विनम्रता से बोलनेवाला सेवादार
हमारे सत्संग-घर में सेवा करनेवाला एक जत्था एक सुहावनी धूप भरी सुबह पौधों की छँटाई, निराई-गुड़ाई और अन्य कार्यों को आनंदपूर्वक कर रहा था। तभी अचानक आए तूफ़ान के कारण सभी सेवादार बगीचे में लगे टेंट में जाने के लिए विवश हो गए। मौसम के साफ़ होने के इंतज़ार में, किसी सेवादार ने पूछा, “सेवा का उद्देश्य क्या है? अगर हमारे पास उचित उपकरण होते तो बारिश हमारे कार्य में बाधा न बनती, और हम आधे समय में अपनी सेवा को पूरा कर लेते।” कुछ पलों तक यह सवाल निरुत्तर रहा। आख़िरकार एक सेवादार ने विनम्रता से उत्तर दिया, “सेवा का उद्देश्य सिर्फ़ दिए गए कार्य को पूरा करना नहीं, बल्कि इसका उद्देश्य ख़ुद में बदलाव लाना है। एक साथ मिल-जुलकर सेवा करने से हमारा अहंकार समाप्त होता है और हमें शब्द की कमाई में मदद मिलती है। कोई भी आधुनिक उपकरण इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकता।”
हर किसी ने मुड़कर यह देखना चाहा कि कौन बोल रहा है, सेवादार अपनी बात जारी रखते हुए शांत भाव से बोला, “संगत की सेवा का अवसर हमें भ्रातृभाव का एहसास दिलाता है। मिल-जुलकर सद्भावना से सेवा करने से हम यह जान पाते हैं कि सतगुरु रूपी पिता की संतान होने के नाते हम सब एक ही रूहानी परिवार के सदस्य हैं। इस बारे में सचेत होने पर हम एक-दूसरे के साथ सम्मान, दया और धैर्य से पेश आते हैं, जिससे हम सतगुरु के और ज़्यादा नज़दीक हो जाते हैं।”
उस सेवा जत्थे में से एक सेवादार असमंजस भरे स्वर में बोला, “यह तो बहुत अच्छा है कि सेवा करते हुए आपको ऐसा महसूस होता है, लेकिन अगर सच कहूँ तो कभी-कभी सेवा करते हुए मुझे बड़ी निराशा महसूस होती है। दिलो-जान से कुछ करने के बाद, यदि मुझे उसी सेवा को दोबारा करने के लिए कह दिया जाए या मेरे द्वारा किए गए काम को कोई दूसरा बदल दे, तो मेरा मन बहुत दु:खी हो जाता है।” सभी उस मृदु भाषी सेवादार की और देखने लग गए कि उसका उत्तर क्या होगा?
“हम सेवा अपने सतगुरु की ख़ुशी के लिए करते हैं, इसलिए जब भी मुझे कुछ दोबारा करने को कहा जाता है, तब इसे उनकी सेवा का एक और अवसर मानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है।”
दूर कोने से किसी की आवाज़ आई: “मुझे लगता है कि अलग-अलग दृष्टिकोण ही हमारी अधिकांश समस्याओं का कारण हैं। यदि हमारी राय ज़्यादातर लोगों से अलग हो, तो हम इसे कैसे स्वीकार करें?”
उस विनम्र सेवादार ने एक व्यावहारिक सुझाव दिया: “सतगुरु चाहते हैं कि हम मित्रतापूर्ण माहौल में सेवा करें। इस साधारण से सिद्धांत को ध्यान में रखकर हम उन फ़ैसलों को आसानी से स्वीकार कर सकते हैं जिनसे हम व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं होते।”
कुछ पल सोच-विचार करने के बाद, एक अन्य सेवादार ने पूछा: “घर पर की जानेवाली सेवा के बारे में आपका क्या विचार है?” फिर से उत्तर के इंतज़ार में सभी की निगाहें उसी सेवादार पर थीं। “हममें से कुछ लोग सिर्फ़ सत्संग-घरों में किए जानेवाले कार्य को ही सेवा मानते हैं। परंतु सेवा विशेष स्थान या समय तक सीमित नहीं है। यह कहीं भी, किसी भी समय की जा सकती है। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम क्या करते हैं, बल्कि फ़र्क़ उस भावना से पड़ता है जिसके साथ हम सेवा करते हैं। मुझे हुज़ूर महाराज जी के वचन याद आते हैं कि हर वह कार्य ‘सेवा’ बन सकता है, यदि वह निष्काम भाव से सतगुरु को समर्पित करके किया जाए। इसमें परिवार की देखभाल करना भी शामिल है। निष्काम कर्म से अभिप्राय है कोई अपेक्षा रखे बिना प्रियजनों की सेवा करना। हो सकता है कि कुछ मामलों में यह आसान न हो, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि हम निष्काम भाव से कर्म करने के लिए अपनी तरफ़ से निरंतर प्रयास ही न करें।”
सेवादार ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा: “बाहरी सेवा द्वारा संपूर्ण समर्पण की भावना पैदा नहीं हो सकती, न ही यह आंतरिक सेवा से प्राप्त होनेवाला वह आनंद प्रदान कर सकती है जिसकी हमें तलाश है। इसके लिए हमें अपना भजन-सिमरन करना पड़ेगा। जब हम अपने सतगुरु की ख़ुशी प्राप्त करने के लिए संगत की सेवा करते हैं, तब यह हमें निर्मल करती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तन की सेवा चुनौतीपूर्ण है, पर मन की सेवा उससे भी कहीं कठिन है।”
एक अन्य सेवादार ने पूछा: “तन की सेवा और मन की सेवा से आपका क्या अभिप्राय है? क्या आप कह रहे हैं कि ऑफ़िस के सेवादारों की सेवा हमारी सेवा से अधिक कठिन है—क्योंकि मैं इस बात से बिलकुल भी सहमत नहीं!”
“नहीं, आप मुझे गलत समझ रहे हैं,” उस सेवादार ने उत्तर दिया। “जब हम शरीर द्वारा अपने सतगुरु और उसकी संगत की सेवा करते हैं तब वह तन की सेवा कहलाती है। किसी नवयुवक का आटे के भारी बोरे उठाना, बुज़ुर्ग सेवादार का—जो बमुश्किल चल फिर सकता हो—कचरा उठानेवाले बोरों को समेटना या दफ़्तर में किसी का काम करना, तन की सेवा है। ये सभी अपनी क्षमताओं के अनुसार सेवा करके अपना तन सतगुरु को समर्पित कर रहे होते हैं। तन के ज़रिए सेवा करने से अहंभाव मिटता है, इसीलिए हम सब यहाँ हैं और अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास कर रहे हैं।”
विनम्रता से बोलने वाले सेवादार ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा: “पाँच विकारों—काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार—को नियंत्रण में करने का प्रयास मन की सेवा है। यह तन की सेवा से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इसमें हमें अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और परिस्थिति के प्रति अपनी तत्काल प्रतिक्रिया को क़ाबू में रखना पड़ता है। सेवा जत्थों में हमें विशेष तौर पर अपने अहंकार और क्रोध को क़ाबू में रखने के लिए सजग रहना पड़ता है। यदि हमें किसी निरीक्षणकर्ता के रूप में सेवा करनी पड़े, तो हमें इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि हम अपने आप को दूसरों से बेहतर साबित करने की कोशिश न करें। फीडबैक देते समय, हमें इस तरह से बातचीत करनी चाहिए जिससे सेवादार हतोत्साहित या निराश महसूस न करे। इसी प्रकार, फीडबैक लेते समय, हमें यत्न करना चाहिए कि हमारा अहंकार न बढ़े। यदि किसी विशेष परिस्थिति में हम ख़ुद को आवेश में आने से रोक भी लेते हैं, तब भी हमारी भावनाओं और विवेक के बीच कशमकश चलती रहती है। इन दोनों के बीच तालमेल बिठाना सरल कार्य नहीं हैं। मन के निर्लेप होने पर ही हम तर्क-वितर्क से बच सकते हैं।”
किसी ने मज़ाक करते हुए कहा: “क्या इसीलिए आप कम बोलते हैं?” उनकी तरफ़ मुड़कर सेवादार ने मधुर मुस्कान के साथ उत्तर दिया: “हर बार जब हम अपने सतगुरु की ख़ुशी प्राप्त करने की आशा से ख़ुद को आवेश में आने से रोकते हैं, तब हम संतमत के अनुसार जीवन जी रहे होते हैं। संतमत कोई सैद्धांतिक विचारधारा नहीं, बल्कि जीवन जीने का ढंग है। इसीलिए सिमरन सतगुरु से प्राप्त सबसे अनमोल उपहार है। इसकी शक्ति का अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता; यह हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरियों को हमारी सबसे बड़ी ताक़तों में बदल देती है।
एक युवा सेवादार ने पूछा, “मैं अपने माता-पिता को लेकर चिंतित हूँ। वे सत्संग-घर में सेवा करने में इतना अधिक समय बिताते हैं कि जब भजन-सिमरन करने की बारी आती है, तब वे कह देते हैं कि वे इतना थक गए हैं कि अब उनसे भजन-सिमरन नहीं होगा। लेकिन क्या भजन-सिमरन सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा नहीं है?”
जब सभी ने अपने-अपने विचार व्यक्त कर लिए, तब विनम्रता से बोलनेवाले सेवादार ने कहा, “व्यक्तिगत रूप से, हम सभी सतगुरु के साथ निजी रिश्ता क़ायम करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। हमारा उद्देश्य सबके साथ मिल-जुलकर सेवा करना और उस सौहार्दपूर्ण वातावरण का लाभ उठाना है, जैसा कि आपके माता-पिता बनाते हैं। ऐसे सुखद वातावरण द्वारा आंतरिक सौहार्द्र विकसित होता है, और सत्संग-घरों में ऐसे सद्भवानापूर्ण वातावरण को बनाए रखना हम सबकी साँझा ज़िम्मेदारी है। आख़िरकार शिष्यों के व्यवहार से ही लोगों के मन में सतगुरु के बारे में पहली छवि बनती है। इसलिए, अपने सत्संग-घरों में मित्रतापूर्ण, ख़ुशी से भरा और शांत वातावरण बनाए रखने में योगदान देकर हम निश्चय ही अपने सतगुरु की सकारात्मक छवि प्रस्तुत करते हैं।”
“हालाँकि, तुम ठीक कह रहे हो,” मृदु भाषी सेवादार ने उस नवयुवक से कहा। “भजन-सिमरन ही सर्वोत्तम सेवा है, अन्य कोई भी सेवा इसकी जगह नहीं ले सकती। अन्य सभी प्रकार की सेवा का उद्देश्य सिर्फ़ मन को संसार से बेलाग करने मे मदद देना है ताकि भजन-सिमरन के समय हमारा ध्यान एकाग्र हो सके। हमारे लिए सतगुरु परमात्मा के प्रेम का ज़रिया हैं और हम उनके प्रति अपने प्रेम को अलग-अलग सेवाओं के ज़रिए प्रकट कर सकते हैं।”
उसी समय, सूरज निकल आया और सेवा जत्थे के सभी सेवादार फिर से अपनी-अपनी सेवा में जुट गए। उस समय के बाद से, हमने उस विनम्रता से बोलनेवाले सेवादार से कुछ ख़ास नहीं सुना है। लेकिन बरसात वाले दिन की वे ज्ञान-भरी बातें और बगीचे में लगे टेंट के उस अद्भुत वातावरण की याद अब भी हमारे मन में ताज़ा है, जहाँ हम सब अपने सतगुरु के प्रेम में मगन होकर एक हो गए थे।