अनुशासन
अनुशासन में ख़ास तरह के आचरण संबंधी नियमों पर दृढ़ रहने के लिए अक़सर समर्पण और आत्म-नियंत्रण की आवश्यकता होती है ताकि विशेष लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। संतमत पर चलने वाले परमार्थ के जिज्ञासु नामदान के समय चार शर्तों को पूरा करने की प्रतिज्ञा लेते हैं।
तीन बुनियादी शर्तें
पहली शर्त शाकाहारी भोजन, जिसमें दूध भी शामिल है, को अपनाना है। मांस, मछली, अंडे और जिलेटिन जैसे पशु उत्पादों से परहेज़ करना है। शाकाहार अपनाना धर्म के बुनियादी सिद्धांत का पालन करना है जो सभी प्राणियों के जीवन की क़द्र करने पर बल देता है। उदाहरण के लिए, बाइबल के न्यू टेस्टामेंट के मूल आदेश में दृढ़तापूर्वक कहा गया है कि “तुम हत्या नहीं करोगे।” इसी तरह, हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म अहिंसा को नैतिक जीवन की आधारशिला मानते हैं। सभी प्रमुख धर्म दूसरों को दु:ख और पीड़ा पहुँचाने के विरुद्ध हैं। फिर हमारी दया-भावना केवल मनुष्यों तक ही क्यों सीमित हो, जबकि वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जानवर संवेदनशील प्राणी हैं और वे भी पीड़ा महसूस करते हैं? हमें उनका जीवन लेने का क्या अधिकार है?
शाकाहारी आहार अपनाने के लिए अनुशासन और सचेत होने की आवश्यकता है। हमें अपने भोजन की सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे भोजन में पशुओं से लिए गए कोई भी तत्त्व शामिल न हो; उदाहरण के लिए, हमें यह जाँचना पड़ सकता है कि पनीर शाकाहारी रेनेट से बने हैं या केक अंडे रहित हैं। इससे हम अपने लिए चुने हुए आहार के प्रभाव के बारे में बहुत अधिक सचेत हो जाते हैं। इस तरह, हमारा आहार हमारे लिए पाबंदी न होकर, उद्देश्यपूर्ण जीवन का जश्न बन जाता है।
दूसरी शर्त तंबाकू और सभी नशीले पदार्थों से परहेज़ करना है, यहाँ तक कि मारिह्वाना से भी—चाहे वह चिकित्सा के उद्देश्य से ही क्यों न हो। भजन-सिमरन का उद्देश्य मन को एकाग्र करना है और ऐसे पदार्थों का सेवन, जिनसे हमारा मन भटक जाए, हमारे इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधा बन जाता है। इसके अतिरिक्त, सभी नशीले-पदार्थों—चाहे वे मन को भटकाने वाले हों या न हों—की वजह से लत लगने का जोख़िम रहता है। जिसकी शुरुआत मज़ा लेने से हुई हो, जल्दी ही हमें उसकी लत लग सकती है। जब कोई व्यक्ति सिगरेट, शराब, मारिह्वाना, केटामाइन, एल. एस. डी., क्षणिक आनंद देनेवाले पदार्थों इत्यादि की तलब को पूरा करने में उलझ जाता है, तब धीरे-धीरे उसकी यह लत उसे ग़ुलाम बना लेती हैं। इससे केवल आत्म-नियंत्रण ही समाप्त नहीं होता, बल्कि स्पष्ट सोच-विचार करने की क्षमता भी गंभीर रूप से प्रभावित होती है। नशीले पदार्थों से मुक्त जीवनशैली को अपनाने की दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर, हम अपने मन की एकाग्रता को बढ़ाते हैं जो हमारी रूहानी उन्नति के लिए आवश्यक है।
शिष्य के लिए मन और ऐंद्रिय वासनाओं की पूर्ति में लिप्त रहते हुए परमात्मा की भक्ति करना मुमकिन नहीं। जब हम मन के कहे चलते हैं, तब हम अनुशासनहीन हो जाते हैं। तीसरी शर्त अपने सांसारिक कर्त्तव्यों को पूरा करते हुए निर्मल, नैतिक जीवन व्यतीत करना है। इसमें आजीविका कमाने, रिश्ते-नातों और हर प्रकार के लेन-देन में ईमानदार रहना शामिल है। हम अपने हर कर्म और हर स्वाँस के लिए उत्तरदायी हैं।
परमार्थी पत्र, भाग 1, में बाबा जैमल सिंह जी ईमानदारी और नैतिक जीवन जीने, केवल हक़-हलाल की कमाई पर गुज़ारा करने और दूसरों का शोषण न करने की अहमियत पर बल देते हैं। आप फ़रमाते हैं कि परमात्मा ने हर किसी को वह सब प्रदान किया है जिसकी उसे आवश्यकता है। धोखाधड़ी से धन या पदवी प्राप्त करने से नकारात्मक कर्म बनते हैं, जिनका परिणाम भुगतने के लिए जीव जन्म और मृत्यु के चक्र से बँध जाता है। आपका उपदेश इस बात पर प्रकाश डालता है कि नैतिक जीवन परमात्मा के हुक्म के अनुसार है और आत्मा की मुक्ति के लिए बहुत अहम है। बेईमानी से कमाए गए धन का हिसाब भजन-सिमरन द्वारा नहीं चुकाया जा सकता; हमें अपने कर्मों का ऋण इसी स्थूल जगत में चुकाना पड़ता है। आप फ़रमाते हैं:
अपनी हक़ की कमाई के सिवाय कभी किसी का नहीं खाना चाहिए। यह परमार्थ की पहली सीढ़ी है। चाहे सारी दुनिया का राजा हो, तब भी मनुष्य को अपने हक़ की, अपने हाथों कमाई करके खानी चाहिए।
परमार्थ के हर जिज्ञासु को नामदान लेने से पहले कम से कम एक वर्ष तक पहली तीन शर्तों का और नामदान की प्राप्ति के बाद चौथी: रोज़ाना ढाई घंटे भजन-सिमरन करने की शर्त का पालन करना चाहिए। सीकर्स गाइड में इन तीन शर्तों की अहमियत पर बल दिया गया है, जो ज़ुबान से किए गए वायदों से कहीं अधिक गूढ़ आंतरिक प्रतिज्ञाएँ हैं:
नामदान के समय ली गई चार प्रतिज्ञाएँ, आपके द्वारा ली जाने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिज्ञाएँ हैं। ये आंतरिक प्रतिज्ञाएँ हैं न कि मौखिक या बाहरी वायदे।
चौथी शर्त: भजन-सिमरन करना
भजन-सिमरन का उद्देश्य शब्द भाव अपने अंदर धुनात्मिक धारा से जुड़ना या उसके प्रति जागरूक होना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, परमार्थ के जिज्ञासु को दो तरह का अभ्यास सिखाया जाता है: सिमरन और भजन। सिमरन में पाँच पवित्र नामों का जाप करना शामिल है, जिसका वर्णन मैसेज डिवाइन पुस्तक की लेखिका श्रीमति शांति सेठी इन शब्दों में करती हैं, “अपने इष्ट का पूर्ण एकाग्रता से ध्यान करना और फिर उसी में अभेद हो जाना।” सिमरन साधक को भजन के लिए तैयार करता है, शब्द-धुन को सुनने के क़ाबिल बनाता है।
शब्द-धुन को सुनने के लिए बाहर फैले हुए अपने ध्यान को अंदर की ओर पलटकर तीसरे तिल पर एकाग्र करना पड़ता है। मगर, एक ही अभ्यास पर पूर्ण एकाग्रता बनाए रखना सबसे मुश्किल चुनौतियों में से एक है। क्या आपको विश्वास नहीं है? एकाग्रता के लिए एक परीक्षण करें: अगले कुछ मिनट ध्यान को भटकाए बिना इस लेख को पढ़ने में बिताएँ। क्या आप अपने फ़ोन से मिले अलर्ट या अन्य आवाज़ों को अनसुना कर सकते हैं? क्या आप अपने उन आदेशों और कार्यों के बारे में सोचना बंद कर सकते हैं, जिन्हें आपको पूरा करना है?
हम सभी एकाग्रता के इस इम्तिहान में विफल हो जाएँगे क्योंकि सदियों से हमारा ध्यान हमारी इंद्रियों, ख़ास तौर पर मुँह, आँखों और कानों के ज़रिए बाहर फैला हुआ है। बोलने से हम सांसारिक कार्यों में उलझते हैं जबकि हमारी आँखें और कान निरंतर बाहरी छवियों और विवरणों को ग्रहण करके मन पर अंकित करते हैं। यही कारण है कि संत-महात्मा सिमरन पर बल देते हैं: यह हमारे ध्यान को बाहरी जगत से आंतरिक जगत की ओर मोड़ देता है। जैसे ही हम ध्यान को अंदर एकाग्र करने का प्रयास करते हैं, तब भी सांसारिक घटनाओं और अनुभवों की यादें मानस पटल पर उभर आती हैं, और हमें जल्द ही एहसास होता है कि परिवार, दोस्तों, उम्मीदों और आकांक्षाओं के प्रभाव असल में हमारे दिमाग में अमिट रूप से अंकित हैं। चूँकि बारम्बार उभरने वाले ये प्रभाव हमारी एकाग्रता में बाधा डालते हैं, इसलिए उन्हें समाप्त करना हमारा पहला क़दम है।
भजन-सिमरन के दौरान एकाग्रता प्राप्त करने की क्षमता विकसित करने का एक तरीक़ा सांसारिक कार्यों को एकाग्रचित्त होकर करना है। जितना अधिक हम एक ही कार्य को (बिना ध्यान भटकाए) एकाग्रता के साथ करते हैं, उतना ही हम अपने रूहानी सफ़र में आगे बढ़ते हैं। चाहे कोई कार्य करना हो, संगीत सुनना हो या अन्य गतिविधि में शामिल होना हो, एक समय में एक ही कार्य को करने से ध्यान एकाग्र करने की हमारी क्षमता काफी बढ़ जाती है। एक ही कार्य में अपनी सारी ऊर्जा लगाकर, हम अपने मन को एकाग्रता की आदत डालने का प्रयास करते हैं और वर्तमान के साथ हमारा गहरा नाता जुड़ जाता है।
हर कार्य को पूरी तल्लीनता के साथ करने से, हमें एकाग्रता की आदत पड़ जाती है, जिससे हमारी दैनिक दिनचर्या द्वारा हमें अप्रत्यक्ष रूप से रूहानी उन्नति में मदद मिल सकती है। हालाँकि, जैसे हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी संत संवाद, भाग 2 में फ़रमाते हैं, केवल सिमरन ही मन की सोचने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को बदलने का सामर्थ्य रखता है:
आप अपने आप को सौ-फ़ीसदी सिमरन में रखें, क्योंकि मन को एक ही वक़्त में बहुत कुछ सोचने की आदत है। हम सिमरन करते-करते भी बहुत-सी दूसरी चीज़ों के बारे में सोचने लगते हैं, जिसका मतलब है कि मन सौ-फ़ीसदी सिमरन में नहीं है। सौ-फ़ीसदी से मेरा मतलब है कि सिमरन करते वक़्त हमारा पूरा ध्यान उसी में होना चाहिये, किसी और चीज़ में नहीं। सिमरन के अलावा दुनिया की किसी और चीज़ में ध्यान नहीं जाना चाहिये।
जब किसी कार्य को करने के लिए विशेष ध्यान की ज़रूरत नहीं होती, उस समय सिमरन करते रहने से रूहानी उन्नति में मदद मिलती है। स्वाँस लेने की स्वाभाविक क्रिया की तरह सिमरन का अभ्यास हमारा स्वभाव बन जाना चाहिए। मगर निरंतर सिमरन करते रहना इतना भी आसान नहीं है; इसके लिए मन की चंचलता के साथ निरंतर संघर्ष करना पड़ता है और हर घंटे, हर मिनट और हर स्वाँस के साथ गुरु की याद बनाए रखने के लिए दृढ़ प्रतिबद्धता ज़रूरी है।
सतगुरु की दया-मेहर के बिना, अपने दिन का केवल दस प्रतिशत समय भजन-सिमरन के लिए समर्पित करना हमारी आत्मा द्वारा इस स्थूल जगत में अरबों वर्षों में जमा किए गए कर्मों के विशाल ढेर को ख़त्म करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। मनुष्य-जन्म का यह अनमोल उपहार हमें केवल परमात्मा की दया-मेहर से प्राप्त हुआ है; हमने इसके लायक़ बनने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया है। इन चार शर्तों का पालन करना परमात्मा के प्रति आभार व्यक्त करने का सबसे उत्तम ढंग है।
हर बार जब हम भजन-सिमरन करते हैं, तब हमें अपने सतगुरु के साथ गहरा नाता जोड़ने का अमूल्य अवसर प्राप्त होता है। जितना हो सके उतना समय अंदर उनके साथ बिताकर यह दर्शाएँ कि हम उनसे कितना अधिक प्यार करते हैं, क्योंकि वह तो सदा ही हमसे प्यार करते हैं। संत संवाद, भाग 3 में, हुज़ूर महाराज चरन सिंह जी बड़े प्रभावपूर्ण ढंग से फ़रमाते हैं:
सतगुरु के साथ हमारा रिश्ता प्रेम और भक्ति का, भजन-सिमरन का है। यह कोई दुनियावी रिश्ता नहीं है, यह केवल रूहानी रिश्ता है। हमारे अंदर सतगुरु के लिये जितना प्यार और भक्ति होती है, हम अपने आप को उतना ही उनके क़रीब पाते हैं। सतगुरु तो हमेशा हमारे अंग-संग होते हैं, लेकिन हम सतगुरु से दूर हैं। हमारे अंदर सतगुरु के लिये जितना ज़्यादा प्रेम और श्रद्धा भाव आता जाता है, हम अपने आप को उतना ही उनके क़रीब महसूस करते हैं और हमें उतना ज़्यादा लगने लगता है कि वह हमारा है और हम उसके हैं।