मृत्यु को गले लगाना
जीवन की इस छोटी-सी यात्रा में, मृत्यु वह अटल सच्चाई है जिसका सामना हम सब करते हैं। यह बिना किसी चेतावनी के आती है और कोई भी इससे बच नहीं सकता। यह युवा या बूढ़े, अमीर या गरीब, बलवान या निर्बल के बीच भेदभाव नहीं करती। धन या पदवी हमें इसके वार से नहीं बचा सकते। यहाँ तक कि महान सम्राट सिकंदर, जो प्राचीन इतिहास में सबसे विशाल साम्राज्य बनाने के लिए प्रसिद्ध था, वह भी अपनी मृत्यु को एक क्षण के लिए भी नहीं रोक पाया।
किंवदंती है कि जब सम्राट सिकंदर अपनी मातृभूमि वापस लौट रहा था, तब उसने यह जानने के लिए कि उसकी मृत्यु किन परिस्थितियों में होगी, ज्योतिषियों से चर्चा की। ज्योतिष गणना द्वारा ज्ञात हुआ कि उसकी मृत्यु निकट ही है। मगर सच्चाई बताने और अपने बचाव की कशमकश में फँसे ज्योतिषियों ने बड़ी कुशलता से उत्तर दिया: “ऐ महान सम्राट, जब तक धरती लोहे में और आकाश सोने में परिवर्तित नहीं हो जाता, आपकी मृत्यु नहीं होगी।”
इस गूढ़ संदेश पर सोच-विचार कर, सिकंदर अपने जीवन के प्रति आश्वस्त हो गया। उसके मन में विचार आया कि ऐसा चमत्कार होने में तो युग लगेंगे; शायद मेरी तक़दीर में सदा के लिए जीना लिखा हो। इस सुखद विचार के साथ, उसने पश्चिम दिशा में फ़ारस की तरफ़ चढ़ाई शुरू कर दी। परंतु जैसे ही सिकंदर मकरान रेगिस्तान में पहुँचा, उसे मलेरिया हो गया। उसने अपने वज़ीर से कहा, “मुझे यहीं रुकना पड़ेगा।”
वज़ीर ने अर्ज़ की, “हुज़ूर, बस कुछ और मील का सफ़र तय कर लें; शायद हमें कोई पेड़ मिल जाए जिसकी छाया में आप आराम कर सकें।” इसलिए, सिकंदर और उसकी सेना विशाल रोगिस्तान में आगे बढ़ती गई, लेकिन सिकंदर की तबीयत तेजी से बिगड़ती गई। अपने सफ़र को जारी रख पाने में असमर्थ सिकंदर घोड़े से नीचे उतर आया और साँस लेने के लिए हाँफते हुए तपती ज़मीन पर गिर गया।
सम्राट के आराम के लिए, वज़ीर ने जल्दी से अपना लोहे का कवच उतारा और उसे रेत पर बिछा दिया ताकि सम्राट विश्राम कर सके और अपनी ढाल सिकंदर के चेहरे के ऊपर कर दी ताकि उसे सूरज की तपिश से बचाया जा सके। जैसे ही वह ज़मीन पर लेटा, सिकंदर का ध्यान उस ढाल की ओर गया जिसमें सोने की बहुत-सी धारियाँ थीं और उसे ज्योतिषियों द्वारा की गई भविष्यवाणी की सच्चाई का एहसास हुआ: उसके नीचे की धरती लोहे की थी, आकाश सोने का था।
जल्दी ही, शाही हक़ीम वहाँ पहुँच गए और उन्होंने सम्राट की स्थिति का जायज़ा लिया। उन्होंने कहा, “बादशाह सलामत, हम आपको धोखे में नहीं रखेंगे; आप मृत्यु की क़गार पर हैं।”
“क्या बचने का कोई उपाय नहीं है?” सिकंदर ने निराशा-भरी आवाज़ में पूछा और कहा, “मैं अपने साम्राज्य का आधा हिस्सा उस व्यक्ति को दे दूँगा जो मुझे सिर्फ़ इतनी मोहलत दे सके कि मैं अपनी माँ को आखिरी बार देख पाऊँ।”
फ़र्ज़ की वजह से सच बोलने के लिए मजबूर हक़ीमों ने उत्तर दिया, “नहीं, हुज़ूर, बुखार बहुत बिगड़ गया है। अब कोई भी दवा आपको नहीं बचा सकती।” अपने वज़ीर की ओर मुड़ते हुए, सिकंदर ने आदेश दिया, “ऐ वफ़ादार मित्र, ऐलान कर दो कि मैं अपना जीता हुआ सारा साम्राज्य उसे देने के लिए तैयार हूँ जो मुझे मेरी माँ के पास जीवित पहुँचा सके। यदि ज़रूरत पड़ी तो मैं भिक्षा पर गुज़ारा कर लूँगा।”
हक़ीमों ने अंतिम बार गंभीरता से कहा, “बादशाह सलामत, आपके पास बहुत कम स्वाँस बचे हैं और अब कोई भी आपको मृत्यु से नहीं बचा सकता।” इस पर, सम्राट बच्चे की तरह फूट-फूटकर रोने लगा और उसे जीवन की नश्वरता का एहसास हुआ।
मृत्यु का भय
अपनी माँ को आख़िरी बार देखने की सिकंदर महान की इच्छा से जीवन में उसके फ़ैसलों और प्राथमिकताओं के बारे में सवाल उठता है। अपना साम्राज्य छोड़ने और साधारण जीवन जीने की उसकी इच्छा से पता चलता है कि अगर वह अपने जीवन के अंतिम क्षणों से पहले अपनी मृत्यु के बारे में सचेत होता, तो शायद उसने साम्राज्य का विस्तार करने की बजाय घर लौटने को प्राथमिकता दी होती। मगर, इस बात को लेकर आश्वस्त होते हुए कि उसके पास पर्याप्त समय है, सिकंदर ने अपने साम्राज्य का विस्तार करना जारी रखा जब तक बहुत देर नहीं हो गई।
सिकंदर महान की तरह, हममें से ज़्यादातर लोग अपनी मृत्यु को अनदेखा करते हैं। हर एक गुज़रता दिन, सप्ताह, महीना और साल हमारे लिए चेतावनी होना चाहिए कि हम मृत्यु के और क़रीब जा रहे हैं। इसके बजाय, हम जन्मदिन मनाते हैं, बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि हर बीतता साल हमें हमारी मृत्यु के क़रीब ले जाता है। मृत्यु को अनदेखा करने का कारण बड़ा साधारण है; हम इससे डरते हैं। हमें इसके बारे में कुछ भी नहीं पता कि मृत्यु के समय जब हमारी आत्मा (और मन) इस स्थूल शरीर को छोड़ देती है तब इसका क्या होता है। हम मृत्यु के रहस्य को रहस्य ही रहने देते हैं।
तर्क यह कहता है कि यदि हम असल में मृत्यु के आने से पहले मरने का अनुभव कर लें, तो हमें पता चल जाएगा कि मृत्यु के बाद क्या होगा और इस तरह हम अपने डर पर क़ाबू पा लेंगे। जीते-जी मरने अर्थात् असल में शारीरिक तौर पर अनुभव करने कि जब हम मरते हैं, तब क्या होता है, का यह विचार पूरी तरह से बेतुका न लगने पर भी असाधारण-सा लगता है। फिर भी पूर्ण संत-महात्मा सृष्टि के आरंभ से ही आध्यात्म के सच्चे जिज्ञासुओं को जीते-जी मरने की युक्ति सिखाते आए हैं। स्वयं शब्द की पहचान कर चुके संत-महात्मा, जो स्थूल जगत और रूहानी जगत में आसानी से आते-जाते हैं, हमें समझाते हैं कि:
मृत्यु से डरना नहीं चाहिए। यह केवल आत्मा के शरीर को छोड़ने और उसके सूक्ष्म मण्डलों में प्रवेश करने की प्रक्रिया है। यह केवल वर्तमान चोले अर्थात् शरीर को छोड़ना है। इसका मतलब विनाश नहीं है। मृत्यु के बाद जीवन है, हालाँकि हम इसे देखने में सक्षम नहीं हैं।
फ़िलासॉफी ऑफ़ द मास्टर्ज़, वॉल्यूम I हुज़ूर बड़े महाराज जी के इन शब्दों द्वारा हमें थोड़ा-बहुत विश्वास हो जाता है कि जब तक हम अपने सतगुरु द्वारा समझाई गई युक्ति के अनुसार भजन-सिमरन का अभ्यास करके स्वयं जीते-जी मरने की कला में निपुण नहीं हो जाते तब तक हम कभी भी अपनी मृत्यु के डर से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाएँगे। संत-महात्माओं द्वारा सिखाई गई इस युक्ति द्वारा, हम अपने डर पर विजय पा लेते हैं और मृत्यु को शांति से स्वीकार कर पाते हैं।
जीते-जी मरना
नामदान के समय, सतगुरु हमें पाँच पवित्र नाम बख़्शते हैं। इन पवित्र नामों के सिमरन द्वारा साधक अपनी फैली हुई सुरत की धाराओं को आँखों के मध्य केंद्रित करने के क़ाबिल बन जाता है। सुरत की फैली हुई धाराओं को तीसरे तिल पर एकाग्र करने पर, आत्मा शब्द-धुन से जुड़ जाती है और ऊँचे रूहानी मण्डलों की ओर चढ़ाई शुरू करती है। संत-महात्मा इस प्रक्रिया को जीते-जी मरना कहते हैं क्योंकि इसके द्वारा शरीर में रहते हुए ही मृत्यु का अनुभव प्राप्त हो जाता है। जैसा कि परमार्थी परिचय पुस्तक में समझाया गया है:
जब मौत आती है तब आत्मा शरीर से सिमटना शुरू करती है; सिमटाव पैरों के तलवों से लेकर सिर की चोटी तक होता है। सारा शरीर सुन्न हो जाता है। जब आत्मा की चेतन धाराएँ भौंहों के बीच के बिंदु पर केंद्रित हो जाती हैं, तब साँस आना बंद हो जाता है और सारी शारीरिक क्रियाएँ रुक जाती हैं। उस समय आत्मा शरीर को त्याग देती है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
चाहे अपने ध्यान को तीसरे तिल पर एकाग्र करना मृत्यु के समय होनेवाले अनुभव जैसा ही है, मगर मूल रूप से इन दोनों प्रक्रियाओं में काफ़ी अंतर है। भजन-सिमरन के दौरान आत्मा और शरीर के बीच का संबंध क़ायम रहता है, जिससे आत्मा शरीर को छोड़े बिना मृत्यु का अनुभव करती है। इसके अलावा, चाहे मृत्यु अक़सर एक दु:खदायक अनुभव होता है—विशेष रूप से उन लोगों के लिए जिन्हें इसका अनुभव नहीं हैं—मगर भजन-सिमरन के दौरान होनेवाला मृत्यु का अनुभव अत्यंत आनंददायक होता है। जो साधक अपनी सुरत को तीसरे तिल पर एकाग्र करने की कला में निपुण हो चुका है, वह इस अवस्था को असल जीवन मानता है; इसके विपरीत, जब उसका ध्यान तीसरे तिल से नीचे गिर जाता है, वे ख़ुद को मृत समझता है।
जीते-जी मरने के अभ्यास के लिए अपने आप को समर्पित करके, हम मृत्यु के रहस्य को समझ जाते हैं और इसे लेकर हमारा सारा डर समाप्त हो जाता है। मौलाना रूम हमें इस अभ्यास को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं, वह समझाते हैं कि यदि हम अपनी आत्मा को शरीर की क़ैद से अलग कर लें, तो हम शांति और अनन्त जीवन के सदाबहार बाग़ में पहुँच जाएँगे। जैसा कि पुस्तक हउ जीवा नाम धिआए में मौलाना रूम फ़रमाते हैं:
कितनी ख़ुशक़िस्मती की बात हो अगर तू एक रात
रूह को जिस्म से जुदा कर दे,
और जिस्म की क़ब्र को पीछे छोड़
अंदरूनी आसमानों पर चढ़ जाए।
अगर तेरी रूह तेरे जिस्म को ख़ाली कर दे,
तो बच जाएगा तू मौत की तलवार से
और एक ऐसे बाग़ में दाख़िल हो जाएगा
जहाँ कभी पतझड़ नहीं होती।
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जो कछु किया सोई अब पावो, वही लुनौ जो बोया रे।
साहिब साँचा न्याव चुकावै, ज्यों का त्यों हीं होया रे॥
कहूँ पुकारे सब सुनि लीजो, चेति जाव नर लोया रे।
कहैं शुकदेव चरण ही दासा, यह मैदान यह गोया रे॥
सन्त चरनदास