नाम की नौका
कबीर साहिब 15वीं शताब्दी के भारतीय संत थे, जिन्होंने काव्य-रचना के माध्यम से अपना उपदेश दिया। कबीर साहिब ने कर्मकांड और मूर्ति पूजा को प्रभु-प्राप्ति का कारगर तरीका समझने की मान्यता को चुनौती दी और अमर-अविनाशी शब्द (दिव्य ध्वनि या शब्द) के अभ्यास को परमात्मा की प्राप्ति का सच्चा मार्ग बताया और इस मार्ग पर चलने के लिए पूर्ण देहधारी सतगुरु की अहमियत पर बल दिया।
कबीर साहिब की काव्य-रचना प्रभावशाली रूपकों से भरपूर है। सामान्य रूपांकनों में जीवन को समुद्र या महासागर के रूप में चित्रित करना और पूर्ण देहधारी सतगुरु को नाम रूपी नौका का एकमात्र कप्तान या नाविक बताना, जो रूहानी मुक्ति देने का सामर्थ्य रखता है, शामिल है। नाम की नौका का यह रूपक रूहानी यात्रा का प्रतीक है, जिसमें नाम द्वारा ही जीवन की चुनौतियों का सामना किया जा सकता है और भवसागर को पार कर परम आनंद के धाम पहुँचा जा सकता है:
त्रिसनाँ नैं लोभ लहरि, काँम क्रोध नीरा।
मद मछर कछ मछ, हरषि सोक तीरा॥
कबीर ग्रंथावली
कबीर साहिब द्वारा प्रयुक्त “विकराल महासागर” का रूपक जीवन को एक चुनौतीपूर्ण समुद्री यात्रा के रूप में दर्शाता है। इस महासागर में उठती हुई “तृष्णा और लोभ की लहरें” धन-संपदा और सांसारिक रिश्ते-नातों के प्रति हमारे गहरे लगाव का प्रतीक हैं। इस ठाठें मारते समुद्र में जीव अकेला और बेसहारा है, इसमें से उठनेवाली “अभिमान और क्रोध की लहरों” के कारण ऐसे तूफ़ान आते हैं जो मन की शांति को भंग कर देते हैं। ये प्रचण्ड लहरें हमारी बुद्धि पर पर्दा डाल देती हैं और हम दूसरों के साथ द्वंद्व करते हैं, जिससे जीवन में रूहानी तौर पर आगे बढ़ पाना और भी मुश्किल हो जाता है। अभिमान का तूफ़ान हमारी हौंमैं को बढ़ाता है, हम अपनी सीमाओं को भूल जाते हैं और हमारे अहंकार को बढ़ावा मिलता है। इस बीच, क्रोध से उत्पन्न आँधी दु:ख और नुकसान पहुँचाती है, जिसका प्रभाव हम पर और हमारे आसपास के लोगों पर पड़ता है। महासागर की लहरों और तूफ़ानी मौसम की वजह से पैदा हुए ख़तरों के साथ-साथ, समुद्र की सतह के नीचे “मद मछर कछ मछ” भाव अंहकार और ईर्ष्या के मगरमच्छ घात लगाए बैठे हैं। ये हमारे कार्यों पर अहंकार के हावी हो जाने और ईर्ष्या के कारण संतोष के समाप्त हो जाने के छिपे हुए ख़तरों के सूचक हैं।
कबीर साहिब द्वारा प्रस्तुत विकराल महासागर में, यदि कोई पास से गुज़रता हुआ जहाज़ हम पर तरस खाकर हमें किनारे तक ले जाए तो? क्या हम वहाँ सुरक्षित होंगे? ऊपर दिए गए पद्य की अंतिम दो पंक्तियाँ इस बात की पुष्टि नहीं करती। महासागर के सदैव बदलते किनारों भाव सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख का आना इस सृष्टि की द्वैत को दर्शाता है। कबीर साहिब ने अपने एक अन्य शब्द में सुख और दु:ख के इस निरंतर चक्र का विस्तृत वर्णन किया है:
इक डूबे अरु रहे उबारा, ते जगि जरे न राखणहारा॥
राखन की कछु जुगति न कीन्हीं, …
जिनि चीन्हाँ ते निरमल अंगा, जे अचीन्ह ते भये पतंगा॥
संत कबीर
“उबारा” शब्द का अर्थ है लंगर डालना या बाँधना, यह पद दर्शाता है कि मनुष्य केवल अस्थायी तौर पर दु:खों का अनुभव नहीं कर रहे हैं, बल्कि स्थायी रूप से “दु:ख और पीड़ा के किनारे” से बँधे हुए हैं। जीव की इस दु:खद स्थिति को “ते जगि जरे” के रूपक द्वारा और अधिक गहराई से प्रस्तुत किया गया है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि लोग इच्छाओं और तृष्णाओं की अग्नि में जलते रहते हैं और इस तरह दु:खों और अज्ञानता के निरंतर चलनेवाले चक्र में फँसे रहते हैं। इन इच्छाओं के कारण जीव कभी न समाप्त होने वाली चाहतों को पूरा करने में लगे रहते हैं, उनके लिए वास्तव में क्या लाभदायक या हानिकारक है, उनका इस ओर कभी ध्यान ही नहीं जाता। इच्छाओं-तृष्णाओं की यह अग्नि उन्हें व्यथित और बेचैन रखती है, जिस कारण उन्हें कभी भी संतोष प्राप्त नहीं होता।
कबीर साहिब द्वारा प्रयोग किया “भये पतंगा” का रूपक इस बात को और स्पष्ट करता है। आप समझाते हैं कि ज्योति की ओर आकर्षित होनेवाले पतंगों की तरह जीव इच्छाओं और तृष्णाओं की धधकती ज्वाला की तरफ़ खिंचे चले जाते हैं। शुरू में आकर्षक लगने वाली ये तृष्णाएँ उन्हें तबाही की ओर ले जाती हैं, ठीक उसी तरह जैसे ज्योति की लपटें पतंगों को भस्म कर देती है। परिणामस्वरूप, मनुष्य मायामय संसार के भ्रमों और बंधनों के कारण जन्म और पुनर्जन्म के अंतहीन चक्र में फँसे रहते हैं।
कड़वे सच को बयान करती ये पंक्तियाँ “न राखणहारा” और “राखन की कछु जुगति न कीन्हीं” जीव की दु:खदायक स्थिति को प्रकट करती हैं। “न राखणहारा” इस बात की ओर संकेत करता है कि स्नेह करने वाले परिवार और अच्छे दोस्तों के होने के बावजूद, आख़िरकार हमें अपने दु:खों को अकेले ही सहन करना पड़ता है। “राखन की कछु जुगति न कीन्हीं” द्वारा इस बात पर बल दिया गया है कि जब तक हम ‘कुशल नाविक’ भाव पूर्ण सतगुरु द्वारा बताए मार्ग पर नहीं चलते, तब तक अपने दु:खों, कष्टों और मायामय संसार में बंदी बने रहने का कारण हम स्वयं हैं।
अपने कई काव्य-रूपों में, कबीर साहिब नौक़ा या जहाज़ के रूपक द्वारा समझाते हैं कि किस प्रकार परमात्मा का नाम आत्माओं की मुक्ति का साधन है। “भेरा” (या जहाज़) नाम के रूहानी अभ्यास का प्रतीक है, जो जीव को जीवन की निराशाओं और चुनौतियों में आश्रय प्रदान करता है, लेकिन इससे भी बढ़कर यह हमें दृश्यमान संसार रूपी विकराल भवसागर से पार ले जाता है। नाम रूपी नौक़ा का वर्णन करते हुए कबीर साहिब फ़रमाते हैं:
राँम गुसाँई मिहर जु कीन्हाँ, भेरा साजि संत कौं दीन्हाँ॥
दुख खँडण मही मंडणाँ, भगति मुकुति बिश्राँम।
बिधि करि भेरा साजिया, धरया राँम का नाम॥
जिनि यह भेरा दिढ़ करि गहिया, गये पार तिन्हौं सुख लहिया॥
संत कबीर
कबीर साहिब इस बात पर बल देते हैं कि नाम (दिव्य नाम) का रूहानी मार्ग परमात्मा की दया-मेहर द्वारा बनाया गया है। यह रूपक इस बात को प्रस्तुत करता है कि मुक्ति की प्राप्ति का मार्ग परमात्मा द्वारा प्रशस्त है। जहाज़ का परमात्मा द्वारा निर्मित होना इसकी विश्वसनीयता को दर्शाता है और इस बात को विशेष तौर पर प्रस्तुत करता है कि इस दिव्य नाम द्वारा ही असल रूहानी मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। नाम को एक प्रबल शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है जो हमारे दु:खों को दूर कर देता है और हमारे जीवन का आधार है। दु:खों से मुक्त देनेवाली शक्ति के रूप में इसके वर्णन से यह ज्ञात होता है कि केवल दिव्य नाम का सिमरन ही हमारे दु:खों का नाश करके हमें शांति प्रदान कर सकता है। यह प्रेम और भक्ति का स्रोत है, जो जीव सच्चे हृदय से परमात्मा के नाम की कमाई करता है, यह उसे सच्ची शांति और आनंद प्रदान करता है।
इस दृश्यमान भवसागर को अकेले पार करना हमारे बस की बात नहीं; इसे पार करने के लिए पूर्ण देहधारी सतगुरु का व्यावहारिक मार्गदर्शन आवश्यक है जो मनुष्य की कठिन परिस्थितियों से वाक़िफ़ हो और जो जीवन रूपी इस विकराल भवसागर में हमारा मार्गदर्शन करने में निपुण हो। पूर्ण संतों को परमात्मा द्वारा जीवों के मार्गदर्शन के लिए भेजा जाता है। वे नाविक की भाँति इस भवसागर को पार करने के लिए भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं और आत्मिक ज्ञान की प्राप्ति में उनकी मदद करते हैं। कबीर साहिब की वाणी में आता है कि केवल पूर्ण सतगुरु के पास ही कुशल नाविक की भाँति शिष्यों को रूहानियत रूपी दूसरे छोर पर सुरक्षित पहुँचाने का सामर्थ्य होता है। इस प्रकार के सुरक्षित मार्गदर्शन के बिना, विकराल भवसागर की लहरों में डूब जाने का ख़तरा बना रहता है, हम इस भवसागर की गर्त में गिर जाते हैं और अपनी इंसानियत को ही भुला देते हैं।
शब्द के अंत में कबीर साहिब इस बात पर बल देते हैं कि जब साधक के जीवन में सतगुरु के प्रति प्रेम और भक्ति से बढ़कर कुछ नहीं होता है, तभी सच्ची आत्मिक मुक्ति प्राप्त होती है। वह जीवों को शब्द से जुड़ने और अपने असल स्वरूप की पहचान करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह अमर-अविनाशी संदेश जीवन में विश्वास, प्रेम और परमात्मा के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता की प्रेरणा देता है, इसी भाव को लगभग पाँच सौ साल बाद महाराज चरन सिंह जी द्वारा स्प्रिचुअल डिस्कोर्सेज़, वाल्यूम I में दोहराया गया है:
केवल उन सतगुरुओं के मिलाप द्वारा, जो स्वयं नाम की भक्ति में लीन हैं, और उनके दिखाए मार्ग पर चलकर ही, हम इस दृश्यमान जगत रूपी भवसागर को पार कर सकते हैं, और उस पर्दे को हटा सकते हैं जिसने हक़ीक़त को छुपा रखा है और ऐसा करने पर ही हम उस रुकावट को दूर कर सकते हैं जिसकी वजह से हम परमात्मा को नहीं देख पाते; और हमें अपने असल स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, और हम अपना कायाकल्प करके परमात्मा में समाकर उसका ही रूप बन सकते हैं।