को हाज़िर रखना। जिस जगह रखें राज़ी रहना जी। कारोबार सब उन्हीं का है। जहाँ रखें ख़ुश रहना और जो काम करना, सब सतगुरु का ही जानकर करना। अपना आप (अहं) बीच में न रखना, यह बात मन में हमेशा के लिए जमा देना, मन से कभी न निकले। तन, मन, धन, सुरत, निरत और आँखें, मुँह, नाक, कान, हाथ, पैर और सब सामग्री दुनिया के सामान की जितनी भी है, सब सतगुरु की है। ‘मैं’ है ही नहीं जी। सतगुरु का जानकर सब काम करना। जो मुनासिब है करना जी।
कोई भी कारोबार करते समय जो हिदायत मैंने ऊपर लिखी है कभी न भूल जाए। ये वचन अच्छी तरह से मन में रखो और सब काम करो। फिर शब्द धुन को सुनते वक़्त व सिमरन के वक़्त, ज़रूर शब्द धुन का रस मिलेगा। ये तीनों वचन याद रखो हर वक़्त। अगर चौदह लोक का राज मिले तो ख़ुशी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि (वह) झूठा है, जानेवाला है। झूठी चीज़ में प्रीत करोगे, धोखा खाओगे। और फिर अगर वह राज वापस छीन लिया जाए तो नाराज़ नहीं होना, क्योंकि जिसने दिया उसी ने ले लिया। उसी का था और झूठा था। कोई किसी क़दर आदर करे या निंदा करे, आदर व स्तुति में खुश नहीं होना और निंदा में नाराज़ नहीं होना। सदा राज़ी रहना और मालिक की रज़ा में खुश रहना, जहाँ भी रखें जी। जब इनका मन पर असर न हो, मन सदा एकरस रहे, फिर शब्द धुन के मार्ग में धुर धाम सचखंड जाने की बख़्शिश सतगुरु के वचन के अंदर से रोज़ रोज़ आती है। ख़ुद दया-मेहर आप पर रोज़-रोज़ आती है। शब्द धुन को सुरत-निरत से रोज़-रोज़ सुनते रहो।
परमार्थी पत्र, भाग 1