चेतना, जागरूकता और स्थिरता
घट में बैठ निरख दृग द्वारा। यहां से राह अधर जाई॥
घाटा तोड़ काल मति मोड़ो। कर्म काट ऊँचे जाई॥
राधास्वामी कहत सुनाई। समझ समझ पग धर भाई॥
सारबचन संग्रह
इस स्थूल जगत से परे, पारलौकिक रूहानी सत्य का अनुभव करने के लिए, स्वामी जी महाराज हमें अपने मन ही मन चलनेवाले संवाद को शांत करने और इसके बजाय “निरख दृग द्वारा” अंदर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसे तीसरी आँख या आँखों के केंद्र के रूप में भी जाना जाता है। यह द्वार आत्मा की बैठक है और यह ऊँचे रूहानी मंडलों का प्रवेश द्वार है। अपनी आँखों को अंदर की ओर पलटकर या अँधेरे में आँखों के मध्य किसी विशेष बिंदु की खोज करने की कोशिश करने से विपरीत प्रभाव पड़ता है। जैसा कि पुस्तक हउ जीवा नाम धिआए में बयान किया गया है, “जब हम तीसरे तिल के बारे में सोच रहे हों तो समझो उस समय ध्यान तीसरे तिल में नहीं है। अगर तीसरे तिल में ध्यान हो तो फिर हम इस बारे में नहीं सोचेंगे।” इसी तरह, हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी समझाते हैं कि “इस महत्त्वपूर्ण बिंदु जिसमें जीवन का रहस्य छिपा है,” को प्रकट करने के लिए हमें बस अपनी आँखें बंद करके ध्यान को अंदर केंद्रित करने की आवश्यकता है। जीवत मरिए भवजल तरिए पुस्तक में आप फ़रमाते हैं:
जब आप आँखें बंद करते हैं तब आप वहीं होते हैं जहाँ आपको होना चाहिए। वहाँ रहते हुए सुमिरन करें, ध्यान जमायें। जब आप आँखें बंद करते हैं तब आप कहीं बाहर नहीं होते। आप यहाँ आँखों के बीच में होते हैं, बशर्ते कि आपका मन कहीं बाहर नहीं भाग रहा हो।
हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी द्वारा की गई व्याख्या की अंतिम पंक्ति, जहाँ वे फ़रमाते हैं “बशर्ते कि आपका मन कहीं बाहर नहीं भाग रहा हो” ध्यान देने योग्य है क्योंकि यह तीसरे तिल के बारे में सचेत रूप से जागरूक होने और केवल अपनी आँखें बंद करने के बीच के अंतर को प्रकट करता है। पुस्तक द अनटेदर्ड सोल, में दी इन पंक्तियों द्वारा इस अंतर को समझने में मदद मिलती है:
जागरूकता चेतना का सार है और जागरूकता में यह सामर्थ्य है कि किस वस्तु के बारे में अधिक सचेत होना है और किस वस्तु के बारे में कम।
जागरूकता चेतना का सार है, क्योंकि चेतना के बिना, कोई जागरूकता नहीं आती। इसके अलावा, जिस तरह हम कमरे के एक कोने में प्रकाश करने के लिए टॉर्च का उपयोग कर सकते हैं, उसी तरह हमारी चेतना यह चुन सकती है कि अपना ध्यान कहाँ केंद्रित करना है। इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि इस समय यह हमारे विचारों, भावनाओं और इंद्रियों द्वारा इकट्ठा किए प्रभावों से इस हद तक ग्रस्त है कि हम इन प्रभावों द्वारा वास्तविकता की पहचान करने में लगे हुए हैं, इसी कारण हम अपनी वास्तविक हस्ती—अपनी आत्मा—के बारे में अचेत हैं। यह उस वस्तु में इस क़द्र मस्त होने जैसा है जिसे हम रोशन कर रहे हैं; हम यह भी भूल जाते हैं कि टॉर्च को हमने ही पकड़ा हुआ है या फिर यह किसी पुस्तक को पढ़ने में इतने मग्न हो जाने जैसा है कि हम अपने परिवेश को ही भूल जाएँ और यह भी भूल जाएँ कि पुस्तक को पढ़नेवाले हम ही हैं।
भजन-सिमरन का उद्देश्य हमारे ध्यान को शरीर के नौ ऐंद्रिय द्वारों से हटाना और इसे दोनों आँखों के मध्य एकाग्र करना है। जैसे-जैसे हम इसमें निपुण होते जाते हैं और अपने मानसिक, भावनात्मक तथा शारीरिक अनुभवों से बेलाग होते जाते हैं, हम अपने वास्तविक स्वरूप—शब्द—को जानने लगते हैं। अपने मन को स्थिर कर लेना इस आध्यात्मिक जागृति की कुंजी है। सभी संत-महात्मा इस बात पर बल देते हैं कि आध्यात्मिक उन्नति पूरी तरह से मन को स्थिर करने पर निर्भर है। महाराज सावन सिंह फ़रमाते हैं:
कामयाबी की कुंजी मन को स्थिर रखने में है। यह ख़ज़ाना जिसको आप ढूँढ़ रहे हैं, आपको मिलेगा, पर तब, जब मन स्थिर हो जायेगा।…आप अपने मन को जितना ज़्यादा स्थिर करेंगे, अपने अन्दर के ख़ज़ाने यानी नाम के उतने ही ज़्यादा नज़दीक होते जायेंगे।
परमार्थी पत्र, भाग 2
मन को स्थिर करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे विचार ध्यान केंद्रित करने की हमारी क्षमता में बाधा डालते हैं। इन विचारों के तूफ़ान को शांत करके ही हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से तीसरे तिल में केंद्रित होगा। ध्यान को केंद्रित करने के लिए दृढ़ प्रयास करने के महत्त्व को निम्नलिखित दृष्टांत में उपयुक्त ढंग से दर्शाया गया है।
एक दिन, एक ज़ेन गुरु अपने शिष्यों को तीरंदाज़ी की एक नई युक्ति सिखाना चाहते थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि उनकी आँखों पर पट्टी बाँध दें और फिर उन्होंने अपना तीर छोड़ा। जब उन्होंने अपनी आँखों पर बँधी पट्टी खोली, तब देखा कि तीर निशाने से चूक गया था और उनके शिष्य अपने शिक्षक की विफलता पर बुरा महसूस कर रहे थे। ज़ेन गुरु ने पूछा, “तुम्हें क्या लगता है कि आज मैं तुम्हें क्या सबक़ सिखाना चाहता था?” उन्होंने उत्तर दिया, “हमने सोचा कि आप हमें बिना देखे निशाना साधना सिखाएँगे।” ज़ेन गुरु ने समझाया, “नहीं, मेरा उद्देश्य तुम्हें यह सिखाना था कि सफल होने के लिए तुम्हारा ध्यान हमेशा लक्ष्य पर केंद्रित होना चाहिए। यदि तुम्हारा ध्यान भटक जाता है, तो निशाना चूकने का जोखिम रहता है।” छात्रों ने प्रभावित होकर एक-दूसरे की ओर देखा और महत्त्वपूर्ण सबक़ पर विचार किया।
ज़ेन गुरु ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “जीवन में, तीरंदाज़ी की तरह, हमेशा अपने लक्ष्यों को लेकर केंद्रित रहो। आप कितने भी कुशल क्यों न हों, लक्ष्य से ध्यान हटना विफलता का कारण बन सकता है।”
शिष्यों ने सिर हिलाया, गुरु द्वारा दिए सबक़ में छिपे गूढ़ अर्थ को अब वे समझ रहे थे। जान-बूझकर निशाने से चूककर, उनके गुरु ने उन्हें सिखाया कि किसी भी लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित किए बिना सफलता प्राप्त कर पाना मुमकिन नहीं है। आँखों पर पट्टी बाँधकर निशाना लगाने के माध्यम से उन्होंने समझाया कि अगर ध्यान केंद्रित न हो तो सबसे कुशल व्यक्ति भी निशाने से चूक सकता है।
हालाँकि मन को स्थिर करना अपने सच्चे स्वरूप की पहचान करने में एक महत्त्वपूर्ण क़दम है, मगर यही एकमात्र क़दम नहीं है। भजन-सिमरन के दौरान तन की स्थिरता प्राप्त करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि मन को स्थिर करना है। हउ जीवा नाम धिआए पुस्तक में, लेखक ने संत-महात्माओं द्वारा दिए गए उदाहरण का हवाला देते हुए भजन-सिमरन के दौरान तन के स्थिर रहने के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। वे समझाते हैं कि यदि हम पानी का एक गिलास उठाकर उसे वापस मेज़ पर रख देते हैं, तो गिलास के मेज़ पर स्थिर हो जाने पर भी उसमें पड़ा पानी निरंतर हिलता रहता है। इसे ‘पानी का तरंग प्रभाव’ कहा जाता है। इसी तरह, भजन-सिमरन के दौरान थोड़ी-सी भी हरकत मन में तरंगें पैदा करती है, जिससे प्राप्त हुई एकाग्रता भंग हो जाती है। हालाँकि, एकाग्र होकर सिमरन करने और स्थिर रहने से, हमें यह एहसास होता है कि तन को स्थिर करने से मन को शांत करने में मदद मिलती है और मन को शांत करने से तन को स्थिर करने में मदद मिलती है। जब तन और मन दोनों स्थिर हो जाते हैं, तब हम ध्यानपूर्वक किए गए भजन-सिमरन द्वारा प्राप्त होनेवाली शांति का आनंद लेते हैं।
चूँकि भजन-सिमरन एक ऐसी गतिविधि है जिसमें हमारा मन और तन दोनों शामिल होते हैं, इसलिए हमें एक आरामदायक मुद्रा अपनाने के लिए कहा जाता है। जैसा कि हउ जीवा नाम धिआए पुस्तक में बताया गया है, “अभ्यास के आसन द्वारा शरीर और मन के तालमेल की पूरी समझ आती है।” मन को शांत करने के लिए तन को स्थिर करना आवश्यक है। हालाँकि हम ऐसे किसी भी आरामदायक आसन को अपनाने के लिए स्वतंत्र है जिसमें पीठ एकदम सीधी हो ताकि एकाग्रता में मदद मिले और जिसे बार-बार बदलना न पड़े। झुकने से न केवल पीठ पर दबाव पड़ता है बल्कि इससे मन भी सचेत नहीं रहता। उदाहरण के लिए जब हम सुस्ती या उदासी महसूस करते हैं तब हम झुककर बैठते हैं। सीधे बैठने से ऐसी भावनाओं से उबरा जा सकता है और हम स्वयं पर तरस खाने जैसी भावना से बच जाते हैं। पीठ सीधी करके बैठने से एकाग्रता बढ़ती है जिससे भजन-सिमरन फलदायक और आनंदायक होने लगता है।
स्थिर होना परमात्मा के साक्षात्कार के लिए शुरुआत है। शुरू में ऐसा प्रतीत हो सकता है कि हम इसे आसानी से कर सकते हैं। हालाँकि हमें जल्दी ही पता चल जाता है कि स्थिर होने के लिए अभ्यास ज़रूरी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब से हम पैदा हुए हैं तब से हमारा मन और तन हरकत में ही रहा है। हम ऐसी सभ्यता में पले-बढ़े हैं जहाँ हमें भीड़ और शोर-शराबे के साथ सहज होना तथा अकेलेपन और एकांत में असहजता महसूस करना सिखाया गया है। विशेष अवसरों पर ही हमें कुछ क्षणों के लिए चुप बैठने का समय मिलता है, हम सोचने के इतने आदी हो चुके हैं कि हमें लगता है कि हमें कुछ न कुछ करते रहना चाहिए या हम सांसारिक और गैर-ज़रूरी मसलों पर विचार करने से ख़ुद को रोक नहीं पाते। 17वीं शताब्दी के फ्रांसीसी गणितज्ञ ब्लेज़ पास्कल के शब्दों में “मानवता की सारी मुश्किलों का कारण एक कमरे में अकेले चुपचाप बैठ सकने में असमर्थ होना है।”
हमारा मन बेआरामी में बहुत तेज़ी से प्रतिक्रिया करता है, जिससे बेचैनी होती है। मन और तन दोनों नियंत्रण में रहना पसंद नहीं करते हैं, लेकिन धैर्य और निरंतर अभ्यास ज़रूरी है, जिससे समय के साथ ये वश में आ जाते हैं। जब ऐसा होता है तब हम अमर-अविनाशी शक्ति ‘शब्द’ के साथ जुड़ जाते हैं—जो ब्रह्मांड और उससे भी परे की सृष्टि का संचालन करती है। शब्द से जुड़ने पर हमारे कर्मों का नाश हो जाता है और हमारी सुरत ऊँचे मंडलों की चढ़ाई करती है। स्वामी जी महाराज और सभी पूर्ण महात्माओं का यही आश्वासन है।